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सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का इस्तेमाल 'सूचना के अधिकार' को दबाने में किया जा रहा है

RTI क़ानून कहता है कि सभी नागरिकों को क़ानून के प्रावधानों के हिसाब से सूचना का अधिकार है।
RTI

उच्चतम न्यायालय के एक फ़ैसले को आधार बनाकर सहूलियत के हिसाब से सूचनाओं को व्यक्तिगत करार दिया जा रहा है, ताकि उन्हें किसी आवेदनकर्ता को उपलब्ध कराए जाने से इंकार किया जा सके। इससे भ्रष्टाचार बढ़ता है और उन लोगों को सुरक्षा मिलती है, जिन्होंने गलत बिल और प्रमाणपत्र लगाए। यह व्यवस्था तय करती है कि अलग-अलग योजनाओं का फर्जी लाभ लेने वाले पकड़े ना जाएं। पूर्व सूचना आयुक्त शैलेष गाँधी कहते हैं कि इस तरह RTI क़ानून का भ्रष्टाचार के खात्मे का जो लक्ष्य था, वह अब कहीं पीछे छूट रहा है।

सूचना के अधिकार (RTI) का इस्तेमाल आम नागरिकों द्वारा बढ़ रहा है। क्योंकि वे जवाबदेह शासन की इच्छा रखते हैं। इस क़ानून ने समग्र तौर पर, नागरिकों से किए गए उस वायदे को सच्चाई बनाया है, जिसके तहत लोकतंत्र को "नागरिकों का, नागरिकों द्वारा और नागरिकों के लिए" शासन बताया जाता रहा है।

संसद ने जिस आरटीआई क़ानून को संहिताबद्ध किया था, उससे नागरिकों के इस बुनियादी अधिकार को प्रभावी तरीके से लागू किया गया। जब इस क़ानून को बनाया जा रहा था, तब इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट के अलग-अलग फ़ैसलों की तरफ भी ध्यान दिया गया था। यह एक सीधा और आसानी से समझ आने वाला क़ानून है। जैसा इसकी प्रस्तावना में बताया गया है, इसका एक उद्देश्य भ्रष्टाचार को रोकना है।

संसद की सहमति के बिना संशोधन

लेकिन सूचना आयोग और कोर्ट के कुछ ऐसे फ़ैसले हैं, जो सूचना के अधिकार में बाधा पैदा कर रहे हैं। जबकि इन्हें ना तो संविधान से मान्यता मिली है और ना ही क़ानून से।

ऐसा ही एक मामला "गिरीश रामचंद्र देशपांडे बनाम् केंद्रीय सूचना आयुक्त एवम् अन्य, 2012" का है। इस फ़ैसले से सूचना के अधिकार क़ानून में बिना संसदीय सहमति के ही एक प्रभावी संशोधन हो गया। इस फ़ैसले में सूचना उपलब्ध कराने की मनाही को "RTI क़ानून के सेक्शन 8(1)(j)" के आधार पर न्यायसंगत बताया गया। यह सेक्शन इस स्थिति में सूचना देने की मनाही करता है:

"ऐसी व्यक्तिगत प्रवृत्ति की जानकारी, जिसके खुलासे का किसी सार्वजनिक हित या गतिविधि से कोई संबंध नहीं हो, या ऐसी सूचना जिससे किसी शख्स की निजता में अनचाही दखलंदाजी होती हो, बशर्ते केंद्रीय सूचना अधिकारी या राज्य सूचना अधिकारी या अपील प्राधिकरण में से कोई सहमत हो कि सार्वजनिक हित के लिए इस तरह की दखलंदाजी जरूरी है:

ऐसी जानकारी, जिसे संसद या राज्य विधानसभा को देने से इंकार नहीं किया जा सकता, उसे किसी व्यक्तिगत शख़्स को प्रदान करने से भी मना नहीं किया जा सकता।"

