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पीएम किसान : 18 हजार करोड़ का भ्रम नहीं बल्कि 3 रु. प्रति व्यक्ति प्रतिदिन की चुनावी रणनीति समझिए!

कई सारी दक्षिणपंथी सरकार आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के साथ इस तरह के मूर्त मदद पहुंचा कर लोगों के बीच चुनावी रणनीति के लिहाज से काम कर रही हैं। मोदी सरकार की भी यही रणनीति है।
पीएम किसान : 18 हजार करोड़ का भ्रम नहीं बल्कि 3 रु. प्रति व्यक्ति प्रतिदिन की चुनावी रणनीति समझिए!

भ्रम में रहने और हकीकत में जीने में अंतर होता है। जब लोगों को हकीकत से काट दिया जाता है तो नेता भ्रम का जाल फेंकता है। प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना एक ऐसा ही भ्रम का जाल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसे जाल को जनता के बीच फेंकने में माहिर हैं। फरवरी 2019 में केंद्र सरकार की तरफ से चालू हुई किसान सम्मान योजना की  सातवीं किस्त के तौर पर हर एक किसानों के खाते में 2 हजार रुपये भेजने थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मौके का फायदा उठाया।

भव्य आयोजन किया। सारे टीवी चैनल पर इसका प्रसारण हुआ। सरकारी तामझाम के साथ सरकारी तामझाम के साथ लंबा भाषण हुआ। और प्रधानमंत्री ने दिखलाया कि कैसे एक क्लिक के जरिए तकरीबन 9 करोड लोगों के खाते में 18 हजार करोड़ रुपये पहुंच गए। 

किसानों की लड़ाई लड़ रहे संयुक्त किसान मोर्चा के प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब पत्रकारों ने किसान नेताओं से प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना के बारे में पूछा तो नेताओं का कहना था कि  यह अजीब सरकार है। हर काम को ऐतिहासिक कहती है। हर काम के लिए बड़े-बड़े इवेंट करती है। दो साल पुरानी यह योजना है। अब आप ही लोग बताइए क्या कोई सरकार सरकारी नौकर को महीने की सैलरी देने से पहले यह ऐलान करती है कि वह करोड़ों रुपये की सैलरी देने जा रही है। तो किसानों की इस योजना में क्या रखा है कि इसे भव्यता के साथ पेश किया जा रहा है। 

प्रधानमंत्री किसान सम्मान के नाम पर किसानों को प्रति वर्ष 6000 रुपये देने की योजना है। दो हजार के इंस्टॉलमेंट में तीन बार में दिया जाता है। 

अब लोगों के बीच भ्रम जाल फेंकने के लिए यह कहा जा सकता है कि 9 करोड़ किसानों को 18 हजार करोड रुपये बांटे गए।

इस भ्रम जाल को तोड़ने के लिए हकीकत में समझा जाए तो एक किसान परिवार के खाते में 2 हज़ार रुपये गए। अब अगर किसानों के 5 लोगों का परिवार में यह पैसा बांट दिया जाए तो प्रति व्यक्ति महज 3.33 प्रतिदिन होता है। मोदी जी आप चाय पर चर्चा कराने में माहिर हैं। कम से कम इतना पैसा तो देते कि दिन की एक चाय तक पी ली जाती। लेकिन इस पैसे से यह भी नहीं होता है। और सरकार से भव्यता के साथ पेश करती है।

अगर आप पिछले महीने भर से हो रहे किसान आंदोलनों से रूबरू हो रहे होंगे तो आप यह भी कह सकते हैं कि जब दिल्ली के बॉर्डर पर इस कड़कड़ाती ठंड में अपने हक के लिए किसान लड़ रहे हैं वैसे समय में अगर सरकार ऐसा भ्रम जाल फेंकती है तो भ्रम जाल कहना भी थोड़ी सी नरमी बरतने जैसा होगा। ऐसे माहौल में यह भ्रम जाल नहीं जनता को सामने से बरगलाने के लिए पेश की गई अश्लीलता की तरह लगता है।

