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कृषि क्षेत्र पर कॉरपोरेट घरानों की सर्जिकल स्ट्राइक!

राजनीति में चुनाव तो ग़रीब के वोट से जीता जाता है; लेकिन चुनाव लड़ा हमेशा अमीरों के पैसों से जाता है। मोदीजी की अगुवाई में भाजपा को इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिये अरबों की कॉरपोरेट फंडिंग हुई है इसलिए सरकार पर कृषि क्षेत्र को उनके लिए खोलने का दबाव है।
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बीते जून कोरोना काल के दौरान आत्मनिर्भर भारत अभियान की कड़ी में केंद्र सरकार ने तीन अध्यादेशों के माध्यम से कृषि क्षेत्र में आमूलचूल बदलाव की नींव रखी। रविवार, 20 सितंबर को इन अध्यादेशों को राज्यसभा में विपक्ष की वोटिंग की मांग को नज़अंदाज़ करते हुए विवादास्पद ढंग से केवल ध्वनि मत से पारित कराया गया। ज़ाहिर है कि केंद्र सरकार ने इन सुधारों को किसान हितैषी बतलाया है। उनका कहना है कि विपक्षी दलों का विरोध निराधार है और वे अपने राजनीतिक फायदे के लिए किसानों को गुमराह कर रहे हैं। लेकिन गौरतलब है की पंजाब और हरियाणा में किसानों ने इन प्रस्तावित बदलावों का सड़क पर उतर कर विरोध शुरू कर दिया है और तो और इन विधेयकों के विरोध में भाजपा के सबसे पुराने साथी अकाली दल की नेता हरसिमरत कौर ने भी मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया है। ऐसे में इनका प्रभाव समझना ज़रूरी है।

बैरियर - फ्री कृषि: किसके लिए बैरियर हटाए जा रहे हैं?

इन नए क़ानूनों में फसलों की खरीद को कृषि उत्पाद बाज़ार समिति या एपीएमसी कानूनों से छूट प्राप्त होगी। यानी किसान अपनी फसल सरकार द्वारा अधिकृत मंडियों के ज़रिये बेचने के लिए बाध्य नहीं होंगे। वहीं कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा देने के लिए स्पॉनसर यानी कोई भी व्यक्ति या कंपनी और किसान के बीच निजी करार के प्रावधान लाए गए हैं। इन करारों के अंतर्गत पैदा हुई फसलों पर किसी भी राज्य के क़ानून और अनिवार्य वस्तु अध्यादेशों के प्रावधान लागू नहीं होंगे। इसके साथ ही अनिवार्य वस्तु अधिनियम में स्टॉक लिमिट के प्रावधान को बदल दिया गया है --  जब तक बाग़वानी उत्पादों की कीमतों में 100% और ख़राब न होने वाले उत्पादों (non perishable produce) की कीमतों में 50% वृद्धि नहीं होती तब तक सरकार स्टॉक लिमिट नहीं लगा सकती। नए संशोधनों के अनुसार सरकार अनाज, तिलहन, दाल, आलू और प्याज की कीमतों को केवल असाधारण परिस्थितियों -- जैसे अकाल या युद्ध -- के दौरान ही नियंत्रित कर सकती है।

सामान्य परिस्थितियों में इन्हें पूर्णतः बाज़ार के अधीन छोड़ दिया गया है। स्टॉक लिमिट हटाने का तर्क यह दिया गया है की चूंकि हम आवश्यकता से अधिक खाना उत्पादित करने वाले देश हैं इसलिए अब इसकी ज़रुरत नहीं है। सरकार के अनुसार इन कदमों से गैर-ज़रूरी विनियमन समाप्त होगा, कृषि व्यापार में बैरियर ख़तम होंगे; प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी जिससे किसानों के विकल्प बढ़ेंगे और नतीजतन उनकी आय बढ़ेगी और आम आदमी को दाम सही मिलेंगे।

पहली नज़र में तो यह तर्कसंगत प्रतीत होता है किन्तु गौर करने पर यह दावे खोखले नज़र आते हैं। इन क़ानूनों में कृषि सम्बंधित मामलों का अप्रत्याशित केन्द्रीकरण किया गया है। उपमहाद्वीप से विशाल आकार के देश में हर क्षेत्र के किसानों की समस्याएँ और आवश्यकताएं अलग हैं। राज्य सरकारों को अनदेखा कर हरियाणा के बड़े किसान और अलीराजपुर के छोटे आदिवासी किसान को एक ढाँचे में ठूंसना कहाँ तक उचित है? एपीएमसी और राज्यों द्वारा बनाए गए कानूनों से छूट भारत के पूरे कृषि क्षेत्र और उस पर आश्रित करोड़ों परिवारों को एक मंत्रालय और उसके चंद बाबुओं के रहम-ओ-करम पर छोड़ देगा।

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एपीएमसी क़ानून, मंडियों और समर्थन मूल्य का खेल