RTI क़ानून कहता है कि सेक्शन 7(1) में बताई परिस्थितियों को छोड़कर, सभी नागरिकों को सूचना का अधिकार हासिल है। सेक्शन 7(1) साफ़ कहता है कि केवल सेक्शन 8 और सेक्शन 9 में बताई गई परिस्थितियों में ही सूचना या जानकारी उपलब्ध कराए जाने से इंकार किया जा सकता है। क़ानून का सेक्शन 22 कहता है कि कोई भी पुराने क़ानून या नियम, सूचना उपलब्ध कराने की मनाही का आधार नहीं हो सकते।

गिरीश रामचंद्र देशपांडे मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को अब पूरे देश में क़ानून की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन वह फ़ैसला क़ानून नहीं बनाता। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले इस्तेमाल गलत तरीके से नागरिकों के बुनियादी अधिकार को सीमित करने के लिए किया जा रहा है।

मैं इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूं कि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जो युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाए गए हैं, उन्हें अनुच्छेद 19(2) में वर्णित किया गया है। यह प्रतिबंध "भारत की संप्रभुता और अखंडता को प्रभावित करने, राज्य की सुरक्षा, विदेशी देशों से मित्रवत् संबंधों को खराब करने, क़ानून व्यवस्था बिगाड़ने, कोर्ट की अवमानना, मानहानि या अपराध को उकसाने की स्थिति" में लगाए जा सकते हैं।

कोर्ट के फ़ैसले और भविष्य के न्यायिक फ़ैसलों के लिए प्रचलन

सुप्रीम कोर्ट के दो फ़ैसलों को याद किया जाना जरूरी है। पी रामचंद्र राव बनाम् कर्नाटक राज्य, अपील नंबर (crl.) 535 में पांच जजों वाली बेंच ने कहा था:

"कोर्ट क़ानून की घोषणा कर सकते हैं, वे क़ानून की व्याख्या कर सकते हैं, वह इसकी खामियों को भर सकते हैं, लेकिन वे विधायी कार्यों में अतिक्रमण नहीं कर सकते, यह काम विधायिका के लिए है।" राजीव दलाल (Dr) बनाम् चौधरी देवीलाल यूनिवर्सिटी, सिरसा एवम् अन्य, 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने फ़ैसले की तरफ ध्यान दिलाते हुए कहा, "कोर्ट का एक फ़ैसला अगर तर्कों पर आधारित कुछ नियम बनाता है, तो यह आगे के लिए फ़ैसलों का प्रचलन तय करता है। केवल साधारण निर्देशों और परीक्षणों के आधार पर कोई क़ानून नहीं बनाया जा सकता, जब तक किसी नियम के बारे में तर्क पेश नहीं किए जाएंगे, उसे आगे के फ़ैसलों के लिए प्रचलन या पूर्ववर्ती नियम नहीं माना जा सकता।"

गिरीश रामचंद्र देशपांडे मामले में दिए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को पूरे देश में क़ानून की तरह उपयोग किया जा रहा है। मैं कहूंगा कि इसका प्रभाव यह हुआ है कि बिना क्षेत्राधिकार के RTI क़ानून के सेक्शन 8(1)(j) में बदलाव कर दिया गया। मैं यहां यह बताने की कोशिश करूंगा कि यह फ़ैसला क़ानून नहीं बनाता और उसका इस्तेमाल गलत तरीके से नागरिकों के बुनियादी अधिकार को सीमित करने के लिए किया जा रहा है।

गिरीश चंद्र पांडे ने एक अधिकारी को मेमो, शोकाज़ नोटिस और उन पर लगाए गए प्रतिबंधों/सजा की प्रतियों की मांग की थी। उन्होंने संबंधित अधिकारी द्वारा स्वीकार की गई संपत्तियों और उपहारों का ब्योरा भी मांगा था। चूंकि केंद्रीय सूचना आयोग ने उनके खिलाफ़ फ़ैसला दिया, इसलिए वे सुप्रीम कोर्ट चले गए। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का मुख्य भाग कहता है:

