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उत्तर भारत की राजनीति 2022: साफ़ दिख रही बदलाव की बेचैनी, लेकिन...

उत्तर भारत की राजनीति की दो बड़ी चुनौतियां हैं। एक है बहुसंख्यकवाद और दूसरी है केंद्रीकरण।
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उत्तर भारत में साल भर की राजनीतिक गतिविधियों पर नजर डालें तो पाएंगे कि सामाजिक और राजनीतिक संगठनों में बहुसंख्यकवाद और केंद्रवाद के विरुद्ध बदलाव की बेचैनी है। वे केंद्रीय सत्ता की चाभी भारतीय जनता पार्टी के हाथों से लेकर विपक्षी राजनीतिक संगठनों को सौंपना चाहते हैं। समाज का भी एक हिस्सा चाहता है कि नफरत और बहुसंख्यकवाद का मौजूदा माहौल समाप्त हो।

विपक्षी दलों का नए किस्म का उभार भी हो रहा है और उनके समीकरण भी बदल रहे हैं। इस दौरान अगर पंजाब में आम आदमी पार्टी भारी बहुमत से पहली बार सत्ता में आती है तो दिल्ली नगर निगम में भाजपा के पंद्रह साल के एकाधिकार को तोड़ती है। बिहार में नीतीश कुमार एनडीए छोड़कर राजद और वामपंथी दलों सहित सात पार्टियों के विशाल गठबंधन का निर्माण करते हैं और अपने पर पलटू राम का आरोप झेलते हुए महाराष्ट्र में हुए पालाबदल का करारा जवाब भी देते हैं। बल्कि वे भाजपा का साथ छोड़ने का फैसला भारत छोड़ो आंदोलन यानी अगस्त क्रांति के दिन करते हैं और इसीलिए तमाम विपक्षी दलों ने उसे आगामी आम चुनाव के संदर्भ में एक बड़े संकेत के तौर पर लिया है। उनके रूप में विपक्ष को एक समझदार और अनुभवी राजनेता भी मिला है। हालांकि लंबे समय तक भाजपा के साथ रहने के कारण गैर भाजपाई दलों की ओर से उनकी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर सवाल हैं।

हिमाचल प्रदेश में बहुत मामूली अंतर से ही सही लेकिन हर पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन की परंपरा कायम रहती है। कांग्रेस पार्टी पुरानी पेंशन योजना के नाते प्रदेश के नाराज सरकारी कर्मचारियों और अग्निवीर योजना की वजह से क्षुब्ध पूर्व सैनिकों या सैनिक परिवारों के समर्थन से प्रदेश में सरकार बनाने में कामयाब हो जाती है। इसके बावजूद वर्ष के आरंभ में उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य का विधानसभा का चुनाव परिणाम यह साबित करता है कि भाजपा के हाथ से केंद्रीय सत्ता की चाभी अभी आसानी के नहीं जाने वाली है। चुनाव जिताऊ जाति और धर्म के समीकरणों पर उनकी पकड़ है और उसे वे आसानी से ढीली नहीं छोड़ने वाले हैं।

उत्तर भारत की राजनीति में हाल में गुजरात चुनाव में भाजपा को मिली जबरदस्त सफलता इस बात का संकेत है कि आम आदमी पार्टी के रूप में तेजी से उभरती एक नई पार्टी कांग्रेस के जनाधार को छीन सकती है। उसने पंजाब में वैसा ही किया और गुजरात में भी उसने 2017 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी को मिली 77 सीटों को 17 पर ला दिया। आम आदमी को खास सीटें भले नहीं मिलीं लेकिन उसने कांग्रेस पार्टी के दस प्रतिशत वोटों को हथिया कर एक नए राजनीतिक समीकरण के उभरने का संकेत दे दिया है। उससे भी बड़ी बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के बहाने बहुसंख्यकवाद, गुजराती अस्मिता और औद्योगिक विकास के नाम पर उभरे गुजरात मॉडल में कई ऐसे संदेश छुपे हैं जो लोकतंत्र की सेहत के लिए शुभ नहीं हैं। वह मॉडल सरकार विरोधी भावनाओं को खारिज कर देता है और फिर उन्हीं सरकारों को जिता देता है जिनके शासन में बहुत सारी गड़बड़ियां होती रही हैं। वरना क्या वजह है कि मोरबी जैसा पुल हादसा, कोरोना के समय में हुई सरकारी लापरवाही की वजह से भारी जनहानि, जहरीली शराब से लोगों की मौतें, कई बार प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रश्नपत्र लीक होने और कांदला पोर्ट पर नशीले पदार्थों का जखीरा मिलने और किसानों की तमाम परेशानियों के बावजूद भाजपा को रिकार्ड तोड़ बहुमत मिल जाता है।

