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आंदोलन की ताकतें व वाम-लोकतांत्रिक शक्तियां ही भाजपा-विरोधी मोर्चेबन्दी को विश्वसनीय विकल्प बना सकती है, जाति-गठजोड़ नहीं

पिछले 3 चुनावों का अनुभव गवाह है कि महज जातियों के जोड़ गणित से भाजपा का बाल भी बांका नहीं हुआ, इतिहास साक्षी है कि जोड़-तोड़ से सरकार बदल भी जाय तो जनता के जीवन में तो कोई बड़ी तब्दीली नहीं ही आती, संकट का फायदा उठाकर फासिस्ट ताकतें फिर सत्ता में और भी ख़तरनाक ढंग से वापस करती हैं।
UP

उत्तर प्रदेश में चुनावी हलचल समय से पहले जितनी तेज हो गयी है, वह दिखा रही है कि इस चुनाव में सारे stake-holders के लिए दांव कितना बड़ा है।

मोदी के लगातार दौरे हो रहे हैं, एक सप्ताह में पूर्वांचल के दो केंद्रों-कुशीनगर और वाराणसी- में वे चुनावी लोकार्पण, रैलियाँ कर चुके हैं। अमित शाह ने 29 अक्टूबर को लखनऊ पहुंचकर भाजपा का मिशन 22 लांच कर दिया। अरविन्द केजरीवाल मंत्रिमण्डल समेत अयोध्या दर्शन कर रहे हैं। ममता बनर्जी वाराणसी पहुंचने वाली हैं। बैरिस्टर ओवैसी लगातार कार्यक्रम कर रहे हैं। पंजाब और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों और नवजोत सिद्धू का भी किसान आंदोलन के बहाने दौरा हुआ। नेताओं के पाला बदल की रफ्तार तेज होती जा रही है। प्रदेश के तमाम दलों के प्रमुखों/प्रभारियों की पदयात्राओं, रथयात्राओं, रैलियों का सिलसिला शुरू हो चुका है। आर्यन प्रकरण, कश्मीर और क्रिकेट भारत-पाक मैच जैसे हॉट टॉपिक्स के temporary diversions के बावजूद ( और कई diversions दरअसल UP चुनाव के लिए ही हैं ) मीडिया फोकस भी UP की ओर शिफ्ट होता जा रहा है।

तमाम दलों के वादों और जुमलों के पिटारे खुलने लगे हैं, कुछ शायद अंतिम दौर के dramatic इफ़ेक्ट के लिए सुरक्षित हों !

कांग्रेस ने अपने वायदों की विश्वसनीयता पर जोर देने के लिए उन्हें प्रतिज्ञा नाम दिया है।

वैसे तो मोदी जी ने कुशीनगर में एयरपोर्ट के बहाने फिर विकास की अब बेसुरी हो चुकी धुन बजायी, तो वाराणसी में मेडिकल कालेजों के ( जो दरअसल अभी निर्माणाधीन हैं ) उद्घाटन के नाम पर अपनी महान स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए पीठ ठोंकी। यह उस राज्य में जिसने गंगा में बहती लाशें और ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ते अभागों को देखा है, चुनाव में जनाक्रोश और विपक्ष के प्रहार से बचने के लिए पेशबंदी है। पर जाहिर है, लाखों लोगों के काल के गाल में समाने के बाद जनता अब इस बेमौसम बरसात से बिल्कुल impress नहीं है, संख्या की दृष्टि से भी उनकी रैली की तुलना अब प्रियंका की रैली से होने लगी है। UP को योगी ने माफिया-अपराधियों से मुक्त सुरक्षित प्रदेश बना दिया है, प्रधानमंत्री का यह दावा और इसके लिए बार बार योगी की पीठ थपथपाना भी जनता को जले पर नमक छिड़कने जैसा लग रहा है, जिसने 5 साल पुलिस-राज और दबंगों के अत्याचार को झेला है।