- याचिकाकर्ता ने यहां एक तीसरे रेस्पोंडेंट को उसके नियोक्ता द्वारा दिए गए मेमो, शोकाज़ नोटिस और प्रतिबंधों/सजा का ब्योरा मांगा है। याचिकाकर्ता ने संबंधित पक्ष की स्थिर-अस्थिर संपत्तियों और उनके निवेशों, बैंकों और दूसरे वित्तीय संस्थानों से उनके उधारियों-देनदारियों की जानकारी के साथ-साथ तीसरे रेस्पोंडेंट, उनके रिश्तदारों और उनके दोस्तों द्वारा रेस्पोंडेंट के बेटे की शादी में कबूल किए गए उपहार की जानकारी भी मांगी है। जिस जानकारी की मांग की गई है, उसका ज़्यादातर ब्योरा तीसरे रेस्पोंडेंट के आयकर रिटर्न में मिल जाएगा। सवाल यह है कि ऊपर जो जानकारी मांगी गई है, क्या वह RTI क़ानून के सेक्शन 8(1) के उपबंध (j) में बताई गई "व्यक्तिगत जानकारी" की सीमा में आती है।

- हम CIC की राय से सहमति जताते हैं कि याचिकाकर्ता ने रेस्पोंडेंट से जो जानकारी मांगी है, वह RTI क़ानून के सेक्शन 8(1) के उपबंध (j) में बताई गई "व्यक्तिगत जानकारी" की सीमा में आती है। किसी संगठन में अधिकारी या कर्मचारी का प्रदर्शन प्राथमिक तौर पर उसके और नियोक्ता के बीच का मामला होता है और आमतौर पर इस "निजी जानकारी" में आने वाली चीजों को सर्विस रूल्स के ज़रिए प्रशासित किया जाता है। इनके खुलासे का किसी भी सार्वजनिक गतिविधि या सार्वजनिक हित से कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी तरफ इस तरह के खुलासे से संबंधित व्यक्ति की निजता में अनचाही दखलंदाजी होगी। यह जरूर है कि किसी मामले में बड़े सार्वजनिक हित को ध्यान में रखते हुए, केंद्रीय सूचना अधिकारी, राज्य सूचना अधिकारी या कोई अपील प्राधिकरण इस तरह की जानकारी को सार्वजनिक करने का आदेश दे सकता है, लेकिन याचिकाकर्ता इस जानकारी को अपना अधिकार नहीं बता सकता।

- किसी व्यक्ति द्वारा अपने आयकर में बताई गई जानकारी उसकी निजी जानकारी होती है, जिसका खुलासा ना करने का प्रावधान RTI क़ानून के सेक्शन 8(1) के उपबंध (j) में है। बशर्ते केंद्रीय सूचना अधिकारी, राज्य सूचना अधिकारी या अपील प्राधिकरण इस बात से सहमत ना हो जाएं कि इस तरह की जानकारी का खुलासा बड़े सार्वजनिक हित को ध्यान में रखते हुए जरूरी है।"

निजी जानकारी और निजता

RTI क़ानून के बारीकी से किए गए अध्ययन से पता चलता है कि किसी सार्वजनिक प्रशासनिक संस्था के पास मौजूद व्यक्तिगत जानकारी को सेक्शन 8(1)(j) का इस्तेमाल करते हुए इन दो स्थितियों में देने से इंकार किया जा सकता है।

1) जब जिस जानकारी की मांग की गई है, वह व्यक्तिगत जानकारी है और मांग की प्रवृत्ति का स्पष्ट तौर पर किसी सार्वजनिक गतिविधि या हित से कोई लेना-देना नहीं है।

