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राजस्थान : केंद्र-राज्य विवाद में फंसा 'कैनाल प्रोजेक्ट'

इसी साल राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने हैं और राज्य में पानी का संकट एक बड़ा मुद्दा है, लेकिन ईस्टर्न राजस्थान कैनाल प्रोजेक्ट राजनीति में फंसकर रह गया है।
Rajasthan

कहा जाता है कि भाजपा साल के हर दिन चुनावी मूड में रहती है, जनता को ज़्यादा न समझ आने वाली गुगली फेंककर सरकार भी बना लेती है, चाहे जीतकर या विधायक तोड़कर....लेकिन बना लेती है।

हालांकि कांग्रेस शासित राजस्थान एक ऐसा राज्य है, जो भाजपा के लिए गले की हड्डी बन गया है, जिसे निगलना या उगलना भाजपा के लिए फिलहाल मुश्किल हो गया है। हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि राज्य में भाजपा के बंटे हुए धड़े और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत द्वारा एक के बाद एक पूरे किए जा रहे जनता के वादे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बार-बार राज्य का चक्कर लगवा रहे हैं।

ओल्ड पेंशन स्कीम और सिलेंडर के दामों को आधा करने की घोषणा के बाद ईस्टर्न राजस्थान कैनॉल प्रोजेक्ट ने भाजपा के लिए परेशानी खड़ी कर दी है, ये परेशानी और ज़्यादा इसलिए भी बढ़ गई है, क्योंकि अक्सर आपस में बंटे हुए नज़र आने वाले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट इस मुद्दे पर एक साथ आकर खड़े हो गए हैं।

ईस्टर्न राजस्थान कैनॉल प्रोजेक्ट को लेकर भाजपा और कांग्रेस के बीच हमलों की प्रतियोगिता तो बहुत पुरानी है, लेकिन अब चुनाव में कुछ ही महीने बचे हैं, तो मुद्दा ज़ोर पकड़ रहा है।

पिछले दिनों जब प्रधानमंत्री 15 दिनों के भीतर दूसरी बार राजस्थान पहुंचकर दौसा में दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेस-वे का उद्घाटन कर रहे थे, तब उन्होंने इस ईआरसीपी का ज़िक्र करते हुए कहा था कि प्रदेश सरकार इसे लागू करने के लिए प्रतिबद्ध है।

जबकि दूसरी ओर कांग्रेस ये कह रही है कि ईआरसीपी को राष्ट्रीय परियोजना का दर्जा दिया जाना चाहिए। यानी इधर प्रधानमंत्री की सभा ख़त्म होती है, वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का एक ट्वीट आता है-हमारी सरकार ईआरसीपी का काम पूरा करने के लिए संकल्पबद्ध है इसलिए बजट में 13,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। प्रधानमंत्रीजी, आपने अच्छा अवसर गंवा दिया, आप पिछले विधानसभा चुनाव से पहले किए गए पूर्वी राजस्थान नहर परियोजना यानी ईआरसीपी को राष्ट्रीय परियोजना का दर्जा देने के आश्वासन को पूरा करते तो प्रदेश की जनता स्वागत करती। क्योंकि इस परियोजना के ज़रिए 13 ज़िलों में सिंचाई और पेयजल की उपलब्धता कराई जा सकती है।

इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का साथ मिलना भाजपा के लिए और ज़्यादा परेशानी का सबब बन गया। प्रधानमंत्री के कार्यक्रम के तुरंत बाद पायलट ने भी ट्वीट किया और कहा कि प्रधानमंत्री 15 दिनों में दूसरी बार राजस्थान आए, लेकिन ईआरसीपी को राष्ट्रीय परियोजना का दर्जा देने की दिशा में आज भी कोई कदम नहीं उठाया। यह परियोजना 13 ज़िलों के लिए संजीवनी है और लाखों लोगों की समृद्धि का सवाल है। इसे राष्ट्रीय परियोजना का दर्जा देने से परहेज़ करना ठीक नहीं है।

