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रिज़वाना तबस्सुम की आख़िरी रिपोर्ट : कोरोना का संकट और बनारस का हाल

युवा प्रतिभाशाली पत्रकार रिज़वाना तबस्सुम की ये अंतिम रिपोर्ट है जो उन्होंने न्यूज़क्लिक के लिए रविवार रात करीब साढ़े नौ बजे ई-मेल के जरिये भेजी। और सोमवार सुबह ख़बर आई कि उन्होंने आत्महत्या कर ली। उनके दिमाग़ में क्या कुछ चल रहा था ये तो कहना मुश्किल है लेकिन उनकी यह आख़िरी ख़बर कोरोना संकट में पूरे बनारस (वाराणसी) का हाल लिखने की एक कोशिश ही लगती है। इसमें वह रिक्शा वाले भैया से लेकर नाव चलाने वाले मांझी, डोम राजा, बुनकर और पुरोहित सबकी चिंता करती हैं, सबका हाल लेती हैं। और शीर्षक देती हैं- “कोरोना संकट : वाराणसी की वो पहचान जिसे कोरोना ने पूरी तरह कर दिया तबाह”। न्यूज़क्लिक परिवार की ओर से श्रद्धांजलि के साथ उनकी यह ख़बर आपके हवाले। अफ़सोस इसके बाद उनकी कोई ख़बर नहीं आएगी…। कोई बाइलाइन (Byline) नहीं।
कोरोना का संकट

वाराणसी: कोरोना के क़हर से देशभर में अलग-अलग बदलाव हुए हैं, ऐसा लग रहा है दुनिया रुक सी गई है, केवल वक्त बढ़ रहा है, समय बढ़ रहा है लेकिन सभी काम रुके हुए हैं। कोरोना के कारण हुए लॉकडाउन की वजह से पीएम मोदी के संसदीय वाराणसी में भी काफी बदलाव देखने को मिल रहा है। एक तरफ जहां जिले की आबो हवा में सुकून है, वहीं दूसरी तरफ शहर की मौज मस्ती और कारखानों पर गहरा सन्नाटा छाया है। आइए जानते हैं बनारस की कुछ ऐसी बेमिसाल चीजों के बारे में जिसे कोरोना ने पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया है।

सूने पड़े घाट, शांत मांझी

सबसे पहले बात करते हैं वाराणसी के घाटों की। बनारस की पहचान घाटों और नाव से है। यहां के घाटों पर मांझी परिवारों के बीच में नावों का संचालन बंटा हुआ है। दुनिया भर के सैलानियों को नौकायन कराने वाले मांझी वाराणसी के अहम किरदार हैं। एक तरफ जहां घाटों पर सफाई देखने को मिल रही है तो दूसरी तरफ दिल को चीर देने वाला सन्नाटा भी पसरा हुआ है, सभी नावें रुकी हुई हैं।

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दुर्गा मांझी 43 साल के हैं, जो महज 12 साल की उम्र से काशी के राजघाट पर नाव चला रहे हैं। दुर्गा मांझी बताते हैं कि 'साल 2014 से पहले हमारे पास एक नाव थी, अब दो बड़ी नावें हो गई हैं। मोदी के पीएम बनने के बाद हमारे जीवन में थोड़ा बदलाव आया, लेकिन कोरोना ने पलीता लगा दिया। निसंदेह घाटों पर सफाई बेहतर हुई है, इसलिए लोग बनारस में ज्यादा आने लगे थे। रोजाना पांच-सात सौ रुपये की कमाई हो जाती थी। घर का खर्च आराम से चल जाता था। दो पैसे बचा भी लेते थे। बच्चों की पढ़ाई भी चल रही थी। हमें लगता था कि शायद अब भविष्य में कभी दिक्कत नहीं होगी।'

