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रिपोर्ट: मोदी के ‘न्यू इंडिया’ में बढ़ता जा रहा है मीडिया पर हमला

राइट्स ऐण्ड रिस्क्स एनेलिसिस ग्रुप की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले वर्ष 2020 में  226 पत्रकार, जिनमें से 12 महिला पत्रकार हैं, और साथ ही 2 मीडिया घराने हमलों के शिकार बने। ये हमले विविध किस्म के थे।
रिपोर्ट: मोदी के ‘न्यू इंडिया’ में बढ़ता जा रहा है मीडिया पर हमला

एक साल के दौरान उन पत्रकारों की संख्या देखें जिनपर हमले हुए हैं, तो एक आकलन हो जाएगा कि हमारे देश में मीडिया को कितनी आज़ादी मिली है। 2020 में मोदी शासन के दौरान भारत का इस मामले में रिकार्ड चौंकाने वाला है। चलिये, तथ्यों को ही बोलने देते हैं।

226 पत्रकार, जिनमें से 12 महिला पत्रकार हैं, और साथ ही 2 मीडिया घराने पिछले वर्ष हमलों के शिकार बने। ये हमले विविध किस्म के थे-

मसलन हत्या, शारीरिक हमले और कानून का गलत प्रयोग कर प्रताड़ित करना। इन पत्रकारों का एक ही ‘दोष’ था, कि वे एक बीमार समाज और उसको चलाने वालों को आईना दिखा रहे थे।

देश भर से आंकड़ों को देखें तो 13 पत्रकारों की हत्या की गई थी। 37 पत्रकारों को या तो फर्जी आरोपों के तहत गिरफ्तार किया गया या फिर गैर-कानूनी तरीके से हिरासत में रखा गया। 101 पत्रकारों पर शारीरिक हमले हुए या उन्हें ऑनलाइन ऐसा करने की धमकियां दी गईं।

कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि हमारे ‘‘लोकतांत्रिक’’ राज्य ने कानूनी ब्लैकमेल की कला में महारत हासिल कर ली है। राज्य द्वारा पत्रकारों के विरुद्ध 64 प्राथमिकियां दर्ज की गईं,  ताकि उन्हें सच लिखने से रोका जा सके, विशेषकर ऐसा सच जो सत्ताधारियों को नागवार गुज़रता हो। पत्रकारों को नोटिस जारी की गई और उन्हें पूछ-ताछ के लिए समन किया गया। कुछ को तो बिना किसी औपचारिक नोटिस ही पूछ-ताछ के लिए बुलाया गया।

ये बातें मन से नहीं कही जा रहीं, बल्कि इंडिया प्रेस फ्रीडम रिपोर्ट की चुनिंदा सुर्खियां हैं, जिसे एक प्रमुख एनजीओ राइट्स ऐण्ड रिस्क्स एनेलिसिस ग्रुप (Rights and Risks Analysis Group) ने प्रकाशित किया है। यह ग्रुप, जो जनअधिकारों के क्षेत्र में कार्यरत है, सालाना रिपोर्टें प्रकाशित करता है। इस बार की रिपोर्ट में भारत के पत्रकारों पर हुए हमलों के बारे में काफी मेहनत से तथ्य इकट्ठा किये गए हैं और उनका विश्लेषण भी प्रस्तुत किया गया है।

योगी राज में उत्तर प्रदेश पत्रकारों पर हमलों के मामले में सबसे ऊपर है, क्योंकि 37 ऐसे केस सामने आए हैं जिनमें पत्रकारों पर हमला हुआ। महाराष्ट्र दूसरे स्थान पर है, जहां विपक्ष की शिव सेना-एनसीपी-कांग्रेस सरकार है; वह 2020 में मीडिया कर्मियों पर 22 हमलों के लिए कुख्यात है। इन दो राज्यों में पत्रकार के रूप में काम करना ‘इन्सर्जेंसी (Insurgency) वाले जम्मू-कश्मीर में काम करने से भी अधिक खतरनाक है, जहां 18 ऐसे हमले हुए। ये उत्तर प्रदेश की आधी संख्या है। केंद्र के नाक के नीचे, यानी राष्ट्रीय राजधानी में 15 हमले हुए। अब यह बगदाद, काबुल और इस्लामाबाद के बाद पत्रकारों के काम करने के लिए सबसे खतरनाक राजधानी है।

