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शाहीन बाग़ का लक्ष्य होना चाहिए नागरिकता अधिनियम की धारा 14ए को निरस्त करवाना

कानून में यह धारा ही एनपीआर-एनआरआईसी के लिए कानूनी आधार प्रदान करने का काम करती है। अगर सिर्फ इसे ख़ारिज कर दिया जाये तो जो लोग सीएए की मुखालफत कर रहे हैं, उनके भय को दूर किया जा सकता है कि सीएए कानून भेदभावपूर्ण है।
shaheen bagh

केंद्र सरकार की इस नई पॉलिसी के विरोध में चल रहे आंदोलन का लक्ष्य नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 14A के निरस्तीकरण पर केन्द्रित हो जाना चाहिए, जो भारत में नागरिकता के निर्धारण को तय करती है। केवल इस प्रकार के उपाय से ही प्रदर्शनकारियों को सरकार के कसमों-वादों पर यकीन हो सकता है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम मुसलमानों की नागरिकता को नहीं छीनने जा रहा है।

प्रदर्शनकारी नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA), राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (NPR) और भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (NRC/NRIC) की घोषणा को वापस लेने के लिए आंदोलन चला रहे हैं, जिस तिकड़ी के बारे में सरकार का मानना है कि ये वे औजार हैं जिनके माध्यम से भारतीय नागरिकों और अवैध घुसपैठियों को अलग करने का काम किया जाना है। सिर्फ एनआरआईसी की वजह से ही सीएए एक बेहद नुकीला, भेदभावपूर्ण धार हासिल किये हुए है, जिसे नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 14ए के तहत शासनादेश हासिल है।

सीएए उन सभी गैर-मुस्लिमों को जल्द से जल्द नागरिकता प्रदान करने की कोशिश करता है जो स्पष्ट तौर पर बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हो रहे धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए बिना किसी वैध यात्रा के दस्तावेजों के, भारत में घुस आये थे। इस विशेषाधिकार का विशेष महत्व सिर्फ उसी स्थिति में होने जा रहा है जब जिनकी नागरिकता संदेह के घेरे में हैं उन्हें उन लोगों से अलग किया जाएगा जिनकी नागरिकता की स्थिति को लेकर कोई संदेह नहीं है।

ऐसा इसलिए क्योंकि अभी तक सिवाय विदेशी नागरिकों के, देश के समस्त निवासियों को भारतीय नागरिक माना जाता रहा है, जब तक कि उनकी स्थिति के बारे में संदेह न हो और उनके बारे में यह धारणा बन चुकी हो कि ये अवैध घुसपैठिये हैं। सीएए को लागू करने के लिए नियम निर्धारित करने के बावजूद, कुल मिलाकर स्थिति कमोबेश जस की तस ही बनी हुई है- उदहारण के लिए अभी तक यह नहीं मालूम कि जो गैर-मुस्लिम बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से हैं, उन्हें भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन के दौरान किन-किन दस्तावेजों को प्रस्तुत करना होगा।

वे लोग जिनको सीएए के तहत राहत दी गई है, वे आगे आकर अपने लिए भारतीय नागरिकता हासिल करने का दावा पेश कर सकते हैं- जैसा कि उदाहरण के तौर पर वे निवासी जो असम के नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर से बाहर कर दिए गए थे। हालाँकि भारतीय पासपोर्ट के अनुसार, असम से बाहर हर व्यक्ति को भारतीय नागरिक माना जाएगा, फिर भी ऐसा हो सकता है कि उनमें से कुछ के पास अपनी नागरिकता साबित करने के लिए आवश्यक दस्तावेज़ न हों, और ऐसी स्थिति में उनकी नागरिकता नकारी जा सकती है।

हालांकि जैसे ही यह देशभर में नागरिकों की दो अलग-अलग श्रेणी बनाता है, जिनमें से एक श्रेणी वैध घोषित कर जाती है और दूसरी श्रेणी में संदिग्ध नागरिकों की हो जाती है, उसी समय यह सीएए कानून अपने आप में भेदभावपूर्ण बन जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जो मुसलमान संदिग्ध नागरिकों की श्रेणी में पाए जायेंगे उनके लिए सीएए की ओर से कोई रक्षा कवच नहीं मुहैया किया गया है, और उनके साथ ही ये उन गैर मुस्लिमों पर भी लागू होता है जो बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से नहीं आए थे। जब तक वे अपनी भारतीय नागरिकता को साबित नहीं कर पाते उनके सामने अपनी नागरिकता के अधिकार को खो देने, बंदी बनाये जाने और निर्वासित किये जाने का खतरा बना रहने वाला है।

और ऐसा एनपीआर-एनआरआईसी की आपस में जुड़ी कड़ी की प्रक्रिया के माध्यम से किया जाना संभव हो पाया है, जो नागरिकों और गैर-नागरिकों की दो श्रेणियां को तैयार करने का आधार पैदा करता है।