सर पर हाथ रखकर बैठते हुए मांझी कहते हैं कि 'लॉकडाउन हुआ तो उसने हमें तोड़कर रख दिया। पहले रोज कमाते थे तो काम चल जाता था। अब काम नहीं है। बुद्धि फेल हो गई है। जिंदगी की गाड़ी अब नहीं चल पाएगी। कोरोना आए या न आए लेकिन इससे पहले ही हम भूख से मर जाएंगे। आखिर कहां से लाएंगे बच्चों के लिए दूध और भोजन? बातें बहुत हो रही हैं, पर लॉकडाउन में कोई पूछ नहीं रहा है। रास्ते में पुलिस के डंडे जरूर खाने पड़ रहे हैं। हमारा दर्द कोई सुनने के लिए तैयार ही नहीं है।'

बनारस की बात डोम राजा के साथ

बनारस की बात हो और डोम राजा की बात ना हो तो बनारसी बात कैसे हो। बात करते हैं डोम राजा शालू चौधरी की। काशी का मणिकर्णिका घाट, जो अंतिम संस्कारों के लिए जाना जाता है। यहां शव जलाने वालों को मिला है डोम राजा का दर्जा। इन्हें श्मशान का चौकीदार भी कहा जाता है। मणिकर्णिका घाट के बारे में ये भी मान्यता है कि ये दुनिया की इकलौती ऐसी जगह है जहां पर चौबीस घंटे लाश जलती रहती है।

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डोम राजा शालू चौधरी बताते हैं कि 'मैं बीते सात-आठ साल से मणिकर्णिका घाट पर शव जलाने का काम कर रहा हूं। ये हमारा पुश्तैनी काम है और हमारे बाप-दादा-रिश्तेदार भी यही काम करते हैं। हाल के कुछ सालों में नि:शुल्क शव वाहिनी से मुर्दा वालों को सुविधा मिली। घाट के ऊपर की तरफ जो लाशें जलती थीं, उससे राहत मिल गई। टिन शेड और चिमनी वगैरह लग गईं। घर-परिवार जैसा था, वैसा आज भी है। लॉकडाउन में सबका काम ठप सा हो गया है। लाशें जल रही हैं और उम्मीदें बनी हुई हैं।

डोम राजा कहते हैं कि हमें आमदनी से खास मतलब नहीं है, क्योंकि बाबा मसाननाथ की कृपा से हमें पेट भरने के लिए मिल जाता है। पहले एक आदमी काम करके परिवार के दस-बारह लोगों का पेट भर लेता था और अब थोड़ी दिक्कत है।

खाली बैठे हुए हैं पुरोहित

बात करते हैं पुरोहित की। हिंदू धर्म की मान्यताओं के मुताबिक, काशी भगवान शिव की नगरी है। तीर्थयात्री यहां घाटों के किनारे तमाम तरह के धार्मिक अनुष्ठान कराते हैं। ये अनुष्ठान यहां घाट किनारे बैठने वाले पुरोहित-पंडे कराते हैं।

करीब 68 साल के पुरोहित (पंडा) उदयानंद तिवारी कहते हैं कि 'मैं तीर्थ पुरोहित हूं और भैसासुर घाट पर बीते चालीस सालों से बैठता हूं। इसके पहले मेरे पिता-दादा भी यही काम करते थे। हम तब से कर्मकांड कर रहे हैं जब से लोग हमें दस-बीस देते थे। धीरे-धीरे आमदनी बढ़ी। पर्यटन भी बढ़ा। घाट का कारोबार बेहतर हुआ। लॉकडाउन हुआ तो इतने बुरे दिन आ गए हैं कि अब भूखों मरने की नौबत है।'

पुरोहित कहते हैं कि 'घाट की जजमानी पर अब कोरोना की बुरी नजर लग गई है। पिंडदान, अस्थिकलश, कथा पूजन सब बंद है। पहले चार-पांच सौ रुपये आसानी से मिल जाते थे। जीवन बेहतर था। पानी, बिजली, आवास टैक्स से लेकर साग-सब्जी, मेहमानों की खातिरदारी के अलावा रोजमर्रा का घर खर्च, सब आराम से निपट जाता था। अब जीवन बदरंग हो गया है। मुश्किलें बढ़ गई हैं। समझ में नहीं आ रहा है कि कितने दिन खाएंगे जमा-पूंजी? अब तो वो भी खत्म हो गई है।'

