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बनारस घाट के नाविकों को अब भी कोविड-19 की तबाही से उबरना बाक़ी

पर्यटकों की आवाजाही पर महीनों का लॉकडाउन और मानसून में गंगा के स्तर में वृद्धि से त्रस्त नाविकों को काम, दैनिक मज़दूरी की कमी का सामना करना पड़ रहा है और वे भारी क़र्ज़ में हैं। इस बीच सरकारी मदद तक़रीबन नहीं के बराबर रही है।
varansi ghat
Image Courtesy: The Hindu

वाराणसी: अस्सी घाट के दाहिने छोर पर कई नाविक कुर्सियों पर बैठे हुए हैं, अपने गमछे से खुद को पंखा झल रहे हैं और असामान्य रूप से उफ़नी हुई उस गंगा को एकटक देखे जा रहे हैं, जिस गंगा ने उन्हें रोज़ी-रोटी दी है। यह सितंबर के मध्य और एक धूप वाली दोपहर है, पानी उबल रहा है और बीच-बीच में ठंडी हवा के झोंके से थोड़ी शांति मिल जाती है। हर कोई एक छोटे पोडियम वाले स्टेज की छाया में आकर बैठा जाता है।लेकिन, नाविक ऊबे हुए दिख रहे हैं और चारों ओर चुपचाप निहारे जा रहे हैं। गिरधारीलाल निषाद कहते हैं, "अभी बाढ़ आयी हुई है, हम बैठने के अलावा और कर भी क्या सकते हैं ?"  गिरधारीलाल एक ऐसे नाविक है, जिसके पास अस्सी घाट पर 10 नावें हैं, लेकिन वह इस समय कोई भी नाव चलाने की स्थिति में नहीं है, क्योंकि पर्यटकों की नाव यात्रा पर प्रतिबंध लगा हुआ है। "डीएम (ज़िला मजिस्ट्रेट) के आदेश पर नाव की यात्रा प्रतिबंधित है।" हालांकि,बाक़ी अगस्त महीने और सितंबर महीने के ज़्यादातर दिनों में भी कमोवेश यही हालत रहती रही है।

लेकिन, इससे अलग बात यह है कि कोविड-19 की दूसरी लहर के बाद इन घाटों पर आने वाले पर्यटकों की संख्या कम हो गयी है। कई नाविकों का कहना है कि पहली लहर में किसी तरह हालात संभल गये थे, लेकिन दूसरी लगर में तो नाविक समाज टूट ही गया। जैसा कि गिरधारीलाल बताते हैं कि लॉकडाउन तो उनके और उनके साथी नाविक मज़दूरों (वे नाविक जो नाव तो चलाते हैं ,लेकिन उन नावों के वे मालिक नहीं होते) के लिए बहुत संघर्ष और पीड़ा से भरा रहा है।गिरधारीलाल अफ़सोस जताते हुए कहते हैं, “लॉकडाउन के दौरान खाद्यान्न राशन तो दोगुना हो गया, लेकिन खाना पकाने के तेल जैसी दूसरी चीज़ों की क़ीमतों में बेहिसाब बढ़ोत्तरी हो गयी। कुछ लोग दिन में एक बार खाते हैं, जिनके पास कुछ संपत्ति थी, वे लोग अपने परिवार का भरण पोषण करने के लिए कुछ पैसे पाने की ख़ातिर उस संपत्ति तक को बेच दिये। कुछ नाविक, जिन्होंने अपनी नावों के निर्माण के लिए क़र्ज़ लिया था, उन्हें भी अपने ऋण पर कोई राहत नहीं मिली, और उन्हें भुगतान करने के लिए अपने ज़ेबर और वाहन तक बेच देने पड़े।"

गिरधारीलाल के साथ काम करने वाले नाविक मज़दूर मदन साहनी अपनी नावों पर ही काम करते हैं, लेकिन उन्हें शहर में दूसरे तरह के श्रम करने के लिए नौका विहार को छोड़ देना पड़ा है और वे निर्माण कार्य या परिवहन में हाथ से काम करने वाले मज़दूर बन गये हैं।मदन कहते हैं, “मैं क्या कर सकता था, किसी तरह मुझे अपनी बेटी की कोचिंग और पढ़ाई के लिए पैसे निकालने पड़ते हैं। मैं इस समय भी बाढ़ के चलते संघर्ष कर रहा हूं और नौका विहार पर नहीं लौट सकता। मेरे पास तो राशन कार्ड भी नहीं है, ऐसे में गेहूं और चावल लेने के लिए कहां जाऊं ?"  गिरधारीलाल कहते हैं कि मदन और उनके जैसे कई नाविकों को राशन कार्ड नहीं मिल सकता है। “हम भेलूपुर स्थित दफ़्तर जाते हैं और अपने फ़ॉर्म जमा करते हैं, लेकिन अधिकारी हमारे आवेदनों को यह कहते हुए अस्वीकार कर देते हैं कि कभी उसके हस्ताक्षर ले आओ,तो कभी किसी और के हस्ताक्षर ले आओ,क्योंकि उन हस्ताक्षरों के बिना राशन कार्ड नहीं बनाये जा सकते। अधिकारी अच्छे लोग नहीं हैं और वे हमारी मदद करने से इनकार करते रहते हैं।"

