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उत्तर प्रदेश जनसंख्या नियंत्रण विधेयक महिलाओं की जिंदगी पर सबसे ज्यादा असर डालेगा!

उत्तर प्रदेश में 2015 में 31 लाख 52 हजार महिलाओं ने गर्भपात रिपोर्ट किया था। संख्या इससे कहीं अधिक होगी क्योंकि केवल 11 प्रतिशत ने स्वास्थ्य केंद्र में गर्भपात करवाया था।
उत्तर प्रदेश जनसंख्या नियंत्रण विधेयक महिलाओं की जिंदगी पर सबसे ज्यादा असर डालेगा!
Image courtesy : DNA India

उत्तर प्रदेश की जनसंख्या नियंत्रण विधेयक 2021 बहस के केंद्र में है। आश्चर्य की बात है कि सबसे पहले आपत्ति करने वालों में है संघ परिवार का ही एक अंग-विश्व हिंदू परिषद। विश्व हिंदू परिषद ने चिंता जताई कि इस नीति के कारण विभिन्न समुदायों के बीच संतुलन बिगड़ जाएगा, क्योंकि अलग-अलग समुदायों की जनसंख्या नियंत्रण पर प्रतिक्रिया अलग-अलग होगी। संगठन के अध्यक्ष ने उदाहरण के रूप में केरल और असम का हवाला भी दिया। विश्व हिंदू परिषद की चिंता हिंदू-मुस्लिम के दृष्टिकोण से प्रेरित हो सकती है क्योंकि विधेयक हिंदुओं के लिए घातक साबित हो सकता है। पर हम एक अन्य नजरिये से ‘संतुलन’ की बात उठाना चाहते हैं-‘डेमोग्रैफिक डिविडेंड’(Demographic Dividend) के दृष्टिकोण से।

क्या है डेमोग्रैफिक डिविडेंड?

यूएनएफपीए ने डेमोग्राफिक डिविडेंड को इस प्रकार परिभाषित किया हैः‘आर्थिक विकास की संभावना जब जनसंख्या की उम्र संरचना बदलती है, यानि जब कामकाजी लोगों की संख्या बिना काम करने वालों की संख्या से अधिक हो जाती है’। यदि हम भारत की जनसंख्या को देखें, धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि कार्यशक्ति के लिहाज से, जो हम काफी बेहतर स्थिति में हैं, क्योंकि देश की मध्यिका आयु (Median age) 2020 में 29 थी, जो अमेरिका और चीन के 37 और जापान के 49 से काफी कम है। 2018 से भारत में 15-59 आयु श्रेणी की जनसंख्या, यानि कामकाजी जनसंख्या निर्भर जनसंख्या, यानि 1-14 आयु श्रेणी और 59 से उपर वाली आयु श्रेणी से काफी अधिक हो चुकी है। यही नहीं, यह स्थिति 2055 तक बनी रहेगी। 2036 तक यह जनसंख्या 65 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी। यह समझ में नहीं आता कि प्रदेश सरकार जनसंख्या वृद्धि को मुद्दा क्यों बना रही है, जबकि कामकाजी जनसंख्या की ही वृद्धि हो रही है और निर्भर जनसंख्या कम है।

कुल प्रजनन दर में आ चुकी है कमी

हमारे देश और प्रदेश में भी कुल प्रजनन दर (Total Fertility Rate or TFR)लगातार गिर रहा है। एनएफएचएस 5 के अनुसार देश का टीएफआर 2.1 तक पहुंच चुका है और कुछ समय में ही 2 से कम हो जाएगा। उत्तर प्रदेश में टीएफआर 2.7 राष्ट्रीय औसत से भले ही अधिक है, फिर भी इसकी घटने वाली प्रवृत्ति देखी जा रही है। विश्व बैंक का कहना है कि प्रजनन दर का बढ़ जाना या फिर प्रतिस्थापन या रिप्लेसमेंट की दर से कम हो जाना, दोनों ही चिंता का कारण बन सकते हैं। प्रजनन दर जब कुछ राज्यों में रिप्लेसमेंट रेट से अधिक घट जाती है तो कई बार दूसरे राज्यों से प्रवासी उसको संतुलित करते हैं। इसलिए हम देखते हैं कि राष्ट्रीय औसत लगभग स्थिर हो रहा है।

