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ख़बरों के आगे-पीछे: शब्दों पर ही नहीं धरने-उपवास पर भी रोक और भारत जोड़ो यात्रा बनाम स्नेह यात्रा

ज़िंदगी की भागदौड़ में बहुत ख़बरें हमसे छूट जाती हैं, जिनका केवल राजनीतिक ही नहीं सामाजिक और हमारे जीवन से भी गहरा संबंध होता है। बहुत सी ख़बरों के कई संदर्भ और निहितार्थ होते हैं। वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन सप्ताहांत में इन्हीं ख़बरों का संकलन कर आपके सामने पेश करते हैं।
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एक डरी हुई सरकार का फ़ैसला!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के लिए लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनाव है, जो उनकी पार्टी किसी तरह जीत ही लेती है। जहां नहीं जीत पाती है, वहां भी जोड़-तोड़ और खरीद-फरोख्त के जरिए सरकार बना लेती है। लोकतंत्र में विपक्ष की मौजूदगी या उसकी असहमति उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं। उनके लिए संसद और विधानसभाओं का उपयोग भी सिर्फ मनमाने कानूनों पर उसकी मंजूरी की मुहर लगाने भर तक ही है। इसीलिए उन्होंने पहले कोरोना महामारी की आड़ में संसद सत्र को छोटा करते हुए उसमें प्रश्नकाल खत्म किया। फिर मनमाने तरीके से विधेयक पारित करना शुरू किए और अब संसद परिसर में धरना और प्रदर्शन को भी प्रतिबंधित कर दिया। यही नहीं, हिंदी या अंग्रेजी शब्दकोश के जितने भी शब्द सरकार की नाकामी को रेखांकित करने या उसे जिम्मेदार ठहराने के लिए इस्तेमाल होते हैं, लगभग उन सभी शब्दों को असंसदीय करार दे दिया गया है। इसलिए सवाल है कि विपक्ष अब किन शब्दों में सरकार के गलत कामों का विरोध करेगा या अपनी असहमति दर्ज कराएगा? अगर सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने हैं तो विपक्ष कैसे लगाएगा क्योंकि 'भ्रष्ट’ शब्द ही असंसदीय हो गया है? पेगासस या किसी भी तरीके से जासूसी के आरोप विपक्ष कैसे लगाएगा, जब 'स्नूपगेट’ शब्द असंसदीय हो गया है? विपक्ष के नेता प्रधानमंत्री को 'जुमलाजीवी’ नहीं कह पाएंगे क्योंकि यह शब्द भी अब असंसदीय हो गया है। सरकार को विफल बताने के लिए भी विपक्ष को नए शब्द खोजने होंगे क्योकि 'अक्षम’ शब्द को असंसदीय करार दे दिया गया है। संसद की 2021 की असंसदीय शब्दो की जो डायरी प्रकाशित हुई है उसमें 'तानाशाह’ और 'तानाशाही’ दोनों शब्दों को असंसदीय बना दिया गया है। विपक्षी पार्टियां अब सरकार को बहरी सरकार और निकम्मी सरकार भी नहीं कह पाएंगी, क्योकि 'बहरी सरकार’ और 'निकम्मा’ दोनों शब्द अब असंसदीय है। इसके अलावा 'ढिंढोरा पीटना’, 'दोहरा चरित्र’, 'नौटंकी’ 'प्रताड़ना’, 'धोखा’, 'ड्रामा’, 'पाखंड’ 'हिप्पोक्रेसी’ आदि शब्द भी अससंदीय हो गए हैं। इतना सब होने के बाद भी प्रधानमंत्री मौके-बेमौके आपातकाल को याद करते हुए खुद को लोकतंत्र का मसीहा बताने से नहीं चूकेंगे। फिलहाल तो देश यह सब देखने के लिए अभिशप्त है।

