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चन्नी के चयन को हल्के में मत लीजिए !

सच पूछा जाए तो पंजाब जैसे राज्य मेें एक दलित का मुख्यमंत्री पद पर बैठ जाना बहुत बड़ा परिवर्तन है और इसे चलते-फिरते मुहावरों के जरिए रखने से बात नहीं बनती है।
Charanjit Singh Channi

देश में राजनीतिक विमर्श इतना सिकुड़ गया है कि हम किसी बड़ी घटना का भी खुल कर अर्थ नहीं निकाल पाते हैं। एक लक्ष्मण रेखा खींच दी गई है जिसके बाहर जाने की इजाजत नहीं है। यह रेखा टीवी चैनलों से लेकर अखबारों तक में नजर आती है। यही पंजाब में मुख्यमंत्री बदलने की घटना के साथ हुआ है। बहस को यहीं तक सीमित रखा जा रहा है कि कांग्रेस को इससे पंजाब और अन्य राज्यों के विधान सभा चुनावों में कितना फायदा होगा। लोग यह जानने में लेगे हैं कि यह मास्टरस्ट्रोक है या नहीं। राजनीति को खेल और मनोरंजन के स्तर पर ले आने का इससे चालाक तरीका क्या हो सकता है? सच पूछा जाए तो पंजाब जैसे राज्य मेें एक दलित का मुख्यमंत्री पद पर बैठ जाना बहुत बड़ा परिवर्तन है और इसे चलते-फिरते मुहावरों के जरिए रखने से बात नहीं बनती है।

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि यह फैसला कुछ खास परिस्थितियों में हुआ है और कांग्रेस के एजेंडे पर ऐसा कुछ नहीं था कि किसी दलित को ही मुख्यमंत्री बनाना है। कैप्टन अमरिंदर सिंह ने विधायकों और पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच अपनी लोकप्रियता इस कदर खो दी थी कि उनका पद पर बने रहना नामुमकिन हो गया था। नेतृत्व कोई ऐसा नेता ढूंढ  रहा था जो कैप्टन की अनुपस्थिति में पार्टी को संभाल सके और प्रदेश के जातिगत समीकरण में फिट हो सके। राज्य में अभी तक जाट सिख ही नेतृत्व में रहे हैं। जाहिर है कि उन्हीं में से या सुनील जाखड़ जैसे जाट नेता के नाम पर विचार हो रहा था जो जाट सिखों के बीच समान रूप से लोकप्रिय हों। लेकिन यह हो नहीं पाया। नवजोत सिंह सिद्धू को बनाना मुश्किल ही था क्योंकि कांग्रेस जैसी पार्टी में दूसरी पार्टी से आए व्यक्ति को उससे ज्यादा देना व्यावहारिक नहीं था जितना उन्हें मिल चुका है।

यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है कि एक दूसरे के नाम पर सहमति न होने के कारण सुखजिंदर सिंह रंधावा, सिद्धू या सुनील जाखड़ ने मौका गंवा दिया। महत्वपूर्ण यह है कि जब फैसले की घड़ी आई तो राहुल गांधी ने चरणजीत सिंह को चुन लिया। उन्हें चुन  लेने से  भाजपा ही नहीं बल्कि बहुजन समाज पार्टी जैसी पार्टियां भी तिलमिला गईं। यह तिलमिलाहट सिर्फ इसलिए नहीं है कि राज्य में बसपा-शिरोमणि अकाली दल गठबंधन की धार कम हो गई है और दलित उपमुख्यमंत्री बनाने का उनका वायदा निरर्थक हो गया है। इससे उत्तर भारत ही नहीं देश के बाकी हिस्सों में भी सत्ता में असरकारी भागीदारी की दलितों की आकांक्षा एकदम से जाग्रत हो गई है। इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि यह फैसला ऐसे समय में आया है जब पंजाब में ही दलित राजनीति एकदम पीछे चली गई है। 1992 के चुनावों में बसपा ने विधान सभा की नौ सीटें जीती थी और उसे 16 प्रतिशत वोट मिलें थे। 1996 में अकाली दल के साथ गंठबंधन के सहारे उसने तीन सीटें जीत ली थी। कांशीराम खुद भी चुनाव जीत गए थे। 2017 में बसपा का वोट प्रतिशत 16 से घट कर डेढ प्रतिशत हो गया। पूरे उत्तर भारत में दलित राजनीति का यही हाल हो गया है। उत्तर प्रदेश में मायावती की हालत ऐसी है कि वह तेज जलधारा में किसी तिनके की तलाश में हैं।

