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क्यों तेजस्वी को अपनी पार्टी का कैडर बनाने के लिए वाम दलों से सीखना चाहिए?

वाम दलों ने बिहार में न सिर्फ अपनी जीत हासिल की बल्कि अपने सहयोगियों को जीत के दरवाजे तक पहुंचने में मदद भी किया। जहां कहीं भी जमीनी स्तर पर कम्युनिस्ट पार्टियों का काम था वहां न सिर्फ अपने लिए बल्कि गठबंधन के अन्य घटक दलों के लिए भी उसने वोटरों को संगठित किया और बूथ तक लेकर गए।
बिहार चुनाव

कहीं भी चुनाव न सिर्फ मुद्दों पर लड़ा जाता है बल्कि उसे जीत तक पहुंचाने में परशेप्शन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है या फिर कह लीजिए कि परशेप्शन से भी चुनाव लड़ा जाता है। उदाहरण के लिए महागठबंधन में जब वामपंथी दलों को शामिल किया गया तो इसका बड़े फलक पर सकारात्मक संदेश गया।

दूसरी तरफ महागठबंधन से वीआईपी के मुकेश साहनी और उपेन्द्र कुशवाहा जैसे घटकों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, बल्कि गठबंधन के मंच से वीआईपी के मुकेश सहनी को बाहर कर दिया गया। जिसे मुकेश सहनी ने ‘पीठ में छुपा घोपना’ कहा।

इसका आम जनता में संदेश यह गया कि राजद किसी भी वरिष्ठ नेता को अपने साथ जोड़ने से डरता है जो उन्हें चुनौती देता हो (हालांकि यह गलत अवधारणा है क्योंकि उनमें से कोई ऐसा नहीं है जिसने राजद के नेतृत्व को चुनौती दिया हो बल्कि ये दोनों तो वैसी पार्टियां थी जिनके साथ महागठबंधन ने मिलकर पिछला लोकसभा चुनाव लड़ा गया था।)

इसके विपरीत नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी के हिन्दुस्तानी अवामी मोर्चा (हम) को अपने साथ छह सीट देकर एनडीए में शामिल कराया तो बीजेपी ने महागठबंधन से निकाले जाने के बाद मुकेश साहनी को 11 सीट देकर अपने साथ जोड़ा। इस तरह महागठबंधन का दो दल एनडीए का हिस्सा बना और 17 सीटों पर लड़कर आठ सीटों पर विजयी रहा।

अगर सीधा जोड़ घटाव करके इन आठ सीटों को वहां से बाहर कर लें तो एनडीए की सरकार 117 सीटों के साथ अल्पमत में आ सकती है और महागठबंधन को एक सीट का लाभ मिल सकता है! जो हो नहीं पाया। इसके पीछे राजद का यह तर्क था कि चुनाव के बाद छोटे दलों को संभालकर रखना ज्यादा मुश्किल होता है, लेकिन शायद ऐसा तर्क देने वाले इस बात को भूल जाते हैं कि जनता के बीच किस तरह का मैसेज जाता है और इसका पक्ष में कितना माहौल बनता है!

लेकिन इन बातों से इतर कुछ और बातों पर गौर करें। बिहार विधानसभा चुनाव में सरकार भले ही एनडीए की बन रही हो और सबसे अधिक सीट (75) लाकर राजद प्रमुख विपक्षी दल बनकर उभरा हो, दरअसल बिहार में असली विजेता वामपंथी दल बनकर उभरा है।

इस बार महागठबंधन में शामिल वामपंथी दलों को 29 सीटें दी गई थी जिसमें सबसे अधिक 19 सीटों पर सीपीआई (एमएल), 6 सीटों पर सीपीआई और 4 सीट सीपीआई (एम) के हिस्से में आई थी। इन 29 सीटों में से 16 सीटों पर वामदल विजयी रही है जिसमें 12 सीटें एमएल को और दो-दो सीटों पर सीपीआई व सीपीएम को मिला है।

वाम दलों को ऐसी सफलता 1990 के बाद पहली बार है। बिहार में 1990 तक विधानसभा में सीपीआई और सीपीएम की दमदार मौजूदगी रही है। 1990 में वामपंथी दलों के 26 विधायक चुनकर आए थे जिसमें इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आईपीएफ, जो सीपीआईएमएल के अंडरग्राउंड के समय मुख्य राजनीतिक फ्रंट था) के 7 विधायक भी थे।

1972 के विधानसभा में तो सीपीआई के 35 विधायक थे और वह प्रमुख विपक्षी दल था। इसी तरह उससे पहले 1967 में सीपीआई के 22 सदस्य थे जबकि 1990 के दशक में पूर्णिया से जीतकर आने वाले सीपीएम के अजीत सरकार और भाकपा माले के महेन्द्र सिंह लगभग प्रतिपक्ष के नेता की भूमिका निभाते रहे थे।