या

2) जिस जानकारी की मांग की गई है, वह व्यक्तिगत प्रवृत्ति की है और उसके खुलासे से संबंधित व्यक्ति की निजता में अनचाहा अतिक्रमण होगा।

अगर जानकारी व्यक्तिगत जानकारी है, तो यह देखना जरूरी है कि क्या यह जानकारी, सार्वजनिक संस्था के पास किसी सार्वजनिक गतिविधि के परिणामस्वरू आई है। आमतौर पर ज़्यादातर सार्वजनिक रिकॉर्ड, सार्वजनिक गतिविधियों से पैदा होते हैं। किसी नौकरी के लिए आवेदन या राशन कार्ड के लिए आवेदन सार्वजनिक गतिविधियों को उदाहरण हैं। लेकिन सार्वजनिक संस्थाओं के पास कुछ ऐसी निजी जानकारी हो सकती है, जो जरूरी नहीं है कि उनके पास किसी सार्वजनिक गतिविधि के होने से पहुंची हों। जैसे सरकारी अस्पताल में इलाज़ करवाए जाने के चलते पहुंचा मेडिकल रिकॉर्ड या किसी सार्वजनिक बैंक के साथ किया गया लेन-देन। इसी तरह एक सार्वजनिक संस्था, किसी रेड या जब्ती के वक़्त या फोन टैपिंग के चलते ऐसी जानकारियां हासिल कर सकती हैं, जिनका सार्वजनिक गतिविधियों से कोई लेना-देना नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट के एक पहले के फ़ैसले में कहा गया कि किसी कोर्ट का फ़ैसला तभी "पूर्वप्रचलन माना जाएगा, जब वह तर्कों पर आधारित कोई सिद्धांत बनाता हो। अनौपचारिक टिप्पणियों या परीक्षण, जिनमें किसी क़ानून के सिद्धांत को नहीं दर्शाया जाता, उन्हें न्यायिक फ़ैसलों के लिए पूर्वप्रचलन नहीं माना जाएगा।"

भले ही जानकारी सार्वजनिक गतिविधि से पैदा ना हुई हो, लेकिन फिर भी इसके सार्वजनिक किए जाने से इंकार किया जा सकता है। अगर यह किसी शख़्स की निजता में अनचाही घुसपैठ करती है। जैसा खड़क सिंह बनाम् आर राजगोपाल के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बताया इस निजता में किसी के घर के भीतर के मामले, किसी व्यक्ति के शरीर से जुड़े मामले, उसकी यौन प्राथमिकता जैसी चीजें शामिल हैं। यह चीज संविधान के अनुच्छेद 19(2) के साथ मेल खाती है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनुच्छेद 19(1)(a) पर 'नैतिकता और विनम्रता' के आधार पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाती है।

हालांकि, अगर ऐसा महसूस होता है कि संबंधित जानकारी किसी सार्वजनिक गतिविधि का सीधा नतीज़ा नहीं है और इसके खुलासे से किसी व्यक्ति की निजता में अनचाही घुसपैठ होगी, तो इसके खुलासे के लिए यह जांच किया जाना जरूरी है: अगर यह जानकारी संसद या राज्य विधानसभा को दी जा सकती है, तो किसी व्यक्ति को इसे प्रदान किए जाने से भी इंकार नहीं किया जा सकता।

सेक्शन 8(1)(j) के तहत किसी जानकारी को देने से इंकार करने के पहले, जानकारी को उपरोक्त पैमाने पर परखना जरूरी है। सार्वजनिक अधिकारी संसद और विधानसभा में सवालों का अकसर जवाब देते हैं। लेकिन उनके लिए नागरिकों द्वारा जानकारी की मांग वाले सवालों के जवाब देना मुश्किल होता है। इसलिए किसी व्यक्तिगत जानकारी को देने से इंकार करने के पहले उसकी इस पैमाने पर जांच किया जाना जरूरी है: अगर उनका विषयक विश्लेषण होता है, तो सांसदों और विधायकों को जिस जानकारी को दिए जाने से इंकार किया जा सकता है, तो नागरिकों को भी उस सूचना या जानकारी को प्रदान किए जाने से इंकार किया जा सकता है। अगर इस तरह की जानकारी के सार्वजनिक होने से 'नैतिकता और विनम्रता' का हरण होता है, तो वह जानकारी संसद को नहीं दी जानी चाहिए, इसलिए नागरिकों को भी वह जानकारी नकारी जा सकती है।