भारत में खेती किसानी से जुड़ी कमाई के बारे में देखा जाए तो खेती किसानी में भारत की आधी से अधिक आबादी लगी हुई है लेकिन भारत की कुल जीडीपी में इसका योगदान 16 से 17 फ़ीसदी के आसपास रहता है। भारत में किसान की औसत मासिक कमाई (प्रधानमंत्री के वजीफे सहित) 6,000 रुपये से ज्यादा नहीं हो पाती। यह 200 रुपये रोज की दिहाड़ी है जो कि न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम है।  2018 में 11,000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की।

90 फीसद किसान खेती के बाहर अतिरि‍क्त दैनि‍क कमाई पर निर्भर हैं। ग्रामीण आय में खेती का हिस्सा केवल 39 फीसद है जबकि 60 फीसद आय गैर कृषि‍ कामों से आती है। खेती से आय एक गैर कृषि‍ कामगार की कमाई की एक-तिहाई (नीति आयोग 2017) है। 

खेती किसानी में हो रही इस तरह की दयनीय कमाई के साथ अगर कृषि उपज की वाजिब कीमत ना मिलने की वजह से किसानों को होने वाले घाटे को जोड़ लिया जाए तो कृषि क्षेत्र की आमदनी की और भयंकर तस्वीर सामने आती है।

साल 2000 से लेकर 2016 तक अपनी उपज का वाजिब कीमत ना मिलने की वजह से किसानों को तकरीबन 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। ऐसे में सोच कर देखिए कि अगर कोई किसानों को प्रतिदिन महज 3 रुपये देने पर पीठ थपथपाते हुए दुनिया भर में ऐलान करे तो यह कितना नाइंसाफी किस्म का व्यवहार लगता है।

जहां तक मोदी सरकार के कार्यकाल में खेती किसानी से होने वाली कमाई का मसला है तो मोदी जी ने किसानों की दोगुनी आय वाली बात साल 2016 में कही थी। तब से लेकर अब तक सरकार ने इसे लागू करने के लिए एक योजना तक कागज पर प्रस्तुत नहीं की है। अगर 2022 तक भी किसान की आमदनी दोगुनी करनी है तो किसान की आय 10.4 फीसदी की सलाना रफ्तार से बढ़नी चाहिए। लेकिन पिछले चार साल में किसान की आमदनी सिर्फ 2.2 सलाना की दर से बढ़ी है। इस हिसाब से अगर किसान की आय दोगुनी करने में 6 नहीं, कम से कम 25 साल लगेंगे। चुनाव जीतने के बाद लागत से 50 फीसदी अधिक समर्थन मूल्य से भाजपा साफ़ मुकर गयी।  मोदी सरकार ने फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दे दिया कि ऐसा करना मुश्किल है।

अगर दूसरे देशों में सभी तरह की सरकारी सब्सिडी की बात की जाए तो सभी तरह के कृषि उत्पादों पर अमेरिका की सरकार अपने एक किसान को साल भर में  तकरीबन 45 लाख रुपये की मदद देती है। और भारत में एक किसान को मिलने वाली सरकार की तरफ मदद साल भर में केवल 20 हजार रुपये के आसपास है। बताइए ऐसे सरकारी मदद के बारे में अगर कोई सरकार डंका बजाकर ऐलान करें तो हंसी नहीं आएगी तो और क्या होगा?

