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पंजाब विधानसभा चुनाव: प्रचार का नया हथियार बना सोशल मीडिया, अख़बार हुए पीछे

चुनाव आयोग के नये निर्देशों में पांच राज्यों- पंजाब, यू.पी, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में रोड शो, पद यात्रा, वाहन रैलियों और चुनावी जलूसों पर पाबंदियां 11 फरवरी तक बढ़ा दी गई हैं। जिसके चलते सोशल मीडिया पर प्रचार का महत्त्व बढ़ गया है।
Punjab
पंजाब चुनाव में प्रचार के लिए क्रिएटिव वीडियोज का किया जा रहा है इस्तेमाल

भारतीय चुनाव आयोग द्वारा पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में प्रचार पर लगाई पाबंदियों के चलते पंजाब में चुनाव प्रचार के तरीके पिछली बार की अपेक्षा काफी बदल गए हैं। अब वर्चुअल प्रचार बड़े दिलचस्प ढंग से चल रहा है। राज्य के ग्रामीण इलाकों के लोगों के लिए यह चुनावी दृश्य काफी हैरानीजनक है। चुनाव आयोग ने 31 जनवरी तक रोड शो, पदयात्रा, वाहन रैलियों और बड़ी जन सभाओं पर पाबंदी लगाई थी। खुली सभा में 500 से ज्यादा व्यक्ति या किसी जगह की क्षमता के 50 फीसदी से ज्यादा लोगों के शामिल होने पर पाबंदी थी। घर-घर प्रचार में 10 व्यक्तियों से ज़्यादा शामिल नहीं हो सकते थे। 31 जनवरी को चुनाव आयोग के नए निर्देशों में कुछ छूट दी गई है लेकिन पाबंदियों को 11 फरवरी तक बढ़ा दिया गया है।

नये निर्देशों में पांच राज्यों- पंजाब, यू.पी, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में रोड शो, पद यात्रा, वाहन रैलियों और चुनावी जलूसों पर पाबंदियां 11 फरवरी तक बढ़ा दी गई हैं, इसके साथ ही घर-घर प्रचार करने वालों की गिनती 10 से बढ़ा कर 20 कर दी गई है, चुनावी सभाओं में अब 500 की जगह 1000 लोग शामिल हो सकते हैं। इनडोर बैठकों में शामिल होने वाले लोगों की गिनती भी 300 से बढा कर 500 कर दी गई है।

ऐसे हालातों में चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों ने सोशल मीडिया को अपने प्रचार का अड्डा बना लिया है। अब चुनावी लड़ाई में बड़ी-बड़ी जन -सभा की जगह फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सऐप ने ले ली है। अब सोशल मीडिया के जरिये उम्मीदवार न सिर्फ अपना प्रचार ही करता है बल्कि अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदी के विरुद्ध चुनावी युद्ध का आह्वान भी इसी मंच से करता है। सोशल मीडिया पर अब दिलचस्प टैगलाइन, सियासी विरोधियों को निशाना बनाते मीम्स दिखाई देते हैं। वीडियो क्लिप्स के जरिए भी चुनावी प्रचार में जान फूंकने की कोशिश की जा रही है। अब जो उम्मीदवार टेक्नोलॉजी में पीछे है वह प्रचार में भी पीछे रह गया है।

CHANNI
पंजाब के मुख्यमंत्री चन्नी चुनाव प्रचार करते हुए 

पुरानी चुनाव मुहिमों का तजुर्बा रखने वाले एक अधिकारी का कहना है, “पंजाब में उम्मीदवार आम तौर पर चुनाव से लगभग एक साल पहले अपने वोटरों के फोन नंबर इकठ्ठे कर उनसे सम्पर्क करते थे। यह काम इस बार उनके लिए वरदान साबित हो रहा है क्योंकि अब उम्मीदवार व्हाट्सऐप के जरिए अपने वोटरों को अपने चुनावी सन्देश भेजते हैं” पंजाब के रिटायर्ड जन-सम्पर्क अधिकारी और पंजाब चुनावों को नजदीक से देखने वाले उजागर सिंह बताते हैं “चुनाव आयोग की पाबंदियों के कारण शुरू हुए डिजीटल प्रचार का एक फ़ायदा यह है कि उम्मीदवारों का खर्चा कम होगा। प्रचार के समय जो शराब बाँटने का चलन होता था वह भी कुछ रुका है। खासकर वह शराब खर्च जो उम्मीदवार अपनी प्रचार करने वाली टीम पर खर्च करते थे। मुझे लगता है इस से चुनावी भ्रष्टाचार भी रुकेगा। आज जब नेता किसी बड़ी रैली की जगह वोट मांगने के लिए घर-घर जाते हैं तो यह उनकी जनता के प्रति जवाबदेही को कुछ हद तक तय करेगा। इसका एक दूसरा पक्ष यह भी है कि इससे कुछ लोगों का नुकसान भी होगा जैसे कि रैलियों में टेन्ट, कुर्सियों आदि का प्रबंधन करने वाले, लाऊड स्पीकर लेकर रिक्शा पर प्रचार करने वाले मजदूर| ऐसे गरीब लोगों को चुनावी मौसम में कमाई का कुछ साधन मिलता था।” 