एक दूसरा नज़रिया यह है कि व्यक्तिगत जानकारी का नागरिकों को इस आधार पर दिए जाने से इंकार किया जा सकता है कि जानकारी के खुलासे से किसी व्यक्ति के कुछ हितों को नुकसान पहुंच सकता है। लेकिन अगर वह जानकारी विधानपरिषद को दी जा सकती है, तो उसका मतलब है जानकारी से होने वाला नुकसान बहुत ज़्यादा गंभीर नहीं है। क्योंकि विधानपरिषद को दी जाने वाली जानकारी सार्वजनिक होती है। RTI क़ानून का पहला विधेयक, जो संसद में दिसंबर 2004 में पेश किया गया था, उसमें सेक्शन 8(2) का प्रावधान भी था। जो कहता था, जिस जानकारी या सूचना का संसद या विधानपरिषद को दिए जाने से इंकार नहीं किया जा सकता, उसे किसी नागरिक को देने से इंकार नहीं किया जा सकता है। मई, 2005 में पेश किए गए अंतिम मसौदे में इस प्रावधान को केवल सेक्शन 8(1)(j) के लिए ही जोड़ा गया।

इसलिए यह संसद की चेतनापूर्ण इच्छा थी कि इस प्रावधान को केवल सेक्शन 8(1)(j) के प्रावधान के तौर पर ही जोड़ा जाए। इसलिए जरूरी है कि जब सेक्शन 8(1)(j) के आधार पर सूचना देने से इंकार किया जाता है, तो सार्वजनिक सूचना अधिकारी/आयुक्त/प्रथम अपील प्राधिकरण/जजों को यह विषयक विश्लेषण कर जरूर बताना चाहिए कि वे इस जानकारी को संसद या राज्य विधानसभा को भी देने से इंकार कर देंगे।

गिरीश रामचंद्र देशपांडे मामले में दिए गए फ़ैसले को क़ानून की दुनिया में पूर्व प्रचलन की तरह इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इसमें कोई भी विस्तृत तार्किकता नहीं दी गई थी, ना ही कोई क़ानूनी सिद्धांत बनाया गया था। फ़ैसले में जब यह कहा गया कि कुछ मामले नियोक्ता और कर्मचारी के बीच के होते हैं, तब यह बात भुला दी गई कि किसी सरकारी नौकर के नियोक्ता 'भारत के लोग' होते हैं।

इस चीज पर ध्यान देना जरूरी है कि प्राइवेसी बिल, 2014 में यह प्रस्ताव दिया गया था कि ऐसे निजी डाटा को संवेदनशील निजी डाटा माना जाएगा, जो: 1) संबंधित शख्स के शारीरिक और  मानसिक (मेडिकल हिस्ट्री समेत) स्वास्थ्य से संबंधित होगा 2) बॉयोमेट्रिक, शारीरिक या अनुवांशकीय जानकारी 3) आपराधिक सिद्धि 4) पासवर्ड 5) बैंकिंग्र क्रेडिट और वित्तीय डाटा 6) नार्को एनालिसिस या पोलीग्राफ टेस्ट डाटा 7) यौन प्राथमिकता। साथ में इस क़ानून के तहत उस जानकारी को संवेदनशील निजी डाटा नहीं माना जाएगा, जो आसानी से सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध है या जिसे RTI क़ानून, 2005 और दूसरे क़ानूनों के तहत जारी किया जा सकता है।"

