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2024 के लिए विपक्ष तैयार! ‘जातिगत जनगणना’ बनेगा मुद्दा?

कांग्रेस समेत लगभग विपक्षी पार्टियां जातिगत मुद्दे को लेकर अब मुखर हो गई हैं, और आने वाले चुनाव में इसे बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही हैं।
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साल 2019 में राहुल गांधी ने एक भाषण में ‘मोदी’ सरनेम का इस्तेमाल करते हुए, ललित मोदी, नीरव मोदी को चोर बताया था, साथ ही उन्होंने बग़ैर नाम लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी निशाना साधा था और कहा था कि सारे मोदी चोर क्यों होते हैं।

इस मामले को मुद्दा बनाकर लोकसभा चुनाव 2024 से ठीक एक साल पहले भाजपा ने कांग्रेस को घेरने का प्लान बना लिया है। और राहुल गांधी पर सीधा ओबीसी समाज को चोर करने का आरोप लगा दिया है। जिसके तहत अभी तक राहुल गांधी की लोकसभा से सदस्यता, सरकारी आवास जा चुका है, और तीन साल की सज़ा भी हो चुकी है।  हालांकि वो बेल पर बाहर हैं, और कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं।

एक वक्त पर भाजपा के ओबीसी वार पर कमज़ोर दिखाई पड़ रही कांग्रेस ने अब इसे ही हथियार बना लिया है, और सीधे तौर पर भाजपा के सामने जातिगत जनगणना कराने की मांग रख दी है।

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साल 2019 में कर्नाटक के जिस कोलार में भाषण देने की वजह से सदस्यता गई, उसी कोलार से राहुल गांधी ने 2024 को लेकर बड़ी लकीरें खींचने की कोशिश की है। राहुल ने कर्नाटक में सरकार से पूछा कि उन्होंने ओबीसी के लिए क्या किया है, राहुल ने कहा, ‘नौ साल हो गए, नरेंद्र मोदी जी ने ओबीसी से वोट लिया, आप मुझे बताइए कि मोदी जी ने ओबीसी के लिए क्या किया, मोदी जी ओबीसी से वोट ले लेते हैं मगर ओबीसी को ताकत कभी नहीं दी, नरेंद्र मोदी जी अगर करनी है तो काम की बात कीजिए, यूपीए सरकार के दौरान 2011 में हमने जनगणना की थी, जिसमें हमने पूछा कि आपकी जाति क्या है, इसका पूरा डेटा सरकार के पास है, नरेंद्र मोदी जी ने डेटा पब्लिक नहीं किया, इसे छिपाया है, मोदी जी अगर आप वाकई में ओबीसी को ताकत देना चाहते हैं तो डेटा जारी कर बता दीजिए कि देश में कितने ओबीसी हैं, आरक्षण पर 50 फीसदी के कैप को भी हटाइए, मैं जानता हूं कि ये काम नरेंद्र मोदी कभी नहीं कर सकते हैं।

इस दौरान राहुल गांधी ने ये भी कहा कि हम लगातार इस मुद्दे पर मोदी सरकार पर दबाव बनाते रहेंगे। हम ओबीसी जनगणना को रिलीज़ कराएंगे, और दलित और ओबीसी को उनका हक दिलाएंगे।

जातीय जनगणना पर राहुल के इस बयान के बाद कांग्रेस ने इस मुद्दा बनाना शुरु कर दिया और 17 अप्रैल को पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ-साथ छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इसके लिए एक ख़त लिख दिया।

इधर, कांग्रेस मुख्यालय में जातीय जनगणना पर जयराम रमेश और कन्हैया कुमार ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर दी।

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यहां बड़ी बात ये है कि इस मुद्दे पर देश के तमाम विपक्षी दल एक साथ आकर खड़े हो गए हैं, कांग्रेस के अलावा जेडीयू, आरजेडी, एनसीपी, द्रमुक और आम आदमी पार्टी समेत कई विपक्षी दल इस मुद्दे पर साथ आ गए हैं।

उधर कुछ दिनों पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने जातिगत जनगणना के बहाने 20 दलों के प्रतिनिधियों को एक साथ एक मंच पर ले आए। स्टालिन के इस सामाजिक न्याय पर दूसरे राष्ट्रीय सम्मेलन में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, हेमंत सोरेन, पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला, सपा चीफ अखिलेश यादव, बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव, तृणमूल के डेरेक ओ ब्रायन, वाम नेता सीताराम येचुरी और डी राजा ने भाग लिया। इसके अलावा आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल, तेलंगाना की बीआरएस पार्टी, शरद पवार की एनसीपी शामिल हुई।

कांग्रेस को अचानक कैसे याद आई जातिगत जनगणना?