राज्यों में भाजपा-शासित कर्नाटक का नम्बर इन दो राज्यों के बाद आता है। यहां 12 हमले हुए, जबकि पश्चिम बंगाल में 10 हमले हुए। तो हम देख सकते हैं कि सत्ता की कमान किसी भी दल के हाथ में हो, कोई भी पत्रकारों की सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं कर पा रहा है, न ही मीडिया की आज़ादी की गारंटी कर पा रहा है।

तथाकथित लोकतांत्रिक व संवैधानिक भारतीय राज्य ने अन्य तत्वों (Non-State actors) के जरिये भी ऐसे हमले करवाए हैं, उदाहरण के लिए स्वार्थी तत्वों के भाड़े के हत्यारे और राजनीतिक दलों के समर्थक भी इनमें आते हैं। दोनों में से हरेक के द्वारा 114 हमले हुए। आप कह सकते हैं कि राज्य और नागरिक समाज, दोनों ही पत्रकारिता के पेशे के लिए खतरा पेश कर रहे हैं।

बिक जाओ या हमले सहो

पूरी दूनिया को मालूम है कि मोदी सरकार ने भारत में बड़े मीडिया संस्थानों व कॉरपोरेट मीडिया के एक बड़े हिस्से को अपनी गोदी मीडिया में बदल दिया है। ये उन्हें चुनावों में उनके प्रति सकारात्मक कवरेज देने, रोजमर्रा की घटनाओं की बढ़ा-चढ़ाकर रिपोर्टिंग करने के लिए और आम तौर पर उनके पक्ष में सम्पादकीय लेख लिखने के लिए सीधे-सीधे भारी रिश्वत देते हैं। दूसरा तरीका है टैक्स रेड चलाने का, जो एक प्रकार की धमकी ही है कि ‘‘रास्ते पर आ जाओ......वरना...’’ अधिकतर मीडिया संस्थान जीवित रहने के लिए सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर रहते है, तो सरकार जब विज्ञापनों पर रोक लगा देती है, तो भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यह भी अप्रत्यक्ष धमकी है।

इंडिया प्रेस फ्रीडम रिपोर्ट 2020 में जो मामले दर्ज हैं, वह इस मीडिया की स्वतंत्रता पर बुनियादी हमले के अलावा हैं। जो संदेश हर बार दिया जाता है, वह है कि या तो पूरी तरह बिक जाओ, अन्यथा ऐसे हमलों से बच पाना संभव न होगा। सावधान!

ऐसे भी पत्रकार हैं जिपर कई-कई हमले हुए। यानी सीरियल या सिलसिलेवार उत्पीड़न के मामले। उनके विरुद्ध एफआईआर दर्ज हुए-या तो ‘सिविल डिस्टर्बैंस (Civil Disturbance) पैदा करने वाली उकसावेबाज रिपोर्टिंग के संबंध में या सामाजिक समूहों के बीच दुश्मनी पैदा करने को लेकर। पर यह सब इस नाम पर किया जा रहा था कि बदनामी करने के लिए रिपोर्टिंग अथवा मिथ्या रिपोर्टिंग पर रोक लगाने हेतु कड़े कदम उठाना जरूरी है। कई को पीटा गया और हिरासत में यातना तक दी गई।

महामारी के दौरान ऑक्सीजन की कमी, मरने वालों की संख्या और नदियों के किनारे पड़ी लाशें या फिर राज्यों को वैक्सीन की सप्लाई में कमी को रिपोर्ट करने वालों को ‘भय फैलाने’ के आरोप में 1897 के औपनिवेशिक एपिडेमिक डिज़ीज़ेज़ ऐक्ट के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। यह भी कहा गया कि वैक्सीन मौतों की रिपोर्टिंग करोगे तो मारे जाओगे।

एक ऐसा कानून जो आतंकवादियों के लिए या उनके लिये बनाया गया है जो भारतीय राज और सार्वजनिक सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न करते हैं, उन पत्रकारों पर लागू किया जाता है जिनका हथियार उनके कम्प्यूटर का कीबोर्ड है और जिनकी आतंकी गतिविधि है जनता को राज्य के काले कारनामों की सच्चाई बताना। जब भारतीय दंड संहिता, सीआरपीसी और आईटी कानून को केवल पत्रकारों के विरुद्ध धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जाता है, हम समझ सकते हैं कि भारतीय कानून के राज में बहुत सारे कानून काले कानूनों की श्रेणी में आते हैं और उनका काम ही लोकतंत्र की हत्या करना है।