बिहार में रामविलास पासवान के निधन के बाद चिराग पासवान का क्या हाल है, यह सामने है। हिमाचल, राजस्थान, हरियाणा मध्य प्रदेश,  छत्तीसगढ और उत्तराखंड कहीं भी दलित राजनीति  कमजोर ही नजर आती है। यहां तक कि लंबे समय तक प्रभावी रही महाराष्ट्र की दलित राजनीति अब अपनी वैचारिक ऊर्जा खो चुकी है। रामदास आठवले जैसे नेता यह दावा जरूर कर लें कि नरेंद्र मोदी ने उन्हें उचित सम्मान और भागीदारी दी है, सच्चाई यही है कि दलित राजनीति का जन्म जिस सामाजिक बदलाव के लिए हुआ है, उससे वह काफी दूर चली गई है। दलित राजनीति का सामान्य कार्यकर्ता भी बता सकता है कि हिंदुत्व के समूहगान में कोरस गाना सिर्फ अवसरवाद है।

ऐसे में, चन्नी को कमान सौंप कर राहुल गांधी ने अपनी खोई ताकत वापस लाने की कोशिश कर रही दलित राजनीति को एक दिशा दे दी है। मायावती जिस सर्वजन का समर्थन जुटाने के लिए ब्राह्मण सम्मेलन करा रही हैं उसी सर्वजन के नेता के रूप में चन्नी बैठ गए हैं। इसके लिए उन्हें व्यक्तिगत स्तर पर कोई सौदेबाजी नहीं करनी पड़ी है और न कोई समझौता।

ऊपर चर्चा की गई बातें मौजूदा राजनीतिक हालत से संबंधित हैं। लेकिन समाजिक बदलाव के व्यापक नजरिए से देखें तो इस कदम का असर और भी गहरा जान पड़ता है। पंजाब में हरित क्रांति ने पंजाब में खेती का एक ऐसा ढांचा बना दिया है जिसमें दलित खेतिहर मजदूर के रूप में भागीदार हैं और उन्हें सामंती शोषण का सामना करना पड़ता है। वहां की खेती में यह तनाव लंबे समय से कायम है। किसान आंदोलन ने इसे फौरी तौर पर ढीला जरूर किया है, लेकिन यह अब भी कायम है। ऐसेे में, एक दलित को राज्य का नेतृत्व सौंप कर कांग्रेस ने सामंती  ढांचे में परिवर्तन की गुंजाइश बना दी है। भारत-पाक विभाजन और फिर खालिस्तानी अतंकवाद से क्षतिग्रस्त पंजाबी समाज मेें जैसा है वैसा ही रहने दो की स्थिति बन गई थी और कमजोर तबके के लिए सही नहीं थी। इस कदम ने बदलाव के नए रास्ते खोल दिए हैं। इस मायने मेें यह क्रातिकारी कदम है। यह किसान आंदोलन में बने किसान और खेतिहर मजदूर गठबंधन को भी मजबूती देगा।

एक और विषय पर मीडिया बात नहीं करना चाहता है क्योंकि इसमें भाजपा नेतृत्व के काम करने की शैली पर टिप्पणी करनी पड़ेगी। गुजरात और उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदलने में विधायकों के साथ किसी तरह का संवाद नहीं किया गया। गुजरात के परिवर्तन का किस्सा मीडिया चटखारे लेकर सुना रहा है कि विधायक दल की बैठक में उनके नाम की घोषणा होने के पहले तक उन्हें पता नहीं था कि वह मुख्यमंत्री बन गए हैं। इसे उचित ठहराने के लिए इंदिरा गांधी का उदाहरण दिया जा रहा है कि वह किस तरह मुख्यमंत्री नियुक्त करती थीं।

यह एक गलत तुलना है। इंदिरा गांधी ने अगर गलत तरीका अपनाया तो उससे वही करने की आपको छूट नहीं मिल जाती है।  सवाल यह है कि चयन का तरीका कितना लोकतांत्रिक है।  इस लिहाज से चन्नी का चयन काफी हद तक लोकतांत्रिक है। केंद्रीय नेतृत्व ने व्यापक सलाह-मशविरा के बाद ही यह फैसला लिया। अभी के वक्त में जब किसी न किसी बहाने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को समाप्त करने का सिलसिला चल रहा है, ये बातें महत्वपूर्ण हैं।  हालांकि इसे और भी लोकतांत्रिक बनाने की जरूरत है। विधायक दल को ही मुख्यमंत्री चुनना चाहिए।

चन्नी केे चयन के बाद भाजपा का आईटी सेल और गोदी मीडिया सेल जिस तरह उन पर हमले करने लगा, उसी से पता चलता है कि यह कितना अहम फैसला है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं)

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