एनपीआर उन सभी लोगों के नामों को अपने में सूचीबद्ध करता है जो छह महीने से अधिक समय से भारत में निवास कर रहे हैं, भले ही उनकी नागरिकता कहीं की भी हो। अब इस सूची में से उन सभी नागरिकों को स्थानीय रजिस्ट्रार द्वारा छांटकर अलग किया जायेगा, जिनकी नागरिकता संदेह के घेरे में है, वो चाहे तालुका स्तर पर हो या शहर के स्तर पर। उनके पास खुद को वैध नागरिक साबित करने के लिए कई बार अपील में जाने का अधिकार तो है, लेकिन अंत में जब उनके पास सभी विकल्प खत्म हो जायेंगे, तो उनके नामों को एनआरआईसी से बाहर छांट दिया जाएगा।

सरकार के पास एनआरआईसी को लागू करने का अधिकार, नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 14ए द्वारा प्रदत्त है, जिसके अनुसार, "केंद्र सरकार अनिवार्य तौर पर भारत के प्रत्येक नागरिक को पंजीकृत करने के लिए अधिकृत है और प्रत्येक पुरुष [या महिला] के लिए राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी कर सकती है।" इसकी एक उप-धारा घोषणा करती है कि, "केंद्र सरकार चाहे तो भारतीय नागरिकों का एक राष्ट्रीय रजिस्टर को तैयार कर सकती है और इस उद्देश्य के लिए एक राष्ट्रीय पंजीकरण प्राधिकरण स्थापित कर सकती है।"

एक अन्य उप-धारा केंद्र सरकार को इस बात के लिए अधिकृत करती है कि वह नागरिकों के अनिवार्य पंजीकरण की प्रक्रियाओं को निर्धारित कर सकती है। इसे नागरिकता अधिनियम की धारा 18 (2) (आईए) में दोहराया गया है। यह धारा 18 द्वारा प्रदत्त अधिकारों के तहत हो सका जिसके चलते केंद्र सरकार नागरिकता (नियम, 2003 के तहत नागरिकों के पंजीकरण और राष्ट्रीय पहचान पत्रों को जारी करना) तैयार कर सकती है, जिसमें यह प्रावधान है कि एनआरआईसी को एनपीआर से तैयार किया जाना है।

दूसरे शब्दों में कहें तो यदि नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 14A को निरस्त कर दिया जाता है तो एनपीआर-एनआरआईसी के लिए क़ानूनी आधार अपने आप खत्म हो जाता है।

इस नई पालिसी जिसमें नागरिकता का निर्धारण होना है, के खिलाफ चल रहे विरोध प्रदर्शनों पर इनके आलोचकों को इस बात पर आश्चर्य होता है कि प्रदर्शनकारी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आश्वासन पर भरोसा क्यों नहीं कर रहे हैं। उनके पास तर्क के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दिल्ली में 22 दिसंबर के दिन दिया गया भाषण है, जिसमें उन्होंने दावा किया था कि उनकी सरकार ने तो एनआरआईसी पर अभी तक कोई चर्चा तक नहीं की है।

मोदी के इस आश्वासन को गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने पिछले सप्ताह संसद में एक प्रश्न के जवाब में अपने लिखित उत्तर में दोहराया, जब उन्होंने कहा था, "अभी तक सरकार ने नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर को तैयार करने के संबंध में राष्ट्रीय स्तर पर कोई निर्णय नहीं लिया है।"

उनके आश्वासनों को ख़ारिज कर दिया गया है क्योंकि सरकार के अंदर से इसको लेकर विरोधाभासी स्वर सुनने को मिल रहे हैं।

उदहारण के तौर पर 1 अक्टूबर को कोलकाता की एक रैली में गृह मंत्री अमित शाह द्वारा दिए गए बयान को ही देख लें, जिसमें उनका कहना था कि, "मैं आज हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध और ईसाई शरणार्थियों को आश्वस्त करना चाहता हूं कि केंद्र की ओर से आप सबको भारत छोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा।" शाह ने कहा था कि इससे पहले कि बंगाल में एनआरसी की प्रक्रिया शुरू हो, उससे पहले ही नागरिकता संशोधन विधेयक लागू हो जाने वाला है। और इसके बाद उन्होंने अपने खास लड़ाकू अंदाज में कहा था, “मैं आपको बता रहा हूं कि हम भारत के भीतर एक भी घुसपैठिये को बने रहने नहीं देने वाले हैं। हम एक-एक को यहाँ से खदेड़ कर रहेंगे। ”

सीएबी अब सीएए बन चुका है, जो ठीक उन्हीं सामाजिक समूहों की उसी श्रेणी को सुरक्षा घेरा मुहैया कराता है जिनके बारे में शाह ने अपने भाषण में जिक्र किया था। अब आप खुद ही बताएं, मोदी या शाह में से आखिर किसपर भरोसा किया जाये?