केवल तभी जब एक तार्किक नतीज़े पर पहुंच लिया जाएगा कि संबंधित जानकारी का किसी सार्वजनिक गतिविधि से कोई संपर्क नहीं है और खुलासे से किसी शख़्स की निजता का अनचाहा हनन होगा, तब संबंधित जानकारी को संसद या राज्य विधानसभा को देने के मुद्दे पर एक विषयक विश्लेषण किया जाएगा। अगर ऐसा महसूस होता है कि जानकारी नहीं दी जानी है, तो सेक्शन 8 (2) के तहत यह विश्लेषण किया जाएगा कि क्या जानकारी ना दिए जाने के लिए व्यक्तिगत हितों की रक्षा करने के साथ-साथ इसके चलते कोई बड़ा सार्वजनिक हित तो दांव पर नहीं लगा है।

सुप्रीम कोर्ट ने बिना क़ानूनी तर्क दिए सिर्फ़ अपने नतीज़े में कह दिया कि संबंधित जानकारी RTI क़ानून के सेक्शन 8 (1)(j) के तहत व्यक्तिगत जानकारी है, इसलिए उसे ना दिए जाने की छूट है। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने एकमात्र तर्क देते हुए कहा कि वो केंद्रीय सूचना आयोग के फ़ैसले से सहमत है। इस तरह के फ़ैसले से क़ानून के वह पूर्वप्रचलन नहीं बन जाते, जिनका पालन किया जाना जरूरी है। इसे संविधान के अनुच्छेद 19(2) या RTI के सेक्शन 8(1)(j) से न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता। आरटीआई क़ानून के हिसाब से जानकारी देने से इंकार केवल क़ानून में दी गई छूटों के आधार पर ही दिया जा सकता है। कोर्ट ने सेक्शन 8(1)(j) के आधार पर इस आधार पर सूचना देने से इंकार कर दिया (नीचे दिए गए शब्दों पर खास गौर करें):

"ऐसी जानकारी जो व्यक्तिगत जानकारी से संबंधित हो, बशर्ते केंद्रीय सूचना अधिकारी, राज्य सूचना अधिकारी या अपील प्राधिकरण (जिस जगह मामला हो) इस बात से सहमत ना हो जाएं कि बड़े सार्वजनिक हित को ध्यान में रखते हुए ऐसी जानकारी का खुलासा किया जाना जरूरी है।"

यह चीज RTI क़ानून के प्रावधानों और आर राजगोपाल केस में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले या संविधान के अनुच्छेद 19(2) से मेल नहीं खाती। फ़ैसले में इस बात की कोई चर्चा ही नहीं है कि क्या खुलासों को किसी सार्वजनिक गतिविधि से कोई संबंध भी है या नहीं। या इस खुलासे से किसी की निजता का अनचाहा उल्लंघन होगा। ना ही केंद्रीय सूचना आयोग के फ़ैसले में इसकी कोई चर्चा है, जिसे कोर्ट ने माना है। ऊपर उद्धरण में जो शब्द हैं, उन पर कोई विचार नहीं किया गया, बस इसे आधार बना दिया गया कि यह व्यक्तिगत जानकारी है। सबसे खराब बात की जब कोर्ट फ़ैसले में सेक्शन 8(1)(j) को जोड़ रहा था, तब उसने बाद के उस हिस्से को नजरंदाज कर दिया, जिसमें कहा गया है कि ऐसी जानकारी जिसे संसद या विधानपरिषद में दिया जा सकता हो, उसे किसी व्यक्तिगत शख़्स को भी दिया जा सकता है। साफ है कि पूरे सेक्शन के 87 शब्दों में से सिर्फ़ 40 का ही इस्तेमाल किया गया।