भारत जोड़ो यात्रा बनाम स्नेह यात्रा

आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर देश की दोनों बडी राजनीतिक पार्टियां- भाजपा और कांग्रेस दो बड़ी यात्राओं की तैयारी कर रही हैं। दोनों की यात्राओं के पीछे विचार और मकसद एक जैसा है। यात्रा की घोषणा कांग्रेस ने पहले की थी, लेकिन पहले शुरू होगी भाजपा की यात्रा। कांग्रेस अक्टूबर में 'भारत जोड़ो यात्रा’ करेगी और उससे पहले भाजपा शुरू करेगी 'स्नेह यात्रा’। स्नेह का मकसद भी जोड़ना ही होता है। इसका आइडिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हैदराबाद में हाल ही में हुई पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में दिया था।

प्रधानमंत्री ने पार्टी के नेताओं से कहा कि वे लोगों के बीच जाएं, उनकी बात सुने और अपनी बात उन्हें बताएं। इस महीने पार्टी के सभी सात मोर्चा संगठनों की बैठक बिहार में होने वाली है, जिसमें इस यात्रा की तैयारियों के बारे में विचार किया जाएगा। इससे पहले कांग्रेस ने उदयपुर में हुए अपने नव संकल्प शिविर में भारत जोड़ो यात्रा का ऐलान किया था। दो अक्टूबर को महात्मा गांधी की जयंती के दिन इसकी शुरुआत होगी। इसकी तैयारी पर विचार के लिए कांग्रेस ने पार्टी के प्रदेश अध्यक्षों, प्रभारियों और महासचिवों की बैठक दिल्ली में बुलाई है। हालांकि इस बैठक से ठीक पहले पार्टी के नेता राहुल गांधी विदेश यात्रा पर चले गए। वे रविवार को लौटेंगे और सोमवार को संसद के मानसून सत्र के पहले दिन राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनाव में हिस्सा लेंगे। कांग्रेस बड़े पैमाने पर तैयारी कर रही है, क्योंकि उसे पूरे देश में माहौल बनाने व मैसेज देने के लिए यात्रा करनी है। दूसरी ओर भाजपा की यात्रा जमीनी स्तर पर पार्टी के कार्यकर्ताओं को और आम मतदाताओं को जोड़ने के लिए होने वाली है। बेशक उसमें ज्यादा धूम-धड़ाका नहीं होगा लेकिन उसका असर कम नहीं होगा।

शॉर्टकट राजनीति पर मोदी का उपदेश

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में हैदराबाद में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में और फिर झारखंड यात्रा के दौरान शॉर्टकट राजनीति की चर्चा करते हुए कहा कि कुछ लोग शॉर्टकट राजनीति करते हैं, जिससे शॉर्ट सर्किट होने का खतरा है और देश बरबाद हो सकता है। उनका इशारा लोक लुभावन नीतियों की ओर था। उन्होंने कहा भी कि आज लोक लुभावन घोषणाएं करके राजनीति करने वालों को इसके खतरे का अंदाजा नहीं है। असल में इस बात का गहरा मतलब है। प्रधानमंत्री मोदी लोगों को यह समझाना चाह रहे हैं कि वे दीर्घावधि की राजनीति कर रहे हैं, जिससे अभी लोगों को परेशानी हो सकती है लेकिन आने वाला कल उनके लिए अच्छा होगा, देश के लिए स्वर्णिम होगा और भारत विश्व गुरू बनेगा।

स्पष्ट रूप से यह कह कर वे अपनी सरकार की नाकामियों पर पर्दा डालना चाहते हैं, लेकिन विपक्षी नेताओं ने उनकी शॉर्टकट राजनीति के जुमले को राजनीति से जोड़ दिया। प्रधानमंत्री ने झारखंड में जब शॉर्टकट राजनीति की आलोचना की तो झारखंड मुक्ति मोर्चा जेएमएम और कांग्रेस के नेता खुश हुए। उन्होंने इसका यह मतलब निकाला कि अब भाजपा झारखंड में जोड़-तोड़ करके सरकार नहीं बनाएगी। गौरतलब है कि भाजपा पिछला चुनाव हारी थी लेकिन हारने के बाद से ही चर्चा है कि वह जेएमएम-कांग्रेस की सरकार गिरा कर अपनी सरकार बनाएगी। इसी तरह बिहार के एक नेता ने प्रधानमंत्री के भाषण पर तंज करते हुए कहा कि 2015 के चुनाव में भाजपा हार गई थी लेकिन उसने बीच मे ही जनता दल (यू) को अपने साथ मिला कर शॉर्टकट तरीके से सरकार बना ली थी। अभी महाराष्ट्र में और उससे पहले मध्य प्रदेश, कर्नाटक, गोवा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश आदि राज्यों में भी भाजपा ने शॉर्टकट राजनीति से ही सरकार बनाई थी।

