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बिगाड़ के डर से ईमान की बात न करना ‘विवेक’ का विपथ होना है

देश का संविधान क्या अपने नागरिकों की इस दुर्दशा पर आपसे आँखें मूँद लेने की उम्मीद करता है या देश का संविधान अपने नागरिकों के गरिमामय जीवन की रक्षा के लिए प्रतिबद्धता को बार बार स्थापित किए जाने के लिए आपके न्यायालय का रास्ता नागरिकों को दिखाता है?
देश का संविधान
प्रतीकात्मक तस्वीर

माननीय सर्वोच्च न्यायालय से यह पूछना तो बनता है कि क्या आपका फ़ैसला इन पैदल चलते मज़दूरों को लेकर तब भी ठीक वही होता जब वो अपने हाथों में प्रतिरोध के झंडे बैनर लिए निकलते? तब भी क्या आप इन्हें नहीं रोक पाते? सारे तर्क तब भी यही होते कि ये गुस्से में हैं, खुद ही चल रहे हैं और कोई इन्हें कैसे रोक सकता है?

यहाँ ‘कोई’ जिसका इस्तेमाल आपने एक अमूर्त सत्ता के रूप में किया है उसे ऐसे ही अभयदान दिया जाता?

यह जो ‘कोई’ है जिसकी असहायता या अक्षमता और अरुचि का हवाला आपने मज़दूरों को राहत पहुंचाने की अभिलाषा से लगाई गयी याचिका को ख़ारिज करने के लिए किया है, क्या उस सूरत में भी आप इस ‘कोई’ को लेकर यही रवैया अपनाते?

क्या आपको तत्काल देश में इस वक़्त लागू आपदा कानून, महामारी कानून और कानून व्यवस्था से जुड़े तमाम सक्षम क़ानूनों की याद नहीं आती और आप इस और इस जैसे कई ‘कोई’ को तत्काल आदेश नहीं देते कि देश में किसी भी तरह से राजनैतिक प्रतिरोध नहीं होना चाहिए और इन्हें तत्काल नियंत्रित किया जाये। क्योंकि यह आदेश तब आपके ‘कोई’ को इनसे निपटने का साफ रास्ता दे रहा होता?

आपने जब ‘कोई’ शब्द का इस्तेमाल किया तो बहुत सूझ बूझ के साथ ही किया होगा। उसमें आपने सभी को शामिल कर लिया। जबकि याचिका में इसकी ज़िम्मेदारी लक्ष्य करके बताई गयी थी।

इसमें आपने खुद को भी शामिल कर लिया। आप भी इन मज़दूरों को नहीं रोक सकते क्योंकि ये घर जाना चाहते हैं और वो भी पैदल, या रेल की पटरियों के सहारे, या साइकिल से या कैसे भी। आप देश की बौद्धिक प्रतिभा के उत्कर्ष हैं लेकिन आपसे याचिका में उठाया सवाल समझने में चूक कैसे हो गयी? इसमें उन्हें रोकने की बात तो नहीं ही थी।

सवाल इन्हें सकुशल, गरिमापूर्ण ढंग से इनके घर पहुँचने का था। आज इक्कीसवीं सदी का भारत इतना तो सक्षम है कि यहाँ दुनिया का बड़ा रेल नेटवर्क है, हवाई सेवाएँ हैं, अच्छा खासा सड़क नेटवर्क है, उस पर चलने वाले वाहनों की संख्या बहुत है, जलमार्ग भी हैं।

याचिका में यही तो  मांगा गया था कि इन्हें इस तरह जोखिम लेकर, अमानवीय परिस्थितियों में क्यों घर जाना पड़ रहा है? क्यों नहीं आप सरकारों से कहें कि इन्हें ससम्मान घर पहुंचाने के इंतजाम किए जाएँ। इसका जवाब और कुछ भी हो सकता था माननीय पर यह नहीं कि इसमें कोई कुछ नहीं कर सकता और इस याचिका में दम नहीं है। क्योंकि याचिका केवल समाचार पत्रों की खबरों के आधार पर तैयार की गयी है? इस वक़्त पैदल चलते मज़दूरों का हवाला और कहाँ से प्राप्त होना था?

