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हिजाब, EWS आरक्षण और हेट स्पीच पर सुप्रीम सुनवाई, सामने आईं ये ज़रूरी बातें

कोर्ट ने हिजाब मामले में फ़ैसला सुरक्षित रख लिया है। हेट स्पीच में अगली सुनवाई 23 नवंबर और आर्थिक आधार पर आरक्षण मामले में सुनवाई 27 सितंबर को होनी है। इन सब मामलों को सुनते हुए अदालत ने क्या महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं हैं आइए जानते हैं-
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इस सप्ताह सुप्रीम कोर्ट में तीन अहम मामलों हिजाब, ईडब्लूएस आरक्षण और हेट स्पीच से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई हुई। इस दौरान अदालत ने कई जरूरी सवाल उठाने के साथ ही केंद्र सरकार को फटकार भी लगाई है। 

हिजाब मामले में जहां कई दिन चली लंबी सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया है। तो वहीं हेट स्पीच से जुड़ी याचिकाओं पर अदालत की अगली सुनवाई 23 नवंबर को होगी। इन सब के बीच सबकी नज़रें ईडब्लूएस आरक्षण को लेकर संविधान पीठ की सुनवाई पर है, जो आगे 27 सितम्बर को होगी।

बता दें कि ये तीनों मामले सामाजिक सरोकार के साथ-साथ राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से भी जुड़े हुए हैं। इन सभी मुद्दों पर काफी समय से बहस जारी है, तो वहीं इसे केंद्र में नेतृत्व कर रही मुख्य सत्ताधारी पार्टी बीजेपी की सियासत से भी जोड़ कर देखा जा रहा है। इन मामलों में अदालत के फैसले का एक खास असर आने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भी देखने को मिल सकता है।

आइए जानते हैं इन मामलों की सुनवाई में ख़ास क्या रहा?

कर्नाटक हिजाब मामले में करीब 10 दिन तक चली लंबी सुनवाई गुरुवार, 22 सितंबर को पूरी हो गई। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है अब जस्टिस हेमंत गुप्ता और सुधांशु धूलिया की पीठ 16 अक्टूबर से पहले इस पर अपना फैसला सुना सकती है, क्योंकि इसी दिन जस्टिस हेमंत गुप्ता रिटायर हो रहे हैं।

मालूम हो कि हिजाब विवाद में कर्नाटक हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। कनार्टक सरकार ने इस साल पांच फरवरी को एक आदेश दिया था, जिसमें स्कूल-कॉलेजों में समानता, अखंडता और सार्वजनिक व्यवस्था में बाधा पहुंचाने वाले कपड़ों को पहनने पर बैन लगाया गया था। हाई कोर्ट ने शिक्षण संस्थानों में हिजाब पर बैन हटाने से इनकार करते हुए कर्नाटक सरकार के इस आदेश को कायम रखा था।

दरअसल, मुस्लिम लड़कियां स्‍कूल और कॉलेज में हिजाब पहनने का अधिकार चाहती हैं, लेकिन हाई कोर्ट ने अपने फैसले में माना था कि हिजाब इस्लाम धर्म में अनिवार्य धार्मिक प्रथा का हिस्सा नहीं है। हाई कोर्ट का फैसला सुप्रीम कोर्ट में पलटा जाएगा या इसे कायम रखा जाएगा ये आने वाले दिनों में तय हो जाएगा।

हिजाब के पक्ष में याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि ये ये एक फर्ज है, जिसका जिक्र कुरान में है। यह मामला सिर्फ इस्लाम की जरूरी प्रथाओं तक सीमित नहीं है। अलबत्ता, इसका दायरा व्यापक है। यह इंसान के जमीर, उसकी संस्कृति और निजता से भी जुड़ा है। हिजाब के पक्ष में संविधान के आर्टिकल 51ए का हवाला देते हुए दलील दी गई कि यह मिली-जुली संस्कृति, मानवता और विविधता की रक्षा करता है। इसके अलावा मुसलमानों को निशाना बनाने सहित मुस्लिम लड़कियों की पढ़ाई पर मंडराने वाले खतरे तक की तमाम बातें कहीं गई।

कर्नाटक सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और एडिशनल सोलिसिटर जनरल के एम नटराज, कर्नाटक एडवोकेट जनरल प्रभुलिंग नवाडगी ने दलीलें रखी। सरकार की ओर से कहा गया कि इस पूरे विवाद के पीछे पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया यानी पीएफआई का हाथ है और इस संगठन ने ही छात्राओं को उकसाया है। सरकार के मुताबिक साल 2021 के पहले हिजाब को लेकर कोई विवाद नहीं था। न ही सरकार ने अपनी तरफ से स्कूल और कॉलेज में कोई ड्रेस कोड तय किया, बल्कि हर शैक्षणिक संस्थान को ये अधिकार दिया कि वो अपने ड्रेस कोड ख़ुद तय कर सकते है। ऐसे में कुछ संस्थानो ने हिजाब को बैन कर दिया।