वैसे तो राजस्थान में पानी की बड़ी समस्या कोई आज का विषय नहीं, लेकिन चुनाव के साथ ईआरसीपी एक चर्चित मुद्दा बन जाता है। इस बार भी यही हो रहा है, इसके ज़रिए किस पार्टी को कितना फायदा मिल सकता है, इसे जानने से पहले इस परियोजना के बारे में ठीक से समझ लेते हैं।

साल 2017-18 के बजट में राजस्थान की तत्कालीन वसुंधरा राजे सरकार में इस परियोजना की घोषणा हुई थी, जिसमें ऐलान किया गया था कि ईआरसीपी परियोजना जयपुर, अजमेर, करौली, टोंक, दौसा, सवाई माधोपुर, अलवर, बारा, झालावाड़, भरतपुर, धौलपुर, बूंदी और कोटा ज़िलों में सिंचाई और पीने की पानी की ज़रूरतों को पूरा करेगी। राजे ने अपने आखिरी बजट भाषण में कहा था कि राज्य सरकार ने केंद्र सरकार को ईआरसीपी को राष्ट्रीय परियोजना घोषित करने के लिए प्रस्ताव भेजा है।

अब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ईआरसीपी को एक राष्ट्रीय परियोजना बनाने की मांग करते हुए इसके पीछे का तर्क बताया कि इसकी अनुमानित लागत लगभग 40,000 करोड़ रुपये है, जिसे राज्य सरकार अकेले वहन नहीं कर सकती है। केंद्र सरकार को राज्य के कल्याण के हित में सहायता प्रदान करनी चाहिए।

इस योजना में किसे कितना ख़र्च करना होगा, इसे लेकर जब हमने माकपा के पूर्व विधायक और किसानों के नेता अमराराम से बात की तो उन्होंने बताया कि जब इस योजना की शुरुआत हुई तब सरकार भाजपा की थी, और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे थीं, तब इसके लिए केंद्र से मदद मिल रही थी। उन्होंने बताया कि इस परियोजना की लागत 40 करोड़ है, ऐसे में राज्य सरकार अकेले कैसे वहन कर सकती है। यही कारण है कि हम भी मांग करते हैं कि इसे राष्ट्रीय परियोजना घोषित करना चाहिए।

पूर्वी राजस्थान नहर परियोजना यानी ईआरसीपी के उद्देश्य की बात करें तो उद्देश्य राजस्थान के जल प्रबंधन को नए सिरे से विकसित करना है। योजना के ज़रिए दक्षिणी राजस्थान में स्थित चंबल और उसकी सहायक नदियों जैसे कि कुन्नू, पार्वती, कालीसिंध को भी आपस में जोड़ा जाना है। इसके साथ ही इन नदियों में बारिश के मौसम के दौरान इकठ्ठा होने वाले पानी के लिए नई तकनीक विकसित करना है।

इस परियोजना की अहमियत की बात करें तो राज्य के भीतर जल आपूर्ति करने वाले जल स्त्रोंतों में केवल चंबल नदी एक है, जिसके बेसिन में सबसे ज़्यादा पानी है लेकिन उस पानी को सीधे इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है, क्योंकि कोटा बैराज और नज़दीकी इलाकों में मगरमच्छ अभ्यारण्य विकसित किया गया है इसलिए सीधे तौर पर पानी नहीं निकाला जा सकता है, ऐसे में ईआरसीपी योजना से डायवर्जन कर एक नया चैनल बनाया जाएगा। वहीं जल चैनलों के इस नेटवर्क के ज़रिए ही ईआरसीपी परियोजना धरातल पर उतरेगी।

राज्य-केंद्र के बीच तकरार का कारण देखें तो असली मुद्दा इसका ख़र्च है, क्योंकि केंद्र चाहता है कि 75 फ़ीसदी ख़र्च राजस्थान सरकार उठाए जबकि प्रदेश की मांग है कि इसे राष्ट्रीय परियोजना घोषित किया जाए ताकि इसका 90 फ़ीसदी ख़र्च केंद्र उठाए।

फिलहाल यहां ये जान लेना ज़रूरी है कि राजस्थान सरकार को ऐसे कौन से तथ्य पेश करने होंगे जिससे केंद्र सरकार इसे राष्ट्रीय परियोजना मान ले...

