समलैंगिक विवाह : संविधान पीठ करेगी 18 अप्रैल को सुनवाई, केंद्र सरकार का विरोध क़ायम
देश में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से जुड़ी याचिकाओं पर अब सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ सुनवाई करेगी। आज यानी सोमवार, 13 मार्च को चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा की पीठ के समक्ष ये महत्वपूर्ण मामला सूचीबद्ध किया गया था, जिस पर अब पांच जजों की संविधान पीठ 18 अप्रैल को सुनवाई करेगी। बीते 6 जनवरी को सर्वोच्च अदालत ने दिल्ली हाईकोर्ट सहित देश के सभी उच्च न्यायालयों की समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिलाने वाली याचिकाओं को अपने पास ट्रांसफर करते हुए केंद्र सरकार को नोटिस भेजकर इस पर जवाब मांगा था। इस मामले में अदालत ने अरुंधति काटजू को याचिकाकर्ताओं की तरफ से वकील भी नियुक्त किया था।
बता दें कि केंद्र सरकार ने अपने जवाबी हलफनामे में सेम सेक्स मैरिज का विरोध करते हुए इसे भारतीय परंपरा के खिलाफ बताया है। साथ ही ये भी कहा है कि यह मामला संसद के अधिकार क्षेत्र में है और इसलिए इस पर संसद में ही बहस हो सकती है। लेकिन इसमें कोई भी हस्तक्षेप व्यक्तिगत कानूनों और स्वीकृत सामाजिक मूल्यों के नाजुक संतुलन का विनाश कर सकता है।
सरकार पहले भी कर चुकी है विरोध
ध्यान रहे इससे पहले भी सरकार का कानून मंत्रालय दिल्ली हाईकोर्ट में समलैंगिक विवाह का विरोध कर चूका है, मंत्रालय ने इस पर आपत्ति जताते हुए कहा था कि भारत में विभिन्न समुदायों में विवाह 'सदियों पुराने रीति-रिवाजों' पर आधारित है और समलैंगिक संबंधों को 'भारतीय परिवार' के बराबर मान्यता नहीं दी जा सकती। इस बारे में कानून बनाना संसद का काम है, इसलिए अदालतों को इससे दूर रहना चाहिए।
बीजेपी के सांसद सुशील मोदी इस पर संसद में अपनी और अपनी पार्टी की राय दे चुके हैं। बीते शीतकालीन सत्र में उन्होंने राज्यसभा में कहा था कि केवल ‘दो जज’ एक साथ बैठ कर समलैंगिक विवाह जैसे सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण विषय पर फैसला नहीं ले सकते हैं। सुशील मोदी का कहना था कि समलैंगिक शादियों को वैध बनाने की मांग 'वेस्ट की ओर झुकाव वाले लेफ्ट-लिबरल्स' की ओर से आ रही है और इसे कानूनी मंजूरी नहीं दी जानी चाहिए। ये देश के सांस्कृतिक लोकाचार और मूल्यों के खिलाफ है। शून्यकाल के दौरान इस मामले को उठाते हुए सुशील मोदी ने कहा था कि यह देश में व्यक्तिगत कानूनों के नाजुक संतुलन को देखते हुए पूर्ण विनाश का कारण बनेगा।
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केंद्र सरकार का विरोध क्या है?
