किसान-आंदोलन के पुनर्जीवन की तैयारियां तेज़

हाल ही में भाजपा के राज्यसभा सांसद सुरेश गोपी ने दावा किया कि मोदी सरकार द्वारा वापस लिए गए कृषि कानून जल्द ही फिर लाए जाएंगे।
उन्होंने कहा कि "देश के 'असली किसान' इन कानूनों को चाहते हैं और अगर इन्हें वापस नहीं लाया गया तो ये किसान सरकार बदल देंगे।" इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक उन्होंने कहा, "मैं बीजेपी का आदमी हूं...मैं कृषि कानून वापस लिए जाने से बेहद नाराज हूं। आपको अच्छा लगे या बुरा, लेकिन मेरा मानना है कि ये कानून वापस आएंगे।" उन्होंने कहा कि, "मैं जानता हूं कि देश के असली किसान इन कानूनों को चाहते हैं, मुझे भरोसा है कि इन कानूनों की वापसी होगी, अगर ऐसा नहीं हुआ तो वे सरकार बदल देंगे।"
इसी बीच तीन कृषि कानूनों के सूत्रधार अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी ने द वायर से बातचीत में फर्टिलाइजर और फूड सब्सिडी पर हमला बोला है।
जाहिर है, हाल ही में हुए UP व अन्य विधानसभा चुनावों की तरह आने वाले चुनाव भी भाजपा अगर जीती तो कृषि के कारपोरेटीकरण को रोकना असम्भव हो जाएगा।
संतोष की बात यह है कि किसान नेता स्थिति की गम्भीरता के प्रति पूरी तरह alert हैं और वे MSP की कानूनी गारण्टी की लंबित मांग को केंद्र कर किसान-आंदोलन को नए सिरे से खड़ा करने की तैयारी में जुटे हैं।
11 से 17 अप्रैल तक देशभर के किसान संगठनों ने “संयुक्त किसान मोर्चा” के बैनर तले एमएसपी गारंटी सप्ताह मनाया। इस कार्यक्रम के तहत अलग-अलग जगहों पर धरना, प्रदर्शन और गोष्ठी के माध्यम से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को किसान का कानूनी अधिकार बनाने की मांग पर जन-जागृति अभियान चलाया गया। किसानों का यह अभियान एमएसपी के सवाल पर राष्ट्रव्यापी आंदोलन की तैयारी का हिस्सा है। मोर्चे ने यह विश्वास व्यक्त किया है कि जैसे तीन काले कानूनों के खिलाफ लड़ाई जीती गई थी, उसी तरह हम एमएसपी की कानूनी गारंटी का संघर्ष भी जीतेंगे।
संयुक्त किसान मोर्चा के बयान में कहा गया है, " हम याद दिलाना चाहता है कि किसान विरोधी कानूनों को रद्द करने की घोषणा करते हुए 19 नवंबर 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एमएसपी और अन्य मुद्दों पर विचार करने के लिए एक समिति बनाने की घोषणा की थी। सरकार के 9 दिसंबर के आश्वासन पत्र में भी इसका जिक्र था। लेकिन आज 4 महीने बीतने के बावजूद सरकार ने इस समिति का गठन नहीं किया है। इसी 22 मार्च को सरकार ने संयुक्त किसान मोर्चा को समिति में कुछ नाम देने का मौखिक संदेशा भेजा था। लेकिन मोर्चे द्वारा समिति के गठन, इसकी अध्यक्षता, इसके TOR (टर्म्स ऑफ रेफरेंस)और कार्यावधि आदि के बारे में लिखित स्पष्टीकरण की मांग करने के बाद से सरकार ने फिर चुप्पी साध ली है। जाहिर है इस सवाल पर सरकार की नीयत साफ नहीं है। "
संयुक्त किसान मोर्चा ने इस भ्रांति का भी खंडन किया है कि इस सीजन में किसानों को सभी फसलों पर एमएसपी से ऊपर दाम मिल रहे हैं, " यूक्रेन युद्ध की वजह से गेहूँ के दाम बढ़े, फिर भी अप्रैल के प्रथम सप्ताह में देश की अधिकांश मंडियों में गेहूँ का दाम सरकारी एमएसपी 2,015 रुपये से अधिक नहीं था। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की कई मंडियों में गेहूँ इससे कम दाम पर बिक रहा है। "
"आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तरप्रदेश में चना एमएसपी 5,230 ₹ से बहुत नीचे बिक रहा है। कर्नाटक की प्रमुख फसल रागी एमएसपी 3,377 ₹ से बहुत नीचे 2,500 ₹ या और भी कम दाम पर बिक रही है। यही हाल कुसुम (safflower) का है। अरहर, उड़द और शीतकालीन धान की फसल भी एमएसपी से नीचे बिक रही है। (यह सभी आंकड़े सरकार की अपनी वेबसाइट Agrimarknet से अप्रैल के पहले सप्ताह में लिए गए हैं)। "
संयुक्त किसान मोर्चा ने खाद की कीमतें बढ़ने पर कड़ा ऐतराज जताया है और इसे किसानों से बदला लेने की कार्रवाई करार दिया है। पिछले साल IFFCO ने DAP खाद की कीमत 55.3% बढ़ाई थी। अब फिर केंद्र सरकार ने दाम बढ़ा दिये हैं। सब्सिडी के बाद भी DAP की कीमत 1200 रु. प्रति बोरी से बढ़कर 1350 रु. हो गयी है। NPKS की कीमत 1290 रू से बढ़कर 1400 रु. प्रति बोरी हो गयी है।
पेट्रोल डीजल की कीमतें विधानसभा चुनाव के बाद लगातार बढ़ रही हैं। जाहिर है किसान की लागत तेजी से बढ़ रही है, लेकिन MSP में वृद्धि नहीं ही रही है।
यूक्रेन संकट के फलस्वरूप खाद का दाम बढ़ने से भारत के किसानों और खेती पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर के बारे में कृषि विशेषज्ञ डॉ. देविंदर शर्मा लिखते हैं, " रूस पर अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण खाद की कीमतें बढ़ती जा रही हैं। रूस दुनिया का नाइट्रोजन खाद का सबसे बड़ा निर्यातक है, साथ ही फास्फोरस और पोटाश युक्त खाद उत्पादन में भी उसका दबदबा है। इससे भारत में भी किसानों की उत्पादन लागत में इजाफा होता जायेगा। अगली फसलों की बुवाई प्रभावित होगी, फलस्वरूप खाद्यान्न उपलब्धता पर असर पड़ेगा। "
भारत समेत पूरी दुनिया के लिए यूक्रेन संकट से खाद्य-आत्मनिर्भरता को लेकर बड़े सबक लेने की जरूरत की ओर इशारा करते हुए डॉ. शर्मा कहते हैं, " यूक्रेन संकट ने आज दुनिया में गम्भीर खाद्य संकट पैदा कर दिया है, क्योंकि युद्ध के कारण काला सागर ( Black Sea ) क्षेत्र में supply chain भंग हो गयी है जहां से विश्व की जरूरत के 30% गेहूँ, 25% जौ 18% मक्का तथा 75% सूरजमुखी तेल की आपूर्ति होती है।"
"इसके फलस्वरूप दुनिया के अनेक देशों में भुखमरी की स्थिति पैदा होने की आशंका है।
प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित करने के नाम पर बनाई गई खाद्य आपूर्ति श्रृंखला ने मौजूदा संकट पैदा किया है। सभी देशों को यह पाठ पढ़ाया गया था कि खाद्य आत्मनिर्भरता बनाने से दूर रहें !....इस विपत्ति से सबक लेते हुए बाहरी मंडियों पर अपनी निर्भरता
घटाने की जरूरत है और अपने देश में कृषि को viable बनाने की जरूरत है। " वे सुप्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉ. एम एस स्वामीनाथन को उद्धृत करते हैं, "राष्ट्रों का भविष्य खाद्यान्न से है, न कि बंदूक से।"
सरकार और किसानों के बीच शह-मात का खेल जारी है। ऐसा लगता है कि कृषि कानूनों के सवाल पर अपने हाथ जला चुकी मोदी सरकार अब खुद पल्ला झाड़कर राज्य सरकारों के कंधे पर बंदूक रखकर उनके माध्यम से किसानों से निपटने की रणनीति पर काम कर रही है। हाल ही में जब केंद्रीय कृषि मंत्री तोमर से किसानों की आय दोगुनी करने सम्बन्धी मोदी जी के वायदे के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बिना लाग लपेट कह दिया, " कृषि राज्यों का विषय है। "
इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए संयुक्त किसान मोर्चा ने पूछा कि फिर किस अधिकार से केंद्र ने 3 कृषि कानून बनाये थे? फिर मोदी ने आय दोगुनी करने की घोषणा क्यों किया था? फिर किसान कल्याण का मंत्रालय क्यों है केंद्र सरकार में?
