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कटाक्ष: ...भगवा ऊंचा रहे हमारा

बिहार में क्विट इंडिया वाले दिन नीतीश कुमार वाली चीटिंग चल भी गयी तो विरोधियों ने यह समझ लिया लगता है कि अब अमृत काल के बहाने से, केसरिया ध्वज छुड़वाने की उनकी चीटिंग भी चल जाएगी। संघी भाइयों को कोई इतना भोला भी नहीं समझे।
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'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: Livemint

देखिए, देखिए, ये तो सरासर चीटिंग है। पिचहत्तर साल पहले जब बेचारे संघी भाइयों ने तिरंगे के बेढंगा, अशुभ वगैरह होने के बारे में राष्ट्र को चेताया, तो विरोधी उनसे कहते थे कि तिरंगे का विरोध बंद करो, उसे   राष्ट्र  का झंडा मानना शुरू करो। पर बाद में जब सरदार-प्रथम ने पाबंदी हटाने की शर्त बनाकर, बेचारों से जोर-जबर्दस्ती से तिरंगे को राष्ट्र का झंडा मनवा लिया, तो विरोधियों ने अपनी डिमांड बदल दी। कहने लगे कि तिरंगे को राष्ट्र का झंडा मानना तो ठीक है, पर नागपुर में मुख्यालय पर तिरंगा क्यों नहीं फहराते। भगवा हटाओ, तिरंगा फहराओ! नयी सदी की शुरूआत में तो कुछ हिंदूविरोधी नागपुर मुख्यालय तक भी पहुंच गए, जोर-जबर्दस्ती से तिरंगा फहराने।

डैमोक्रेसी का नाम और झंडे के लिए जोर-जबर्दस्ती का काम! वह तो टैम पर पुलिस पहुंच गयी और तिरंगाई उपद्रवियों को पकडक़र ले गयी, वर्ना उस दिन तो डैमोक्रेसी की हत्या ही हो गयी होती। पर तिरंगाइयों को पुलिस के पकडक़र ले जाने से भी कौन सी डैमोक्रेसी ताकतवर हो गयी। जोर-जबर्दस्ती के शिकार बेचारे संघ को ही मीडिया वालों ने मीडिया ट्राइल कर के मुजरिम बना दिया--ये तो तिरंगा लगाने के खिलाफ हैं; तिरंगा लगाने वालों को जेल ही भिजवा देते हैं। खून का घूंट पीकर बेचारों ने पंद्रह अगस्त को नागपुर में तिरंगा लगाना शुरू कर दिया। पर विरोधियों ने अब नयी डिमांड पेश कर दी और वह भी मोदी जी की डीपी में तिरंगा की पुकार की आड़ में। शोर मचा दिया कि संघ की, भागवत जी की, दूसरे सभी बड़े जी लोग की डीपी में तो अब भी केसरिया का केसरिया है; तिरंगा तो है ही नहीं। कई लोगों ने तो दिन भी गिनने शुरू कर दिए--पांच दिन, छ: दिन, सात दिन...हो गए, पर डीपी में तिरंगा नहीं आया?

और अब जबकि भागवत जी ने डीपी में केसरिया हटाकर तिरंगा भी लगा दिया है, इस बार तेरह अगस्त से तीन दिन तिरंगा फहराने की मोदी जी की मांग से एक दिन फालतू, बारह अगस्त से ही डीपी में तिरंगा लगा दिया है, तो भाई लोग एक बार फिर पलट गए हैं। कह रहे हैं कि इतनी मुश्किल से, अमृत वर्ष के भी ऐन छोर तक इंतजार कराने के बाद, अब केसरिया की जगह तिरंगा आया है; बस अब तिरंगा ही रहना चाहिए, परमानेंटली! यह उंगली पकड़कर, पहुंचा पकड़ना नहीं तो और क्या है? यह तो तिरंगे के सम्मान की आड़ में, केसरिया को परमानेंटली रिटायर कराने का षड्यंत्र है।

बिहार में क्विट इंडिया वाले दिन नीतीश कुमार वाली चीटिंग चल भी गयी तो विरोधियों ने यह समझ लिया लगता है कि अब अमृत काल के बहाने से, केसरिया ध्वज छुड़वाने की उनकी चीटिंग भी चल जाएगी। संघी भाइयों को कोई इतना भोला भी नहीं समझे। पचहत्तर साल बाद भी, केसरिया को अग्निवीर किसी भी तरह नहीं बनने देंगे! आखिर, एक राष्ट्र के जीवन में पचहत्तर साल होते ही क्या हैं?