* अपने हलफनामे में केंद्र सरकार ने कहा है कि शादी को लेकर संसद ने कानून बना रखे हैं और यह पर्सनल लॉ के तहत होता है। केंद्र का तर्क है कि भारत में सभी धर्म का पर्सनल लॉ हैं और इसमें कई नियम हैं।
* केंद्र का एक तर्क ये भी है कि भारतीय परिवार में शादी का मतलब पति- पत्नी और उनकी शादी के बाद पैदा हुए बच्चे हैं। इसलिए समलैंगिक के साथ रहने की तुलना भारतीय परिवारों से नहीं की जा सकती। इसलिए समलैंगिक विवाह को मान्यता न देने को अनुच्छेद 15(1) के तहत भेदभाव नहीं माना जा सकता है।
* सरकार के मुताबिक देश में धारा-377 के तहत सहमति से बनाए गए अप्राकृतिक संबंध को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है। लेकिन, इससे शादी को मान्यता देने का दावा नहीं किया सकता है।
* अपने 56 पेज के हलफनामे में केंद्र का कहना है कि अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अधीन है और इसे देश के कानूनों के तहत मान्यता प्राप्त करने के लिए समान लिंग विवाह के मौलिक अधिकार को शामिल करने के लिए विस्तारित नहीं किया जा सकता है, जो वास्तव में इसके विपरीत है।
ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट ने छह सितंबर, 2018 को एक अहम फैसला सुनाते हुए समलैंगिकता को अवैध बताने वाली भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 को रद्द कर दिया था। तब अदालत ने कहा था कि अब से सहमति से दो वयस्कों के बीच बने समलैंगिक यौन संबंध अपराध के दायरे से बाहर होंगे। हालांकि, उस फैसले में समलैंगिकों की शादी का जिक्र नहीं था। अब इसी समलैंगिक विवाह को मान्यता दिलाने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में पिछले साल कई याचिकाएं दायर की गई थीं, जिस पर सुनवाई चल रही है।
न्यूज़क्लिक ने इस संबंध में इस समुदाय से जुड़े कुछ लोगों से बात कर पूरे मामले की गंभीरता और उनके पक्ष को समझने की कोशिश की।
ट्रांस एक्टिविस्ट ऋतुपरना ने सरकार के पक्ष को संवेदनहीन बताते हुए कहा, “आज जब हम तमाम अस्थिरता के दौर में जी रहे हैं, तब विवाह का अधिकार नहीं मिलने से समलैंगिकों के कई और अधिकार भी प्रभावित हो रहे हैं। वे अपने सारे हक़ों से महरूम है, जो अपनी शादी का क़ानूनी तौर पर रजिस्ट्रेशन करा चुके स्त्री-पुरुष को मिलते हैं।”
ऋतुपरना के मुताबिक बाकि लोगों की तरह एलजीबीटी लोगों का भी ये फंडामेंटल राइट्स का मुद्दा है। वो कहती हैं कि शादीशुदा का जो टैग है वो इसलिए ज्यादा जरूरी हो जाता है क्योंकि इसके बिना आप मेडिक्लेम, इंश्योरेंस, जॉइंट बैंक अकाउंट, प्रॉपर्टी कार्ड और अन्य दस्तावेज में भी अपने पार्टनर का नाम नहीं लिख सकते। कानूनी तौर पर समलैंगिक जोड़ा एक-दूसरे को अपना परिवार नहीं बना सकता। ऐसे में अगर किसी के भी साथ कोई अनहोनी हो जाए तो दूसरा जो उस पर आश्रित है, उसकी पूरी जिंदगी रुक जाती है, ऐसे में जब हम महामारी में रोज अपनों को मरता देख रहे हैं तो सरकार इसे गैर-जरूरी मुद्दा कैसे बोल सकती है।
सुप्रीम कोर्ट से न्याय की उम्मीद
ग्रेस जोकि एक गे हैं, समानाधिकार कार्यकर्ता और पेशे से अधिवक्ता भी हैं इसलिए तमाम कानूनी दांव-पेच को समझाते हुए कहते हैं कि सरकार जिस पर्सनल लॉ को अलग-अलग धर्मों में शादी के लिए यहां जरूरी बता रही है, वही सरकार सभी धर्म को एक साथ लाने के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड का ज़ोर-शोर से प्रचार भी करती दिखती है। ग्रे के मुताबिक ये राजनीति का एक अलग मसला है, लेकिन कई देशों ने आगे बढ़कर संसद और कोर्ट के जरिए सेम सेक्स मारिज को मान्यता दी है, ऐसे में भारत की सबसे बड़ी अदालत से ये उम्मीद और बढ़ जाती है, क्योंकि जब 377 को अपराध के दायरे से बाहर किया गया, उस वक्त जस्टिस चंद्रचूड़ ने बहुत जरूरी टिप्पणियां की थी, अब क्योंकि वे खुद सीजेआई हैं, इसलिए अपेक्षाएं और ज्यादा हैं।
हालांकि ग्रे ये भी कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि समलिंगी शादियों को क़ानूनी मंज़ूरी मिलते ही समाज में सब कुछ ठीक हो जाएगा या तुरंत बदल जाएगा लेकिन कम से कम उन तमाम लोगों को बराबरी से रहने का हक तो मिल जाएगा जो आज छुप-छुप कर अपना जीवन बिता रहे हैं।
ग्रेस के अनुसार, समलिंगी शादियों को भारत में क़ानूनी मान्यता नहीं है। इसका जो मुख्य कारण है वो ये है कि शादी की व्यवस्था एक तरह से पितृसत्ता से भरी हुई है। इसमें सिर्फ एक पुरुष और एक महिला का ही कॉन्सेप्ट है। इसमें अलग-अलग धार्मिक क़ानूनों का हिसाब अलग-अलग हैं लेकिन सब में शादी को स्त्री और पुरुष के बीच का ही संबंध माना गया है। साथ ही इनसे जुड़े अन्य क़ानूनों जैसे घरेलू हिंसा, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार और मैरिटल रेप आदि में भी इसी आधार का इस्तेमाल होता है। ऐसे में बदलाव के लिए कई सवाल और जटिलताएं सामने आती हैं। अगर इसमें बदलाव होता है तो वो बहुत व्यापक और क्रांतिकारी बदलाव होगा। जिसके बाद थर्ड जेंडर को सिर्फ क़ानूनी मान्यता ही नहीं उनके अधिकार भी मिल सकेंगे।
बिना रिश्ता डिफ़ाइन किए, अधिकार कैसे मिलेंगे?