RTI क़ानून के एक अहम प्रावधान को न्यायिक फ़ैसले द्वारा बदल दिया गया, जबकि यह फ़ैसला त्रुटिपूर्ण दिखाई पड़ता है। यह फ़ैसला संविधान के अनुच्छेद 19 (2) का भी उल्लंघन करता है। बिना किसी बेहतर तर्कशक्ति के नागरिकों के एक ऐसे हथियार को कमजोर कर दिया गया, जो सार्वजनिक अधिकारियों के भ्रष्टाचार और मनमानियों को सामने लाता था।

ADR/PUCL अपली 7178, (2001) मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में साफ़ कहा गया कि नागरिकों को यह जानने का अधिकार है कि जो लोग जनता के सेवक (चुनावों में खड़े होना) बनना चाहते हैं, उनकी संपत्ति कितनी है। साफ़ है कि जब जनता को उन लोगों की संपत्तियों के बारे में पता है, जो जनसेवक बनने की आकांक्षा रखते हैं, तब जो पहले से ही जनसेवक हैं, उनकी संपत्तियों के बारे में जानने का अधिकार कैसे नहीं हो सकता। यह बिलकुल वैसी ही बात है कि दूल्हा बनने के पहले किसी चीजे को संबंधित शख्स अपनी होने वाली पत्नी को बताता है, लेकिन शादी के बाद उसी जानकारी के खुलासे की जरूरत नहीं होती!

गिरीश रामचंद्र देशपांडे केस: नहीं बनना चाहिए न्यायिक फ़ैसलों का पूर्वप्रचलन

गिरीश रामचंद्र देशपांडे फ़ैसले को न्यायिक फ़ैसलों के लिए पूर्वप्रचलन के तौर पर मान्यता नहीं देनी चाहिए, क्योंकि:

1) इस फ़ैसले में किसी तरह की विस्तृत तार्किकता नहीं बताई गई है।

2) फ़ैसला इस बात की जांच नहीं करता कि किसी सार्वजनिक नौकरशाह की संपत्ति और काम का रिकॉर्ड की जानकारी सार्वजनिक गतिविधि है या नहीं। आरटीआई क़ानून केवल सरकार के पास जमा सरकारी रिकॉर्ड की बात करता है। जब फ़ैसले में कहा गया कि कुछ मामले नियोक्ता और कर्मचारी के बीच के होते हैं, तो यह तथ्य भुला दिया गया कि यहां नियोक्ता "भारत के लोग" हैं।

3) फ़ैसला सेक्शन 8(1)(j) के उन प्रावधानों को पूरी तरह भूल गया, जिनमें प्रस्तावित मनाही के लिए कुछ जांच करनी होती हैं।

4) देशपांडे केस में फ़ैसला देते वक़्त सुप्रीम कोर्ट ने राजागोपाल और ADR/PUCL जैसे मजबूत फ़ैसलों की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला संविधान के अनुच्छेद 19(2) का उल्लंघन भी करता है। राजागोपाल मामले का फ़ैसला नैतिकता और विनम्रता के उल्लंघन करने वाले कारकों को साफ करता है, साथ में बताता है कि सार्वजनिक रिकॉर्ड के मामले में निजता का दावा बरकरार नहीं रह सकता।

