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‘किस किसको क़ैद करोगे’?

राजनीतिक बंदियों की रिहाई की मांग के लिए दिल्ली में पब्लिक मीटिंग। इसमें दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर, सामाजिक कार्यकर्ता और कुछ राजनीतिक बंदियों के परिवार और रिश्तेदारों ने हिस्सा लिया।
political prisoners

''किस किसको क़ैद करोगे पर हुई बातचीत को सुनकर ऐसा लगता है कि क़ैद कोई और है और हम उनकी रिहाई के लिए आए हैं, लेकिन ये सब होते हुए देखना और शायद हम लोगों का कुछ ना कर पाना मुझे ऐसा लगता है कि उनकी जगह कहीं हम ही तो क़ैद नहीं हैं? अलग-अलग दायरों में, अलग-अलग वजहों से''

ये बात दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर लक्ष्मण यादव ने अपने वक्तव्य में कही। 12 जनवरी को दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस/ पब्लिक मीटिंग का आयोजन किया गया। जिसमें दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर, सामाजिक कार्यकर्ता और कुछ राजनीतिक बंदियों के परिवार और रिश्तेदारों ने हिस्सा लिया। साथ ही छात्रों और आम लोगों ने भी यहां अपनी मौजूदगी दर्ज की। इस आयोजन का नाम ''किस किस को क़ैद करोगे'' था जिसमें भीमा कोरेगांव से लेकर CAA-NRC और उन तमाम राजनीतिक बंदियों की रिहाई की मांग की गई। इस पब्लिक मीटिंग का आयोजन दिल्ली के एचकेएस सुरजीत भवन, ITO में किया गया।

इस कार्यक्रम के दौरान प्रोफेसर लक्ष्मण यादव ने आवाज़ उठाई कि क्यों इस दौर में सच बोलना ज़रूरी है। उन्होंने कहा कि-

''गुनाह है इस देश में क्रांतिकारी इस्तक़बाल और इंकलाबी सलाम बोलना

गुनाह है इस देश में आदिवासियों के हक के लिए लड़ना 

भीमा कोरेगांव के इतिहास को याद करना गुनाह है 

मगर इस देश में चाक़ू तेज़ करने की बात करना गुनाह नहीं है 

घरों में तलवार रखे जाने की बात खुलेआम मंचों से करना गुनाह नहीं है 

इस देश में धर्म संसद का नाम लेकर घोर अधार्मिक बात करना गुनाह नहीं है 

इस देश में गुनाह की परिभाषा बदल गई है और इसलिए मुझे लगता है कि ऐसी परिभाषा में हमें फ़ख़्र है उन गुनहगारों पर जो इस मुल्क की जम्हूरियत को बचाने के लिए, हमारे हिस्से की लड़ाई को लड़ते हुए जेल गए और इसलिए हमें जोख़िम उठाना होगा सच कहने का और जिन्होंने जोखिम उठाया उसी का तो खामियाजा वो भुगत रहे हैं। मैं बतौर नागरिक इस तरह के कार्यक्रमों में शामिल होता हूं तो मुझे लगता है कि हम तो कितनी सहूलियत में जी रहे हैं, हमें पता ही नहीं हमारे हिस्से की लड़ाई लड़ता हुआ कोई कितनी मुश्किल में है, उसका परिवार कितना कुछ झेल रहा है, जो हक की लड़ाई लड़ने के लिए गया उसे इतना झेलना पड़ रहा है और जो हक मार कर बैठ हुए हैं वो आज़ाद घूम रहे हैं। '' 

इसके अलावा उन्होंने देश में फ्रीडम ऑफ़ स्पीच पर लगती बंदिशों पर तंज़ कसा और देश में मुसलमानों के साथ हो रहे भेदभाव के लिए ( बिना नाम लिए) RSS की हावी होती सोच पर सवाल खड़े करते हुए पूछा- 

''देश में ये सब होते हुए देखना और तब ये सोचना कि इस देश में संविधान कहां है? क्या कर रही हैं न्यायपालिकाएं, कहां खड़ा है वो क़ानून, वो चार्जशीट, वो मुक़दमें, वो जेलें किसके लिए बनी थीं और कौन क़ैद है?” 