देश की अवाम जानती है कि आपका यह फ़ैसला इस ‘कोई’ के प्रति निष्ठा की तो तस्दीक करता है पर जिस नाते आपको माननीय और सर्वोच्च कहा जाता है उसके प्रति आपने गंभीर लापरवाही बरती है। देश का हरएक नागरिक, नागरिक होने के नाते ही आपके नाम से पहले माननीय लगाने की रवायत का पालन करता है।

और यह इसलिए कि जब सब अपने अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों से च्युत हो जाएँगे तब भी आप सबको दुरुस्त करेंगे। ऐसी भी क्या मजबूरी है हुज़ूर? आप इस देश के सबसे निर्भय संस्थान हैं। जिसकी निर्भयता के ताप से देश के तमाम वंचितों, मज़लूमों और सताये हुए लोगों को निर्भयता मिलती है। आप उनकी ताक़त का स्रोत हैं और देश में भरोसे का प्रतीक।

आपका विवेक निरपेक्ष नहीं है। आप यह अच्छी तरह से जानते हैं कि आपका कहा हर शब्द, आपका लिखा हर हर्फ़ अंतत: देश के संविधान के प्रति अक्षुण्ण आस्था और निष्ठा से बंधा हुआ है।

देश का संविधान क्या अपने नागरिकों की इस दुर्दशा पर आपसे आँखें मूँद लेने की उम्मीद करता है या देश का संविधान अपने नागरिकों के गरिमामय जीवन की रक्षा के लिए प्रतिबद्धता को बार बार स्थापित किए जाने के लिए आपके न्यायालय का रास्ता नागरिकों को दिखाता है?

आम राय है कि आपके फ़ैसलों की आलोचना नहीं हो सकती। सीमित अर्थों में और कुछ विशेष मामलों में यह बात सही भी हो पर फैसलों से उपजी निराशा व्यक्त करने के अधिकार से तो आप भी देश के नागरिकों को वंचित नहीं कर सकते। है न? 

देश के एक प्रतिष्ठित और काबिल वरिष्ठ वकील ने हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस अख़बार में देश की मौजूदा परिस्थितियों में आपकी भूमिका पर गंभीर सवाल उठाते हुए देश में न्याय-व्यवस्था के कोमा में चले जाने तक का रूपक लिया। इसी लेख में उन्होंने देश की संसद को लापता तक कहा।

हाल ही में लिए गए आपके तमाम निर्णय इस तरफ इशारा कर रहे हैं कि देश की न्याय व्यवस्था वाकई कोमा में चली गयी है और ऐसे लोग फ़ैसले लिख रहे हैं जिनके विवेक ने संविधान के प्रति अनिवार्य बद्धत्ता छोड़ दी है और यह विवेक किसी और के प्रति ज़्यादा झुक गया है। आपके फैसलों में जो ‘कोई’ आता है, यही आपके विवेक का मास्टर होने की कोशिश कर रहा है। इसे दुरुस्त करने की ज़रूरत है।

माननीय देश का आम नागरिक आपके प्रति आस्थावान रहना चाहता है क्योंकि आपके फ़ैसले अभी भी सभी के लिए बाध्यकारी हैं। आपको ख्याल रखना है कि यह बाध्यता भी कहीं सवालों में न आ जाये। आपने इस लॉकडाउन में जो महत्वपूर्ण मामले देखे या जो महत्वपूर्ण मामले नहीं देखे इनसे आपके विवेक के विचलन पर लोगों को गंभीर हताशा है।

मानव सभ्यता के विकास में बीसवीं सदी को आलोचना की सदी कहा जाता है। इन सौ सालों में मनुष्य ने जो नागरिक समाज बनाया था उसकी एक तंत्र के तौर पर आलोचना का अधिकार भी उस नागरिक- मनुष्य को दिया है। एक व्यक्ति के तौर पर किसी की आलोचना के साथ साथ, संस्थान की आलोचना की जा सकती है, ऐसा बीती सदी में स्थापित हो चुका था।

हम अभी इक्कीसवीं सदी में हैं जिसमें आलोचना को ज़्यादा मुखर होना था क्योंकि उसे अभिव्यक्त करने के लिए तमाम एडवांस तरीके भी हमें हासिल हुए हैं ताकि हमारा समाज और राष्ट्र एक तर्कसरणी के मुताबिक किसी भी व्यक्ति की आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक हैसियत से निरपेक्ष उसके नागरिकत्व को ही सर्वोच प्राथमिकता दे।