शांत हथकरघा, खामोश बुनकर

बात करते हैं वाराणसी के बुनकरों की। बनारस अपनी रेशमी साड़ियों के लिए मशहूर है और यहां के रेशम उद्योग की चर्चा 12वीं-14वीं सदी से बताई जाती है, बनारसी साड़ी देश ही नहीं दुनिया भर में अपनी एक अलग पहचान रखती है। कोरोना के कहर ने बनारसी साड़ी और यहाँ के बुनकरों को बुरी तरह प्रभावित किया है, यहाँ के बुनकर एक तरफ जहां भुखमरी के कगार पर आ गए हैं, वहीं दूसरी तरफ बनारसी साड़ियों का काम पूरी तरह ठप हो गया है।

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नसीम नाम के बुनकर बताते हैं कि मेरी उम्र करीब 50 साल है, बचपन से साड़ी बुनाई का काम करते आ रहे हैं। नसीम कहते हैं कि 'कोरोना ने ना सिर्फ हमारे काम पर ताला लगा दिया है बल्कि हमारी ज़िंदगी पर भी ताला लगा दिया गया है। हमारे यहाँ दो पावरलूम है दोनों बंद पड़ा है, कोरोना ने ऐसा वार किया है कि ज़िंदगी पहाड़ सी हो गई है।'

एक अन्य बुनकर वसीम अहमद बताते हैं कि 'कोरोना का असर ये हुआ कि अब हम कर्ज लेकर खा रहे हैं। अब तो बात इज्जत की है लेकिन पेट की आग बुझानी है।' वसीम कहते हैं कि 'हमारा सारा कारख़ाना बंद पड़ा हुआ है, बंद-बंद कारखाना भी खराब होने का डर है। हमे समझ नहीं आ रहा है कि क्या करें। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बुनकर कहते हैं कि कर्मचारियों की तनख़्वाह सरकार महंगाई के हिसाब से बढ़ाती है, लेकिन हम और पीछे धकेल दिए गए हैं। आखिर हम कितनी कटौती करेंगे अपनी जिंदगी में?
 
और अब बात रिक्शे वाले भैया की

रिक्शे पर सैर किसको नहीं पसंद आता है। बनारस में रिक्शे वालों की भरमार है, कहा जाता है कि रिक्शे वाले बनारस की विरासत हैं। व्यस्त ट्रैफिक के बीच यहां लंबे समय से इनकी खासी मौजूदगी रही है। काशी में घाटों के किनारे तक रिक्शे वालों का एक जमघट दिख जाता है।

रिक्शाचालक कैलाशनाथ बताते हैं कि मैं बनारस शहर में बीते तीस सालों से रिक्शा चला रहा हूं। मोदी पीएम बने, पर हमारा नसीब नहीं बदला, बल्कि परेशानियां जरूर बढ़ गईं। कोरोना ने इतनी बड़ी मुसीबत खड़ी की है, जिसकी कल्पना करना कठिन है। कैलाशनाथ कहते हैं कि 'जबसे बैटरी रिक्शा चला है, हमारी कमाई आधी हो गई। हर जगह से हम भगाए जाते हैं।'

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कैलाशनाथ कहते हैं कि 'बैटरी रिक्शा वाले पुलिस को सुविधा शुल्क दे देते हैं, हम लोग नहीं दे पाते हैं। पहले चार-पांच सौ का धंधा हो जाता था। हाल के दिनों में सौ-दो सौ कमाना मुश्किल हो गया था। हमें ऑटो और टोटो वालों से कोई गिला-शिकवा नहीं है। लेकिन पुलिस वालों के लिए सुविधा शुल्क कहां से लाएं? कोरोना आया तो कमर ही तोड़ दिया। पेट में अन्न नहीं जा रहा है। अब तो शायद ही रिक्शा चलाने लायक रह पाएंगे।

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