बहरहाल, मोदी जी के ये टोटके अब काम नहीं कर रहे हैं, इसे योगी से बेहतर कौन समझ सकता है, जो UP की रणभूमि में भाजपा के सेनापति हैं। इसीलिये यह अनायास नहीं है कि योगी जी अब अपने उन्मादी विभाजनकारी एजेंडा पर पूरी तरह लौट गए हैं, जिसे वे 5 साल से खाद-पानी दे रहे थे। बौखलाहट में एक दिन उन्होंने चंद घण्टों में ताबड़तोड़ 5 ट्वीट हिन्दू-मुस्लिम एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए कर डाले। यहाँ तक कि वेलफेयर पार्टी जैसे अनजान दल के अध्यक्ष के अखिलेश यादव से मिलने पर उन्होंने मुख्य विपक्षी दल के मुखिया पर किसी गहरी साजिश का आरोप मढ़ दिया क्योंकि संयोगवश वेलफेयर पार्टी के सदर के बेटे JNU के शोधछात्र उमर खालिद हैं जिन्हें दिल्ली दंगों के फ़र्ज़ी आरोप में सरकार ने जेल में डाल रखा है और जिन्हें कन्हैया कुमार के साथ टुकड़े-टुकड़े गैंग बताकर आरोपित किया गया था लेकिन 5 साल बाद भी सरकार चार्जशीट दाखिल नहीं कर सकी है, मजेदार यह है कि टुकड़े टुकड़े गैंग के बारे में एक RTI से पता लगा कि स्वयं अमित शाह के गृह-मंत्रालय को उसके अस्तित्व बारे में कोई जानकारी नही है !

डूबते को जैसे तिनके का सहारा, अब पूरे प्रदेश में क्रिकेट मैच को लेकर गिरफ्तारियां हो रही हैं, संघ-भाजपा के कार्यकर्ता "देशद्रोहियों" को चिन्हित करने और पुलिस उन्हें पकड़ने निकल पड़ी है। स्वयं योगी जी ने बयान देकर इसका ऐलान किया, जैसे भारत पाकिस्तान के बीच खेल का मैच न होकर कोई जंग लड़ी गयी हो। इसी दौरान कोशिश हुई कि महंगाई पर उबलते गुस्से को भी इसी में निपटा दिया जाय, भक्तों के माध्यम से message वायरल किया गया कि " पाक की जीत जश्न मनाने वाले देशद्रोहियों से निपटने के लिए हम 1000 रुपये लीटर तेल खरीदने को भी तैयार हैं !"

बहरहाल, ध्रुवीकरण और उन्माद पैदा करने की लाख कोशिशों के बावजूद इस सब को लेकर समाज में कहीं कोई जुम्बिश नहीं है, शायद अब ये नुस्खे पुराने पड़ चुके हैं और लोग इस खेल को बखूबी समझ चुके हैं।

अकल्पनीय महंगाई, बेकारी से बेहाल जनता की जिंदगी के सवाल अब कृत्रिम भावनात्मक सवालों पर भारी पड़ रहे हैं।

अब यह साफ हो गया है कि मोदी-शाह-योगी की तिकड़ी UP में अपराजेय नहीं है। प्रदेश की जनता अब इस सरकार को बदलना चाहती है। लेकिन यह भी तय है कि संघ-भाजपा UP को बचाने के लिए कुछ भी उठा नहीं रखेंगे क्योंकि UP खोने का मतलब है 2024 में दिल्ली से विदाई। शातिर चालों, षडयंत्रों, ध्रुवीकरण, धनबल-बाहुबल, और राज्यमशीनरी के दुरुपयोग द्वारा जनता की बदलाव की आकांक्षा को पलट देने की हर मुमकिन कोशिश वे करेंगे। मुफ्त अनाज जैसी अपनी लोक-लुभावन योजनाओं से गरीबों के बीच व्यामोह पैदा करने में पहले से लगे हैं। जाहिर है, लड़ाई बेहद तीखी और आर-पार की होने जा रही है। भाजपा विरोधी ताकतों के लिए complacency की कोई जगह नहीं है।