सरकार का यह भी कहना था कि हिजाब पहनना इस्लाम की अनिवार्य धार्मिक परंपरा नहीं है। कुरान शरीफ में लिखी हर बात धार्मिक है, पर वो इस्लाम के अनुयायियों के लिए अनिवार्य धार्मिक परम्परा भी हो, ये ज़रूरी नहीं है। अगर हिजाब का कुरान शरीफ में उल्लेख हुआ भी है, तो इसी जिक्र भर से वो अनिवार्य धार्मिक परम्परा नहीं हो जाती।

बहरहाल, महिलाओं के कपड़े हमेशा से पितृसत्तात्मक समाज के निशाने पर रहे हैं। ईरान में आज महिलाएं विरोध स्वरूप हिजाब जला रही हैं, तो उनकी भी मंशा यही है कि उनके पहनावे पर क्यों पाबंदी ना हो, वो अपनी पसंद के लिए आज़ाद हो। भारत में भी इसी इरादे से जब हिजाब का मामला विवादों में आया, तो कई सामाजिक और नागरिक संगठन न चाहते हुए भी इसकी ओर कदम बढ़ाने लगे, वो इसके हिमायती नहीं थे लेकिन वो इसे जबरन उतरवाने के ख़िलाफ़ थे। उन्हें डर था कि इसके चलते कहीं मुस्लिम लड़कियां शिक्षा से दूर न हो जाएं और शायद यही वजह है कि विरोध में और ज़्यादा महिलाओं ने हिजाब की ओर कदम बढ़ा दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट का फैसला जो भी हो उसका व्यापक असर देखने को मिलेगा क्योंकि ये मुद्दा अब धर्म और शिक्षा से काफी आगे चला गया है।

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हेट स्पीच मामले में सरकार को फटकार

हेट स्पीच की बात करें तो इस मामले में अदालत तथाकथित 'धर्म संसद' की बैठकों में दिए गए नफरती भाषण, सुदर्शन न्यूज़ पर प्रसारित 'यूपीएससी जिहाद' कार्यक्रम सहित कुल 11 रिट पेटिशन्स पर सुनवाई कर रही है। बुधवार, 21 सितंबर को जस्टिस के एम जोसेफ और जस्टिस ऋषिकेश रॉय की बेंच ने हेट स्पीच से निपटने के लिए एक ठोस सिस्टम की ज़रूरत के साथ ही सरकार की भूमिका पर भी सवाल उठाए। कोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार को फटकार लगाते हुए दो सप्ताह के भीतर एक रिपोर्ट पेश करने को कहा है जो नफरती भाषण की घटनाओं से निपटने में की गई कार्रवाई पर, केंद्र को 14 राज्यों से मिले जवाबों पर आधारित होगी। इस मामले की अगली सुनवाई 23 नवंबर को होगी।

लाइव लॉ में छपी रिपोर्ट के मुताबिक़, जस्टिस केएम जोसेफ ने कहा कि सबसे ज्यादा हेट स्पीच मीडिया और सोशल मीडिया पर हैं। हमारा देश किधर जा रहा है? उन्होंने केवल न्यूज़ चैनलों के डिबेट पर टिप्पणी नहीं की है बल्कि यह भी कहा है कि राजनीतिक दल इससे पूंजी बनाते हैं और टीवी चैनल एक मंच के रूप में काम कर रहे हैं। सबसे ज्यादा नफरत भरे भाषण टीवी, सोशल मीडिया पर हो रहे हैं, दुर्भाग्य से हमारे पास टीवी के संबंध में कोई नियामक तंत्र नहीं है।

अदालत ने आगे कहा, "हमारे यहां अमेरिका की तरह प्रेस की स्वतंत्रता के लिए अलग से क़ानून नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि खुली बहस होनी चाहिए। प्रेस की स्वतंत्रता ज़रूरी है, लेकिन हमें पता होना चाहिए कि लाइन कहां खींचनी है। यूके में एक चैनल पर भारी जुर्माना लगा था, ऐसा यहां नहीं है। उनके साथ कड़ाई से पेश नहीं आया जा रहा है। उनके ऊपर जुर्माना लगाया जा सकता है, ऑफ एयर किया जा सकता है।"

