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गौतम, आनन्द जैसे जनपक्षीय लोगों को जेल!

बुजुर्ग व्यक्तियों को जिनका कोई आपराधिक इतिहास नहीं है और जिनकी बौद्धिक क्षमता और काम को न्याय पसंद लोग काफी महत्व देते हैं, उन्हें इस समय जेल भेजना कितना सही है?
गौतम, आनन्द
Image courtesy: The Indian Express

भारत के शासक वर्गों की केन्द्र सरकार द्वारा एक नये शब्द का ईजाद किया गया है-‘अर्बन नक्सल’। शासक वर्ग को इस शब्द को क्यों ईजाद करना पड़ा? दरअसल मोदी सरकार चुनाव में किया गया कोई भी वायदा पूरा नहीं कर पाई है। एक से दो करोड़ प्रति वर्ष रोजगार देने की बात हो या नारी सुरक्षा की बात हो, किसानों के फसलों को स्वामिनाथन कमेटी की सिफारिश मूल्य पर खरीदने की बात हो या भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की- इन सभी मुद्दों पर मोदी सरकार फिसड्डी साबित हुई है। मोदी सरकार के कार्यकाल में संघी और पूंजीपतियों के एजेंडे को लागू करने की रफ्तार तेज हो गई है। गाय की रक्षा के नाम पर किसानों, दलितों, अल्पसंख्यकों पर आर्थिक और शारीरिक हमले तेज हुए हैं।

एक तरफ केन्द्र सरकार ‘सबका साथ-सबका विकास’, ‘मेक इन इंडिया’, ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के नारे देती रही, और दूसरी तरफ बैंकों को लूट कर यहां के पूंजीपति विदेशों में मौज उड़ाते रहे। मोदीजी के सबसे महत्वपूर्ण प्रोग्राम ‘मेक इन इंडिया’ की हालत यह है कि उसका नाम लेना भी वे भूल गए हैं। महिलाएं पहले से और ज्यादा असुरक्षित हो गई हैं। एक तरफ सरकार के जो एजेंडे जनता के लिए थे वे फेल हो गये, लेकिन पूंजीपति वर्ग की लूट और उनकी पूंजी में बेहताशा बढ़ोतरी होती गई। पूंजीपति अपनी लूट को और रफ्तार देने के लिए जंगलों में रह रहे आदिवासियों के उन जमीनों पर गिद्ध दृष्टि लगाये हुए हैं जहां पर उनके नीचे खनिज सम्पदा दबी हुई है। इसके लिए वे लगातार आदिवासियों की हत्याएं किये जा रहे हैं।

दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने हिन्दुत्व के फासीवादी एजंडे को लेकर आगे बढ़ रहा है। वह बेरोजगार युवाओं को अंध-देशभक्ति का पाठ पढ़ा कर सरकार की नाकामियों को छुपाने के साथ-साथ अपने विभाजनकारी विचार में उनको ढालने का काम कर रहा है। वह अल्पसंख्यकों, मेहनतकशों, प्रगतिशील लोगों पर हमले करा रहा है जिससे कि देश में एक भय का माहौल बना हुआ है। इन अपराधियों को पुलिस पकड़ती नहीं है। अगर कभी जन दबाव में पकड़ना भी पड़ा तो उनको जल्दी जमानतें मिल जाती हैं। सरकार के मंत्री उनको जाकर माला पहनाते हैं- जैसे वे अपराधी नहीं कोई नायक हों। हत्यारों को खुलेआम कहा जाता है कि तुम ही आज के भगत सिंह और चन्द्रशेखर हो। इस तरह की उपमाओं से इन शहीदों के बलिदान की भी खिल्ली उड़ाई जाती है और हत्यारों के मनोबल को बढ़ा कर उन्हें हत्याएं करने की खुली छूट दे दी जाती है।

बुद्धिजीवी जिन्हें सरकार अर्बन नक्सल कहती हैं सरकार की नाकामियों और संघ के एजेंडों को जनता के सामने उजागर करते रहे हैं। वे आम-अवाम, शोषित-पीड़ित जनता के लिए वर्षों से लिखते-पढ़ते, लड़ते आ रहे हैं, चाहे देश में किसी की भी सरकार हो। 2014 के बाद जिस तरह से संघ का फासीवादी एजेंडा बढ़ता गया, ये लोग भी उतनी ही जवाबदेही के साथ पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखकर और सभाओं, धरने-प्रदर्शनों में अपने भाषणों के द्वारा लोगों के सामने संघ के फासीवादी चेहरे को उजागर करते रहे हैं। संघ के फासीवादी एजेंडों के अलावा ये पूंजीपति वर्ग की लूट पर भी लिखते-बोलते रहे हैं। इन्हीं नामों में सुधा भरद्वाज, सोमा सेन, अरूण फरेरा, वेरनॉन गोंजाल्विस, फादर स्टेन स्वामी, सुधीर धावले वरवरा राव, रोना विल्सन, गौतम नवलखा, आनन्द तेलतुम्बड़े जैसे लोग भी शामिल रहे हैं। आम लोगों को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार मिले, इसके लिए वे कोर्ट से लेकर सड़क तक लड़ते रहे। ये लोग स्वास्थ्य, शिक्षा मुफ्त मिले, इसके लिए निजीकरण का विरोध करते रहे और उन आदिवासियों के साथ खड़े हुए जिनकी जीविका संसाधन छीन कर पूंजीपतियों के हवाले किया जाता रहा है। इसलिए ये लोग शासक वर्ग के आंखों के किरकिरी बने हुए थे।