सच्चाई यह है कि, दुनिया की सबसे बड़ी चुनावी मशीन बन चुकी संघ-भाजपा,उसके पीछे खड़ी कारपोरेट-मीडिया और राज्य की संस्थाओं की ताकत और तिकड़मों का मुकाबला विपक्ष तभी कर पायेगा जब चुनाव भाजपा के विरुद्ध आंदोलन में तब्दील हो जाय।

बेशक अखिलेश यादव के साथ ओम प्रकाश राजभर की मऊ रैली की सफलता गरीब-हाशिये के तबकों में भाजपा के खिलाफ बढ़ते रुझान की अभिव्यक्ति है और भाजपा-विरोधी मोर्चे से उनका जुड़ना सकारात्मक है पर उससे अतिउत्साहित लोगों का यह सोचना कि यह game-changer है और बस अब भाजपा का खेल खत्म हो गया, खामख्याली है।

महज जातियों के जोड़-गणित के आधार पर, भाजपा की ही तर्ज़ पर सोशल इंजिनियरिंग के बल पर उसे हराने की उम्मीद मुंगेरी लाल के हसीन सपने जैसी है क्योंकि विचार-मूल्य विहीन जातीय क्षत्रपों और अवसरवादी महत्वाकांक्षी नेताओं को अंतिम क्षण तक manage और manipulate करने की, चुनाव के पहले ही नहीं, उसके बाद भी, मोदी-शाह की क्षमता का कोई सानी नहीं है। अवसरवादी नेताओं का गठजोड़ जनता के अंदर न किसी बेहतर विकल्प की कोई नयी उम्मीद जगाता है, न नई आशा का संचार करता है।

पिछले 3 चुनावों का अनुभव गवाह है कि महज जातियों के जोड़ गणित से भाजपा का बाल भी बांका नहीं हुआ, इतिहास साक्षी है कि जोड़-तोड़ से सरकार बदल भी जाय तो जनता के जीवन में तो कोई बड़ी तब्दीली नहीं ही आती, संकट का फायदा उठाकर फासिस्ट ताकतें फिर सत्ता में और भी खतरनाक ढंग से वापस करती हैं।

उत्तर प्रदेश पतन, यथास्थिति और जड़ता के जिस दुष्चक्र में फँसा हुआ है, जरूरत इस बात की है कि फासिस्ट ताकतें न सिर्फ सत्ता से बेदखल हों, बल्कि वे सामाजिक स्थितियां भी बदलें जिनसे इन्हें खाद पानी मिलती है, फासिस्ट गोलबंदी की जमीन कमजोर हो, समाज में लोकतांत्रिक ताकतें मजबूत हों तथा प्रदेश पुनर्जीवन के नए रास्ते पर बढ़े।

पूरा देश और प्रदेश मोदी-योगी राज में जिस तरह खुली जेल में तब्दील कर दिया गया, नागरिकों की सारी लोकतान्त्रिक स्वतन्त्रताओं पर अघोषित पहरा लगा दिया गया, अनगिनत लोगों को जेल में डाला गया, आंदोलनकारियों को अकथनीय यातनाएं दी गईं, इसमें आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि

लोकतन्त्र की बहाली कैसे उत्तर प्रदेश के इस निर्णायक चुनाव में प्रमुख राजनैतिक मुद्दा बने। लोकतान्त्रिक राजनैतिक सुधार, काले कानूनों का खात्मा, पुलिस सुधार, जेल में बंद बेगुनाहों की रिहाई, फ़र्ज़ी फँसाने वाले अधिकारियों को दंड, मॉब लिंचिंग, दंगाई ताकतों पर रोक, दलितों-आदिवासियों, महिलाओं के बर्बर उत्पीड़न पर लगाम के लिये प्रभावी उपाय जैसे प्रश्न आज प्रदेश के चुनाव का प्रमुख मुद्दा बनना चाहिए।