देश की सत्ता में सबसे ज़्यादा वक्त तक बनी रही कांग्रेस को हमेशा से सवर्ण-दलित-मुस्लिमों का भरपूर समर्थन मिलता रहा है। लेकिन जैसे-जैसे 90 का दशक बीता, वैसे सवर्ण मतदाता कांग्रेस से छिटकर भाजपा के साथा जाना शुरु हो गए। मुस्लिम मतदाता भी अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पार्टियों के साथ खड़े हो गए, बात रही दलितों और ओबीसी समाज की तो राज्य के चुनावों में उन्होंने क्षेत्रीय पार्टियों के साथ जाना पसंद किया और केंद्र में भाजपा को चुन लिया। यानी यहां कहा जा सकता है कांग्रेस ने अपने वोटरों को किसी एक राजनीतिक दल नहीं बल्कि अलग-अलग दलों को बांट दिया है। 

इसे यूं कह लीजिए कि इन्ही वोटरों को खो देने की वजह से आज कांग्रेस अपने बुरे दौर से गुज़र रही है, क्योंकि भाजपा ने इन सभी वोटरों को एकमुश्त कर हिंदुत्व की ज़ंजीरों में बांध दिया है। अब ऐसे में जातिगत जनगणना को कांग्रेस हिंदुत्व का काट तो मान ही रही है, साथ ही ओबीसी को अपने पाले में वापस ले आने का एक ज़रिया भी समझ रही है। ये काम करने लिए फिलहाल कांग्रेस के पास छोटा ही सही, लेकिन एक मज़बूत पक्ष ये है कि उसके तीन मुख्यमंत्रियों में दो ओबीसी समाज से आते हैं। जिसमें राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल शामिल है। हालांकि इन मुख्यमंत्रियों को इस्तेमाल करने के लिए कांग्रेस के पास एक बड़ा डर भी है, कि कहीं बचे-कुचे सवर्ण वोट न छिटक जाएं। लेकिन अब पार्टी खुलकर ओबीसी की सियासत करने के लिए पूरे मूड में नजर आ रही है।

वैसे देखा जाए तो कांग्रेस ने ओबीसी मुद्दे का ये ब्लू प्रिंट पिछ्ले साल उदयपुर चिंतन शिविर में ही तैयार करना शुरु कर दिया था, जब जातिगत जनगणना का समर्थन करने का प्रस्ताव पास किया था। यहां आपको बताते चलें कि कांग्रेस ने 2011 के जनगणना की सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों को सार्वजनिक करने प्रस्ताव रखा था। इसके बाद कांग्रेस ने रायपुर अधिवेशन में पार्टी संविधान को बदला और पार्टी संगठन के सभी पदों पर अनूसूचित जाति, आदिवासी, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों के लिए 50 फीसदी आरक्षण लागू किया। कांग्रेस ने पहले संगठन में ओबीसी और दलितों को भागेदारी देने का फैसला किया और अब राहुल गांधी ने कर्नाटक की रैली में जातीय जनगणना की मांग को उठाते हुए आरक्षण की अधिकतम 50 फीसदी लिमिट को खत्म करने की मांग की है। 'जितनी आबादी, उतना हक' का नारा दिया है।

यहां पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग को साधने के लिए कांग्रेस के पास फिलहाल सबसे बड़ा हथियार ख़ुद पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे हैं, क्योंकि वो भी दलित समुदाय से आते हैं। यानी यहां समझा जा सकता है कि मल्लिकार्जुन खड़गे के ज़रिए कांग्रेस देश के 15 फीसदी दलित मतदाता और 7 फीसदी आदिवासी समुदाय को सीधे तौर पर साधने की कोशिश में है, जिसका कितना फायदा पार्टी को मिलने वाला है, इसका हल्की ही सही लेकिन कर्नाटक चुनाव में सुगबुगाहट मिल ज़रूर जाएगी।

कांग्रेस द्वारा जातिगत जनगणना को मुद्दा बनाने एक बड़ी वजह और भी है, रिपोर्ट कहती है कि मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने वाले है। जहां मध्य प्रदेश में 48 फीसदी, राजस्थान में 55 फीसदी और छत्तीसगढ़ में 48 फीसदी ओबीसी वोटर्स हैं, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में वर्तमान में कांग्रेस की सरकार है, इन तीनों राज्यों में लोकसभा की 65 सीटें हैं।

