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राजस्थान: भीतर से उलझी है भाजपा, कांग्रेस की हालत भी कुछ ठीक नहीं!

अगले साल राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने हैं, जिसके लिए अमित शाह ने चुनावी शंखनाद भी कर दिया। हालांकि इस दौरान भाजपा की अंदरूनी कलह खुलकर सामने आ गई, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस भी बहुत तेज़ी से डगमगा रही है।
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भले ही केंद्र की सरकार दिल्ली से चल रही हो, लेकिन पिछले कई वर्षो से राजस्थान भी राजनीति का केंद्र बना हुआ है, जिसके पीछे कारणों की लंबी फ़िहरिस्त है।

राजस्थान की सत्ता में बैठी कांग्रेस जहां जनता के कामों से ज़्यादा ख़ुद की  सरकार बचाए रखने में व्यस्त है, तो वहीं भारतीय जनता पार्टी आंख गड़ाए बैठी है कि कब मौका मिले और विधायक तोड़ लिए जाएं।

हालांकि मौजूदा वक़्त में प्रदेश के भीतर भाजपा के अंदर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है, दूसरी ओर कांग्रेस का मामला तो पहले से डगमगाया हुआ है। ऐसे में देखना दिलचस्प ये होगा कि कौन सी पार्टी चुनावों से पहले अपने भीतर की कलह ख़त्म कर एकजुट हो जाती है।

क्योंकि राजस्थान एक ऐसा रेगिस्तान है, जिसके लिए कहा जाता है कि हर पांच साल पर यहां का ऊंट राजनीतिक करवट ज़रूर लेता है और फिर बड़ा बदलाव होता है। इस बदलाव का घटनाक्रम दशकों से चला आ रहा है, जिसमें कभी पासा कांग्रेस की तरफ़ होता है तो कभी भाजपा की तरफ़।

कहने का मतलब ये है कि भाजपा के सामने चुनौती है ऊंट को करवट दिलाने की और कांग्रेस के सामने उसे जैसे का तैसा बैठाए रखने की।

ग़ौरतलब है कि अगले साल यानी 2023 में राज्य के विधानसभा चुनाव होने हैं, यानी भाजपा और कांग्रेस दोनों में 200 सीटों के लिए कड़ी टक्कर देखने को मिल सकती है। वहीं साल 2024 में लोकसभा चुनाव भी होने हैं तो ऐसे में राज्य के 25 लोकसभा सीटों पर भी टक्कर दिलचस्प होगी। कहने का मतलब ये कि विधानसभा और लोकसभा चुनावों के बीच समय के कम अंतर को देखते हुए दोनों पार्टियां अभी से दोनों चुनावों की तैयारियों में जुट गई हैं।

ख़ैर, अब एक-एक कर बात करते हैं दोनों पार्टियों की दिक्कत के बारे में, शुरुआत करते हैं भारतीय जनता पार्टी से।

भाजपा के तथाकथित चाणक्य और गृह मंत्री अमित शाह चुनावों के मद्देनज़र सक्रिय हो चुके हैं, और शंखनाद करने बीते 10 सितंबर को राजस्थान के जोधपुर पहुंचे थे, इस दौरान इतने दिनों से छुपी भाजपा का अंदरूनी क्लेश खुलकर सामने आ गया।

गृहमंत्री अमित शाह ने दशहरा मैदान में कार्यकर्ताओं को संबोधित किया। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भी मौजूद थीं। जब उनकी बारी आई तब उन्होंने बग़ैर नाम लिए भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया पर हमला बोल दिया। वसुंधरा ने भाजपा नेताओं को चेताया और कहा दुश्मन को हल्के में नहीं लेना चाहिए। कमज़ोर भी नहीं समझना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी को ज़मीन पर मेहनत करने की ज़रूरत है। जब से मैं राजस्थान भाजपा में आई हूं, कांग्रेस को कभी 100 सीटें भी नहीं लाने दीं। उसी तरह हम कांग्रेस को हरा सकते हैं। राज्य में भाजपा प्रेस कॉन्फ्रेंस करने से नहीं पब्लिक कांग्रेस करने से मज़बूत होगी और उसी से सत्ता में आयेगी।