ठीक इसी तरह देश बेचने वाली और आम जनता के लिए तबाही का सबब बनी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को पलटने, नौजवानों के लिए रोजगार की सम्वैधानिक गारंटी का सवाल भी बेहद ज्वलंत है, जिसके बिना प्रदेश और देश के किसी आर्थिक पुनरुद्धार और पुनर्जीवन की उम्मीद नहीं की जा सकती।

मोदी-योगी राज की तानाशाही और कारपोरेटपरस्त नीतियों के खिलाफ जो किसान-आंदोलन, छात्र-युवा , वामपन्थी व लोकतान्त्रिक ताकतें, लेफ्ट-लिबरल नागरिक समाज लगातार लड़ता रहा, उसके जुल्म और आतंक-राज को चुनौती देता रहा और उसके हमले का हर वार झेलता रहा, चुनाव-अभियान में इन सबकी उत्साहपूर्ण भागेदारी ही चुनाव को जनान्दोलन में तब्दील कर सकती है, जिसके बिना भाजपा के विराट चुनावी-तंत्र को शिकस्त देना नामुमकिन है।

इसके लिए आज जरूरी है कि भाजपा विरोधी राजनीतिक मोर्चेबन्दी में लोकतन्त्र की बहाली और आर्थिक पुनर्जीवन के लिए वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध लड़ाकू व विश्वसनीय ताकतों की भूमिका और भागेदारी सुनिश्चित हो।

पड़ोसी राज्य बिहार का, जिसका समाज और राजनीति हमसे मिलती-जुलती है, चुनावी अनुभव इस दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। वहां आंदोलन की ताकतों, वामपन्थी दलों के साथ मोर्चेबन्दी ने महागठबंधन को नई नैतिक आभा और विश्वसनीयता प्रदान की थी और भाजपा-नीतीश विरोधी चुनाव-अभियान को नई ऊर्जा और आवेग से भर दिया था। राजनीतिक विश्लेषकों में इस पर करीब करीब आम राय है कि गठबंधन में वामपंथ को अधिक सीटें मिली होतीं तो आज वहां भाजपा-नीतीश की सरकार न होती। भाकपा माले ने highest strike rate के साथ महज 19 सीटों पर लड़कर 12 सीटें जीत ली थीं, कम्युनिस्ट पार्टियों ने कुल 16 सीटें जीती थीं।

बेशक, उत्तर प्रदेश और बिहार एक नहीं हैं, दोनों की अपनी विशिष्टताएँ है, पर पड़ोसी राज्य के अनुभव में यहां के लिए भी जरूरी सबक मौजूद हैं।

देश के सबसे बड़े राज्य में सचमुच नया बदलाव आए, इतिहास के सबसे दमनकारी, पतनशील राज का अंत हो, लोकतांत्रिक सुधारों और आर्थिक प्रगति का एक नया दौर शुरू हो, सांस्कृतिक नवोन्मेष हो, और यह राष्ट्रीय स्तर पर बड़े बदलाव का आगाज़ करे, इसके लिए जरूरी है कि आन्दोलन की ताकतों, हाशिये की आवाज़ों, वाम-लोकतान्त्रिक शक्तियों का भाजपा विरोधी राजनैतिक गोलबंदी में अहम स्थान हो और नीतिगत स्तर पर स्पष्ट छाप हो, चुनाव के पूर्व भी और उसके बाद भी।

वे ही फासीवाद के खिलाफ लोकतन्त्र तथा कारपोरेट-विकास के खिलाफ जनपक्षीय विकास की लड़ाई की सबसे सुसंगत योद्धा हैं।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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