महुआ मोइत्रा चाहती हैं ममता बनना

तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा के खिलाफ कार्रवाई हो सकती है। बताया जा रहा है पहले से नाराज ममता बनर्जी अब उनसे और ज्यादा नाराज हैं। जब वे गोवा में चुनाव के वक्त प्रभारी थीं तब भी पार्टी नेताओं से उनका विवाद हुआ और ममता ने वहां उनका कद कम करके, दूसरे नेता लगाए। अब मां काली के विवाद में कूद कर महुआ ने ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस को मुश्किल में डाला है। बहुत संभव है कि अगर महुआ चुप नहीं होती हैं तो उनके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है। इसके साथ ही महुआ को दिल्ली में मीडिया और राजनीतिक सर्किल में मिलने वाली तवज्जो से परेशान कई नेता ममता और उनके करीबियों के कान भर रहे हैं। उनका कहना है कि अपने को ज्यादा फायरब्रांड दिखा कर वे ममता बनर्जी बनना चाहती हैं। हालांकि दोनों में जमीन आसमान का फर्क है। ममता ने धार्मिक प्रतीकों या फासीवाद या सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ कर अपने स्थापित नहीं किया। उनको तो वामपंथियों के खिलाफ लड़ना था, जो महुआ मोइत्रा से भी ज्यादा सेकुलर और उनके ज्यादातर नेता नास्तिक हैं। उनसे लड़ते हुए ममता ने कुछ जमीनी मुद्दे उठाए थे। जबकि महुआ मोइत्रा की सारी राजनीति बुनियादी रूप से प्रतीकात्मक और किताबी है। उनका जमीनी राजनीति से सरोकार कम ही है। फिर भी वे कई मुद्दों पर काफी साहस का परिचय दे रही हैं, जो अपने आप में सराहनीय है।

आबे के अंतिम संस्कार में भारत से कोई नहीं!

जापान के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे शिंजो आबे के अंतिम संस्कार मे दुनिया के कई देशों के नेता पहुंचे, लेकिन भारत से कोई नहीं गया। अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने टोक्यो जाकर उनके अंतिम संस्कार में हिस्सा लिया। ताइवान के उप राष्ट्रपति विलियम लाई भी अंतिम संस्कार में हिस्सा लेने पहुंचे, जिससे चीन बहुत नाराज हुआ। उसने कहा कि ताइवान उसका हिस्सा है इसलिए वहां कोई उप राष्ट्रपति नहीं है। सो, चाहे कूटनीतिक कारण हो या निजी दोस्ताना संबंध हो, दुनिया के नेताओं ने टोक्यो पहुंच कर आबे को श्रद्धांजलि दी। अंतिम संस्कार बहुत प्राइवेट था इसके बावजूद हजारों लोग उनको श्रद्धांजलि देने पहुंचे। लेकिन पता नहीं क्यों भारत ने अपना कोई हाई प्रोफाइल प्रतिनिधिमंडल नहीं भेजा, जबकि शिंजो आबे भारत के सच्चे दोस्त कहे जाते थे। उन्होंने 15 साल के अपने कार्यकाल में भारत के साथ संबंधों को नई ऊंचाई दी थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो उन्हें अपना घनिष्ठ दोस्त बताते रहे हैं। उनके निधन पर भारत के कुछ अखबारों ने मोदी के लेख भी छापे जिनमें मोदी ने शिंजो आबे के निधन को अपनी निजी क्षति बताया। ऐसे में क्या अच्छा तो यही होता कि भारत के विदेश मंत्री तिरुवनंतपुरम का राजनीतिक दौरा करने की बजाय टोक्यो जाते। विदेश सेवा के एक और वरिष्ठ अधिकारी रहे हरदीप सिंह पुरी भी केंद्र सरकार में मंत्री हैं। उन्हें भी टोक्यो भेजा जा सकता था। पता नहीं किस अज्ञात कारण से भारत ने उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल टोक्यो नहीं भेजा।