सुधा भरद्वाज, सोमा सेन, अरूण फरेरा, वेरनॉन गोंजाल्विस, फादर स्टेन स्वामी, सुधीर धावले वरवरा राव, रोना विल्सन भीमा कोरेंगांव केस में जून और सितम्बर, 2018 से ही महाराष्ट्र के जेलों में बंद हैं। जबकि उस केस के असली गुनाहगार संभाजी भिंडे और मिलिन्द एकबोटे बाहर हैं। महाराष्ट्र में सरकार बदलने के बाद केन्द्र सरकार ने इस केस को एनआईए के हाथों में सुपुर्द कर दिया। 18 माह बाद लम्बी कानूनी प्रक्रिया झेलने के बाद 14 अप्रैल 2020, को गौतम नवलखा और आनन्द तेलतुम्बड़े को एनआईए के समक्ष आत्मसर्पण करना पड़ा। 14 अप्रैल को देश को सम्बोधित करते हुए भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने डॉ. अम्बेडकर को याद करते हुए, सवंधिन की पहली पंक्ति ‘हम भारत के लोग’ का जिक्र किया था। हमें याद रखना चाहिए कि हम भारत के लोग में गौतम नवलखा और आनन्द तेलतुम्बड़े और जेलों में बंद सुधा भारद्वाज और उनके सह आरोपी भी आते हैं। सुधा भारद्वाज अमेरिकन नागरिकता को ठुकराते हुए भारत की नागरिकता को स्वीकारा और मध्यप्रदेश जाकर (अब छत्तीसगढ़) जाकर वहां की गरीब जनता, जो कि वहां के इस्पात की फैक्ट्रियों में अपनी हड्डियां गला रहे थे, उनके साथ खड़ी हुईं।

वह उन आदिवासियों के साथ खड़ी हुई जिन पर फारेस्ट विभाग और पुलिसिया दमन तो संवैधानिक अधिकार जैसा बन चुका था। लेकिन भारत की मोदी सरकार उनको हम भारत के लोग में गिनती नहीं करती। 14 अप्रैल का दिन भारत में ऐतिहासिक माना जाता है क्योंकि उस दिन डॉ. अम्बेडकर का जन्मदिन है। डॉ. अम्बेडकर ने जिस संविधान को लिखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की उसी के बल पर भारत अपने को दुनिया का सबसे बड़े ‘लोकतंत्र’ के ढिंढोरा पीटता रहा है। लेकिन उसी दिन इसी डॉ. अम्बेडकर के रिश्तेदार आनन्द तेलतुम्बड़े को जेल जाना पड़ा। उसी दिन लोकतंत्र की गलतियों पर उंगली उठाने वाले गौतम नवलखा को जेल जाना पड़ा। और यह तब हुआ जब पूरी दुनिया में कोरोना महामारी फैली हुई है और कहा जा रहा है इसमें सबसे खतरा बुर्जुगों को है। कोरोना बीमारी के कारण सरकारें कह रही हैं कि जो जहां हैं वहां रहें। 14 अप्रैल को प्रधानमंत्री देश के लोगों से सात वचन निभाने को कहते हैं जिसमें से पहला है कि ‘‘अपने घर के बुर्जुग का विशेष ध्यान रखें’’। लेकिन उसी दिन गौतम नवलखा और आनन्द तेलतुम्बड़े जैसे लोग, जो कि 65 की उम्र को पार कर चुके हैं को जेल भेज दिया जाता है। ये लोग कोई अपराधी नहीं थे। इनको भारत में नहीं पूरी दुनिया में जाना जाता है। शांति प्रिय और शोषण से मुक्ति की बात करने वाले लोग इनके विचारों को पढ़ते-समझते हैं लेकिन भारत के शासक वर्ग के लिए यह लोग अपराधी हैं।

जिस समय दुनिया भर के जेलों से कैदियों को छोड़ा जा रहा है यहां तक कि भारत में भी ऐसा हो रहा है। लेकिन गौतम नवलखा और आनन्द तेलतुम्बड़े के साथ ऐसा नहीं हुआ, एनआईए कस्टडी में 10 दिन बिताने के बाद दोनों को 25 और 26 अप्रैल को न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। आनन्द तेलतुम्बड़े श्वास सम्बंधी बीमारी का सामना कर रहे हैं, जिसमें कि कोरोना संक्रमण का खतरा और ज्यादा होता है। उन्होंने एनआईए कोर्ट के सामने अपनी समस्या को रखते हुए कहा कि उनको श्वांस की बीमारी है, जेल जाने पर संक्रमण का खतरा रहेगा, उनको जमानत दे दी जाये। लेकिन उनकी बातों को नहीं सुना गया। जबकि एनआईए ने जमानत का विरोध करते हुए यह माना था कि उनका एक सब इंस्पेक्टर कोरोना संक्रमित पाया गया है। अदालत ने इस बात को नजरअंदाज करते हुए आनन्द तेलतुम्बड़े को मुम्बई के सेंट्रल जेल भेज दिया। इसी तरह गौतम को 25 अप्रैल को ही कोर्ट में पेश कर दिया गया, जबकि उसकी एनआईए हिरासत में अवधि 28 अप्रैल तक की थी।

