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रिपोर्टर्स कलेक्टिव का खुलासा: कैसे उद्योगपतियों के फ़ायदे के लिए RBI के काम में हस्तक्षेप करती रही सरकार, बढ़ती गई महंगाई 

द रिपोर्टर्स कलेक्टिव के पत्रकार सोमेश झा ने सूचना के अधिकार के तहत हासिल दस्तावेज़ों की छानबीन कर यह पता लगाया है कि कैसे रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया की स्वायत्तता को खत्म किया गया। कैसे रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया को उसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी यानी महंगाई नियंत्रित करने के कामकाज से दूर कर दिया गया।
Arun Jaitley and Shaktikanta Das
फाइल फोटो।

हम महंगाई के कुचक्र में फंसते जा रहे हैं। क्यों फंसते जा रहे है? इसका जवाब ढूढ़ने पर अधिकतर विशेषज्ञ यह कहेंगे कि रूस यूक्रेन की लड़ाई की वजह से कच्चे तेल की कीमत बढ़ती जा रही है। कच्चे तेल की कीमत महंगाई के लिए जिम्मेदार है। कोरोना की वजह से दुनिया भर का कारोबार बंद रहा। सामान और माल का उत्पादन बंद रहा। इसलिए सप्लाई यानी आपूर्ति की कमी की वजह से महंगाई बढ़ने लगी। यह सब कारण एक हद तक जिम्मेदार हो सकते हैं। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था में महंगाई का साथ ऐसा नहीं है कि दो तीन महीने के लिए आए और चली जाए। बल्कि महंगाई भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति बन चुकी है। महंगाई का साथ हमेशा रहता है। जीवन जीने की लागत यानी महंगाई की बढ़ोतरी की गति में कमी कुछ समय के लिए आती है। आर्थिक जानकार कहते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था महंगाई के कुचक्र में फंस गयी है। महंगाई और भारतीय अर्थव्यवस्था के बीच चोली-दामन का साथ बन चुका है।  

ऐसा क्यों हो रहा है? इसका एक माकूल जवाब द रिपोर्टर्स कलेक्टिव के पत्रकार सोमेश झा की छानबीन से मिलता है। सोमेश झा ने सूचना के अधिकार के तहत हासिल दस्तावेज़ों की छानबीन कर यह पता लगाया है कि कैसे रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया की स्वायत्तता को खत्म किया गया? कैसे रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया पर दूसरे देशों को फायदा पहुँचाने का आरोप लगाया गया? कैसे रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया को उसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी यानी महंगाई नियंत्रित करने के कामकाज से दूर कर दिया गया? कैसे भारत सरकार को सस्ते दरों पर कर्जा मुहैया करवाने और पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए महंगाई के दौर में नीतिगत ब्याज दरों को बढ़ाए जाने की बजाए कम किया? सोमेश झा ने इस पूरे प्रकरण पर अलजज़ीरा पर तीन रिपोर्टें की हैं। उन तीन रिपोर्टों का यहाँ पर सरल शब्दों में बिना अर्थ बदले सारांश पेश कर रहा हूँ।  

साल 2014 से भाजपा का दौर शुरू हुआ। प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभाली। सत्ता संभालने के साल भर बाद सरकार, रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया से कहने लगी कि ब्याज दरों को कम किया जाए। ब्याज दर को कम करने से बैंक से कम दर पर कर्ज मिलने लगता है। रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया का मानना था कि ब्याज दर कम करने से बढ़ती हुई महंगाई पर लगाम कसना मुश्किल हो जायेगा। इसलिए RBI ब्याज दर कम करने के बजाए महंगाई को नियंत्रित करने पर ज्यादा तवज्जो दे रही थी।

ब्याज दरों को तय करने को लेकर सरकार और रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के बीच मतभेद कोई नई बात नहीं है। मतभेद होना स्वाभाविक है। ऐसे मतभेद चलते रहते हैं। नई बात यह है कि भूतपूर्व और दिवंगत वित्त मंत्री अरुण जेटली की अगुवाई में वित्त मंत्रालय के अधिकारी ने रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया पर यह आरोप लगाया कि ब्याज दरों को इस तरह से तय किया जा रहा है ताकि विकसित देशों को फायदा पहुचें।  