राज ठाकरे का इस्तेमाल करेगी भाजपा

महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार गिराने के बाद अब भाजपा राज ठाकरे का बड़ा इस्तेमाल सोच रही है। जिस तरह से पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ शुभेंदु अधिकारी का किया या तमिलनाडु में ओ पनीरसेल्वम का करने के बारे में सोच रही है उसी तरह से महाराष्ट्र में राज ठाकरे का इस्तेमाल है। शिव सेना के बागी नेताओं को राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना में शामिल कराने का प्रस्ताव है। इससे शिव सेना उद्धव ठाकरे के पास बची रहेगी और एकनाथ शिंदे गुट को भी एक पार्टी और एक ठाकरे मिल जाएगा। दूसरा प्रस्ताव शिंदे के जरिए शिव सेना को खत्म करा कर राज ठाकरे को उनकी जगह स्थापित करने का है। यह बहुत आसान होगा। एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे का मामला चुनाव आयोग में पहुंचेगा तो आयोग पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न जब्त कर सकता है। उसके बाद उद्धव समर्थक बचे-खुचे नेताओं में से भी ज्यादातर शिंदे या भाजपा के साथ चले जाएंगे। उसी समय राज ठाकरे भाजपा की मदद से स्थापित होंगे। इसके लिए उनके बेटे को राज्य सरकार में मंत्री बनाने की बात हो रही है। उनको आदित्य ठाकरे की काट माना जा रहा है। हालांकि वे अभी एमएलए या एमएलसी नहीं हैं लेकिन फिर भी मंत्री बनते है तो राज ठाकरे को अपनी ताकत बढ़ाने में आसानी होगी।

महा विकास अघाड़ी का क्या होगा?

महाराष्ट्र का राजनीति घटनाक्रम चरम पर पहुंचने के बाद अब सम पर आ गया है। विधायकों की अयोग्यता के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद यथास्थिति कायम रहने की संभावना है। एकनाथ शिंदे खेमे ने अभी तक चुनाव आयोग के सामने पार्टी पर दावा नहीं किया है लेकिन उद्धव ठाकरे खेमे ने कैविएट दायर कर दी है। सो, सब कुछ शांत दिख रहा है। लेकिन यह शांति बहुत टिकाऊ नहीं है। बृहन्नमुंबई नगर निगम यानी बीएमसी चुनाव से पहले कुछ न कुछ फैसला होगा। दो संभावना दिख रही है। पहली तो यह कि भाजपा की मदद से एकनाथ शिंदे गुट शिव सेना पर कब्जा करे और उद्धव खेमा पैदल होकर महा विकास अघाड़ी में एनसीपी और कांग्रेस के साथ रहे। दूसरी संभावना है कि पूरे ड्रामे का सुखद अंत हो यानी उद्धव और शिंदे खेमा एक हो जाए। सो, अभी जो दिख रहा है वह तूफान से पहले की शांति की तरह है। ऐसा लग रहा है कि एनसीपी और कांग्रेस को इस पूरे मामले में शिव सेना का कोई खेल समझ में आ रहा है। इसीलिए दोनों पार्टियों ने दूरी बनानी शुरू कर दी है। एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने उद्धव ठाकरे की आखिरी कैबिनेट बैठक में औरंगाबाद और उस्मानाबाद का नाम बदलने के फैसले पर नाराजगी जताई है। कांग्रेस के भी कई नेता इस फैसले का विरोध कर चुके हैं और इस वजह से ही कई नेताओं ने विश्वास मत पर वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया। एक तरफ एनसीपी, कांग्रेस की दूरी बढ़ रही है तो दूसरी ओर उद्धव ठाकरे ने राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू का समर्थन कर दिया है। इस बीच मंत्रिमंडल का विस्तार भी राष्ट्रपति चुनाव तक टल रहा है। यह सब नए राजनीतिक घटनाक्रम की ओर इशारा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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