साथ ही उन्होंने देश में बढ़ती ख़ामोशी पर भी सवाल खड़ा किया और पूछा कि- 

''देश के अमन पसंद लोग कहां हैं, वो सब कुछ होता हुआ देख रहे हैं, कोई आदिवासियों के बीच से पत्रकार को उठा ले गया, कोई विश्वविद्यालय से छात्र को ले गया, प्रोफेसर को ले गया, कोई आंदोलन करने वाले लोगों को ले गया और बाक़ी देश में हलचल न हो तो इससे किसको हिम्मत मिलती है? हिम्मत उन्हें ही मिलती है वो चाहते हैं बारी-बारी करके एक-एक आवाज़ को ख़ामोश कर देंगे। लेकिन आज की बातचीत का एक मकसद ये भी होगा कि देश के किसी दूर-दराज़ तक शायद ये आवाज़ जाएंगी और उन्हें झकझोरेंगी, मैं इस उम्मीद के साथ यहां आया हूं क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ तो सच है यहां जो मेरे पीछे तस्वीर लगी है उनमें हमारी-आपकी भी तस्वीर शामिल हो सकती है मुझे 'चे ग्वेरा' की वो लाइनें याद आ रही हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि -

मैंने कब्रिस्तान में उन लोगों की क़ब्रें भी देखी हैं 

जिन्होंने इसलिए संघर्ष नहीं किया कि कहीं वो मारे न जाएं

तो ये ज़रूरी नहीं है कि जो बोलेगा वही सज़ा पाएगा, क़ैद होगा, जो नहीं बोल रहा, ख़ामोश है नम्बर तो उसका भी आएगा। '' 

लक्ष्मण यादव के अलावा इस कार्यक्रम में दिल्ली दंगों के बाद गिरफ़्तार किए गए ख़ालिद सैफ़ी की पत्नी नरगिस सैफ़ी, हैनी बाबू की पत्नी जेनी रॉवेना( Jenny Rowena), DU के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा की पत्नी  वसंता भी शामिल हुईं। हैनी बाबू की पत्नी ने इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपने पति की गिरफ्तारी के बाद हर दिन मुश्किल होती अपनी ज़िन्दगी के बारे में बात की। वो ख़ुद दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक कॉलेज में पढ़ाती हैं लेकिन पति की गिरफ़्तारी ने उनकी पूरी ज़िन्दगी बदल कर रख दी। उन्होंने सवाल उठाते हुए बताया कि किसी तरह बहुत ही हास्यास्पद तरीक़े से भीमा कोरेगांव मामले में हैनी बाबू को  गिरफ़्तार किया था। 

''मेरे पति को NIA ने मुम्बई बुलाया जहां उनसे पांच दिनों तक पूछताछ हुई। वो एक आतंकी हो सकते हैं ये सोच कर उन्हें बुलाया गया। लेकिन सुबह उन्हें बुलाकर पूछताछ की जाती और शाम को उन्हें होटल जाने की इजाज़त मिलती और फिर अगली सुबह उन्हें बुलाकर फिर से पूछताछ होती।  उनके ख़िलाफ़ जिस सबूत की बात पुलिस करती है वो उनके कम्प्यूटर में मिले कुछ डाक्यूमेंट हैं, मेरे पति का भीमा कोरेगांव से कोई वास्ता नहीं था लेकिन पुलिस को मेरे पति के कम्प्यूटर से कुछ डाक्यूमेंट मिले जिसके आधार पर उन्हें माओवादी बोल कर गिरफ़्तार कर लिया गया। मुझे समझ नहीं आया कि किसी के कम्प्यूटर से मिला कोई डाक्यूमेंट कैसे इतनी बड़ी वजह हो सकती है?” 

भीमा कोरेगांव मामले में कुल 16 लोगों को गिरफ़्तार किया गया था जिनमें से फादर स्टेन स्वामी अब इस दुनिया में नहीं हैं, पुलिस कस्टडी में ही उनकी मौत हो गई। उनकी मौत पर देश में कई सवाल खड़े हुए थे। और उन्हीं की मौत पर हाल ही में आई एक किताब 'उफ़! टू मच डेमोक्रेसी' ( व्यंग ) में कटाक्ष किया गया है।  डॉ. द्रोण कुमार शर्मा की इस किताब में एक शीर्षक है 'स्टेन स्वामी: जब उन्होंने फादर ऑफ द नेशन को नहीं छोड़ा तो 'फादर' को क्या छोड़ते', जिसकी कुछ लाइनें हैं- 