नई बात यह है कि सरकार ने कभी यह आरोप नहीं लगाया था कि विकसित देशों मतलब आर्थिक तौर पर मजबूत दूसरे देशों को फायदा पहुंचाने के लिए रिज़र्व बैंक काम कर रही है। नई बात यह है कि सरकार ने केंद्रीय बैंक के जरिये गोर लोगों को फायदा पहुंचाने का आरोप लगाया। साथ में यह मांग भी कि रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया किस मकसद के तहत कामकाज कर रही है? इसकी छानबीन की जाए।  

रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया पैसे और बैंक की दुनिया को नियंत्रित करने को लेकर देश में ढेर सारे अहम काम करती है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण काम यह है कि मुद्रा यानी पैसे के प्रवाह को संतुलित करते रहना। ऐसा न हो कि पैसे का फैलाव बाजार में इतना ज्यादा हो जाए कि महंगाई आ जाए और ऐसा भी न हो कि पैसे का प्रवाह इतना कम हो कि मंदी आ जाए। पैसे के प्रवाह को कम करने के लिए रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया ब्याज दर बढ़ाकर रखती है। बाजार में लोग और कारोबारी बैंकों से कर्ज लेना कम कर देते हैं। अगर महंगाई की परेशानी से देश जूझ रहा है तो अमूमन ब्याज दर बढ़ाकर रखने की नीति अपनाई जाती है। ऐसा करने पर महंगाई की परेशानी बेलगाम नहीं होती। पैसे की खरीदने की क्षमता कम नहीं होती।

सरकार की दखलअंदाजी भी कई कारणों से ब्याज दरों को लेकर बनी रहती है। जिस तरह के क्रोनी कैपिटलिज्म के माहौल में हमारा देश चल रहा है, वैसे माहौल में ब्याज दर कम होने से कर्ज लेना आसान हो जाता है। कर्ज तो सब लोग लेते नहीं। अधिकतर वही लोग लेते हैं जो पैसे से पैसा बनाने के काम में लगे रहते हैं। कारोबारियों को फायदा होता है, उन्हें कम दर पर कर्ज मिल जाता है। पहले से लिए गए कर्ज पर कम कर्ज देना पड़ता है। इन सब में फायदा अमीरों का होता है लेकिन महंगाई बढ़ने से सबसे बड़ी मार गरीबों पर पड़ती है।

जब मोदी सरकार आई तो महंगाई की दर बहुत अधिक थी। साल 2014 में आरबीआई के गवर्नर रघुराम राजन थे। कांग्रेस ने इन्हें नियुक्त किया था। इन्होनें ब्याज दरों में कोई कटौती नहीं की। ब्याज दर 8 प्रतिशत के आसपास रहे। महंगाई की दर गिरने लगी तो इन्होंने ब्याज दर में कटौती कर 7.25 प्रतिशत कर दिया। लेकिन अगस्त 2015 में जस का तस रहने दिया। सरकार का दबाव था कि इसे कम किया जाए। लेकिन रघुराम राजन ने कम नहीं किया। वित्त सचिव ने लिखकर आरोप लगाया कि वह RBI के विश्लेषण और निष्कर्ष से सहमत नहीं है। ब्याज दर कम करना चाहिए। भारत में ब्याज दर ऊँचा रखकर देश में निवेश करने वालों को नुकसान पहुँचाया जा रहा है। अमेरिका, यूरोप, जापान के कारोबारियों और अमीरों को फायदा पहुंचाया जा रहा है। विकसित देशों में ब्याज दर कम है, जबकि भारत में ब्याज दर अधिक है। इसलिए थोड़े समय के लिए विकसित देश का पैसा यहां पर जमा किया जा रहा है। वह ऊँची ब्याज दर के चलते मुनाफा कमा रहे हैं।  