सीएसडीएस का सर्वे कहता है कि 2009 में कांग्रेस को ओबीसी का 25 फीसदी वोट मिला था, उस वक्त लोकसभा चुनाव में पार्टी को 206 सीटें मिली थी, हालांकि, 2014 और 2019 में ओबीसी के वोट में काफी गिरावट देखी गई और पार्टी को 15-15 फीसदी वोट मिले थे। यही कारण रहा कि 2014 में कांग्रेस को 44 और 2019 में कांग्रेस को 52 सीटें मिली थीं।

आपको बता दें कि कई क्षेत्रीय दल पहले से ही जातिगत जनगणना की मांग उठाते आ रहे हैं, बिहार में जेडीयू और आरजेडी महागठबंधन सरकार अपनी पहल पर राज्य में जाति आधारित सर्वे शुरू कर चुकी है, ये जल्द पूरा हो जाएगा। इसी तरह का एक सर्वे जल्द ही ओडिशा में भी शुरू होगा, जहां नवीन पटनायक के नेतृत्व वाली बीजू जनता दल की सरकार है, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम यानी डीएमके ने केंद्र सरकार से जनगणना अधिनियम, 1948 में बदलाव करने की मांग की है जिससे कि राज्य सरकारों को राज्य स्तर पर जनसंख्या की जनगणना करने की छूट मिल सके और वे अपनी खुद की जातिगत जनगणना कर सकें।

भाजपा क्यों जनगणना करवाने से बच रही है?

जनगणना पर विरोध हो या समर्थन... सारा खेल सियासी है। बात अगर समर्थन की करें तो इसके पीछे का कारण पिछड़ी जातियों का वोट बैंक है, जिनकी आबादी 52 फीसदी से ज्यादा बताई जाती है। विरोध की बात करें तो, इसके पीछे सवर्ण जातियों का दबाव है,  जो भाजपा का परंपरागत वोटर माने जाते हैं। भाजपा इन वोटों को नाराज नहीं करना चाहती है। क्योंकि अगर जातीय जनगणना होती है तो ओबीसी जातियों की संख्या 52 फीसदी ठहरती है या उससे ज्यादा बढ़ती है तो 27 फीसदी आरक्षण को बढ़ाने की मांग उठा सकते हैं। ऐसे में आरक्षण का दायरा बढ़ने पर सवर्ण जातियां विरोध करेंगी और सरकार की परेशानी बढ़ेगी। इसीलिए भाजपा इससे बच रही है और असहज स्थिति में है।

इसे ऐसे आसान भाषा में समझते हैं, भाजपा और संघ का एजेंडा शुरुआत से ही अलग-अलग ज़ातियों को हिंदू कहना का रहा है। मतलब पिछड़ा वर्ग हो, या अति पिछड़ा हो, या ब्राह्मण हो या आदिवासी.. सब हिंदू है। हालांकि इनके साथ व्यवहार इनकी ज़ातियों के हिसाब से ही किया जाता है। कहने का मतलब ये है कि वोट लेना है हिंदू कहकर और व्यवहार करना है या हक देना ज़ाति देखकर। अपने इस तथाकथित समीकरण को बचाए रखने के लिए ही भाजपा जातिगत जनगणना से दूर रहती है।

जातिगत जनगणना क्या है?

देश या किसी क्षेत्र में रहने वाले लोगों की गणना और उनके बारे में पूरी जानकारी जुटाना जनगणना कहलाता है, भारत में हर 10 साल में एक बार जनगणना की जाती है। भारत में जनगणना की शुरुआत ब्रिटिश शासन के दौरान साल 1872 हुई थी, आजादी के बाद 1951 से 2011 तक सात बार और भारत में कुल 15 बार जनगणना की जा चुकी है। जनगणना में अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की गणना की जाती है, लेकिन अन्य दूसरी जातियों की गिनती नहीं होती है। जातिगत जनगणना का अर्थ है भारत की जनसंख्या का जातिवार गणना यानी जनगणना के दौरान जाति आधार पर सभी लोगों की गिनती की जाए। इससे देश में कौन सी जाति के कितने लोग रहते हैं, इसकी जानकारी का आंकड़ा पता चल सकेगा।

कब और किस स्थिति में हुई जातिगत जनगणना?