इसी बीच देश के लोकतांत्रिक जनमत तथा किसानों को जैसे चिढ़ाते हुए सरकार ने गृहराज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी द्वारा The Criminal Procedure ( Identification ) Bill संसद में पेश कराया जो ध्वनिमत से पारित हुआ। शायद ही कोई भूला हो कि इन्ही मंत्री महोदय का बेटा लखीमपुर में किसानों पर गाड़ी चढ़ाने का मुख्य आरोपी है और मंत्री को पद से हटाने की मांग किसानों की प्रमुख मांग रही है। अहंकार में डूबी सरकार को शायद लगता है कि चुनाव जीतने से इस माँग की वैधता खत्म हो गयी!
बहरहाल, सरकार के इस धुर किसान-विरोधी रुख के खिलाफ किसानों की भी गोलबंदी जारी है। एक स्वागतयोग्य development यह हुआ है कि जो किसान नेता पिछले दिनों अपने किसान संगठनों को ही पार्टी बनाकर पंजाब चुनाव में उतरे थे, उनमें से अधिकांश को अब अपनी गलती का अहसास हो गया है और वे इस misadventure पर आत्मालोचना करते हुए पुनः संयुक्त किसान मोर्चा के साथ एकताबद्ध होने की ओर बढ़ रहे हैं। दरअसल संयुक्त किसान मोर्चा ने चुनाव लड़ने वाले संगठनों को उनके SKM की दिशा से अलग जाकर चुनाव में उतरने के कारण निष्कासित कर दिया था और अप्रैल में उनके बारे में पुनर्विचार की घोषणा की थी।
बलबीर सिंह राजेवाल के नेतृत्व में बने संयुक्त समाज मोर्चा से अलग हुए 16 किसान संगठनों ने एसकेएम की मुहिम का समर्थन करने का एलान किया है, '' हम अब राजनीति में हिस्सा नहीं लेंगे और न्यूनतम समर्थन मूल्य गारंटी कानून के लिए लड़ाई लड़ेंगे। हम एमएसपी गारंटी को लेकर एसकेएम की मुहिम का हिस्सा बनेंगे।'' किसान नेता मंजीत सिंह राय की अगुवाई में 16 किसान संगठनों की ओर से एक मीटिंग बुलाई गई थी। मीटिंग के बाद इन किसान संगठनों ने एलान किया कि वे अब संयुक्त समाज मोर्चा का हिस्सा नहीं रहेंगे।
आशा है इस फैसले के बाद इन किसान संगठनों की अब संयुक्त किसान मोर्चा में वापसी होगी और इससे MSP को केंद्र कर किसानों की अगले राउंड की लड़ाई को ताकत मिलेगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि आंदोलन के अगले चरण में अन्य वरिष्ठ नेता और आंदोलन के पुराने सहयात्री भी introspection करेंगे और नए realisation के साथ किसानों के संयुक्त बैनर के साथ खड़े होंगे।
कारपोरेट हिंदुत्व फासीवाद का जो नंगा नाच आज देश में हो रहा है उस पर लगाम लगाने के लिए पूरा देश आशा भरी नजरों से एक बार फिर किसान आंदोलन के पुनर्जीवन का इंतज़ार कर रहा है।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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