पहले फेज में 71 सीटों हुए चुनाव में महागठबंधन को 80 फीसदी सीटों पर सफलता मिली। जबकि दूसरे फेज के 94 सीटों पर यह सफलता 50 फीसदी हो गया जो अंतिम फेज के 74 सीटों पर घटकर 30 फीसदी हो गया।

इसका मुख्य कारण यह रहा कि जहां कहीं भी जमीनी स्तर पर कम्युनिस्ट पार्टियों का काम था वहां न सिर्फ अपने लिए बल्कि गठबंधन के अन्य घटक दलों के लिए भी उसने वोटरों को संगठित किया बल्कि मतदाताओं को बूथ तक ले गया जबकि चुनाव के दूसरे फेज में वामपंथी दलों का प्रभाव पहले की तुलना में कम था इसलिए वे अन्य दलों को इतना मदद नहीं कर पाए जबकि तीसरे फेज में जहां ‘माय’ (मुस्लिम-यादव) का सबसे जबर्दस्त समीकरण था वहां महागठबंधन सबसे खराब प्रदर्शन किया।

पहले और दूसरे फेज की सफलता का आकलन करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि वामपंथी दल के कार्यकर्ता ही किसी बड़े नेता के चुनावी सभा से पहले प्रत्याशी के पक्ष में माहौल बनाते थे, सामान्य जनता को मोबलाइज करके वोटिंग बूथ तक लेकर जाते थे।

तीसरे फेज में महागठबंधन की असफलता का मुख्य कारण यह भी रहा कि वह क्षेत्र राजद का गढ़ रहा है लेकिन राजद के पास जमीनी कार्यकर्ता नहीं है। वे अपने मतदाताओं को बूथ तक नहीं पहुंचा पाए। जिसका परिमाण यह हुआ कि पिछली बार चुनकर आए लगभग पचास फीसदी से अधिक विधायक इसबार चुनाव हार गए।

यहां मार्के की बात यह है कि जनता और नेता के बीच जो दूरी बढ़ जाती है उस दूरी को कार्यकर्ता या पार्टी द्वारा भरा जाता है, लेकिन कार्यकर्ताओं न होने से इसका सीधा नुकसान जनप्रतिनिधि को उठाना पड़ता है (बेशक, इसके लिए जनप्रतिनिधि का निजी व्यवहार भी मायने रखता है)। दूसरी तरफ बीजेपी के 53 फीसदी विधायक इस बार भी चुनाव जीतकर आए हैं।

आरजेडी की सबसे बड़ी परेशानी यह रही कि लालू यादव के चमत्कारिक नेतृत्व के चलते उसने कभी संगठन बनाने पर ध्यान ही नहीं दिया। संगठन पर उसी स्तर तक ध्यान दिया गया जितने की जरूरत चुनाव आयोग ने तय कर रखा था या फिर जिससे कि पार्टी की मान्यता सुरक्षित रह सके।

पिछले चौबीस वर्षों से यह पार्टी बिना किसी खास सांगठनिक ढ़ांचे का काम रही है क्योंकि लालू यादव जैसा चमत्कारिक व्यक्तित्व पार्टी के साथ रहा है लेकिन उनकी अनुपस्थिति में कार्यकर्ता के बगैर पार्टी को अपनी मंजिल तक पहुंचने में परेशानी हो गई है। आरजेडी के जितने भी बड़े रणनीतिकार होगें वे इस बात को अब जरूर महसूस कर रहे होगे।

अगर वामपंथी दल इस गठबंधन में शामिल नहीं होता तो हो सकता है कि महागठबंधन के सीटों की संख्या और कम होती। हां, यह भी हो सकता है कि वामपंथी दलों के विधायकों की संख्या भी कम होती लेकिन इन दलों के होने से जितना लाभ महागठबंधन के अन्य दलों को हुआ है उतना खुद उसे नहीं हुआ है। इसलिए सीपीएम के सेक्रेटरी सीताराम येचुरी ने एक न्यूज एजेंसी को कहा कि वाम दलों को खारिज करना गलत साबित हुआ।

उनका कहना था कि अगर वामपंथी दलों को और सीटें मिली होती तो महा गठबंधन की स्थिति बेहतर होती। अगर हमें और सीटें मिलतीं तो हम इससे भी ज्यादा सीटें जीतते। लगभग इसी बात को सीपीआई (एमएल) के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्या ने भी इंडियन एक्सप्रेस में दुहराया है। उनका कहना है कि अगर कांग्रेस व वाम दलों  को 50-50 सीटें मिली होतीं तो इससे बेहतर परिणाम आने की गुंजाइश थी। मतलब दीपांकर के कहने का मतलब यह था कि उसे 20 सीटें कम और हमें 20 सीटें अधिक मिलनी चाहिए थी।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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