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राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता के बारे में ओवैसी के विचार मुसलमानों के सशक्तिकरण के ख़िलाफ़ है

मुसलमानों के सामाजिक बस्तीकरण के खिलाफ और उनकी आर्थिक गतिशीलता के लिए निरंतर अभियान, जो एआइएमआइएम और उसके नेताओं की राजनीति से परे है, के जरिए ही देश की अल्पसंख्यक राजनीति सही दिशा में आगे बढ़ेगी।
Asaduddin Owaisi

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने उत्तर प्रदेश में हाल ही में एक चुनावी सभा में दिए अपने भाषण में मुसलमानों से आह्वान किया कि उन्हें देश की शासन व्यवस्था में उचित राजनीतिक प्रतिनिधित्व हासिल करने के लिए राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता से मुक्त होने की जरूरत है। यह कहते हुए ओवैसी इस तथ्य का जिक्र कर रहे थे कि अब तक के चुनावों में मुसलमानों ने कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों सहित तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों को अपना वोट दिया है, जबकि कोई मुस्लिम नेता उनकी रहनुमाई नहीं कर रहे थे। इसलिए, उन्होंने देश के सभी मुसलमानों का आह्वान किया कि वे राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता के प्रतिरोध के लिए "मुस्लिम" नेताओं की रहनुमाई वाली "मुस्लिम पार्टी" को ही अपने वोट दें। 

हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि धर्मनिरपेक्ष दलों ने मुसलमानों के हालात में कम बदलाव लाए हैं और उन्हें राजनीतिक रूप से अधर में छोड़ दिया है। सामाजिक सूचकांकों में भी मुसलमान लगातार फिसल रहे हैं। लेकिन क्या ओवैसी द्वारा पेश किया गया समाधान मुसलमानों के हक में बेहतर काम करेगा? यह तर्क देने के लिए उनके पास क्या सबूत हैं कि केवल धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की बजाए "मुस्लिम पार्टी" को वोट देने से ही मुसलमानों का भला हो जाएगा? उदाहरण के लिए, हैदराबाद के पुराने शहर के मुसलमानों पर गौर करना लाजिमी होगा,जिनकी सामाजिक और आर्थिक गतिशीलता में कोई नाटकीय परिवर्तन लाए बिना ही ओवैसी ने लगभग आधी सदी से उनकी रहनुमाई करते रहे हैं। 

कुछ भी हो, AIMIM ने भी मुसलमानों को कमजोर रखने और उनकी रजामंदी लेने के लिए धर्मनिरपेक्ष दलों के उसी तर्क का पालन किया है। उनकी पार्टी ने भी किसी अन्य विकल्प को उभरने से रोककर मुसलमानों के बने डर और उनकी चिंता का सियासी फायदा उठाया है। जहां मुसलमानों को अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए ऊंची ब्याज दरों पर कर्जे तक के लिए स्थानीय महाजनों के संजाल पर न केवल आश्रित बना दिया जाता है, बल्कि ओवैसी और उनके परिवार के स्वामित्व वाले और उनके संचालित मेडिकल कॉलेजों और अन्य कॉलेजों में दाखिले के लिए उन्हें भारी डोनेशन देना पड़ता है। एआइएमआइएम मुसलमानों को फकत यह मनोवैज्ञानिक दिलासा दे सकती है कि उनके समुदाय के मेम्बरान ही उनकी रहनुमाई कर रहे हैं, लेकिन यह अपने आप में बहुत कुछ बदलने की गारंटी नहीं है। यह और कुछ नहीं कि बल्कि मुसलमानों को दूसरों पर निर्भर बना देता है, उन्हें अकेला कर देता है और इस तरह उन्हें गेटोआइजेशन के एक लगातार भंवर में धकेल देता है, जिन तर्कों के सहारे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) जैसे उसके पैतृक संगठन संगठन हिंदुओं को और मजबूत करते हैं। यह बिल्कुल उसी तर्ज पर होता है, जिस तर्क के बलबूते ओवैसी अपने मुसलमान समुदाय को संघटित करना चाहते हैं, और उन्हें मजबूत करना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में, ओवैसी और भाजपा "प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता" के एक ही तर्क के इर्द-गिर्द काम करते हैं। 