इक्कीसवीं सदी को सूचना की सदी भी कहते हैं। सूचनाएँ ही हैं जो देश के तमाम संस्थानों में पारदर्शिता लाती हैं, उन्हें जवाबदेह बनाती हैं। इन्हीं सूचनाओं को आपने संज्ञान में लेने लायक तवज्जो नहीं दी। लोग आश्चर्य तो कर ही कर रहे हैं लेकिन सूचनाओं के कुछ महीन तन्तु इस आश्चर्य को सहज भी बना रहे हैं।

चूंकि जस्टिस रंजन गोगोई अब न्यायाधीश नहीं हैं और महज़ एक सांसद हैं तो उनके बारे में नागरिकों को बिना डरे लेकिन अमर्यादित हुए बगैर कुछ कहने की जगह बन गयी है। लोग कह रहे हैं कि उन्हें डर है कि कहीं पूरी न्यायव्यवस्था उन्हीं के पदचिन्हों पर चलने की अश्लील कोशिश तो नहीं करने लगी?

देश के वो नागरिक जो पेशे से मज़दूर हैं, उनके बारे में आपका रवैया सभी ने देख लिया। और इसे अपनी स्मृतियों में भी दर्ज़ कर लिया कि जब देश की सरकारों ने उन्हें नागरिक मानने से इंकार कर दिया था और अपने नागरिकों के प्रति संविधान बद्ध दायित्वों से मुकर गईं थीं और जब केवल आपकी तरफ उम्मीद से देखा गया था तब आपने सरकारों की तुलना में और भी निकृष्ट कार्य किया था। इतिहास की गठरियों में कहीं यह वाकया भी हमेशा हमेशा के लिए दर्ज़ हो चुका है।

जो लोग कोरोना के सामुदायिक संक्रमण को लेकर चिंतित होकर आपके पास गए कि शराब की दुकानें खोलने से ख़तरे बढ़ेंगे तब आपने और भी निष्ठुर भूमिका निभाई और याचिकाकार्ताओं पर जुर्माना ठोक दिये।

इन याचिकाओं को ख़ारिज करते हुए आपने यह भी कहा कि ऐसी याचिकाएं प्रचार के लिए दायर की जातीं हैं। वाकई?

फिर तो आपको सरकार से भी यह कहना चाहिए कि अब कोरोना के संक्रमण की रोकथाम के लिए जो भी सतर्कता बरतने वाले इश्तिहार या जागरूकता संबंधी प्रचार किए हैं उन्हें तत्काल बंद करें और इस आशय का भी एक इश्तिहार दें कि अब तक जो कहा गया वह कपोल कल्पित था और देश के नागरिक इसे किसी तरह से न तो गंभीरता से लें न अपने तईं कोई पहल करें।

हाल ही में लिए गए इन फैसलों ने नागरिक बोध को गंभीर चोट पहुंचाई है। दिल्ली में हुए सांप्रदायिक हमले, सीएए और एनआरसी, कश्मीर लॉक डाउन और इस जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दे आपकी नज़रों के इनायत होने की राह देख रहे हैं। हालांकि संविधान, कानून, सांवैधानिक संस्थाओं और संसदीय लोकतन्त्र में आस्था रखने वाले सजग नागरिक इन मुद्दों पर भी आपके संभावित रवैये को समझते हैं। और यही आपकी विफलता भी है जो आपने अपने विवेक के विचलन से अर्जित की है।

आप क्यों नहीं एक बार देश के ख्यातिलब्ध साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद की 114 साल पहले लिखी एक कहानी पाँच परमेश्वर पढ़ लेते जिसमें एक युगांतरकारी बात उस कहानी में नमूदार हुई थी कि –‘बिगाड़ के डर से ईमान की बात न करोगे? आप जब कहानी पढ़ेंगे तो पाएंगे कि यह अल्फ़ाज़ न्याय मांगने आयी एक वृद्ध महिला ने कहे थे। जिसने उसे सताया था वो उसका भतीजा था और जिससे न्याय मांग रही थी वो उसके भतीजे का बाल सखा। गाँव का किस्सा है और पंचायत लगाकर खाला के साथ न्याय होना था। हिंदुस्तान में यह कहानी कभी अप्रासंगिक नहीं होती तो इसलिए क्योंकि वादी और मुंसिफ़ के बीच न्याय का रिश्ता और भरोसा बचा रहना चाहिए । इस कहानी का हवाला दिया ताकि सनद रहे।

(लेखक सत्यम श्रीवास्तव पिछले 15 सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर काम कर रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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