गुजरात का वही मॉडल उत्तर प्रदेश में निर्मित हो रहा है। हालांकि वह पूरी तरह से निर्मित नहीं हो पाया है लेकिन बहुजन समाज पार्टी और उसके जनाधार के धीरे धीरे भाजपा में विलीन होते जाने से उसके निर्मित होने में अड़चनें कम हैं। यही वजह है कि प्रदेश में योगी सरकार दोबारा आई है। फिर योगी के रूप में एक लोकलुभावन नेता की छवि भी गढ़ी जा रही है जिसमें हिंदुत्व के प्रति समर्पण के साथ कुशल प्रशासनिक क्षमता और विकास की इच्छा भी है।

उत्तर भारत की राजनीति की दो बड़ी चुनौतियां हैं। एक है बहुसंख्यकवाद और दूसरी है केंद्रीकरण। बहुसंख्यकवाद अल्पसंख्यक समाजों के प्रति पूर्वाग्रह पैदा कर रहा है और राज्य की संस्थाएं उन्हें पराया बनाते हुए हाशिए पर ठेल रही हैं। पहली कोशिश उन्हें राजनीतिक रूप से पराजित करते हुए राज्य की संस्थाओं से बाहर रखना है और दूसरी कोशिश उन्हें धर्म और संस्कृति के नाम पर जो स्वायत्तता मिली हुई है उसे कम करते हुए खत्म करना है। उसके लिए कानून तो बनाए ही जा रहे हैं और गैर-सरकारी संगठनों की सक्रियता उसे सामाजिक स्वरूप प्रदान कर रही है। दूसरा मामला है राज्यों की स्वायत्तता को कमजोर करते हुए संघीय सत्ता का अधिकाधिक केंद्रीकरण। इसके तहत जनप्रतिनिधियों को खरीदा जाता है, केंद्रीय एजेंसियों के हवाले से जनप्रतिनिधियों और राज्य सरकारों को डराया जाता है, सरकारों को गिराया जाता है और फिर या तो डबल इंजन की सरकारें बनाई जाती हैं या विधानसभाओं को समाप्त किया जाता है।

बहुसंख्यकवाद और केंद्रीकरण के उदाहरण वैसे तो पश्चिम बंगाल से लेकर, दिल्ली, राजस्थान, उत्तराखंड और गुजरात सभी राज्यों में दिखते हैं लेकिन सबसे प्रकट दृश्य जम्मू और कश्मीर में दिखता है। जम्मू और कश्मीर का विशेष दर्जा ही नहीं वहां की विधानसभा को समाप्त करके एक पूर्ण राज्य को केंद्र शासित प्रदेश बना देना यह बताता है कि मौजूदा सरकार और उसे चलाने वाला संघ परिवार पूरे उत्तर भारत की राजनीति को अपने ढंग से गढ़ रहे हैं। वह शिक्षा, मीडिया और समाज से लेकर लोकतांत्रिक संस्थाओं को अपने ढंग से ढाल रही है। इस प्रक्रिया में हिंदुत्व की राजनीति ही नहीं मजबूत हो रही है बल्कि शैक्षणिक संस्थाओं से लेकर मीडिया और नौकरशाही तक हिंदुत्व के लिए प्रतिबद्ध संस्थाएं खड़ी हो रही हैं। विडंबना देखिए कि यह सारे काम संविधान में कोई मौलिक बदलाव किए बिना हो रहे हैं। गौर करने लायक बात यह है कि जहां उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति को लेकर स्वयं के बनाए कॉलेजियम सिस्टम को लेकर सुप्रीम कोर्ट आग्रही है तो केंद्र सरकार संविधान का सहारा लेकर उसे खत्म करने की कोशिश में लगी है। केंद्र सरकार का कहना है कि कॉलेजियम प्रणाली तो संविधान में है ही नहीं। इसलिए उसे खत्म करके उसी राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आय़ोग को लागू किया जाना चाहिए जिसे न्यायिक समीक्षा के अधिकार के तहत सुप्रीम कोर्ट ने खत्म कर दिया था।