फिर बेचारे संघ बंधुओं के साथ चीटिंग सिर्फ मांग बदल-बदल कर ही थोड़े ही की जा रही है! दलील बदल-बदल कर भी चीटिंग की जा रही है। पहले विरोधी कहते थे कि तिरंगा आजादी की लड़ाई से निकला है, हमारी आजादी की लड़ाई की निशानी है, उसे ही राष्ट्र ध्वज मानना चाहिए। अब जब आजादी की लड़ाई को लोग भूल-भाल से गए हैं और सत्तर साल में जो-जो नहीं हुआ उसे ही होते देखने के आदी हो गए हैं, तो भाइयों ने तिरंगे की हिमायत में अपनी दलील ही बदल दी। कह रहे हैं कि केसरिया-प्रेम नहीं बल्कि तिरंगा विरोध ही है जिसके लिए, संघी भाई-बहिन केसरिया-केसरिया करते हैं। वर्ना केसरिया रंग तो अपने तिरंगे में भी है ही। फिर भी तिरंगे का विरोध! कैसे, क्यों? विरोध यों कि राष्ट्र के झंडे में केसरिया रंग का होना ही काफी नहीं है। राष्ट्र के झंडे में दूसरे-दूसरे रंगों न होना, उससे भी ज्यादा जरूरी है। महान राष्ट्र का झंडा दूसरे रंगों से कौन शेयर करता है जी, जो हमारा केसरिया करेगा! फिर तिरंगा तो है ही इसीलिए तिरंगा कि उसमें तीन-तीन रंग हैं और वह भी नाप-नाप के बराबर जगह में। केसरिया के लिए जरा सी फालतू जगह देने तक की इजाजत नहीं है। गाड़ियों वाले महेंद्रा जी ने जरा सा केसरिया का इलाका बढ़ा क्या  दिया सोशल मीडिया पर लोगों ने इसी का शोर मचा दिया कि मोदी जी ने तिरंगे का क्या हाल कर दिया; अशोक चक्र के शेर और झंडे की खादी के बाद, अब तिरंगे के रंगों के साइज भी बदल दिए? यानी तिरंगे में केसरिया को न सिर्फ दूसरे दो रंगों को बर्दाश्त करना पड़ेगा, अपने बराबर जगह में बर्दाश्त करना पड़ेगा। यह तो दूसरों का झंडा हुआ, हिंदू राष्ट्र इसमें नहीं समा सकता।

जब तक तिरंगा है, तब तक हिंदुओं को अपने आबादी के साइज के हिसाब से भी जगह नहीं मिल सकती है, फिर महानता के हिसाब से जगह की तो बात ही क्या करना। हिंदुओं के साथ न्याय तो तभी होगा, जब राष्ट्र के झंडे का एक ही रंग होगा--केसरिया!  राष्ट्र हिंदुओं का है, तो झंडा भी तो हिंदुओं का ही होना चाहिए! हां! जब तक बाकायदा हिंदू राष्ट्र नहीं बन जाता है, तब तक फुल केसरिया के फुलटाइम फहराने के साथ, पंद्रह अगस्त-छब्बीस जनवरी पर, पार्टटाइम तिरंगे में आंशिक केसरिया भी सही। पर आंशिक केसरिया दिखाकर धोखे से, संघी भाई-बहनों से केसरिया छुड़ाने की कोशिश कोई नहीं करे! और हां हिंदू राष्ट्र के संविधान का मसौदा तो तैयार भी हो गया है, बस नागपुर की मोहर लगना बाकी है। जाहिर है कि हिंदू राष्ट्र का झंडा केसरिया होगा, पूरी व्यवस्था जाति से चलेगी और वोट का अधिकार सिर्फ हिंदुओं को मिलेगा!

पर संघ विरोधियों की चीटिंग का तो कोई अंत ही नहीं है। भागवत जी ने जब तक अपनी और संघ की डीपी में तिरंगा नहीं लगवाया था, विरोधी इसका शोर मचा रहे थे कि तिरंगा क्यों नहीं लगाया, भगवा क्यों नहीं हटाया। पर यूपी में, हरियाणा में, बाकी हर जगह, कहीं राशन देने के लिए शर्त लगाकर तो कहीं तनख्वाह में से काटकर, घर-घर लगाने के लिए डबल इंजन सरकार वाले तिरंगा खरीदवा रहे हैं, तो संघविरोधी इसका भी विरोध कर रहे हैं कि जोर-जबर्दस्ती से झंडा क्यों खरीदवा रहे हैं! और अब उत्तराखंड के भाजपा अध्यक्ष ने तिरंगा न फहराने वालों को बाद में देख लेने की बात क्या कह दी और ऐसे घरों की तस्वीरें भेजने की जरा सी मांग क्या कर दी, लोग मार तमाम इसका शोर मचा रहे हैं कि तिरंगे को बंटवारे का हथियार बना दिया। कोई इनसे पूछे कि तिरंगे से अमृत वर्ष मनाते-मनाते, एंटीनेशनलों की घर के पते समेत पहचान भी हो जाए, तो इसमें बुरा ही क्या है? कम से कम कपड़ों से पहचानने से तो, झंडे से पहचानना बेहतर ही है। रोज-रोज के पहचानने के झंझट से भी जान छूटेगी।

हम तो कहेंगे कि अमृतकाल में सिर्फ उसी को जाने दिया जाए, जो झंडे का पासपोर्ट दिखाए। और बाकी? उनके लिए विषकाल है तो!

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)

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