...''भीमा कोरेगांव मामले को ही लें। इस केस में सरकार ने सबूत बना भी लिए हैं और कोर्ट में दाख़िल भी कर दिए हैं। अभियुक्त के कंप्यूटर में, उनकी मेल में मेल प्लांट कर दी गई हैं। ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं। मेरी इतनी औक़ात कहां कि मैं सरकार के ख़िलाफ़ ऐसा-वैसा कुछ कह भी सकूं। ऐसा तो सरकार जी के परम मित्र देश अमरिका की एक सुप्रसिद्ध IT जांच एजेंसी ने जांच करने के बाद कहा है। 

यह स्टेन स्वामी भी अजीब था। आदिवासियों के बीच काम करता था। उन्हें बताता था कि तुम आदिवासी हो अर्थात यहां के, भारत के सबसे पुराने वासी हो, रहने वाले हो। उनसे बोलता था कि इन जंगलों पर, पहाड़ों पर पहला अधिकार तुम्हारा है। झूठा कहीं का! जैसे सरकार जी का, सरकार का कोई अधिकार ही नहीं है। अरे पागल ! ये सब, ये जंगल, पहाड़, ज़मीन, ये तो सरकार जी के ही हैं या फिर उनके दोस्तों के। सरकार जी तो पहले ही कह चुके हैं। एक देश, एक धर्म, एक भाषा, एक खाना, एक गाना, एक पहनावा, और बहुत सी चीजें एक ही हैं और मालिक भी एक ही है। और वह मालिक है सरकार, मतलब सरकार जी। 

सबसे बड़ा देशद्रोह है लोगों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना। जब सरकार जी नहीं चाहते कि लोगों को जागरूक किया जाए तो लोगों को जागरूक करना तो सरकार की मुख़ालफ़त करना ही हुआ न ! तो यह बहुत ही बड़ा देशद्रोह है। यह आदिवासियों की, दलितों की, पिछड़ों की, अल्पसंख्यकों की लड़ाई लड़ना बहुत ही बड़ा देशद्रोह है। और उस देशद्रोही को, जो यह लड़ाई लड़ेगा, सबक तो सिखाना ही पड़ेगा। अब आरोप भले ही जो मर्ज़ी लगाया गया हो, स्टेन स्वामी को भी इसी बात का, जागरूकता फैलाने का सबक सिखाया जा रहा था। 

स्टेन स्वामी ने अपनी ज़िन्दगी जल, जंगल और ज़मीन किसकी है और किसके पास ही रहनी चाहिए ये समझाने में गुज़ार दी । लेकिन 84 साल की उम्र में पारकिंसोनिज़्म नाम की बीमारी से लड़ते हुए जब उन्होंने पानी पीने के लिए स्ट्रा या सिपर की मांग की तो सरकार ने विरोध किया लेकिन गहन सोच-विचार के बाद कोर्ट ने सिपर की इजाज़त दे दी। 

बात 84 साल के बीमार बुजुर्ग के लिए सिपर की नहीं है।  बात उन बुनियादी अधिकारों की है जो पूरी दुनिया में जेल में बंद कैदियों के लिए लिखे गए हैं लेकिन क्या वो उन्हें मिलते भी हैं? 

फादर स्टेन स्वामी उन राजनीतिक बंदियों में से एक थे जिन्हें हमारे देश की जेल में क्यों और कैसे रखा गया इतिहास में दर्ज हो गया। 

वे रांची के एक पादरी थे।  NIA ने उन्हें भीमा कोरेगांव-एल्गार परिषद केस में माओवादी संगठनों से संबंध रखने के आरोप में रासुका (राष्ट्रीय सुरक्षा कानून) के तहत गिरफ्तार किया था। लेकिन जिस तरह से न्यायिक हिरासत में उनकी मौत हुई क्या जेलों में बंद राजनीति बंदियों का  अंजाम यही सोचा गया है। क्या उनकी जिंदगियों को इसी तरह क़ानूनी दांव पेंच में फंसा कर उन्हें चार दीवारी में सड़ा दिया जाएगा? 

फिर वो उमर ख़ालिद हो या फिर कोई और राजनीतिक बंदी क्या इन सबके लिए यही अंजाम सोचा गया होगा? 