‘कानूनी अवैधता’-सुनने में एक विरोधाभासी उक्ति लग सकती है। पर वर्तमान समय के मोदी शासन में ये एक असंगत सच्चाई की ओर इशारा करता है। यह स्पष्ट करता है कि तानाशाह शासकों के अधीन संवैधानिक व कानूनी शासन कानूनी अवैधता में तब्दील हो जा सकता है। विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र बहुत ही कमजोर आधार पर खड़ा है। इसके अलावा क्या नतीजा निकाला जा सकता है जब हम देखते हैं कि पत्रकारों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज की जाती है, जैसे प्रख्यात पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन, विनोद दुआ और आकार पटेल के मामले में हुआ? हम क्या सोचें यदि स्टिंग ऑपरेशन करके राजनेताओं, अधिकारियों और कॉरपोरेट अस्पतालों के भ्रष्टाचार का खुलासा करना पत्रकारों को जेल के सींखचों में कैद करवा सकता है या शारीरिक हमलों का शिकार बना सकता है, जैसा मध्यप्रदेश में बांध निर्माण घोटाले के केस में हुआ? दिल्ली के साम्प्रदायिक हमलों और कर्नाटक के दंगों के बारे में रिपोर्ट करने पर कुछ पत्रकार तो कारागार में हत्यारों और कुख्यात अपराधियों के बीच डाल दिए गए। क्या ये पत्रकार सचमुच साम्प्रदायिक हिंसा के जिम्मेदार थे? उत्तर प्रदेश में ऐसा ही हुआ जब पत्रकार सीएए-विरोधी आन्दोलन पर रिपोर्टिंग कर रहे थे।

यह रिपोर्ट उन मामलों को भी सामने लाती है जहां पत्रकार आदिवासियों के बारे में रिपोर्ट कर रहे थे-कि सुदूर अदिवासी क्षेत्रों में मास्क उपलब्ध न होने के कारण लोगों को पत्तों से काम चलाना पड़ रहा था, कि लॉकडाउन के चलते लाखों प्रवासी मजदूरों की दुदर्शा कैसी थी, कि भुखमरी झेल रहे लोगों को राशन नहीं मिल रहा था। ऐसे पत्रकारों को जेल में ठूंस दिया गया और उनकी सच्ची रिपोर्टिंग को झूठी खबर, यानी फेक न्यूज़ बता दिया गया। उनपर आरोप लगाया गया कि वे गैर-कानूनी गतिविधियों में लिप्त थे और लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का काम कर रहे थे। फिर, उन पत्रकारों पर मानहानि के मुकदमें लादे गए जो क्वारेंटाइन केंद्रों के प्रबंधन में लापरवाही और उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के अस्पतालों की दयनीय दशा को उजागर कर रहे थे। ऐसी स्थिति में जब सोशल मीडिया के किसी पोस्ट तक के लिए युवाओं पर राष्ट्रविरोधी होने का तमगा लग जाता है, मुख्यधारा की मीडिया में सरकार के विरुद्ध कुछ भी बोलने के लिए जगह कहां बची?

रिपोर्ट में एक वाकिये का जिक्र है, जहां एक प्रमुख समाचार एजेंसी पीटीआई (PTI) के पत्रकार ने चीनी राजदूत सुन वीडॉन्ग का सीमा विवाद पर साक्षात्कार लिया और पीटीआई ने उसे प्रकाशित किया ताकि चीन का पक्ष भी सामने लाया जा सके। सरकारी मीडिया संस्थान प्रसार भारती ने धमकी दी कि वह पीटीआई का सब्सक्रिपशन खत्म कर देगी। इससे भी बुरा यह हुआ कि गृह व शहरी मामलों का केंद्रीय मंत्रालय पीटीआई को नोटिस भेज देता है कि पार्लियामेंट स्ट्रीट में उन्हें दी गई जमीन पर निमार्ण में तथाकथित रूप से नियमों का उलंघन हुआ था, जिसके लिए उन्हें 64 करोड़ रुपये का जुर्माना देना होगा। जब पीटीआई पर एक साक्षात्कार की वजह से ऐसी दमनात्मक कार्यवाही की जा सकती है, तो उन साधारण छोटी-मोटी पत्रिकाओं व अख़बारों के लिए काम करने वाले पत्रकारों का क्या होगा जो पेशे में सिर्फ राजी-रोटी के लिए बने हुए हैं। ‘सच न बताओ’- लगता है यही आदेश है मीडिया के लिए।