कोर्ट में समय से पहले पेश करने के कारण उनके तरफ से कोई वकील भी पेश नहीं हो पाया और उनको तिहाड़ जेल नम्बर दो में भेज दिया गया। तिहाड़ जेल में पहले ही कैदियों की संख्या क्षमता से अधिक है। 15 अप्रैल, 2020 तक तिहाड़ जेल में 10,309 कैदियों को रखा गया था और जेल की क्षमता 5200 कैदियों की हैं। गौतम नवलखा को तिहाड़ के 2 नम्बर जेल में रखा गया है जहां पर 455 कैदियों की रखने की संख्या है लेकिन 572 कैदी 15 अप्रैल तक थे। बुजुर्ग व्यक्तियों को जिनका कोई आपराधिक इतिहास नहीं है और जिनकी बौद्धिक क्षमता और काम को न्याय पसंद लोग काफी महत्व देते हैं उन्हें इस समय जेल भेजना कितना सही है?

आनन्द तेलतुम्बड़े : दलित चिंतक, मानवाधिकार कार्यकर्ता, जो कई कम्पनियों में सीओ रह चुके हैं। ईपीडब्लयू में लगातार लिखते रहते हैं। अभी गोवा में मैनेजमेंट के सीनियर प्रोफेसर थे। मूलतः अंग्रेजी में लिखने वाले आनन्द तेलतुंबड़े के लेख अलग-अलग भाषाओं में प्रकाशित होते रहे हैं।

गौतम नवलखा : देश-दुनिया के प्रतिष्ठित मानवाधिकार कार्यकर्ता, प्रतिष्ठित पत्रिका ईपीडब्ल्यू के सलाहकार मंडल के सदस्य हैं। इन्होंने अपने जीवन के 40 साल से भी अधिक समय को देश के शोषित-पीड़ित जनता के पक्ष में बोलते-लिखते हुए लगा दिया। गौतम ने दिल्ली में हुए 1984 दंगे की जांच में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी इस जांच रिपोर्ट को अदालत में भी सबूत के तौर पर पेश किया गया था। वे पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) से जुड़े हुए थे।

नागरिक एवं जनवादी संगठनों के संयुक्त मंच सीडीआरओ के 10 साल पूरा होने पर 2-3 सितम्बर को हैदराबाद में गौतम ने चिंता जताई थी कि आने वाले समय डेमोक्रेटिक राइट्स के नजरिये से चुनौतीपूर्ण होने वाला है; इन संगठनों को भी राज्य सत्ता के दमन का शिकार होना पड़ेगा। गौतम की कही हुई बातें ठीक उन पर ही एक साल बाद लागू हो गई और ढाई साल बाद वह उस दमन का शिकार हो गये। इस सम्मेलन में गौतम ने कहा था कि भारत में 1 प्रतिशत लोगों के पास 60 प्रतिशत देश की सम्पत्ति है जबकि 70 प्रतिशत लोगों के पास मात्र 7 प्रतिशत ही सम्पत्ति है। भारत के अन्दर नये साम्राजय खड़े होते जा रहे हैं, जिनके पास अपनी प्राइवेट सेना भी है- जैसा कि रिलायंस के पास 16,000 से ज्यादा आर्मी के रिटायर सैनिक व अफसर हैं।

यह वे भूतपूर्व आर्मी हैं जो कि कारगिल युद्ध और मुम्बई ऑपरेशन में या इसी तरह के एक्टिव ऑपरेशन में शामिल रहे हैं। उन्होंने कहा था कि देश में सरकारी नौकरियां कम होती जा रही हैं, सरकारी नौकरी है तो एक ही जगह मिलट्री में। चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जिस दिन मिलिट्री का निजीकरण होगा तो इस देश का क्या होगा? हमें बड़े उद्योग घराने से सीधे मुकाबला करना होगा जो कि सरकार के वाया नहीं हो सकता है। गौतम, आनन्द तेलतुम्बड़े, सुधा और सोमा सेन जैसे उनके सहयोगी इतने दूरदर्शी, जनपक्षीय थे कि उनका लिखने-बोलने से सत्ता को डर लगने लगा था। यही कारण है कि भीमा कोरेगांव के असली गुनहागारों की जगह एक छद्म कहानी के द्वारा इन लोगों को जेलों में डाल दिया गया जिससे कि पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की लूट की राह में रोड़ा बनने वाले लोग डर जायें।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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