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क्या आधी सदी बाद 12 जून को इतिहास फिर करवट लेगा ?

क्या इतिहास अपने आप को दुहरायेगा? 12 जून 2023 को उसी पटना में, जो उस तूफानी दौर का भी epicentre था, होने जा रही बैठक के नतीजे, अंततः मोदी-राज के अंत की पटकथा लिखेंगे ?
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तस्वीर केवल प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। साभार: ट्विटर

खबर है कि 12 जून को पटना में विपक्षी दलों की बहुप्रतीक्षित बैठक होने जा रही है जिसमें 2024 के लिए भाजपा-विरोधी महागठबन्धन की नींव पड़ेगी।

स्मरणीय है कि आधी सदी पूर्व 12 जून के ही दिन 1975 की दो घटनाओं ने एक ऐसे chain of events को जन्म दिया जिसने अंततः पहली बार देश में कांग्रेस-राज का अंत कर दिया था, महाबली इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर हो गई थीं।

दरअसल, 1975 में 12 जून को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने ' चुनाव अनियमितताओं के आधार पर ' तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का रायबरेली से चुनाव अवैध घोषित कर दिया था। न्यायिक प्रक्रिया से भले वे सत्ता में बनी रहीं, इस फैसले से प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की उनकी नैतिकता और वैधानिकता सवालों के घेरे में आ गयी थी।

उधर उसी दिन सरकार विरोधी बड़े जनान्दोलन की पृष्ठभूमि में हुए गुजरात विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस पहली बार वहां सत्ता से बाहर हो गयी थी।

12 जून की इन दोनों घटनाओं ने पहले से ही इंदिरा गांधी के खिलाफ गुजरात से बिहार होते हुए राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण करते " जे पी आंदोलन " की राजनीतिक मुहिम को जबरदस्त आवेग दिया। अभूतपूर्व संकट में घिरती इंदिरा गांधी ने इसके 2 सप्ताह के अंदर ही देश पर आपातकाल थोपकर हर तरह के विरोध की आवाज को कुचल दिया और विपक्ष के सभी नेताओं को जेल में ठूंस दिया। लेकिन अंततः 19 महीने बाद आपातकाल हटाकर उन्हें चुनाव करवाना पड़ा जिसमें वे सत्ता से बेदखल हो गईं, समूचे उत्तर भारत में कांग्रेस का पूरी तरह सफाया हो गया, उसका खाता भी नहीं खुला, इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी स्वयं अपना चुनाव हार गए !

क्या इतिहास अपने आप को दुहरायेगा ? 12 जून 2023 को उसी पटना में, जो उस तूफानी दौर का भी epicentre था, होने जा रही बैठक के नतीजे, अंततः मोदी-राज के अंत की पटकथा लिखेंगे ? ( यहां एक caveate जोड़ना जरूरी है-12 जून की पटना बैठक की प्रतीकात्मकता अगर इंदिरा गांधी के प्रसंग से जोड़कर कांग्रेस को अलग थलग करने की कूट योजना/रणनीति का हिस्सा हुई, तो इसके नतीजे आत्मघाती होंगे। )

जाहिर है 1975 के बाद की आधी सदी में गंगा जमुना में बहुत पानी बह चुका है। ऐतिहासिक राजनीतिक सन्दर्भ अलग है और समाज बदला हुआ है। लेकिन बहुत सी गहरी essential समानतायें भी हैं जो देश को वैसे ही ( Similar, not same) गतिपथ पर धकेल रही हैं- सत्ता का चरम केंद्रीकरण, व्यक्तिपूजा, कुशासन-भ्रष्टाचार, गहराता आर्थिक संकट-जनता की तबाही, जनसंघर्षों का क्रूर दमन, संसदीय विपक्ष समेत असहमति की हर आवाज को कुचलते हुए लोकतन्त्र का खात्मा !

दरअसल आज का संकट पहले की तुलना में बुनियादी तौर पर अधिक गम्भीर है और हमारे राष्ट्र-राज्य तथा समाज के भविष्य के लिए बेहद खौफनाक संभावनाएं इसके गर्भ में पल रही हैं।

आज की बहुसंख्यकवादी सत्ता ने पहले की तुलना में संकट को गुणात्मक रूप से एक बिल्कुल नये उच्चतर धरातल पर पहुंचा दिया है। देश आज निरंकुशता से आगे बढ़कर full-fledged अधिनायकवादी

फासीवादी राज्यारोहण के मुहाने पर खड़ा है। दुनिया में जनसंहारों ( ethnic, communal cleansing ) पर अध्ययन और शोध करने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं भारत के इस खतरे के नजदीक होने की भविष्यवाणी कर रही हैं। समाज में साम्प्रदायिक नफरत को जिस मुकाम पर पहुंचाया जा रहा है, उसमें दरबारी साजिशें कभी भी देश को गृहयुद्ध और साम्प्रदायिक अंधराष्ट्रवाद की आग के हवाले कर सकती हैं।