गौरतलब है कि हेट स्पीच यानी भड़काऊ या नफ़रत भरी बातें अपराध हैं और बीते कुछ सालों में इन पर सरकार की इच्छा के आधार पर कार्रवाई होती देखी गई है। अगर सरकारों को राजनीतिक रूप से उचित लगता है तो वे इस तरह के मामलों में कार्रवाइयां करती हैं और अगर उन्हें सूट न करे तो नहीं करतीं। ऐसे में इन डिबेट्स के जरिए माहौल पैदा किया जाने लगा है। जिसे सत्ताधारी पार्टी के ऐजेंडे से अलग नहीं देखा जा सकता। ये जाने-अनजाने एक तरह से एक ख़तरनाक कंडीशनिंग कर रहे हैं, जो समाज को विभाजित कर हाशिए पर खड़े लोगों को मुख्यधारा से अलग-थलग करने का षड्यंत्र लगता है।

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ईडब्लूएस आरक्षण और अदालत के सवाल

चीफ जस्टिस यूयू ललित की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ईडब्लूएस आरक्षण मामले पर सुनवाई कर रही है। इस मामले में आरक्षण की मूल भावना को लेकर अदालत की टिप्पणी सामने आई है, जिसमें कहा गया है कि आरक्षण की व्यवस्था सदियों से जाति और आजीविका के कारण प्रताड़ित लोगों के लिए है और ये वंश परंपरा से जुड़ी हुई है। यह पिछड़ापन कोई अस्थायी चीज नहीं है। बल्कि, यह सदियों और पीढ़ियों तक चलता रहता है, लेकिन आर्थिक पिछड़ापन अस्थायी हो सकता है। इसके लिए सरकार ‘आरक्षण’ के मसले में फंसे बिना अगड़ी जातियों में ईडब्ल्यूएस समुदाय को छात्रवृत्ति और मुफ्त शिक्षा जैसी सुविधाएं दे सकती थी।

गुरुवार, 22 सितंबर को केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने ईडब्लूएस आरक्षण का बचाव करते हुए कहा कि आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से ज्यादा न हो, यह प्रमुख नियम तो है लेकिन इसे इतना पवित्र नहीं बनाया जा सकता कि यह संविधान के बुनियादी ढांचे जैसा हो जाए। उन्होंने 103वें संविधान संशोधन का हवाला देते हुए कहा कि सामान्य वर्ग के ईडब्ल्यूएस के लिए 10 प्रतिशत कोटा एससी, एसटी और ओबीसी के लिए उपलब्ध 50 प्रतिशत आरक्षण से छेड़छाड़ किए बिना दिया गया है। उन्होंने आगे कहा कि संवैधानिक संशोधन के निर्णय की संसदीय बुद्धिमता को रद्द नहीं किया जा सकता, बशर्ते यह स्थापित किया जाए कि संबंधित निर्णय संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है।

अदालत ने सरकार से सवाल पूछा कि एससी-एसटी और ओबीसी की क्रीमी लेयर जिसे आरक्षण का लाभ नहीं मिलता, वह भी 50% की ओपन कैटेगरी में प्रतिस्पर्धा करता है। ईडब्लूएस में सिर्फ सामान्य वर्ग के गरीबों को 10 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा। इस तरह ओपन कैटिगरी में सिर्फ 40 प्रतिशत सीटें ही बचती हैं। ऐसे में ईडब्ल्यूएस के आरक्षण से किसका हिस्सा कटेगा? क्या इससे मेरिट के हिस्से में कटौती नहीं होगी?

सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक आरक्षण लागू करने के असर को लेकर भी सरकार से सवाल किया कि इसका किस पर और कैसा असर पड़ रहा, इससे जुड़े आंकड़ें क्या कहते हैं? जिसके जवाब में सॉलिसिटर जनरल ने कोर्ट से कहा कि इतनी जल्दी आंकड़े पेश करना बहुत मुश्किल है।

ज्ञात हो कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले केंद्र सरकार ने सामाजिक न्याय का हवाला देते हुए आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग के लिए 10% आरक्षण देने का फैसला लिया। यह फैसला 103वें संविधान संशोधन के बाद लागू किया गया। इस फैसले को संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ बता कर के सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली गई थी, जिस पर पिछले सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। बहरहाल, जाति-आधारित पिछड़ेपन के उलट आर्थिक पिछड़ेपन आरक्षण पर अदालत क्या फैसला सुनाती है, इसमें अभी वक्त लग सकता है। लेकिन फिलहाल इतना तो तय है कि अदालत ने इस मामले पर सुनवाई को अपनी प्राथमिकता सूची में शामिल कर एक बार फिर इस मामले पर बहस जरूर तेज़ कर दी है।

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