बहुसंख्यकवाद और केंद्रीकरण की इन प्रवृत्तियों से लड़ने की दो प्रणालियां उभरती हुई दिखाई पड़ती हैं। एक प्रणाली कांग्रेस की है जो धर्मनिरपेक्षता के भारतीय स्वरूप यानी सर्वधर्म समभाव के आधार पर काम कर रही है। कन्याकुमारी से चल कर श्रीनगर की ओर जा रही राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी की पदयात्रा उसी की एक सशक्त धारा है। हालांकि प्रशासनिक ढांचे के केंद्रीकरण की कोशिशें कांग्रेस शासन के दौरान कम नहीं हुई हैं और उसने भी बहुसंख्यकवाद की सवारी अच्छी तरह से गांठी है। इंदिरा गांधी ने अपने रहते हुए अगर कांग्रेस पार्टी को बहुसंख्यकवाद की ओर प्रवृत्त किया तो उनकी हत्या के बाद कांग्रेस पार्टी ने उसका भारी लाभ उठाया। परंतु धीरे धीरे उस एजेंडा को संघ परिवार और भाजपा ने छीन लिया। कभी ज्योति बसु, एनटी रामराव, देवीलाल, लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, करुणानिधि, फारूक अब्दुल्ला, बीजू पटनायक कांग्रेस की केंद्रीकरण की प्रवृत्तियों से लड़ते थे। लेकिन आज कांग्रेस केंद्रीय सत्ता से बाहर होने के बाद राज्यों की स्वायत्तता के लिए खड़ी होती दिख रही है। वह ईडी, सीबीआई, आईबी, एनआईए जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का सवाल भी उठा रही है। क्योंकि आज वह और उसकी बची खुची सरकारें इससे पीड़ित है। कांग्रेस पार्टी के इसी मॉडल के भीतर तृणमूल कांग्रेस, झारखंड मुक्ति मोर्चा, राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी को शामिल कर सकते हैं। हालांकि इन दलों के भीतर एक प्रकार का गैर-कांग्रेस वाद भी है लेकिन अब वह गैर भाजपावाद में परिवर्तित होता जा रहा है। कांग्रेस और इन पार्टियों में फर्क यही है कि यह पार्टियां चाहती हैं कि उनकी लड़ाई प्रदेश के स्तर पर ही सीमित रहे लेकिन केंद्र सरकार अपनी दखल जब प्रदेश के भीतर बढ़ाती है तो उन्हें उससे लड़ना ही पड़ता है। इन पार्टियों की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि जब उनके राज्य की स्वायत्तता पर हमला होता है तो वे परेशान होती हैं लेकिन जब कश्मीर की स्वायत्तता पर हमला हुआ तो उन्होंने मौन साध लिया। उत्तर भारत की गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी पार्टियों की एकला चलो की नीति बहुसंख्यकवाद और केंद्रीकरण को बढ़ावा दे रही हैं।

दूसरा मॉडल आम आदमी पार्टी का है। वह भी भारतीय जनता पार्टी के लिए चुनौती खड़ी कर रही है लेकिन वह सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के सवालों पर मौन रहते हुए वैसा काम कर रही है। उसे लगता है कि बहुसंख्यकवाद के दायरे में कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से एक कल्याणकारी दल के रूप में काम करते हुए वह भाजपा की विकल्प बन सकती है और दूसरे विपक्षी दलों की जगह ले सकती है। वह अल्पसंख्यकों का जिक्र न करना ही उनका मत पाने के लिए पर्याप्त मानती है। केंद्रीय एजेंसियों का दमन वह पार्टी भी झेल रही है। उसके नेता भी जेल में हैं और जो बाहर हैं वे निशाने पर हैं लेकिन धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर उसकी चुप्पी उस पर भाजपा की बी टीम होने का आरोप चस्पा करने का अवसर प्रदान करती है। दिल्ली, पंजाब, गोवा और गुजरात में मिली कामयाबियों और बढ़े वोट प्रतिशत के चलते आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा भी मिलने वाला है। इसके चलते वह अपने लिए बड़ा अवसर भी देख रही है। लेकिन उस पार्टी की विचार निरपेक्षता उसे राष्ट्रीय स्तर के विकल्प के रूप में खड़ा नहीं होने देती।