राजेंद्र प्रसाद घाट पर एक नाविक नाव के मालिक बाबू सहनी कहते हैं, "बनारस के नाविक पारंपरिक रूप से मछुआरे रहे हैं, और बनारस के अलावे मिर्ज़ापुर और चंदौली जैसे ज़िलों में अभी भी वे वही काम करते हैं, लेकिन वे हमारे निषाद बिरबदरी के ही हैं। ऐसे में लॉकडाउन के परेशानी भरे समय में गुज़ारा करने के लिए यहां कई नाविकों ने भी फिर से बेचने या खाने के लिए मछली पकड़ना शुरू कर दिया है।" ऐसे हालात बन गये हैं, जिनसे नाविकों को गुजरना पड़ रहा है। कई लोगों को नविक-मल्हार जातियों के सामूहिक संघ, मां गंगा निषाद सेवा समिति से मदद मिल रही थी।

इस संघ ने दिल्ली और मुंबई के शहरों के मददगारों, ग़ैर सरकारी संगठनों और उजड़ चुके नाविक परिवारों के बीच कड़ी के रूप में काम किया। इनके बीच अभिनेता सोनू सूद का नाम अक्सर सुनने को मिल जाता है। अगर कोई किसी नाविक से पूछता है कि लॉकडाउन के दौरान संसाधनों और भोजन के साथ किसने उनकी मदद की, तो यह लगभग तय है कि वे सूद का नाम ज़रूर लेंगे। “हमने सरकार से हमारी मदद करने के लिए कहा, कई लोग भुखमरी के कगार पर थे, लेकिन कोई मदद नहीं मिली। जगह-जगह, हमें निजी, ग़ैर सरकारी संगठनों, वाराणसी के व्यापार मंडल और सोनू सूद की ओर से राशन की मदद मिली। शिवाला, राजघाट, बधानी और कुछ दूसरे घाटों में रहने वाले हमारे समुदाय के लोगों को कम से कम दो बार राशन दिया जाता था।”

सरकार ने दैनिक वेतन भोगी कामगारों के लिए प्रति माह 1,000 रुपये की सहायता राशि की घोषणा की थी, लेकिन वह भी उन किसी भी नाविक तक नहीं पहुंची, जिन्होंने फ़ॉर्म भरा था और इसके लिए पंजीकरण कराया था। इस समर्थन योजना की घोषणा मार्च 2020 में की गयी थी। इस वर्ष घोषित एक दूसरी योजना के बारे में कहा जाता है कि यह कई महिलाओं के लिए काम कर रही है, और उन्हें पैसे मिल गये हैं। बाबू ने बताया, “लेकिन इन सभी योजनाओं में जो बात आम है,वह यह है कि बिचौलिए बहुत सारे पैसे बीच में ही खा जाते हैं।इन बिचौलियों में भाजपा के लोग भी शामिल हैं, जो पार्षद (नगर पार्षद) हैं।”

नाविक संघ के अध्यक्ष प्रमोद मांझी का दावा है कि नाविक समुदाय ने समाज की अबतक की सबसे ख़राब स्थिति का सामना किया है। प्रमोद बताते हैं, “दूसरे लोग तो कोविड के दौरान किसी अन्य काम पर भी चले गये। लेकिन, हमारा काम तो पहले नगर प्रशासन ने ही रोक दिया। दूसरी बात कि सभी तरह की आवाजाही रुक गयी, इसलिए हम शुरू से ही कोविड का खामियाजा भुगत रहे हैं और यह सिलसिला अब भी जारी हैं।”  संघ की कोशिशों और भूख और बेरोज़गारी से खुद की मदद करने वाले नाविकों के बारे में बात करते हुए प्रमोद याद करते हैं, “हमने अपने लोगों को राशन के 4,500 से ज़्यादा किट बांटे, लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि हिंदुस्तान सरकार या यूपी सरकार की ओर से इसमें से किसी का नमक का एक ढेला भी नहीं था।”

प्रमोद ने महामारी के दौरान कई नाविक परिवारों की दुर्दशा को महसूस करते हुए एक वीडियो बनाया, जो इस साल की शुरुआत में सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। उन्होंने उस वीडियो के साथ ख़ुद का ब्योरा और संपर्क नंबर भी डाला था, और इसलिए मदद और संसाधनों की आमद शुरू हो गयी थी। बांटे गये किटों में से कई निजी व्यक्तियों और संगठनों की तरफ़ से दिये गये थे, प्रमोद को नाविकों के लिए भेजे गये संसाधनों को पाने में बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा। प्रमोद कहते हैं,“कम से कम छह बार ऐसा हुआ कि सोनू सूद ने जो राशन किट भेजे थे,वे मेरे पास कभी नहीं पहुंच पाये। इस बीच कहीं-कहीं लेखपाल या डीएम की ओर से इन किटों की मंज़ूरी दी जाती थी,ऐसे में उन कीटों को मेरे नाम पर कहीं और भेज दिया जाता था। तब मुझे एहसास हुआ कि ये लोग (प्रशासन) नहीं चाहते थे कि यह मुझ तक पहुंचे, क्योंकि इससे सरकार की किरकिरी हो सकती है।”