राज्य में हो रहे इन चुनावों में अख़बारों की अहमियत कम होती नजर आ रही है। पहले चुनाव नज़दीक आते ही अखबार (ख़ासकर पंजाबी अखबार) अपने स्थानीय पन्ने बढ़ा देते थे। इन पन्नों में राजनैतिक पार्टियों के उम्मीदवारों के इश्तिहार, इश्तहारनुमा खबरें और उनके प्रोपेगंडा से भरे होते थे। मीडिया विशेषज्ञों का कहना है कि यह अख़बारों की कमाई का सीजन होता है, हर बड़ी पार्टी के उम्मीदवार की कवरेज के लिए अख़बारों द्वारा एक स्ट्रिंगर लगाया जाता है जो अखबार को `कमाई` कर के भी देता है और खुद भी `कमाता है`। इस चुनाव में यह रुझान काफी कम नजर आ रहा है।  एक तो कोरोना काल में अख़बारों ने अपने स्थानीय पन्ने पहले ही कम कर दिए या कुछ ने बिल्कुल बंद कर दिए, दूसरा अब उम्मीदवारों ने अपने प्रचार का पूरा जोर डिजीटल माध्यमों पर लगा दिया है और अख़बारों को खुद ही अहमियत देनी कम कर दी है। अब राजनैतिक पार्टियों और चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों ने अपनी सोशल मीडिया टीमें बना ली हैं और बहुत कम दरों पर नौजवानों को अपने ऑनलाइन प्रचार पर लगाया हुआ है।

एक स्थानीय अखबार से जुड़े स्ट्रिंगर ने नाम न छपने की शर्त पर हमें बताया, “अब उम्मीदवारों की रूचि अख़बारों में अपने इश्तिहार या प्रैस नोट छपवाने की पहले जितनी नहीं रही क्योंकि यह काम उनके लिए महंगा पड़ता था। अब उन्होंने बहुत कम रेट पर लडके-लड़कियाँ  भर्ती कर अपनी सोशल मीडिया टीम बना ली है। आजकल प्रमुख अख़बारों से जुड़े वे पत्रकार भी मायूस हैं जो इस चुनावी सीजन में लाखों रूपये कमाते थे या जो उम्मीदवारों के चुनावी रणनीतिकार बने फिरते थे। अखबार चुनाव के मौसम में इस बार भी हमें इश्तिहार लाने को कहते हैं पर जब हम चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों के पास जाते हैं तो वे रूखी-सी भाषा में कह देते हैं, ‘देख लेंगे, अब हमारा काम सोशल मीडिया से सस्ते में हो जाता है।”  

पंजाब के 22 किसान संगठनों द्वारा चुनाव लड़ने के लिए गठित किये गये संयुक्त समाज मोर्चा के मंजीत सिंह का कहना है, “हम चुनाव में नये हैं, लोगों से जुड़ना हमारे लिए एक बड़ी चुनौती है पर सोशल मीडिया खासकर व्हाट्सऐप और फेसबुक हमारे जैसे छोटे और नये संगठन के प्रचार के लिए अच्छा माध्यम साबित हो रहा है।” 

जिला बरनाला के पढ़े-लिखे नौजवान नवकिरण सिंह का कहना है, “बेशक चुनाव आयोग की पाबंदियों से काफी कुछ बदला हुआ नजर आ रहा है लेकिन अंदरखाने अभी भी चुनाव प्रचार चुनाव आयोग के नियम तोड़ कर हो रहा है। गावों में अक्सर ही आयोग द्वारा तय की गयी गिनती से ज्यादा लोग इकठ्ठा हो जाते हैं। घर-घर प्रचार के समय भी नियमों की धज्जियां उड़ती हैं। गावों में कई जगह जब उम्मीदवारों को लड्डुओं और सिक्कों से तोला जाता है तो काफी संख्या में लोग जमा होते हैं।” 

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