भारत के मुसलमानों को अपने सामाजिक गेटोआइजेशन को तोड़ने और आर्थिक गतिशीलता हासिल करने के तौर-तरीकों को अपनाने की जरूरत है। इस काम में सियासी रहनुमाई की बात तभी समझ में आती है, जब वह उस प्रक्रिया में योगदान देती है, न कि अगर वह अलगाव या घेराव की बिल्कुल उन्हीं तकनीकों का और जुटान करती है। इसके लिए मुसलमानों को बहुसंख्यक समुदाय और गैर-मुसलमानों के साथ बेहतर "मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक पहचान" बनाने की आवश्यकता है। बदले में, यह उनकी बेहतरी के लिए वांछित वाग्मिता और नैतिक औचित्य प्रदान करने और बहुसंख्यक समुदाय के बीच बढ़ती मुस्लिम विरोधी भावना को रोकने की आवश्यकता होगी। ओवैसी की राजनीति न तो ऐसी पहचान की इच्छा रखती है और न ही ऐसी पहचान को बढ़ने में मदद करने में कोई राजनीतिक लाभ देखती है। 

इसे समझने के लिए एक उत्कृष्ट जगह अमेरिका हो सकता है कि मार्टिन लूथर किंग ने वहां नागरिक अधिकार आंदोलन का कैसे खड़ा किया,जबकि उसके दक्षिणी हिस्से में गुलामी और नस्लवाद का बोलबाला था।  मार्टिन किंग ने तब अमेरिकी संविधान में समानता और नागरिकता के किए गए वादे को पूरा करने और उन पर अमल करने की अपील की। इसे मार्टिन ने अहिंसा, अखंडता और सभ्यता पर जोर देने वाले एक सतत अभियान के माध्यम चलाया था और एक समय में वे उत्तरी अमेरिका में गोरों के साथ एक "भावनात्मक पहचान" बनाने में सफल रहे थे, जैसा कि सांस्कृतिक समाजशास्त्री जेफरी अलेक्जेंडर का कहते हैं। यह तब था, जब उत्तर हिस्से में गोरे भी उनके चलाए नागरिक अधिकार आंदोलन में शामिल हो गए थे। दक्षिण में जारी नस्लवाद की वैधता पर सवाल उठाए जाने लगे थे और फिर इसके वर्चस्व के स्वघोषित दावे ने अपनी वैधता खो दी थी। 

उत्तर अमेरिका में रहने वाले उनके समकक्षों ने वकीलों, पत्रकारों और राजनेताओं के रूप में अपने हस्तक्षेप के माध्यम से दक्षिण के गोरों का सामना किया। उन्होंने अमेरिकी संविधान की सार्वभौमिकता के वादे को एक वेग दे दिया था। जब खुद मार्टिन किंग पर हमला किया गया और उनके घर को फूंक दिया गया तो उन्होंने अपने अनुयायियों से बदले की कार्रवाई न करने की अपील की। उनका कहना था कि अश्वेत लोग सभी जन को अधिक से अधिक सम्मानजनक जीवन जीने देने के अधिकार पाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। उनकी इस वाग्मिता और सार्वभौम मानक के अवतार में, गोरों के अश्वेत पर वर्चस्व की गहरी भेदभावपूर्ण प्रथाएं बेनकाब हो गईं और उनके अपने बचाव की कोई संभावना नहीं रह गई। 

नागरिकता संशोधन अधिनियम-2019 के खिलाफ नई दिल्ली के शाहीन बाग में विरोध कर रहे मुसलमानों ने संवैधानिक नैतिकता और नागरिकता की अपील करते हुए, और गांधी और बीआर आम्बेडकर की तख्तियां पकड़कर एक सही नोट पर शुरुआत की। इस विरोध प्रदर्शन का कोई नेता नहीं था और यह मुख्य रूप से मुस्लिम महिलाओं की रहनुमाई में चलाया गया था। जहां वे "हिंदुओं" से अपील करने और एक सार्वभौमिक आदर्श के प्रदर्शन में असमर्थ रह जाते हैं, वहां फंस जाते हैं। वे मुसलमानों द्वारा और उनके हितों लिए ही विरोध करने की कवायद तक सिमट कर रह गए और यही तो भाजपा चाहती थी। हालांकि, सीएए के खिलाफ मुस्लिम महिलाओं का विशेष रूप से सड़क पर धरना-प्रदर्शन जरिए बनाया गया रेटरिक औचित्यपूर्ण है। ये उनके लिए और अधिक चिंताएं ही पैदा करेंगे कि इसके जरिए बहुमत का सामाजिकीकरण कर दिया गया है। 