यह भ्रम की स्थिति तब और गहरा जाती है जब केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद कहते हैं कि, '' एनआरसी को लेकर हमारी प्रतिबद्धता कायम है। लेकिन सरकार इसको लेकर पूरी तरह से स्पष्ट है ... जब कभी इसे किया जाना होगा, इसे नागरिकता अधिनियम की कानूनी जरूरतों और उसमें दिए गए प्रावधानों के तहत ही किया जायेगा।

नित्यानंद राय द्वारा संसद में लिखित जवाब दिए जाने से एक पखवाड़े पहले, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था, “अभी तक इस सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं हुई है। लेकिन फिर भी यदि सिर्फ विचार के स्तर पर सोचें तो यदि कोई देश अपने यहाँ एनआरसी लागू करना चाहता है तो इसका विरोध भला क्यों होना चाहिए। क्या देश के नागरिकों के पास खुद का पंजीकरण नहीं होना चाहिए।”

इन विरोधाभासी बयानों को देखकर ऐसा लगता है कि सरकार ने अभी भी एनआरआईसी को लागू करने की अपनी मंशा को खारिज नहीं किया है। इस सम्बन्ध में उसका सिर्फ यह कहना भर है कि एनआरआईसी को लेकर फैसला लिया जाना बाकी है। इससे इस संभावना को बल मिलता है कि एक बार एनपीआर तैयार करने की कवायद पूरी हो जाये तो एनआरआईसी के काम को हाथ में लिया जा सकता है।

एनपीआर की प्रक्रिया जिसे 1 अप्रैल और 30 सितंबर के बीच सम्पन्न करना निश्चित किया गया है, को लेकर सरकार की मंशा पर संदेह उत्पन्न होते हैं, क्योंकि देशवासियों को अपने माता-पिता की जन्म तिथि और स्थान की जानकारी मुहैया कराने के लिए कहा गया है। ऐसा करने पर इस चीज को ट्रैक करना आसान हो जाता है कि किसी व्यक्ति के वो चाहे महिला या पुरुष हो, के पूर्वज भारत के बाहर से आए थे या नहीं। ऐसे में जब एनआरआईसी की सूची तैयार की जा रही होगी, वे लोग विशेष तौर पर नागरिकता के प्रश्न पर सवाल उठा रहे उन अधिकारियों के समक्ष दयनीय स्थिति में हो जाने वाले सिद्ध होंगे।

इसी बीच कुछेक मंत्रियों ने इस बात का दावा किया है कि माता-पिता के जन्म की तारीख और स्थान का खुलासा करना अब स्वैच्छिक मामला है और अब ऐसा करना अनिवार्य नहीं है। मिसाल के तौर पर केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा है कि "इस प्रश्न को [माता-पिता के बारे में] मान लिया जाना चाहिए कि हटा दिया गया है, लेकिन जो लोग इस सम्बन्ध में विवरण देना चाहते हैं, वे ऐसा कर सकते हैं।"

अब इस प्रकार का एक और विकल्प, एक बार फिर से दो श्रेणी के लोगों को जन्म देने वाला सिद्ध होता है- एक वे लोग जो स्वेच्छा से अपने माता-पिता के जन्म की तारीख और स्थान का खुलासा करने को तैयार हैं और दूसरे वे लोग जो ऐसा करने को लेकर अनिच्छुक हैं। भविष्य में जब कभी एनआरआईसी की प्रक्रिया को शुरू किया जाता है तो वे सभी लोग जिन्होंने अपने माता-पिता के बारे में जानकारी नहीं दी, वे सभी लोग संदिग्ध नागरिकता की श्रेणी में खिसकाए जाने के खतरों को झेल रहे होंगे, और उनसे अपने वैध नागरिकता के सुबूत पेश करने के लिए कहा जा सकता है। और इसमें कोई संदेह नहीं कि उनमें से खास तौर पर मुसलमानों को चिह्नित किया जाने वाला है जैसा कि हम दिल्ली विधानसभा के चुनाव में बीजेपी के द्वारा किये जा रहे जहरीले प्रचार अभियान के साथ मुसलमानों के बारे में भारतीय जनता पार्टी के पूर्वाग्रह से परिचित हैं।

नागरिकता कानून के विपक्षियों के डर को दूर करने का एकमात्र तरीका है, नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 14 ए को निरस्त किया जाये, जो कि दिल्ली के शाहीन बाग़ और देश के अन्य स्थानों पर धरनास्थल पर बैठे नागरिकों की प्रमुख मांग होनी चाहिए।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

What Should be Shaheen Bagh’s Goal: Repeal Section 14A of Citizenship Act

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