दरअसल गहलोत सरकार को ये साबित करना होगा कि ईस्टर्न कैनाल के जल पर राज्य की 75 फ़ीसदी निर्भरता है, जबकि अभी अनुमानित 50 फ़ीसदी की निर्भरता है। केंद्र की गाइडलाइन में भी इंटरस्टेट नदियों के जल बंटवारे को लेकर 75 फ़ीसदी की बात कही गई है। योजना में मौजूदा पार्वती-कालीसिंध-चंबल इंटरलिंक रिवर प्रोजेक्ट को भी शामिल करना है।

चाहे राज्य इसे पूरा करे या केंद्र...या फिर दोनों मिलकर इसे बनवाएं, लेकिन ये ज़रूर कहा जा सकता है कि इस योजना के पूरा हो जाने से पूर्वी राजस्थान में निवेश ज़रूर बढेगा। कैसे?

क़रीब 75 लाख हैक्टेर में बुआई होती है, जो तीन गुना बढ़ सकती है।

अभी सिर्फ बरसाती फसलों का सहारा है, लेकिन पानी आने से पैदावार के साथ-साथ किसानों की आय भी करीब तीन गुना बढ़ जाएगी।

क्योंकि पूर्वी राजस्थान का बहुत इलाका दिल्ली से सटा हुई है, ऐसे में पानी होने से अप्रत्याशित निवेश भी बढ़ेगा।

लेकिन विडंबना है कि राज्य और केंद्र सरकार इस योजना को पूरा करने से ज़्यादा इसे ज़िंदा रखने पर ध्यान दे रही हैं, ताकि चुनाव आने पर इन्हें ठीक तरह से इस्तेमाल किया जा सके, दोनों सरकारें जनता से ये कह सकें कि आप का काम फलां की वजह से अटका है।

अब इस योजना से जुड़े सियासी समीकरण को भी समझ लेते हैं, दरअसल जिन 13 ज़िलों से ये योजना होकर गुज़रेगी उसमें जयपुर, अजमेर, करौली, टोंक, दौसा, सवाई माधोपुर, अलवर, बारा, झालावाड़, भरतपुर, धौलपुर, बूंदी और कोटा ज़िले हैं, और इनके अंतर्गत करीब 100 विधानसभा सीटें आती हैं, यानी प्रदेश की आधी जनता।

क्योंकि इन 100 सीटों में करीब आधी कांग्रेस के पास हैं, तो ज़ाहिर है कि क्षेत्र में विधायक भी उसी के ज़्यादा होंगे, अब ऐसे में अगर ये योजना राष्ट्रीय योजना घोषित हो जाती है तो कांग्रेस जनता को ये बताने में कामयाब रहेगी कि हमने आपको पानी देने के लिए केंद्र को झुकने पर मजबूर किया। यानी अशोक गहलोत और कांग्रेस को सीधे तौर पर इसका फायदा मिल सकता है, वहीं दूसरी ओर अगर ऐसा नहीं होता है तो भाजपा ये मुद्दा उठा सकती है कि कांग्रेस ने पैसा ख़र्च करने में कोताही बरती और आपकी ज़रूरतों को जानबूझकर लटकाए रखा।

अमराराम कहते हैं कि इस परियोजना को लेकर केंद्र सरकार ज़बरदस्ती राजनीति कर रही है, और इसी के चलते ये काम लटका हुआ है। इसका ख़ामियाज़ा 13 ज़िलों में रहने वाले लोगों को खासकर किसानों को भुगतना पड़ रहा है, क्योंकि सारा पानी समुद्र में जा रहा है।

ख़ैर...अब चुनाव होने में ज़्यादा वक्त नहीं बचा है, और प्रधानमंत्री मोदी के साथ-साथ भाजपा के बड़े नेताओं ने राज्य के चक्कर लगाने भी शुरु कर दिए हैं, लेकिन देखने वाली बात ये होगी कि आख़िर में जनता के पैमाने पर किसकी बातें ख़री उतरती हैं।

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