इन आरोपों के बाद रघुराम राजन ने इस्तीफ़ा दे दिया। इसके बाद भाजपा सरकार के करीबी उर्जित पटेल की गवर्नर के तौर पर नियुक्ति हुई। मॉनेटरी पालिसी कमिटी की पहली बैठक में उर्जित पटेल ने ब्याज दर में 0.25 फीसदी की कटौती की। उर्जित पटेल के ही दौर में नोटबंदी का एलान हुआ। रिपोर्टों से पता चलता है कि उर्जित पटेल की नोटबंदी में कोई भूमिका नहीं थी। सरकार के नोटबंदी से कोई फायदा नहीं निकला। आरबीआई के गवर्नर होने के नाते उर्जित पटेल की चारों ओर आलोचना होने लगी। इसके बाद सरकार ने ब्याज दर कम करवाने का दबाव डाला। कई तरह नियमों को किनारे कर आरबीआई से ब्याज दर कम करवाने की सहमति लेने की कोशिश की गयी। उर्जित पटेल ने मना कर दिया। उर्जित पटेल ने सरकार को लिखकर कहा कि सरकार को आरबीआई के कामकाज में दखल नहीं देना चाहिए। आरबीआई की सत्यनिष्ठा और साख को धक्का नहीं देना चाहिए। अगर सरकार ऐसा करती है तो यह आरबीआई की स्वायत्तता में दखलंदाजी होगी। उस कानून के मूलभावना पर हमला होगा जिससे आरबीआई को स्वायत्तता हासिल होती है।

इस मामले और दूसरे कई मामलों पर जब उर्जित पटेल की असहमतियां बढ़ती गईं तो उर्जित पटेल ने व्यक्तिगत कारण बताकर इस्तीफा दे दिया। उसके बाद 24 घंटे के भीतर वित्त मंत्रालय के प्रशासनिक अधिकारी शक्तिकांत दास गुप्ता की आरबीआई गवर्नर के तौर पर नियुक्ति हुई। शक्तिकांत दास गुप्ता को ब्याज दरों को तय करने में आरबीआई के कामकाज में सरकार के बढ़ते दखल से कोई दिक्कत नहीं थी। शक्तिकांत दास गुप्ता ने वही किया जो सरकार ने उनसे करवाना चाहा।  

महामारी के बाद महंगाई को नियंत्रित करना चाहिए था। दुनिया के दूसरे मुल्क महंगाई को नियंत्रित करने के लिए नीतिगत ब्याज दरों को ऊंचा रखने की रणनीति पर चल रहे थे। उस समय रिज़र्व बैंक के द्वारा भारत में नीतिगत ब्याज दरों को कम किया जा रहा था। 

सरकार का कैबिनेट नोट और सरकार के भीतर ऊँचे पदों पर काम करने वाले सरकारी अधिकारियों का कहना है कि रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया का मुख्य काम पैसे के प्रसार को नियंत्रित करना है। महँगाई को नियंत्रित करना है। इसके बाद दूसरे काम आते हैं। रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के साथ सरकार का रिश्ता ऐसा बना कि RBI ने महंगाई नियंत्रित करने के बजाए बजार में सस्ते कर्जा मिलने के लिए माहौल बनाने का ज्यादा काम किया। नीतिगत ब्याज दरों को बढ़ाया नहीं बल्कि इसे कम करने पर ज्यादा काम किया।  

आरबीआई की स्वायत्तता कमजोर होती रही। आरबीआई सरकार के इशारों पर नाचता रहा। महंगाई पर लगाम लगाने की बजाए सरकार ऐसे कदम उठाती रही जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था में महँगाई का कुचक्र बनता चला गया। हम सब जानते हैं कि सस्ती ब्याज दर होने पर फायदा उन्हें होता है जो बड़े-बड़े कारोबार करते हैं। जो पैसा से पैसा बनाने के खेल में लगे हुए हैं। यह काम मुश्किल से भारत की 5 फीसदी आबादी करती है। जिनके बैलेंस शीट मुनाफे से भरे पड़े हैं। लेकिन फिर भी पूंजी का काम बैंकों के जरिये करते हैं। बाक़ी सारी आबादी के बहुत बड़े हिस्से की परेशानी महंगाई होती है। जिसकी मार भारत की 50 प्रतिशत आबादी सहती है जिसकी महीने की आमदनी मुश्किल से 4 से 5 हजार के बीच है।  

आरबीआई की स्वायतत्ता छीनने के बाद यह हो सकता है कि पैसे वाले पैसा बनाने का कारोबार करता रहे, सरकार में शामिल पार्टी चुनाव जीतती रहे। लेकिन अर्थव्यवस्था की बुनियाद ठीक नहीं हो सकती। महंगाई के कुच्रक से नहीं निकला जा सकता। आम लोगों की भलाई नहीं हो सकती।

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