बावजूद इसके भाजपा से जुड़े कई लोगों ने अलग-अलग शहरों और लोगों की ओर से भेजी गयी राशन की बोरियों और संसाधनों का श्रेय लेने की कोशिश की। इन घाटों पर किटों के बांटे जाने के दिन प्रमोद ने नाविकों से बात करने के लिए एक माइक लगा लिया था, उन्हें इस माइक के ज़रिये पैकेज और उन्हें भेजने वाले विभिन्न लोगों और संगठनों के बारे में सूचित जा रहा था। प्रमोद ने ग़ुस्से में बताया, "मैंने जैसे ही सामान के बांटे जाने का काम पूरा कर लिया,तभी कहीं से भाजपा से जुड़े एक प्रधान और एक पार्षद आये और माइक पर 'मोदी जी' और 'योगी जी' के नाम ऐसे जपने लगे, जैसे कि उन्होंने ही इन सामानों को भेजा हो। मैंने तुरंत उनका विरोध किया और उनसे पूछा कि क्या मोदी जी और योगी जी हमें नमक का एक ढेला भी देते हैं क्या।” भाजपा नेताओं ने राशन और सामानों के इस तरह के बांटे जाने के पीछे की ‘प्रेरणा’ पीएम मोदी और सीएम योगी को क़रार दिया। प्रमोद ने उन्हें फटकार लगायी,इसके बाद ही उन्होंने माइक छोड़ा और फिर वहां से चले गये।

सितंबर के आख़िर में जब मैं त्रिपुरा-भैरवी घाट पर एक नाविक मज़दूर विनोद कुमार से मिला, तो उन्होंने भी मुझे अन्य मज़दूरों की तरह अपने क़र्ज़ और बेरोज़गारी की दुर्दशा के बारे में बताया। किसी आम दिन की तरह घाट के कोने पर मंदिर के पास ताश खेलते हुए एक और साथी नाविक अचानक उनके पास आया और बताया कि अब नावों को चलाने की इजाज़त दे दी गयी है। उस शाम नाविकों को नाव चलाने की अनुमति दे दी गयी थी, क्योंकि उन्होंने सभी सुरक्षा प्रोटोकॉल (जैसे पर्यटकों के लिए अनिवार्य लाइफ़ जैकेट) का पालन किया था। राहत की सांस लेते हुए वह किसी काम की तलाश में निकल पड़े।

बाबू साहनी ने बताया कि नाविक संघ आख़िरकार मजिस्ट्रेट को यह समझा पाने में कामयाब रहा कि पर्यटकों की यात्रा के लिए गंगा का जल स्तर पर्याप्त रूप से सुरक्षित है। लेकिन, कोविड-19 लॉकडाउन के चलते पैदा होने वाली तबाही से उबरने के सिलसिले में बाबू का कहना है कि “अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों की आवाजाही बहुत अहम है। अगर अंतर्राष्ट्रीय आगंतुकों को भारत और बनारस का सफ़र करने की अनुमति दी जाती है, तभी हमारे समाज के सबसे अधिक तबाह हुए लोगों के हालात बेहतर हो पायेंगे। हम इंतज़ार कर रहे हैं कि सरकार विदेशी लोगों को हम तक आने की इजाज़त दे।

प्रमोद ने बताया कि “स्थानीय पर्यटक हमारी चाय-पानी चलाने में मदद कर सकते हैं। लेकिन, लॉकडाउन के चलते हम जिस पिछड़ चुकी स्थिति का सामना कर रहे हैं, उसे स्थानीय पर्यटन के बूते ठीक नहीं किया जा सकता है।” सितंबर के आख़िरी सप्ताह से नाव चलाने की अनुमति मिल जाने के बाद अब कई नाविकों को दिन भर पर्यटकों के साथ घूमते हुए देखा जा सकता है, लेकिन कई अपने क़र्ज़ के चलते पंगु बने हुए हैं। अक्टूबर के इस महीने में जल स्तर बढ़-घट सकता है और इस बात की बहुत ज़्यादा संभावना है कि नाविक और संघ फिर से सुरक्षा का दावा, अनुमति के लिए कागजी कार्रवाई, और इसी तरह के सिलसिले में नौकरशाही के चक्कर में फंस जायें।

उनमें से कई नाविक सर्दियों का इंतज़ार कर रहे हैं, जब पर्यटन में तेज़ी आ सकती है और गंगा भी स्थिर हो जायेगी। यह तो आने वाला समय ही इस सवाल का जवाब दे पायेगा कि ये ग़रीब लोग महामारी से हुई तबाही के बीच ख़ुद को बचा पाते हैं या नहीं, क्योंकि ऐसा लगता है कि राज्य सरकार को इनके अस्तित्व की चिंता बिल्कुल नहीं है।

टिप्पणीकार स्वतंत्र लेखक हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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