लेस्बियन नेहा की मानें तो भेदभाव हमारे देश में ऑफिशियल फॉर्म से ही शुरू हो जाता है। एलजीबीटीक्यू कपल कोई ज्वाइंट पॉलिसी नहीं ले सकते। पार्टनर के तौर पर वीज़ा के लिए एप्लाई नहीं कर सकते। प्रॉपर्टी राइट्स पर कोई क्लेम नहीं कर सकते। एक-दूसरे को जरूरत पड़ने पर किडनी नहीं दे सकते क्योंकि कानून के अनुसार किडनी देने की इज़ाजत परिवार के ही सदस्य को होती है। कुल-मिलाकर शादीशुदा होने पर एक स्पाउस के जो भी अधिकार हैं वो हमें बिना शादी के टैग के नहीं मिल सकते। अस्पताल से लेकर बैंक और तमाम जगह स्पाउस के नाम की जरूरत होती है। अगर रिश्ता ही डिफाइन नहीं होगा, तो आप अपना अधिकार कैसे ले पाएंगे।
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गौरतलब है कि हाल ही में अमेरिका ने सेम सेक्स मैरिज को कानूनी मान्यता दी है। दुनिया भर में करीब 29 देश ऐसे हैं जहाँ समलैंगिक विवाह को तमाम कानूनी दिक्कतों के बावजूद कोर्ट के ज़रिए या क़ानून में बदलाव करके या फिर जनमत संग्रह करके मंज़ूरी दे दी गई है। प्यू रिसर्च की एक रिपोर्ट के अनुसार नीदरलैंड दुनिया का पहला ऐसा देश है जहां साल 2000 में सेम सेक्स शादी को मंजूरी मिली थी। उसके बाद से तकरीबन 17 यूरोपीय देश ऑस्ट्रिया, ब्रिटेन, बेल्जियम, फिनलैंड, डेनमार्क, फ्रांस, जर्मनी, आयरलैंड, आइसलैंड, लक्जमबर्ग, माल्टा, नॉर्वे, पुर्तगाल, स्पेन, स्वीडन, स्लोवेनिया और स्विटजरलैंड सेम सेक्स मैरिज को वैध बना चुके हैं।
साल 2019 में ताइवान एशिया का पहला ऐसा देश बन गया है, जहां सेम सेक्स मैरिज को कानूनी मान्यता दी गई। इसी साल मेक्सिको के सभी राज्यों में समलैंगिक विवाह अब क़ानूनी रूप से मान्य करार दे दिए गए हैं। इसके अलावा अन्य कई देश भी धीरे ही सही लेकिन इस दिशा में आगे बढ़ चुके हैं। हालांकि भारत में इसकी मान्यता को लेकर केंद्र सरकार के नकारात्मक रुख के बाद इस समुदाय के लोगों को भी अपने हकों के लिए और कितना लंबा रास्ता तय करना होगा, ये गंभीर सवाल है। फिलहाल इस समुदाय और पूरे देश की नज़र सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं, जहां से न्याय की उम्मीद की जा रही है।
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