125 पन्नों की यह रिपोर्ट सरकार के खिलाफ एक वास्तविक चार्जशीट जैसी है। बावजूद इसके कि मोदी सरकार एनजीओज़ के हज़ारों लाइसेंस एफसीआरए (FCRA) के तकनीकी पहलुओं का हवाला देकर खारिज की और इन संगठनों के विदेशी फंड में कटौती करने लगी, राइट्स ऐण्ड रिस्क्स जैसे कुछेक नागरिक समाज संगठन काफी हिम्मत दिखाते हैं और विश्व को बताते हैं कि राजा ही नंगा है। यह सचमुच प्रशंसनीय है।

सबसे खतरनाक स्थिति उत्तर प्रदेश के जंगल राज में दिखी जहां 6 पत्रकार-शुभम मणि त्रिपाठी, विक्रम जोशी, रतन सिंह, सूरज पाण्डेय, उदय पासवान और राकेश सिंह मारे गए। शुभम मणि त्रिपाठी को उन्नाव में मारा गया क्योंकि वह बालू माफिया के बारे में रिपोर्टिंग कर रहे थे। विक्रम जोशी को गाज़ियाबाद में उनकी बेटियों के सामने मार डाला गया क्योंकि उन्होंने स्थानीय गैंगस्टरों द्वारा अपनी भान्जी के उत्पीड़न का विरोध किया था। ऐसे गैंगस्टर उत्तर प्रदेश में सत्ता समर्थन से पलते हैं, जैसा कि हमने विकास दुबे वाले मामले में प्रत्यक्ष देखा। रतन सिंह को बलिया जिला में मारा गया और स्थानीय एसएचओ ने यह कहकर मामले को टाल दिया कि उनकी हत्या का पत्रकारिता के पेशे से कोई संबंध नहीं था, बल्कि किसी पुराने संपत्ति विवाद से वास्ता था। बाद में एसएचओ को हिन्दी पत्रकार समुदाय के आक्रोश के कारण निलंबित किया गया। राकेश सिंह निर्भीक, जिन्होंने सरकारी महकमे में भ्रष्टाचार को उजागर किया था, दिसम्बर 2020 में बलरामपुर में जिन्दा जला दिया गया। उन्नाव में सूरज पाण्डेय की हत्या के मामले में पुलिस सब-इंस्पेक्टर सुनीता चैरसिया और कॉन्स्टेब्ल अमर सिंह को दोषी पाया गया था। उदय पासवान और उनकी पत्नी की सोनभद्र जिले में भीड़-हत्या हुई वह भी 3 पुलिस कॉन्स्टेबल के सामने, पर उन्होंने कुछ नहीं किया। बाद में कर्तव्य की उपेक्षा के लिए इन्हें निलंबित कर दिया गया।

जहां तक उत्तर प्रदेश की बात है तो पाण्डेय हो या पासवान, पत्रकारों के मुंह बन्द कराने के लिए किसी भी हद तक जाया जा सकता है। यहां हर 1-2 महीने में एक पत्रकार की हत्या या हमला होता है। किसी यूरोपीय देश में ऐसी स्थिति होती तो वज़ीर को बक्शा नहीं जाता पर यहां तो आरएसएस और भाजपा मुख्यमंत्री को एक और पाली देने का मन बना चुके हैं।

यह रिपोर्ट तब जारी की गई जब जुलाई में एक दिन के बाद विपक्ष द्वारा पेगासस मामले में संसद की कार्यवाही को ठप्प किया जाना था। पेगासस मामले से यह भी पता चला कि विपक्षी राजनेताओं के अलावा पत्रकारों की भी जासूसी और सर्विलांस किया जा रहा था और इसको करने के लिए विवादित इज़रायली स्पाईवेयर की मदद ली गई थी। यह भी मीडिया पर हमले का एक नमूना है।

शुरू में ही रिपोर्ट में एक डिस्क्लेमर के माध्यम से कहा गया कि रिपोर्ट अंग्रेज़ी मीडिया में प्रकाशित मामलों के आधार पर तैयार की गई थी और ईमानदारी से स्वीकार भी करती है कि वह वर्नाकुलर यानी मातृ भाषा वाली मीडिया में छपे पत्रकारों पर हमलों के मामलों को जोड़ नहीं सका। यदि इसे भी रिपोर्ट में जोड़ दिया जाता तो भारत में मीडिया की स्वतंत्रता पर हमलों की व्यापकता का और भी गंभीर दृश्य प्रस्तुत होता। इस सीमित डॉक्यूमेंटेशन ने भी देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुद्दे को उठाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है।

(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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