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शाहीन बाग़ की तर्ज़ पर इलाहाबाद के रोशन बाग़ की कहानी : महिलाओं की ज़बानी

आज देशभर में 120 से अधिक 'शाहीन बाग़' खड़े हो चुके हैं। इसी कड़ी में 12 जनवरी को प्रयागराज (इलाहाबाद) के रोशन बाग़ के मंसूर पार्क में कुछ महिलाएं इकट्ठा हुईं और जल्द ही वह मंसूर पार्क का धरना शाहीन बाग़ के धरने की तर्ज में चलने लगा। अब इसे भी एक महीने से ज़्यादा हो गया है।
CAA Allahabad

'हम दंगा-फसाद में यकीन नहीं रखते। मैं जानती हूँ कि प्रोटेस्ट जितना शांतिपूर्ण तरीके से होता है उतना ही प्रभावी भी होता है। राजनीतिक पार्टियां प्रोटेस्ट को भड़काने की कोशिश करती हैं क्योंकि तब वे प्रोटेस्ट पर अच्छे से कंट्रोल कर सकती हैं।'

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई कर रही ‘नाज़’ ने ये बातें कहीं। नाज़ नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रयागराज (इलाहाबाद) के मंसूर पार्क में महीने भर के अधिक समय से चल रहे अनिश्चित कालीन आंदोलन का नेतृत्व संभाल रही हैं। नाज़ मूलतः पश्चिम बंगाल से हैं। नाज़ के खालू भी पिछले दिनों में ऐसे ही आंदोलन में जेल जा चुके हैं।

हम दिल्ली के शाहीन बाग़ से होते हुए प्रयागराज के मंसूर पार्क में यह देखने पहुंचे कि एक ही उद्देश्य के लिए हो रहे आंदोलन किस तरह से एक और किस मायने में अलग हैं। वह भिन्नता हमने व्यक्ति के स्तर पर, विचार के स्तर पर और उद्देश्य के स्तर पर देखने की कोशिश की।

शाहीन बाग़ का आंदोलन जहाँ एक हाइवे खादर-कालिंदी कुंज पर हो रहा है वहीं मंसूर पार्क का आंदोलन प्रयागराज शहर के एक किनारे बसे रोशन बाग मोहल्ले के एक पार्क में हो रहा है। शाहीन बाग में वक्ता के रूप में बेहद सधे हुए लोग संबोधित करते दिखाई देते हैं वहीं मंसूर पार्क में अनुभवी स्थानीय वक्ता होते हैं। साथ ही आत्मविश्वास से लबरेज महिलाएं भी टूटी-फूटी भाषा में ही संविधान, अम्बेडकर और गांधी के विचारों को बचाने की बात करते हुए दिखाई देती हैं।

दिल्ली का शाहीन बाग़ देश की राजधानी में होने की अपनी खासियत लिए हुए है। जिसमें विभिन्न प्रकार की भिन्नता देखने को मिल जाती है। शाहीन बाग़ में पुस्तकालय, मेडिकल कैम्प लगे हैं। आंदोलनकारियों की संख्या भी मंसूर पार्क से निश्चित ही अधिक है। शाहीन बाग़ में आंदोलनकारी विभिन्न राज्यों से पहुंच रहे हैं। वहीं प्रयागराज के मंसूर पार्क में जोश से लबरेज स्थानीय महिलाएं महीने भर से अधिक समय से डटी हुई हैं।

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देशभर के शहरों में शाहीन बाग़ क्यों?

सदन से लेकर सड़क तक बिल का विरोध जारी रहने बाद भी केंद्र सरकार द्वारा नागरिकता संशोधन बिल अंतिम रूप से 12 दिसम्बर, 2019 को दोनों सदनों से होते हुए राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून बन गया। जनता नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ पूरे देश में सड़कों पर उतरी। पहले तो देश के अलग-अलग हिस्सों में यह आंदोलन असंगठित रूप से जारी रहा जिसमें कई जगहों पर हिंसा की घटनाएं भी हुई लेकिन बाद में इसे संगठित और अहिंसक बनाए रखने पर ज़ोर दिया जाने लगा। इसकी शुरुआत दिल्ली के शाहीन बाग़ से हुई। 