इस प्रेस मीटिंग में उमर ख़ालिद की अम्मी को भी आना था लेकिन कई वजहों से वो नहीं आ पाई। लेकिन यहां आई दिल्ली दंगों के आरोप में गिरफ़्तार किए गए ख़ालिद सैफ़ी की पत्नी नरगिस ने बताया कि वो लगातार ना सिर्फ़ अपने पति बल्कि उन तमाम राजनीतिक बंदियों की रिहाई की मांग कर रही हैं जिन्हें सरकार के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के जुर्म में गिरफ़्तार कर जेलों में सड़ाने की कोशिश हो रही है। इन सबके बावजूद उन्हें देश के संविधान पर यक़ीन है। इस देश से मोहब्बत है। वो बताती हैं कि देशभक्ति साबित करने के लिए 15 अगस्त को तिरंगा फहराने का नया फरमान आया है जबकि मुसलमान तो 15 अगस्त को ईद की तरह मनाते आए हैं। वो सवाल करती हैं कि मेरे पति को पूरी तरह से देशद्रोही साबित करने की कोशिश की गई लेकिन बावजूद मेरी बेटी 15 अगस्त को बहुत ही मोहब्बत से तिरंगा फहराती है क्यों? क्योंकि हमें यकीन है कि ख़ालिद सैफी ही नहीं देश की जेलों में बंद तमाम राजनीतिक बंदियों की रिहाई होगी। उन्हें उम्मीद है कि उनके पति जल्द ही अपने बच्चों के पास लौट आएंगे। 

यहां  DU के पूर्व प्रोफेसर साईबाबा की पत्नी वसंता भी आईं थीं। उन्होंने बताया कि साईबाबा के लिए हर दिन जेल में भारी होता जा रहा है। वो मांग कर रही थी कि उनके पति को मेडिकल ग्राउंड पर रिहाई मिलनी चाहिए।  साईबाबा के शरीर का 90 फीसदी हिस्सा काम नहीं करता। वे व्हीलचेयर पर निर्भर हैं। हालांकि बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने उन्हें माओवादियों के साथ कथित संबंधों के आरोप से जुड़े मामले में निर्दोष करार देते हुए बरी करने का आदेश दिया था। लेकिन कुछ ही घंटों में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया था और कोर्ट ने रिहाई पर रोक लगा दी थी।

साईबाबा की पत्नी वसंता के मुताबिक साईबाबा की तबीयत हर दिन बिगड़ रही है जिसे लेकर उनकी चिंता बढ़ती जा रही है। ऐसे में साईबाबा को जेल में कुछ होता है तो इसका जिम्मेदार कौन होगा? 

इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए कुछ छात्र भी आए थे, ये ट्रेन पकड़कर हरियाणा से आए थे। इन छात्रों ने कहा कि इस तरह के कार्यक्रम दिल्ली में हो रहे हैं लेकिन सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों की गिरफ़्तारी तो पूरे देश में हो रही है। पर ऐसे कार्यक्रम वहां कम हैं। 

यहां आए लोगों ने अपनी बातें रखीं लेकिन उमर ख़ालिद की अम्मी के नहीं आने की वजह से उनकी बात रह गई पर जब मैं इस कार्यक्रम से लौट रही थी ज़ेहन में उमर ख़ालिद का वो ओपन लेटर याद आ रहा था जो उन्होंने किसी के लेटर के जवाब में जेल से लिखा था। उस लेटर में उमर ख़ालिद ने एक किताब का हवाला देते हुए लिखा था कि - 

''मैंने एक व्यक्ति द्वारा लिखित एक संस्मरण पढ़ा, जिसने झूठे आरोपों में 14 साल से अधिक समय जेल में बिताया था. अपनी पुस्तक में जेल में बिताए समय का वर्णन करने के बाद उन्होंने 'सामान्य जीवन' में वापस लौटने में आने वाली कठिनाइयों के बारे में लिखा है. वर्षों से वह आजाद होना चाहते थे, लेकिन आखिरकार जब आजाद हुए, तो वह नहीं जानते थे, या भूल गए थे कि आजादी का क्या किया जाए. वर्षों से वह अपने दोस्तों से मिलने के लिए तरस रहे थे, लेकिन अपनी रिहाई के बाद उन्होंने अपना अधिकांश समय लोगों और भीड़-भाड़ वाली जगहों से बचने के लिए अपने घर पर अकेले बिताया. मैं अक्सर सोचता हूं, रोहित, मुझे सामान्य जीवन में लौटने में कितना समय लगेगा''? 

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