यह तो कठोर हकीकत है। मोदी सरकार की इवेंट की तार्किक छानबीन है। लेकिन इससे अलग एक दूसरा पहलू भी है। यह भ्रम का पहलू है। मैंने तकरीबन  बहुत ही कम आमदनी वाले 6-7 किसानों से बात किया। सब के जवाब में एक बात कॉमन थी। वह थोड़े खुश थे। यह खुशी सरकारी मदद वाली नहीं थी। बल्कि वह वाली खुशी थी जहां पर कोई हाड़ तोड़ मेहनत करता है। उसे दिन भर के कम के बाद मुश्किल से 200 से 250 मिलते हैंl उसे अगर बिना मेहनत किए कर्जे और ब्याज की तरह नहीं बल्कि अचानक दो हजार रुपये मिल जाए तो जिस तरह की उसे खुशी होगी ठीक वैसी ही खुशी लोगों से बातचीत करते हुए लगी। 

अब सवाल है कि यह भ्रम लोग आसानी से कैसे स्वीकार कर लेते हैं। जवाब है कि आमदनी के मामले में भारत एक गरीब मुल्क है। जिस देश में 90 फीसदी आमदनी की आय महीने की तकरीबन दस हजार रुपये के आसपास हो। उसके लिए 2 हजार रुपये बहुत अधिक लगते हैं। 

इन सबके आलावा सबसे बड़ी बात यह है कि भारत में जितनी बहस कांग्रेस भाजपा को लेकर होती है उतनी बहस सरकार और नागरिक अधिकारों को लेकर नहीं होती। लोगों को राजनीति का मतलब नहीं पता है। उनके जीवन में सरकार की क्या अहमियत है? सरकार और नागरिकों के बीच का रिश्ता क्या है? एक नागरिक होने के नाते सरकार से किसी के क्या हक है? इसकी जानकारी कईयों को नहीं है। इसलिए सरकारें जब अपना कर्तव्य निभाने के नाम पर टोकन मनी के तौर उनकी मदद करती तो उन्हें यह बात बहुत बड़ी लगती है,जिनके जीवन में सरकार का कोई मतलब नहीं है।

ऐसे में सच को ताक पर रखकर सरकार द्वारा भ्रम फ़ैलाने का काम बहुत आसान हो जाता है। यह काम करने में मौजूदा सरकार माहिर है।

इस विषय पर पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने इंडियन एक्सप्रेस में एक आर्टिकल लिखा है। इस आर्टिकल का मूल यह है कि सरकार दो तरह से काम कर सकती हैं। पहला जो पहले के जमाने की सरकार किया करती थी। प्राइमरी स्कूल, पब्लिक हेल्थ जैसे मुद्दे पर फोकस करती थी। यह विषय अमूर्त विषय है। अगर यहां पर कोई सरकार इन्वेस्ट कर रही है तो इसका फायदा सीधे-सीधे नहीं दिखता है। इसमें लंबा समय लगता है। लेकिन मौजूदा दौर की सरकार टेक्नोलॉजी का फायदा उठाकर लोगों तक सीधे कुछ ऐसी चीजें पहुंचा रही हैं जिनसे उन्हें लग रहा है कि सरकार की तरफ से उन्हें कुछ मिला। जैसे टॉयलेट बनवा देना, कई सारी सरकारी मदद सीधे पैसे के तौर पर सीधे खाते में पहुंचा देना। अब यह ऐसा सहयोग है जो लोगों को दिखता है। उन्हें लगता है कि सरकार उनके लिए कुछ कर रही है। कई सारी दक्षिणपंथी सरकार आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के साथ इस तरह के मूर्त मदद पहुंचा कर लोगों के बीच चुनावी रणनीति के लिहाज से काम कर रही हैं। मोदी सरकार की भी यही रणनीति है। 

इस तरह से देखा जाए तो मोदी सरकार मीडिया की मदद से, भयंकर प्रचार के दम पर, हिंदू मुस्लिम बंटवारे के आधार पर, और उन लोगों तक पैसा पहुंचा कर जिनके लिए अपने जीवन में सरकार का कोई मतलब नहीं है, ऐसा भ्रम जाल पैदा कर रही है जो कारगर विपक्ष ना होने के चलते चुनावी रणनीति के तौर पर काम कर रहा है। मतलब यह है कि 18 हजार करोड रुपये का ऐलान एक ऐसा भ्रम जाल है जहां पर 3 रुपये प्रति व्यक्ति प्रतिदिन का खर्चा कर भाजपा की तरफ से वोट बैंक तैयार किया जा रहा है।

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