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कोरोना से ज़्यादा जानलेवा है हाकिम की संवेदनहीनता

निर्बुद्दिकरण की परियोजना जितनी आसान होती है, उसे उलटने की—डेटॉक्सिफिकेशन—की प्रक्रिया उतनी ही जटिल होती है।
कोरोना से ज़्यादा जानलेवा है हाकिम की संवेदनहीनता
Image courtesy : Telegraph

कल शाम के प्रज्ञा शून्य भाषण और इन दिनों सारे कानूनों, परम्पराओं, संवेदनाओं और मानवता  को ठेंगा दिखाकर की जा रही आपराधिक लापरवाही को देखकर दो घटनाएं याद आईं। 

पहली सितम्बर 2008 की है।  दिल्ली में हुए बम धमाकों के बाद तब के गृह मंत्री शिवराज पाटिल जब शनिवार रात में प्रेस से बातचीत करने नमूदार हुए तो नयी पोशाक में थे।  धमाकों के बाद कुछ ही घंटों में यह उनकी तीसरी ड्रेस थी।  टी वी चैनल्स ने इतने भीषण हमलों के बीच भी बदल-बदल कर तीन तरह के कपडे पहनने की गृहमंत्री की फुरसत और चाहत पर सही सवाल खड़े किये। अगले दिन के अखबार में उनके तीनो परिधानों वाले फोटो छपे  और  रविवार को उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। 

दूसरी नवम्बर 2008 की है।  मुम्बई में हुए आतंकी हमले के बाद महाराष्ट्र के तब के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख मौका-ए-वारदात  का मुआयना करने जाते हैं।  टीवी चैनलों पर सीधी दिखाई जा रही इस संवेदनशील विजिट में उनके साथ उनके बेटे बॉलीवुड अभिनेता रीतेश देशमुख और फिल्म डायरेक्टर रामगोपाल वर्मा भी नजर आते हैं।  मीडिया में इस आपदा पर्यटन को लेकर ठीक ही सवाल उठते हैं और बाद में यह विलासराव देशमुख के इस्तीफे की एक बड़ी वजह बन जाती है। 

इन दो घटनाओं को गिनाने का उद्देश्य इन दो राजनेताओं के बारे में कुछ कहने का नहीं है।  इनके उदाहरण से यह रेखांकित करना है कि पूंजीवादी संसदीय लोकतंत्र में भी जनभावनाओं के प्रति थोड़ी बहुत लाजशरम होती है।  यह  प्रणाली भी नेताओं के एक सीमा से ज्यादा नीचे हलके आचरण को अनदेखा नहीं करती।  उनका उत्तरदायित्व तय करती है और उसका खामियाजा भुगतवाती है। 

अब इन दो घटनाओं की रोशनी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा आरएसएस के कुनबे के आचरण पर नजर डालिये। पूरा देश कोरोना संक्रमण की नयी और हर लिहाज से ज्यादा खतरनाक लहर से थर्राया हुआ है। देश के अनेक हिस्सों में कर्फ्यू, नाईट कर्फ्यू आदि आदि नामों से लॉकडाउन दोबारा लौट आया है । हर जगह शारीरिक दूरी और इकठ्ठा न होने पर जोर दिया जा रहा है।  इसे कड़ाई से लागू भी किया जा रहा है। रिक्शा चालकों पर लाठियां भांजी जा रही हैं, सब्जी बेचने वालों और साइकिल पर दवा लेकर लौटते नागरिकों को घसीट-घसीट कर पीटा जा रहा है।  कॉलेज, स्कूल बंद हैं - 10वी और 12वीं की परीक्षाएं अनिश्चितकाल के लिए टाल दी गयी हैं।  बनारस से इलाहाबाद, लखनऊ से भोपाल तक लगभग हर शहर के श्मशानों में शवों को जलाने के लिए 18-18 घंटे की वेटिंग लिस्ट लगी होने, खेतों और सड़कों पर दाहसंस्कार किये जाने, कब्र खोदने वालों के हाथों में लगातार कब्रें खोदने की वजह से हाथों में छाले पड़ जाने की भयावह तस्वीरें ही तस्वीरें हैं।  

दुनिया भर की सरकारें हिली हुई हैं और इधर भारत के प्रधानमंत्री अपना सारा कामकाज छोड़-छाड़ बंगाल में "दूर-दूर तक नजर आ रही अपार भीड़" देखकर प्रमुदित हैं और "दीदी ओ दीदी" की अत्यंत अशोभनीय और अश्लील भाषा में बेहूदा चुटकुले सुनाते हुए, आसनसोल में दंगे की याद दिलाते हुए,  अपनी तूफानी चुनावी सभाओं का बवंडर खड़ा किये हुए हैं।  गृह मंत्री अमित शाह तो लगभग दो महीने से इसी एकसूत्री काम - चुनाव - में भिड़े हुए हैं। रोड शो कर-कर के वायरस की होम डिलीवरी करने में प्राणपण से जुटे हुए हैं।  केरल, तमिलनाडु, पुदुच्चेरी और असम के बाद भी सरकार दिल्ली नहीं लौटी है।  लगातार चुनावी लाम पर डटी हुयी है। 

और इस आपदा, जिसे आने वाले दिनों में महाआपदा बनने की आशंकाओं से भरपूर बताया जा रहा है, के दौर में बाकी कुनबा क्या कर रहा है ? 

उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री हरिद्वार के कुम्भ में लाखों की भीड़ जुटा रहे हैं।  अखाड़ा प्रमुख, महामंडलेश्वर और अनेक अन्य मौतों तथा हजारों के संक्रमित पाए जाने के उजागर रिकॉर्ड के बाद भी मई महीने तक कुम्भ जारी रखने पर अड़े हुए हैं।  गंगा स्नान को कोविद-19 की वैक्सीन से भी बड़ा रामबाण टीका और उपचार बता रहे हैं।  उत्तरप्रदेश के उनके बड़े भाई योगी आदित्यनाथ कुम्भ जैसे सनातनी आयोजनों पर सवाल उठाने वालों को कोस रहे हैं।  यह बात अलग है कि वे खुद कोरोना संक्रमित होकर गंगा में डुबकी लगाने या गोबर लेपन और गौमूत्र आचमन के बजाय अपना इलाज डॉक्टरों से करवा रहे हैं। दीदादिलेरी इतनी है कि इसी कुनबे के एक विधायक कोरोना संक्रमित होने के बाद भी कुम्भ स्नान कर आने का दावा कर रहे हैं।  मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री जिनकी राजधानी भोपाल और इंदौर में लाशों को जलाने की लकड़ियों के लाले पड़े हुए हैं, वे विधानसभा का एक उपचुनाव जीतने के लिए उस जिले को कोविद प्रोटोकॉल से बाहर रखकर हजारों की भीड़ लेकर धावा बोले हुए हैं और बीच-बीच में थक थका जाने पर छप्पन भोज के सुख ले रहे हैं।  एक मंत्री लगातार हो रही मौतों और स्वास्थ्य विभाग की पूर्ण विफलता पर "आएगा सो जायेगा" का गीता प्रवचन झाड़ रहे हैं, तो दूसरे मंत्री अस्पताल में भर्ती और पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हुए मरीजों को खदेड़ बाहर करने के नुस्खे डॉक्टरों को सुझा रहे हैं। 

बात यहीं तक नहीं है।  कुनबे के बाकी बचे बटुक भी आपदा को अवसर - महाआपदा को महाअवसर के रूप में भुनाने में लगे हैं।  जीवन रक्षक बताई जा रही दवाओं की कालाबाजारी में जनता जिन्हें रंगेहाथ पकड़ कर पुलिस के हवाले कर रही है, वे बिना किसी अपवाद के इसी विचार गिरोह के ध्वजाधारी हैं। महाराष्ट्र से करोड़ों रुपयों के इंजेक्शंस की तस्करी पकड़ी गयी तो रात में ही उन्हें छुड़ाने महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री के पुलिस थाने पहुंचने से समझा जा सकता है कि यह गिरोह किस तल्लीनता के साथ कबरबिज्जू बना हुआ है।

ऐसे मामलों में अक्सर पहली सदी के रोम के शासक नीरो का जिक्र किया जाता है, मगर यहां नीरो बहुत पीछे छूट गए हैं। यह अमानवीय निर्लज्जता और बर्बरता को आमचलन बनाने और अंग्रेजी के शब्दयुग्म किलर इंस्टिंक्ट  को शब्दशः अमल में उतारने का अपकर्म है।  समस्या तब और चिंताजनक हो जाती है जब लगभग पूरा मीडिया बजाय इस सब पर सवाल उठाने के इन करतूतों का महिमा गान करता है।

उससे भी ज्यादा चिंताजनक समस्या यह है कि आबादी का एक हिस्सा इस लायक बना लिया गया है कि वह अब भी इसे आपत्तिजनक नहीं मानता। आरएसएस भाजपा की 2008 से 2020 के 12 वर्षों की वास्तविक उपलब्धि यह है कि उसने समाज के एक हिस्से को इस तरह ढाल लिया है कि वह मनुष्य की स्वाभाविक संवेदनाओं और गुणों से महरूम हो गया है।  यह काम रातों-रात नहीं हुआ। यह मनुष्यों के अमानवीयकरण का एक पूरा प्रोजेक्ट के तहत है जिसे 2002 के गुजरात नरसंहार से शुरू करके कलबुर्गी, दाभोलकर, पानसारे की हत्याओं से होते हुए, मरकज से जेएनयू तक आईटी सेल की सतत बमबारी और थाली बजाने, दीपक जलाने तक सायास विकसित किया गया है।  

कोरोना के संक्रमण का इलाज देर सवेर मिल ही जाएगा, इसका एकदम मुफीद और प्रभावशाली टीका और बचाव भी अंततः ढूंढ ही लिया जाएगा - विज्ञान में इतनी क्षमता है।  मगर मूर्खता के वायरस मोरोना का संक्रमण अपने आप नहीं रुकेगा।  इसे समाज का मानवीकरण, सोच का वैज्ञानिकीकरण और व्यवहार का आधुनिकीकरण करके ही थामा जा सकता है। जहां मनु अब तक विराजे हों उस भारत जैसे समाज में तार्किकता और विश्लेषण करने का विवेक जन्मजात या  स्वाभाविक परवरिश का अंग नहीं है।  यह अलग से, धीरज से और लगातार किये जाने  वाला काम है। निर्बुद्दिकरण की परियोजना जितनी आसान होती है - उसे उलटने की - डेटॉक्सीफिकेशन - की प्रक्रिया उतनी ही जटिल होती है। भारत के वामपंथी इसके महत्त्व को समझते और उसके मुताबिक़ किये जाने वाले काम को अपनी सक्रियताओं का नियमित हिस्सा बनाते रहे हैं।  जनांदोलनों ने, आमतौर से महिला, छात्रों,  सांस्कृतिक आंदोलनों एवं खासकर हाल के किसान आंदोलन ने इस बात को समझा है और अपने एजेंडे का हिस्सा बनाया है।  जरूरत इसे आवश्यकता के मुताबिक़ गति देने की है।

(लेखक वरिष्ठ लेखक, लोकजतन के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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