भारत में आख़िरी बार ब्रिटिश शासन के दौरान जाति के आधार पर 1931 में जनगणना हुई थी। इसके बाद 1941 में भी जनगणना हुई लेकिन आंकड़े पेश नहीं किए गए। इसके बाद अगली जनगणना से पहले देश आज़ाद हो चुका था। यानी अब ये जनगणना 1951 में हुई, लेकिन इस जनगणना में सिर्फ अनुसूचित जातियों और जनजातियों को ही गिना गया। कहने का मतलब ये है कि 1951 में अंग्रेजों की जनगणना नीति में बदलाव कर दिया गया जो कमोबेश अभी तक चल रहा है। इस जनगणना से पहले साल 1950 में संविधान लागू होते ही एससी और एसटी के लिए आरक्षण शुरू कर दिया था, कुछ साल बीते और पिछड़ा वर्ग की तरफ से भी आरक्षण की मांग उठने लगी।

आरक्षण के मामले में पिछड़ा वर्ग की परिभाषा कैसी हो, इस वर्ग का उत्थान कैसे हो, इसके लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1953 में काका कालेलकर आयोग बनाया। काका कालेलकर आयोग ने 1931 की जनगणना को आधार मानकर पिछड़े वर्ग का हिसाब लगाया। हालांकि काका कालेलकर आयोग के सदस्यों में इस बात को लेकर बहस थी, कि गणना जाति के आधार पर हो या आर्थिक आधार पर, यानी ये आयोग इतिहास में महज़ एक काग़ज़ भरने तक ही सीमित रह गया। इसके बाद साल 1978 में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी वाली सरकार ने बीपी मंडल की अध्यक्षता में एक पिछड़ा आयोग बनाया। लेकिन साल 1980 के दिसंबर तक जब मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी तब तक जनता पार्टी की सरकार जा चुकी थी। मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना के आधार पर ही ज्यादा पिछड़ी जातियों की पहचान की। कुल आबादी में 52 फीसदी हिस्सेदारी पिछड़े वर्ग की मानी गई। मंडल आयोग की तरफ से ये भी कहा गया कि पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए। हालांकि मंडल आयोग की सिफारिशों पर अगले 9 सालों तक कोई ध्यान नहीं दिया गया। लेकिन साल 1990 में वीपी सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की उस सिफारिश को लागू कर दिया जिसमें पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण की मांग की गई थी। वीपी सिंह के इस फैसले के बाद बवाल हुआ, मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया। फिर 1992 में दिए गए इंद्रा साहनी के ऐतिहासिक फैसले में आरक्षण को सही माना गया लेकिन अधिकतम लिमिट 50 फीसदी तय कर दी गई। 

इसके बाद साल 2006 में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अंर्जुन सिंह ने मंडल पार्ट 2 शुरू कर किया, और इस मंडल आयोग की एक दूसरी सिफारिश को लागू कर दिया गया जिसमें सरकारी नौकरियों की तरह सरकारी शिक्षण संस्थानों, जैसे यूनिवर्सिटी, आईआईटी, आईआईएम, मेडिकल कॉलेज में भी पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिए जाने पर मुहर लग गई। इस बार भी विवाद हुआ लेकिन सरकार अड़ी रही और ये लागू हो गया। इसके बाद साल 2010 में कांग्रेस की सरकार थी, तो प्रणव मुखर्जी की अगुआई में एक कमेटी बनी, इसमें जनगणना के पक्ष में सुझाव दिए गए। इस जनगणना का नाम दिया गया सोशियो यानी इकॉनॉमिक एंड कास्ट सेन्सिस। सोशियो को पूरा करने में कांग्रेस ने 4800 करोड़ रुपये खर्च कर दिए। 

ज़िलावार पिछड़ी जातियों को गिना गया और इसका डाटा सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय को दिया गया। जिसके कई साले बाद तक इस डेटा पर बात नहीं हुई।

इस जनगणना को कराने के बाद से कांग्रेस पार्टी सत्ता में नहीं आई है, लेकिन अब जब 2024 के लोकसभा चुनाव को महज़ एक साल दूर हैं, और उससे पहले ऐसे राज्यों में चुनाव हैं, जहां ओबीसी के वोट सत्ता की कुर्सी पर सरकार का नाम लिखने की कूबत रखते हैं, तो पार्टी क्षेत्रीय पार्टियों का सहारा लेकर और राहुल गांधी पर ओबीसी वाली टिप्पणी को ढाल बनाकर भाजपा को साधने की कोशिश में जुटी है।

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