दरअसल प्रेस कॉन्फेंस करने वाले बयान के ज़रिए वसुंधरा ने सीधा निशाना प्रदेश सतीश पुनिया पर साधा था और पब्लिक के बीच जाने के लिए कहा था।

दरअसल भाजपा के भीतर इस सारी कलह की जड़ मुख्यमंत्री पद को लेकर है। क्योंकि पिछला चुनाव वसुंधरा राजे के नेतृत्व में लड़ा गया था और भाजपा को हार मिली थी, यही कारण है कि इस बार भाजपा वसुंधरा पर पूरी तरह से विश्वास करने में अक्षम है। हालांकि भाजपा को ये भी पता है कि वसुंधरा का अपना एक जनाधार है। जिसे नज़रअंदाज़ किया नहीं जा सकता। एक बात और ये कि वसुंधरा राजे अपने बड़े जनाधार के कारण भाजपा के सामने ज़्यादा नरम भी नहीं पड़ती हैं। जिसका उदाहरण साल 2018 के चुनाव में भी देखने को मिल गया था। चुनावों से ठीक पहले भाजपा नेतृत्व ने केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की तैयारी कर ली थी, लेकिन वसुंधरा की नाराज़गी के कारण उनके क़रीबी मदन लाल सैनी को अध्यक्ष बनाया गया था।

इस बार भी पार्टी का शीर्ष नेतृत्व राजस्थान भाजपा को वसुंधरा के प्रभाव से बाहर लाना चाह रहा है। हालांकि ऐसा होता दिख नहीं रहा। दूसरी ओर भाजपा को ये भी बहुत बेहतर पता है कि वसुंधरा राजे के संबंध कांग्रेस के नेताओं से भी अच्छे हैं। ऐसे में अगर वसुंधरा राजे को ज़्यादा साइडलाइन करने की ग़लती की गई तो वो भाजपा के लिए येदियुरप्पा बनने से पीछे नहीं हटेंगी।

हम येदियुरप्पा का उदाहरण इसलिए दे रहे हैं क्योंकि साल 2012 में जब उन्हें खनन घोटाले का आरोप लगने के बाद इस्तीफ़ा देना पड़ा था तब उन्होंने अपनी नई पार्टी केजीपी बना ली थी। जिसके बाद भाजपा के कर्नाटक चुनाव 2013 में हार का सामना करना पड़ा था।

इसी तरह अगर वसुंधरा राजे रूठ गईं तो वो भी नई पार्टी बना सकती हैं, या फिर बड़ी बात नहीं है कि कांग्रेस का दामन थाम लें। यानी इतना साफ़ है कि सतीश पूनिया भले ही प्रदेश अध्यक्ष बना दिए गए हों, लेकिन वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री उम्मीदवारी से दूर रखना भाजपा के लिए ख़तरे की घंटी ज़रूर हो सकती है। और इसका असर सिर्फ़ विधानसभा चुनावों पर नहीं बल्कि लोकसभा चुनावों पर भी पड़ेगा।

दूसरी ओर बात करें अगर कांग्रेस की तो राज्य में सरकार होने के बावजूद इनकी हालत भाजपा से ज़्यादा पतली है। महीना भर भी नहीं होता कि सचिन पायलट या उनके समर्थित विधायक मुख्यमंत्री गहलोत के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल देते हैं। इस कड़ी में एक बार तो गहलोत की सरकार जाते-जाते भी रह गई थी।

फ़िलहाल ताज़ा हालात ये है कि कांग्रेस की हालत राजस्थान से लेकर दिल्ली तक ख़राब है, न इनके पास केंद्र में स्थाई अध्यक्ष है न ही राजस्थान में। एक ओर जहां राहुल गांधी ने कह दिया है कि वो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनेंगे नहीं, तो ऐसे में सबसे वरिष्ठ अशोक गहलोत का नाम आगे चल रहा है, लेकिन अशोक गहलोत को डर है कि अगर वो कुछ वक़्त के लिए अध्यक्ष बन भी गए तो राजस्थान उनके हाथ से पूरी तरह निकल जाएगा और बाद में शायद ही उनके हाथ कुछ लगे।