स्वतंत्रता आंदोलन से अर्जित सारे मूल्य- लोकतन्त्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक-आर्थिक न्याय, हमारा संविधान- सब कुछ आज दांव पर है।

जाहिर है विपक्ष व लोकतांत्रिक ताकतों के सामने आज की चुनौती पहले की तुलना में अधिक गम्भीर है। उन्हें न सिर्फ सरकार की नाकामियों के खिलाफ अपने सकारात्मक एजेंडा और कार्यक्रम पर जनता को लामबंद करना है, बल्कि उनके नफरती जहर का एन्टीडोट भी तैयार करना होगा, सत्ता और फासीवादी गिरोह के हमलों का सड़क पर मुकाबला करना होगा, उनकी तरह तरह की सजिशों और तिकड़मों का मुंहतोड़ जवाब देते हुए हर हाल में सामाजिक सौहार्द, जनता की एकता तथा उनके वोट देने के अधिकार की रक्षा करना होगा और अंततः जनादेश का अनुपालन सुनिश्चित करवाना होगा। पराजित ट्रम्प के समर्थकों द्वारा ह्वाइट हाउस पर हमले को दुनिया भूल नहीं सकती।

12 जून के पटना कॉन्क्लेव और विपक्षी एकता की इस पूरी कवायद में देश की निगाहें UP के राजनीतिक भविष्य की ओर लगी रहेंगी, जो पिछले 9 सालों से संघ-भाजपा की सत्ता का सबसे बड़ा स्रोत और उसके सबसे आक्रामक उन्मादी मॉडल की प्रयोगभूमि है। क्या दक्षिण और पूरब से आने वाली हवायें अंततः उत्तर प्रदेश को भी अपने आगोश में ले लेंगी या पूरे देश की सकारात्मक संभावनाओं/कोशिशों को व्यर्थ करते हुए UP अंततः मोदी की पुनर्वापसी की राह हमवार कर देगा ?

UP निकाय चुनाव नतीजों का negatively positive सुखद परिणाम यह हो सकता है कि तमाम विपक्षी दल एकता के लिए प्रेरित हों क्योंकि भाजपा को मिले मतों और सीटों से अब यह साफ हो चुका है कि इन चुनावों में उसकी बहुप्रचारित जीत किसी बड़े जनसमर्थन का नहीं बल्कि first past the post system में विपक्ष के बिखराव का परिणाम थी।

सच तो यह है कि सत्तारूढ़ दल को मिले मत उसके प्रति जनता के किसी आकर्षण का नहीं, बल्कि जनता की बढ़ती नाराजगी और उदासीनता की अभिव्यक्ति हैं।

लेकिन भाजपा से बढ़कर UP के विपक्षी दलों के लिए ये नतीजे अलार्म बेल हैं। इनका सन्देश बिल्कुल स्पष्ट है कि विपक्ष यदि एक न हुआ तो UP में भाजपा विरोधी मतों का जिस तरह का रुझान उभर रहा है और बिखराव है, उसमें सारी एन्टी-इंनकबेंसी के बावजूद भाजपा अपने committed वोटबैंक, सँगठित तंत्र और सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करते हुए sweep करेगी और सारे विपक्ष का सफाया हो जाएगा। यह गलतफहमी किसी को नहीं होनी चाहिए कि विधानसभा चुनाव की तरह फिर सारे भाजपा विरोधी मतों की गोलबंदी एक दल के पक्ष में हो जाएगी।

इसीलिए UP में भी व्यापक एकता के लिए सारे विपक्षी दलों पर नीचे से उनके जनाधार का जबरदस्त दबाव है।

कर्नाटक से जो अनेक सन्देश हैं, उनमें शायद सबसे महत्वपूर्ण यह है कि भाजपा के विनाशकारी राज के खिलाफ आम जनों, गरीबों, महिलाओं, युवाओं, हाशिये के तबकों की नीचे से एकता और ध्रुवीकरण होता जा रहा है और जो दल इसमें villain बनते दिखेंगे वे देवगौड़ा पिता-पुत्र के JDS की तरह लड़ाई के मैदान से बाहर हो जाएंगे।

खबर है कि सपा, कांग्रेस, RLD पटना बैठक में शामिल हो रही हैं। वे एक मंच पर आते हैं तो भाजपा विरोधी मजबूत pole खड़ा हो जायेगा और UP में बड़ा फेर बदल हो सकता है।

क्या opportune moment पर बसपा भी राजनीतिक संभावनाओं के विवेकपूर्ण आंकलन के आधार पर दबाव मुक्त होते हुए विपक्षी-एकता की गाड़ी में सवार हो जाएगी, क्योंकि इस चुनाव में अलग-थलग रहने पर विपक्ष की जिस पार्टी को खोने के लिए 2024 में सबसे ज्यादा है और जिसका शायद अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा, वह बसपा ही है।

अगर ऐसा हुआ तो न सिर्फ उत्तर प्रदेश में बल्कि पूरे देश में बाजी पलट जाएगी।

क्या आधी सदी बाद 12 जून को पटना बैठक के बाद इतिहास फिर करवट लेगा ?

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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