5) गिरीश रामचंद्र देशपांडे मामले में दिया गया फ़ैसला अब सामान्य तौर पर उपयोग की जाने वाली छूट बन गई है। आर के जैन बनाम् भारत संघ JT 2013 (10) SC 430 में भी जानकारी देते वक़्त सुप्रीम कोर्ट के देशपांड मामले में फ़ैसले की बात दोहराई गई और इसे पूर्व प्रचलन माना गया। इस मामले में एक अधिकारी के सम्मान पर कस्टम एक्साइज़ एंड सर्विस टैक्स अपीलेट ट्रिब्यूनल (CESTAT) के अध्यक्ष की टिप्पणी के बारे में जानकारी मांगी गई थी। इसके बाद कैनरा बैंक बनाम् सी एस श्याम, सिविल अपील नंबर 22, 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने स्थानांतरित अधिकारियों के नाम बताने से इंकार कर दिया। इन्हें कोर्ट ने निजी जानकारी बताया और देशपांडे मामले के फ़ैसले को पूर्वप्रचलन माना। चीफ पब्लिश इंफॉर्मेशन ऑफिसर (CPIO), सुप्रीम कोर्ट बनाम् सुभाष चंद्र अग्रवाल सिविल अपील नंबर 10004 में एक बार फिर गिरी देशपांडे फ़ैसले का उद्धरण लिया गया। प्रभावी तौर पर क़ानून को बदल दिया गया है और एक बड़ी जानकारी, जिसे व्यक्तिगत कहा जा सकता है, उसे देने से इंकार किया जा रहा है। इससे भ्रष्टाचार छुपता है और ऐसे लोगों को सुरक्षा मिलती है, जिन्होंने गलत बिल और प्रमाणपत्र लगाए हों। यह बदलाव यह भी तय करता है कि अलग-अलग योजनाओं के फर्जी फायदा उठाने वाले पकड़े ना जाएं। आरटीआई क़ानून का भ्रष्टाचार रोधी उद्देश्य अब विपथ हो रहा है।

6) पूरे देश में विधायक निधि खर्च की जानकारी, अधिकारियों की छुट्टी, जाति प्रमाणपत्र, फाइल नोटिंग, शैक्षणिक डिग्रियां, सब्सिडी के हितग्राहियों समेत बहुत सी जानकारियों को देने से इंकार किया जा रहा है। कई PIOs वह जानकारी भी देने से इंकार कर रहे हैं, जिसमें किसी व्यक्ति का नाम हो सकता है, वह दावा करते हैं कि यह व्यक्तिगत जानकारी है। अब यह जानकारी ना देने का एक सहूलियत भरा हथियार बन गया है।

RTI क़ानून का एक अहम हिस्सा न्यायिक फ़ैसले द्वारा बदल दिया गया है। जबकि यह न्यायिक फ़ैसला त्रुटिपूर्ण दिखाई देता है। यह संविधान के अनुच्छेद 19(2) का उल्लंघन भी करता है। आयुक्तों को इस पर जरूर विचार करना चाहिए और इस बात को मानना चाहिए कि गिरीश रामचंद्र देशपांडे मामले में दिया गया फ़ैसला RTI क़ानून के सेक्शन 8(1)(j) पर नया क़ानून नहीं बनाता और आर राजगोपाल के साथ ADR फ़ैसले के भी उलट है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के तीन फ़ैसलों में गिरीश रामचंद्र देशपांडे फ़ैसले को न्यायिक पूर्वप्रचलन के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। इसका इस्तेमाल उस जानकारी को देने से इंकार करने के लिेए किया जा रहा है, जिसमें PIO की रजामंदी नहीं होती। प्रभावी तौर पर क़ानून को बदला जा चुका है और एक बड़ी जानकारी जिसे व्यक्तिगत कहा जा सकता है, उसे देने से इंकार किया जा रहा है।

सूचना के अधिकार क़ानून को विकृत कर 'सूचना की मनाही के अधिकार' में बदला जा रहा है। सेक्शन 8(1)(j) को एक ऐसे यंत्र के तौर पर बदला जा रहा है, जिससे ज़्यादातर जानकारी या सूचनाएं देने से मनाही की जा सकती है। यह नागरिक अधिकारों के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण प्रतिगामी कदम होगा। इससे जवाबदेही तय करने और भ्रष्टाचार कम करने की शक्ति बहुत कम हो जाएगी। अब इस बात की बहुत जरूरत है कि वकील, जज और RTI एक्टिविस्ट इस बुनियादी अधिकार की मनाही पर विमर्श करें।

यह लेख मूलत: द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

(शैलेष गाँधी पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिेए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Supreme Court Ruling Comes in Handy to Constrict the Fundamental Right to Information

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