लेकिन अशोक गहलोत भी मंझे हुए खिलाड़ी हैं और लगातार राहुल गांधी को अध्यक्ष पद के लिए मनाने में लगे हुए हैं, यानी वो किसी भी हालत में राजस्थान के मुखिया ख़ुद ही रहना चाहते हैं और सचिन पायलट को ज़रा भी जगह देने में हिचक रहे हैं।

अशोक गहलोत को पता है कि युवा नेता के तौर पर सचिन पायलट ने बहुत तेज़ी से नाम कमाया है, ऐसे में अगर उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया जाता है, तो उनके वर्चस्व को बचा पाना आसान नहीं रह जाएगा।

आपको बता दें कि पिछले कुछ दिनों से सचिन पायलट खेमे के कई विधायक पायलट को मुख्यमंत्री बनाने की मांग करते हुए मुखर हो गए हैं। गहलोत गुट के कुछ विधायक भी सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने की मांग कर चुके हैं। ऐसे में प्रदेश कांग्रेस में एक बार सियासी संकट के बादल छा गए हैं।

पायलट खेमे के दो विधायक और गहलोत गुट का एक विधायक कांग्रेस आलाकमान को चुनौती दे चुके हैं। चाकसू से कांग्रेस विधायक वेद प्रकाश सोलंकी पिछले कई दिनों से मुखर हैं। वे सार्वजनिक मंचों से बयान दे चुके हैं कि अब सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो पार्टी को बड़ा ख़ामियाज़ा भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। विराट नगर से कांग्रेस विधायक इंद्राज गुर्जर भी दो बार खुलेआम कह चुके हैं कि पायलट को मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए। 6 सितंबर को इंद्राज गुर्जर ने कहा कि पायलट समर्थक विधायकों का सब्र अब टूटने वाला है। गहलोत गुट के कांग्रेस विधायक खिलाड़ीलाल बैरवा भी सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने की पैरवी कर रहे हैं। बैरवा जयपुर और जोधपुर में मीडिया से बात करते हुए सचिन पायलट के समर्थन में खुलकर बयान दे चुके हैं।

इस खींचतान के बीच जो कांग्रेस खेमे के लिए कुछ सवाल खुलकर सामने आ रहे हैं, जैसे कि क्या कांग्रेस प्रदेश में अपनी सरकार रिपीट कर पाएगी या नहीं? या क्या अशोक गहलोत अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा कर लेंगे?

इन सवालों के जवाब दरअसल मझधार में फंसे हुए हैं, क्योंकि राजस्थान के भीतर से आवाज़ आनी शुरु हो गई है कि पायलट के पास ही सरकार रिपीट करने का फ़ार्मूला है। प्रदेश के युवाओं की पहली पसंद सचिन पायलट हैं। पायलट प्रदेश के किसी भी क्षेत्र में जाते हैं तब स्वागत के लिए उमड़ने वाली भीड़ से साफ़ ज़ाहिर होता है कि लोग उन्हें कितना चाहते हैं। पायलट के जन्मदिन से एक दिन पहले हुए शक्ति प्रदर्शन में लाखों की संख्या में भीड़ उमड़ी थी। गहलोत खेमे के कई विधायक भी पायलट को जन्मदिन की बधाई देने के लिए पायलट के आवास पर गए थे। इस शक्ति प्रदर्शन के बाद पायलट को मुख्यमंत्री बनाने की मांग ज़ोर पकड़ने लगी है।

हालांकि ये ज़रूर कहा जा सकता है कि कांग्रेस की ये आपाधापी राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के चुनाव तक ख़त्म हो सकती है।

वहीं अगर प्रदेश में जीत की बात करें तो दोनों ही पार्टियों के लिए जीत का फ़ार्मूला प्रदेश के दलित ही तय करेंगे, क्योंकि प्रदेश में दलितों का वोट क़रीब 52 प्रतिशत है। जिनमें 11 प्रतिशत जाट हैं।

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