15 दिसम्बर से शाहीन बाग़ खादर-कालिंदी कुंज हाइवे पर महिलाएं शांति पूर्ण धरने पर बैठ गईं। देखते ही देखते देश भर के विभिन्न शहरों में शाहीन बाग़ नाम से धरना प्रदर्शन शुरू हो गया। आज देशभर में 120 से अधिक शाहीन बाग़ खड़े हो चुके हैं। इसी कड़ी में 12 जनवरी को प्रयागराज के रोशन बाग़ के मंसूर पार्क में कुछ महिलाएं इकट्ठा हुईं और जल्द ही वह मंसूर पार्क का धरना शाहीन बाग़ के धरने की तर्ज में चलने लगा।

मंसूर पार्क का नेतृत्व करती चार लड़कियां

चार लड़कियों में सारा अहमद मंसूर पार्क आंदोलन की अगुआ हैं। सारा हाल ही में अपनी नौकरी छोड़ आंदोलन में शामिल हुई हैं। सारा प्रयागराज के एक जिम में ट्रेनर थीं। जिम के मालिक से असहमति के बाद वे 12 जनवरी को नौकरी छोड़कर आंदोलन का नेतृत्व करने मंसूर पार्क में आ गईं। तब से वहीं बनी हुई हैं। रिपोर्टिंग के दौरान मैंने यह नोटिस किया कि सारा अहमद आंदोलन स्थल से भले ही थोड़ी दूरी पर रहें लेकिन उनके कान आंदोलन के लाउडस्पीकर पर ही लगे रहते हैं। मुझे सारा से बात करते हुए दस मिनट हुए होंगे कि अचानक सारा उठकर मंच की ओर चल पड़ती हैं। मैंने पूछा क्या हुआ? सारा ने जवाब दिया कोई धार्मिक आधार पर नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ में बात कर रहा है।

सारा यह बात कहते हुए आत्मविश्वास से लबरेज़ नजर आ रही थीं। सारा की आंखों, बातों और आंदोलन को लेकर उनकी स्ट्रैटजी को देखकर यह लग रहा था सारा एक पुरानी आंदोलनकर्ता हों। लेकिन ऐसा नहीं है सारा के जीवन का यह पहला आन्दोलन है और पहली बार सारा किसी आंदोलन का नेतृत्व कर रही हैं। सारा अहमद की सूझ-बूझ का इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सारा ने कहा 'हम इस आंदोलन में सबको आमंत्रित करते हैं चाहे वे किसी भी दल या संगठन से हों लेकिन हम उनसे कहते हैं इस आंदोलन में शामिल होने से पहले वे अपनी राजनीतिक पहचान पार्क में बने तीनों गेटों के बाहर छोड़कर ही आएं'। 

सारा की ये बातें साबित करती हैं कि यह आंदोलन एक जनांदोलन है। सारा आंदोलन और कानून को लेकर बिल्कुल साफ समझ रखती हैं। सारा इस बात से चिंतित जरूर नजर आती हैं कि आंदोलन में ज्यादा संख्या मुस्लिम महिलाओं की है लेकिन जो दलित, पिछड़े समाज से महिलाएं आ रही हैं उनसे एक उम्मीद भी है। हमने सारा से यह सवाल किया कि क्या भविष्य में किसी अन्याय के खिलाफ सारा अहमद इसी तरह सड़कों पर उतरेंगी? सारा सेकेंड भर में हिम्मत दिखाते हुए कहती हैं कि "अब कहीं भी अन्याय के खिलाफ आंदोलन हो रहा होगा कोई हो न हो सारा अहमद वहां जरूर होंगी"। सारा अपनी बात पर कितना खरा उतरती हैं यह आने वाले समय पर निर्भर करता है।

चार लड़कियों में दूसरा नाम बीकॉम की छात्रा फ़ातमा का है। फ़ातमा कहती हैं 'अब तो ऐसे लगता है जैसे आंदोलन की होकर रह गयी हूँ। पूरी जिंदगी ही चेंज हो गयी है। सोशल मीडिया से लेकर घर तक सबकुछ पहले की अपेक्षा चेंज हो गया। पहले सोशल मीडिया पर फ़ोटो शेयर करके एन्जॉय करती थी लेकिन जबसे आंदोलन में शामिल हूँ सिर्फ आने वाले वक्ता और आंदोलन की तस्वीर शेयर करती हूँ'। फातमा जो बात कह रही हैं वह उनके मोबाइल कवर पर लगे सीएए, एनआरसी के खिलाफ वाले स्टीकर से साफ झलकती है।