शाहीन बाग को यह दिखाने की जरूरत थी कि उनका मुस्लिम होना महज एक पहचान है कि मुसलमान यहां हैं, और वे भी सोचते हैं, और वे कई रजिस्टरों में सांस लेते हैं। हालांकि इसके लिए उन्हें रोज़मर्रा के प्रतीकवाद का आह्वान करना पड़ा कि कैसे उनके बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा दिलाने और नौकरी पाने की आकांक्षाएँ बिल्कुल समान हैं और इस समानता के लिए और एक मिलनसार स्व को आगे बढ़ाने के लिए अपने निजी जीवन को नियमित किया है। यह रेटरिक वास्तव में, भाजपा की सांप्रदायिक पिच का एक काउंटर था, जबकि सीएए के विरोध ने केवल राज्य और अदालतों से अपील की थी। इसके विपरीत, किसानों ने अपने को राज्य और भाजपा के खिलाफ लामबंद किया लेकिन अपनी मांगों को लेकर व्यापक समर्थन पाने और उसके प्रति लोगों के विस्तृत खिंचाव के लिए समाज से अपील की।

ओवैसी जैसे नेताओं को मुसलमानों से राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता को तोड़ने की अपील करने की जरूरत नहीं है, बल्कि उन्हें हाल ही में किसानों के विरोध के मुद्दे सहित बड़े विरोध की राजनीति का समर्थन करने के लिए अपनी राजनीति को संगठित करने की जरूरत है। उदाहरण के लिए, उन्हें सार्वभौमिक शिक्षा के लिए चल रहे संघर्षों में मुसलमानों के शामिल होने और उसका समर्थन करने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। इस तरह के अंतर-कार्यक्रमों में उनकी शिरकत का एहसास कराने से ही बहुसंख्यकवाद का राजनीतिक तर्क अपनी धार खो देता है। 

ओवैसी इसके उलटा कर रहे हैं: मुसलमानों को और पृथक होने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं और इस तरह भाजपा के लिए एक अनुकूल इको चेम्बर बना रहे हैं। यही कारण है कि किसान नेता राकेश टिकैत ने ओवैसी को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और भाजपा नेता योगी आदित्यनाथ के "चाचा-जान" के रूप में निरूपित करने के लिए प्रेरित किया, जो "अब्बा जान" की बात करने वालों के बारे में पहले से फिक्रमंद हैं। 

बढ़ते बहुसंख्यकवाद से मुस्लिम अकेले लड़ तो सकते हैं, लेकिन वे केवल मुसलमान या एक खास तौर के "मुसलमान" के रूप में नहीं लड़ सकते। जब तक मुसलमानों का अपने लिए बदलाव का कोई रास्ता नहीं मिल जाता, तब तक उदार-वामदल एवं धर्मनिरपेक्ष आवाजों का अच्छा समर्थन, पस्त मुसलमानों को कुछ भरोसा दिला सकता है। 

यह समर्थन ज्यादा से ज्यादा हिंदुत्व की राजनीति को और मजबूत करने में मदद कर सकता है। अधिकांश गैर-मुसलमानों के लिए, यह उनके समर्थन को चयनात्मक और "तुष्टिकरण" जैसा बनाना जारी रखेगा।

यह ओवैसी की पसंद से परे एक नए क्षितिज की परिकल्पना है, जिसे हासिल करने के लिए अल्पसंख्यक राजनीति उठ खड़ी होगी। पश्चिम बंगाल के मुसलमानों ने ठीक वैसा ही किया और शायद, उत्तर प्रदेश के मुसलमान भी ऐसा करेंगे। लेकिन रणनीतिक कारणों से एआइएमआइएम को वोट न देने से यह खत्म नहीं हो सकता। इसे अन्य मुद्दों की भागीदारी के समर्थन की आवश्यकता है, जो सीधे मुस्लिम समुदायों या मुसलमानों से संबंधित हो सकते हैं, या नहीं भी हो सकते हैं। यह अकेले ही तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों पर आवश्यक दबाव पैदा करेगा, जिन्होंने न केवल मुसलमानों को हल्के में लिया है बल्कि पीढ़ियों से उनका दृढ़ समर्थन हासिल करने के बावजूद उनकी दशा-दिशा में बदलाव लाने का काम कम किया है। 

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में राजनीतिक अध्ययन केंद्र में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।) 

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें 

Why Owaisi’s Ideas about Political Secularism Short-Change Muslims

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