उत्तर भारत की राजनीति में कांग्रेस पार्टी से लेकर क्षेत्रीय दलों के भीतर के विवाद और विभाजन भी बहुसंख्यकवाद और केंद्रीकरण को प्रश्रय देते हैं। यह झगड़ा कभी ममता बनर्जी और उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी के विवाद के तौर पर उठता है तो कभी अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल के विवाद के तौर पर। कभी राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के विवाद के तौर पर तो कभी कमलनाथ और दिग्विजय और कभी भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव के बीच टकराव के तौर पर। सन 2021 में अगर कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच के टकराव के कारण मध्य प्रदेश की सरकार गिरी तो 2022 में पूरे साल मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट का टकराव चर्चा में रहा। गहलोत का कांग्रेस पार्टी को अध्यक्ष बनाए जाने और उनकी जगह पर सचिन पायलट को राज्य का मुख्यमंत्री बनाए जाने के प्रयासों को लेकर जो खींचतान हुई उससे कांग्रेस पार्टी की काफी भद्द हुई और लगा कि राजस्थान की कांग्रेस सरकार कभी भी गिर सकती है। लेकिन वह स्थिति संभल गई और संभवतः राहुल गांधी की पदयात्रा का प्रभाव है कि जो फांक बड़ी दिखती थी वह अब छोटी होती जा रही है। बल्कि उसके विपरीत राजस्थान भाजपा के भीतर कम विवाद नहीं है। विवाद का वह सिलसिला मध्यप्रदेश में भी है और अगर हिमाचल प्रदेश की भाजपा में (पूर्व) मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर और जेपी नड्डा, प्रेम कुमार धूमल और अनुराग ठाकुर के बीच इतना गहरा विवाद न होता तो भाजपा की फिर सरकार बनती।

गैर भाजपाई दलों में प्रमुख समाजवादी पार्टी के आंतरिक विवाद की भी खूब चर्चा रही है। लेकिन उसके कद्दावर नेता मुलायम सिंह यादव के निधन से खाली हुई मैनपुरी सीट पर जीत के लिए अखिलेश और शिवपाल के बीच जो एकता हुई है उसके कारण समाजवादी पार्टी ने तकरीबन तीन लाख वोटों से मैनपुरी लोकसभा सीट जीत ली। यह जीत सपा के कार्यकर्ताओं के लिए बूस्टर से कम नहीं है क्योंकि वे आजमगढ़ और रामपुर की सीट हारने से निराश थे। सपा और रालोद गठबंधन के लिए खतौली सीट जीतना भी उत्साहवर्धक रहा वहीं आजम खान जैसे सपा के प्रमुख नेता को हाशिए पर ठेलने की कोशिश में रामपुर की सीट पर भाजपा का कब्जा उसके लिए खुशी का सबब रहा। क्योंकि आजमगढ़ और रामपुर की लोकसभा सीटों पर भी भाजपा ने अपनी जीत दर्ज कराकर बहुसंख्यकवाद की राजनीति को मजबूती प्रदान की।

उत्तर भारत में राहुल गांधी की पदयात्रा और कांग्रेस पार्टी के एक वरिष्ठ दलित नेता मल्लिकार्जन खड़गे के अध्यक्ष बनने से पार्टी में एकजुटता हुई है और 2023 के चुनावों को लेकर सामाजिक न्याय और सर्वधर्मसमभाव की राजनीति के लिए नई संभावनाएं पैदा हुई हैं। इस दौरान हिमाचल में स्टार प्रचारक के रूप में सक्रिय प्रियंका गांधी का कद भी बढ़ा है। वे डूबती हुई कांग्रेस पार्टी की नैया के लिए चुनावी पतवार के रूप में दिख रही हैं। बिहार में नीतीश और तेजस्वी यादव के गठबंधन से सामाजिक न्याय की राजनीति का ग्राफ भी बढ़ा है। लेकिन तृणमूल कांग्रेस का शांत हो जाना और आम आदमी पार्टी की वैचारिक स्पष्टता न होने के कारण विपक्षी एकता की संभावना क्षीण दिखाई पड़ती है। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी की उत्तर भारत पर बनी पकड़ में छोटी मोटी फिसलनें जरूर हैं लेकिन यहां से निकलने वाली सत्ता की चाभी उसके हाथ से फिलहाल बाहर निकलती हुई नहीं दिखती। लोकलुभावनवाद से अधिनायकवाद तक हो रही उसकी यात्रा चंद झटकों के बावजूद निर्बाध रूप से चल रही है। उत्तर भारत की राजनीति में बड़ा बदलाव तभी हो सकता है कि जब केंद्र में किसी गैर-भाजपाई दल या दलों का शासन आए। अगले और उससे अगले वर्ष में कोई नया चमत्कार हो तो बड़े बदलाव हो सकते हैं लेकिन भारत और विशेष तौर पर अभी तो लोकतंत्र का संघर्ष लंबा होता हुआ दिखाई दे रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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