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इस कड़ी में अगला नाम पत्रकारिता की छात्रा सानिया अब्बास का है। सानिया इस आंदोलन में शामिल तो प्रदर्शनकारी के रूप में हुईं थी लेकिन अब वालंटियर हो गई हैं। सानिया के जीवन में आंदोलन का यह पहला अनुभव है। सानिया इससे पहले स्कूल, कॉलेज के इवेंट पर स्पीच तो देती थीं लेकिन किसी आंदोलन में शामिल नहीं हुईं। सानिया कॉलेज में लाइब्रेरी, पानी, कुलपति के खिलाफ हो रहे आंदोलन में भी कभी शामिल नहीं होती थीं। उनकी रुचि बुक्स पढ़ने और ब्लॉग लिखने में है।

आंदोलन में मुस्लिम महिलाओं की भागीदारी को सानिया समझती हैं कि जब बात अस्तित्व की आ गयी तब मुस्लिम महिलाएं बाहर निकलकर आईं। सानिया इसे एक बड़ा रिवोल्यूशन भी मानती हैं कि जो समाज बलात्कार या वीमेन इशू पर कभी बाहर नहीं आया अब उसी समाज से हर कम्युनिटी के लोग एक अम्ब्रेला में आ गए हैं। क्या आगे मुस्लिम महिलाएं अन्याय के खिलाफ इसी तरह निकलकर आएंगी? इस पर सानिया कहती हैं मुझे तो नहीं पता आगे क्या होगा लेकिन इतना जरूर कहना चाहती हूँ कि हमें खुद से कमिट करना चाहिए और इसी डेडिकेशन के साथ बाहर आना चाहिए। चांसेस है कि औरतें आगे भी अन्याय के खिलाफ निकलेंगी।

डिस्पेंसरी में काम करने वाली फ़िजा मंसूर पार्क के आंदोलन में शुरू से शामिल हो रही हैं। फ़िजा का कुल आठ लोगों का परिवार है। सुबह खाना बनाकर, बच्चों को स्कूल भेजकर, फ़जर के बाद आंदोलन में पहुंच जाती हैं। जबसे मंसूर पार्क में आंदोलन चल रहा है तबसे डिस्पेंसरी कम जाना होता है। फ़िजा कहती हैं सारे डर छोड़कर हम इस संविधान विरोधी काले कानून के खिलाफ आंदोलन करने आये हैं। ‘जीत गए तो वतन मुबारक़, हार गए तो कफन मुबारक़’। फ़िजा आगे कहती हैं इस आंदोलन से समझ आया कि आंदोलन करना जरूरी है।

आम समझ

आंदोलन में शामिल आम महिलाओं, पुरुषों और बच्चों से बात करने पर एक बात निकलकर आती है कि उन्हें सीएए, एनआरसी, एनपीआर का कानूनी पक्ष भले ही न मालूम हो लेकिन इस कानून का मर्म और उनपर पड़ने वाले प्रभाव उन्हें भली-भांति पता है। रोशनबाग़ मोहल्ले की रुखसाना बानो कहती हैं कि ‘सरकार अइसन कानून लाय रही है जिसमें मुसलमान कागज न दिखा पावयं तो इहाँ से जांय’। 

रुखसाना आगे कहती हैं ‘एक साथ लड़ाई लड़े, एक साथ जीते, एक साथ रह रहे थे लेकिन अब भय पैदा कई दिहिन, वोट के लिए नेता आय के लड़ाई लगवाए दिहिन’। रुखसाना बानो अपनी बात में जिस हिन्दू-मुस्लिम की साथ-साथ लड़ी गई लड़ाई की बात कर रही थीं वह हिंदुस्तान के आज़ादी की लड़ाई थी। इलाहाबाद आज भी उस साझे संघर्ष का गवाह है। वहां खुसरो बाग़ भी है और आनंद भवन के साथ चंद्रशेखर आज़ाद पार्क भी।