इन क़ानूनों के तहत मंडियों की भूमिका नगण्य कर दी जायेगी। कहा जा रहा है कि मंडियों में व्यापारियों की संख्या कम होने के कारण किसानों को उचित दाम नहीं मिलते। मंडियों में शुल्क आदि किसानों से ही वसूला जा रहा है और कई व्यापारियों ने अपना एक समूह बना लिया है जिसके कारण किसानों के साथ अन्याय होता है। इन सबसे बचने के लिए एपीएमसी से अलग प्राइवेट मंडियां और सीधे किसान से खरीद के उपाय सुझाए गए हैं। एपीएमसी की मंडियों में सुधार की ज़रुरत है इससे कोई इंकार नहीं कर रहा लेकिन किसान को अपनी फसल पर न्यूनतम समर्थन मूल्य सिर्फ वहीं मिलता है। मंडियों को ख़त्म करना मतलब न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को समाप्त करना। वैसे भी मंडियों के एकाधिकार के दावे गलत हैं।

एनएसएसओ की एक रिपोर्ट के अनुसार सोयाबीन को छोड़ किसी भी फसल की 25% से ज़्यादा बिक्री मंडी में नहीं बल्कि निजी व्यापारियों के द्वारा ही हुई है। यह इसलिए क्योंकि ज़्यादातर छोटे किसान कमज़ोर आर्थिक स्थिति या इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी के कारण स्थानीय व्यापारियों को फसल बेचने पर विवश हो जाते हैं। 2017 में किसानों की आय दुगुनी करने की रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में 6, 676 मंडियां हैं जबकि हमें 3, 500 थोक बाज़ारों और 23, 000 ग्रामीण हाटों की आवश्यकता है।

बिहार में 2006 में एपीएमसी क़ानून को ख़त्म कर देने के परिणाम छोटे और सीमान्त किसानों के लिए प्रतिकूल ही रहे हैं। सरकार द्वारा नियंत्रित मंडियों के अभाव में व्यापारियों द्वारा खुद की मंडियां शुरू हुई जिसमें छोटे किसानों की सुनवाई और मुश्किल थी। लेकिन उससे ज़रूरी बात यह थी की किसी भी निजी कंपनी ने फसल खरीदी और भंडारण की समानांतर व्यवस्था खड़ी नहीं की। एपीएमसी को दिए गए शुल्क से किसानों के लिए सुविधाएं जुटाई जाती थी लेकिन बिहार में यह पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर जर्जर अवस्था में पहुँच गया। मध्य प्रदेश में जहां आईटीसी को मंडी के बाहर खरीदी का मौका मिला वहाँ किसानों को अच्छी कीमतें मिलीं लेकिन यह केवल उन फसलों पर मिली जो आईटीसी की रणनीति में ज़रूरी थी और वो भी सीमित समय तक। बाकी फसलों के उचित दामों के लिए किसान को मंडी की और ही मुड़ना पड़ा।

इन विधेयकों का तीसरा सबसे चिंताजनक पहलू यह है की इसमें विवादों को सुलझाने का अधिकार चुने हुए मंडी प्रतिनिधियों से छीन कर एसडीएम और कलेक्टर को दे दिया है। नौकरशाही का झुकाव हमेशा सत्तापक्ष की तरफ होता है और गरीब किसानों को लालफीताशाही में उलझाकर रख देगा जबकि धनाढ्य व्यापारियों के लिए राह आसान कर देगा। और तो और इन मामलों में न्यायपालिका के दरवाज़े भी किसानों के लिए बंद हैं।

न्यू इंडिया की कृषि नीति किसके लिए?

इन नए क़ानूनों से छोटे किसान, छोटे और मध्यम व्यापारी और राज्यों का नुकसान है तब भी केंद्र सरकार इन्हें लागू करने को आतुर क्यों है? शायद इसलिए की अब कुछ बड़े कॉरपोरेट घराने खुदरा व्यापार में आने के लिए अपने खुद के सप्लाई चेन बनाना चाहते हैं और ऐसे में यह अध्यादेश बड़े पैमाने पर कृषि क्षेत्र में हस्तक्षेप करने में उपयोगी होंगे। एपीएमसी की मंडियां बंद हो जाएंगी तो उनकी जगह चंद कॉरपोरेट घराने सबसे बड़े खरीददार बन जाएंगे। लेकिन एक बार इन कंपनियों ने कृषि क्षेत्र में अपनी पैठ बना ली तो इन पर किसी भी तरह का लोकतांत्रिक दबाव काम नहीं करेगा।

राजनीति में चुनाव तो गरीब के वोट से जीता जाता है; लेकिन चुनाव लड़ा हमेशा अमीरों के पैसों से जाता है। मोदीजी की अगुवाई में भाजपा को इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिये अरबों की कॉरपोरेट फंडिंग हुई है इसलिए सरकार पर कृषि क्षेत्र को उनके लिए खोलने का दबाव है लेकिन हैरत की बात यह है की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसान संगठन भारतीय किसान संघ और भारतीय मज़दूर संघ ने भी इस नीति को मौन समर्थन दे दिया है। शायद मोदीजी की लोकप्रियता और कॉरपोरेट के धनबल ने संघ के अनुशासित संगठनों और समर्पित कार्यकर्ताओं को भी समझौता करने पर मजबूर कर दिया है। शायद अब संघ के स्वदेशी जागरण मंच की तरह इन संगठनों को भी मार्गदर्शक मंडल का रास्ता दिखा दिया जाएगा।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। आप जेएनयू में सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज से एमफिल कर चुके हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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