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प्रयागराज स्थित सबद पुस्तक केंद्र की संचालिका सुनीता जी इस आंदोलन के प्रभाव को और इसका सत्ता द्वारा उठाये जा रहे लाभ पर भिन्न नजरिया रखती हैं।आन्दोलन की कुछ मौलिक कमियों पर ध्यान दिलाती हैं। उत्तर-प्रदेश, दिल्ली, असम जैसे राज्यों में जहां भाजपा की सरकार है या पुलिस बल उसके अंतर्गत है वहां बड़े स्तर पर आंदोलनकारियों का दमन किया गया। कई राज्यों में लंबे समय तक धारा 144 लागू की गई। सरकार के बेतहाशा दमन से देश भर में डर का माहौल कायम हुआ जिसके उपरांत आंदोलन का यह नायाब तरीका इज़ाद किया गया। 

सुनीता इस आंदोलन को देश भर में बन चुके शाहीन बागों से बाहर भी देखना चाहती हैं, वे चाहती हैं कि छात्र और राजनीतिक दल सड़कों पर भी अपनी मौजूदगी दर्ज करायें। वहीं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के छात्र रहे प्रेम दूबे इस आंदोलन को महिलाओं का आजादी के बाद एक नायाब आंदोलन मानते हैं। लेकिन वे यह भी कहते हैं कि 'मुझे नहीं लगता आने वाले कल में महिलाएं समाज में हो रहे अन्याय के खिलाफ इसी तरह सड़कों पर निकलेंगी। आगे भी किसान अपनी लड़ाई अकेले लड़ता ही मिलेगा। लेकिन यह आंदोलन बहुत कुछ कहता है'।

अनुभवी आंदोलनकारी क्या सोचते हैं

स्त्री मुक्ति संगठन से जुड़ी डॉ. पद्मा सिंह इस आंदोलन में शुरू से ही शामिल हैं। आंदोलन को शांतिपूर्ण ढंग से आगे बढ़ाने में महती भूमिका अदा कर रही हैं। आगे आंदोलन की स्थिति क्या होगी इस पर अभी पद्मा सिंह स्पष्ट रूप से कहने से बचती हैं। लेकिन यह मानती हैं कि उत्तर प्रदेश में मुसलमान वर्सेस हिन्दू हो गया है इससे मोदी सरकार को लाभ भी हो रहा है। अंत में पद्मा सिंह कहती हैं कि इसे जन आंदोलन बनाने के लिए अभी और तैयारी की आवश्यकता है।

प्रयागराज के मंसूर पार्क में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हो रहे आन्दोलन को बाहर से देखकर यह लगता है कि इस आन्दोलन का स्वारूप बहुत संगठित नहीं है लेकिन जिस तरह से महीने भर से अधिक समय से यह आन्दोलन चल रहा है यह अपने आपमें परिभाषित करता है कि जनांदोलन है और जनता स्वाभाविक रूप से संगठित। इस पक्ष पर समाजवादी छात्र सभा के छात्र नेता मोहम्मद सैफ प्रकाश डालते हैं कि छात्रों द्वारा एक दिवसीय धरने में भी लोगों को सूचित करना पड़ता है, बुलाना पड़ता है लेकिन यहाँ आम जनता खुद आई है और महीनों से आ रही है।

जहाँ तक रही बात आन्दोलन में शामिल महिलाओं की आगे भी इसी तरह निकलकर आने की तो यह भविष्य के पाले में है। इस सन्दर्भ में प्रयागराज की उत्पला शुक्ला कहती हैं कि आगे महिलाएं आएंगी या नहीं इसके बारे में कुछ कह नहीं सकते। लेकिन इतना जरूर कहेंगे कि यह आंदोलन उनके भीतर कुछ न कुछ जरूर बदलेगा।

इस तरह हमने प्रयागराज के मंसूर पार्क में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ चल रहे आंदोलन में महिलाओं की जुबानी उनका नजरिया जाना। अभी बहुत कुछ समय के पाले में है। बदलाव के इस मुहिम की बाग़डोर इस बार महिलाओं ने थामी है। घरों के बाहर वे बदल रहीं हैं, यकीनन उन्हीं के साथ ही यह पीढ़ी भी बदलेगी।

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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