अर्थयवस्था की रीढ़ न तोड़ें

यह भी निश्चित है कि सरकार उन्हीं समुदायों को जनसंख्या नियंत्रण के लिए टार्गेट करना चाहती है जो अशिक्षित-गरीब हैं, क्योंकि इनके यहां टीएफआर अधिक है। बीपीएल श्रेणी के अशिक्षित और गरीब लोग क्या करते हैं? अधिकतर मजदूरी। ये श्रमिक खेतों, खदानों, कारखानों, निमार्ण साइटों, और सड़कों पर काम करते दिखाई पड़ते हैं। शायद प्रदेश सरकार ने कभी हिसाब नहीं लगाया कि देश के अन्न का लगभग 1/5 हिस्सा उत्तर प्रदेश से आता है और 15 प्रतिशत कपड़ा भी, जिसका श्रेय इन मजदूरों को जाता है। चमड़ा उद्योग की 11,500 इकाइया प्रदेश में कानपुर और आगरा में स्थित हैं। 200 टैनरीज़ भी प्रदेश में काम कर रही हैं। इसके अलावा पूरे देश के शिल्पकारों का 30 प्रतिशत हिस्सा भी उत्तर प्रदेश से आता है। आखिर कौन लोग हैं जो इस काम को करते हैं? अधिकतर दलित, मुस्लिम और पिछड़ी जाति के श्रमिक। आज इन्हें बताया जा रहा है कि वे दो से अधिक बच्चे न पैदा करें। मऊ व भदोही में कालीन बनाने वाले, बनारस में ज़री की साड़ियां बनाने वाले, मुरादाबाद के बर्तन निर्माता, लखनऊ में चिकनकारी का काम करने वाले, फिरोज़ाबाद के चूड़ी उद्योग श्रमिक, मिर्जापुर में पाॅटरी का काम करने वाले-ऐसे तमाम उद्योगों के श्रमिकों द्वारा बनाया हुआ माल केवल प्रदेश नहीं, बल्कि देश-विदेश में बिकता है और प्रदेश की जीडीपी में योगदान करता है। तीर्थ स्थान होने के नाते भी प्रदेश में गंगा किनारे बहुत से छोटे धंधे चलते हैं-मल्लाहों की बड़ी आबादी नाविकों के रूप में काम करती है और पर्यटन से आ रहे राजस्व को बढ़ाते हैं। इसके अलावा पूरे विंध्य पर्वत श्रृखला में खनन का काम साल भर चलता है, जिसमें हज़ारों मजदूर लगे रहते हैं। जब हम जनसंख्या नियंत्रण की बात करते हैं, तो हमें समझना होगा कि हम इन मजदूरों के परिवारों को छांट रहे हैं जहां इस प्रकार का काम पुश्त-दर-पुश्त चलता आया है और आगे भी चलेगा। यही लोग प्रदेश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं।

उत्तर प्रदेश से सबसे अधिक प्रवासी श्रमिक

अब हम यदि उत्तर प्रदेश से बाहर जाने वाले मजदूरों की संख्या देखें, तो एक आम नजरिये से भी समझा जा सकता है कि महाराष्ट्र, सूरत, कोलकाता, गुड़गांव, पंजाब, दिल्ली-नोएडा, हरियाणा में उत्तर प्रदेश के प्रवासी मजदूर बड़ी संख्या में काम करते हैं। ये प्रवासी मजदूर अपने घरों को जो पैसा भेजते हैं, उसी से उनके बच्चों की शिक्षा चलती है और उनके घर के जीवन-स्तर को बेहतर बनाया जा पाता है। वे उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था में इस प्रकार योगदान देते हैं। प्रदेश के 21 जिलों से, मुख्यतः पूर्वी जिलों से भारी संख्या में लोग काम करने के लिए खाड़ी देशों को जा रहे हैं, यहां तक कि अर्थशास्त्री मान रहे हैं कि उत्तर प्रदेश अब इस बाबत केरल की जगह ले रहा है। वहां से जो पैसा या रेमिटैंसेस प्रदेश आता हैं, उसका 59 प्रतिशत हिस्सा घर के खर्च में और करीब 20 प्रतिशत बैंकों में जाता है; 8 प्रतिशत प्राॅपर्टी और वित्तीय ऐसेट्स (financial assets) खरीदने में लगाया जाता है। यह भेजा गया धन प्रदेश की अर्थव्यवस्था का हिस्सा है, इसलिए जनसंख्या नीति में इन बातों को नज़रंदाज कर देने से प्रदेश को अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी भारी नुक्सान उठाना पड़ेगा।

सबसे अधिक असर महिलाओं पर पड़ेगा

दूसरा महत्वपूर्ण सवाल महिला संगठनों और कई सामाजिक संगठनों के द्वारा उठाया जा रहा है कि ऐसे कानून के चलते सबसे बुरा प्रभाव लिंग-अनुपात और महिला स्वास्थ्य पर पड़ेगा। पर प्रदेश के मुख्यमंत्री इस बात पर अड़ गए हैं कि कानून तो बनना है वरना प्रदेश के सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने में भारी बाधा उत्पन्न होगी। उत्तर प्रदेश जनसंख्या नीति 2021-30 को उठाकर पढ़े तो ऐसा लगेगा कि बस विधेयक कानून बनते ही प्रदेश की लगभग आधी आबादी की सारी समस्याएं छू-मंतर हो जाएंगी-महिलाओं को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं व शिक्षा मिलने लगेगी, उनपर हिंसा बंद हो जाएगी, मातृ मृत्यु दर घट जाएगा, शिशुओं को बेहतर पोषण व शिक्षा मिलने लगेगी, राज्य के हेल्थ ऐण्ड वेलनेस सेंटर चाक चैबंद हो जाएंगे, किशारियों के यौन व प्रजनन स्वास्थ्य पर बहुत ध्यान दिया जाने लगेगा, वृद्धों की देखभाल महिलाओं द्वारा न होकर सरकार की ओर से होगी, वगैरह-वगैरह। आज की तारीख में उत्तर प्रदेश की जो दुदर्शा है उसको देखते हुए यह दिवास्वप्न के अलावा कुछ नहीं लगता।

एनएसओ डाटा के अनुसार आज भी प्रदेश में महिला साक्षरता 63.4 प्रतिशत है जबकि पुरुषों की 81.8 प्रतिशत है। प्रदेश की महिलाओं को साक्षर बनाकर उन्हें शिक्षित करना कितना आवश्यक है इसके बारे में डी. कार्र ने अपने शोध ‘इज़ एजुकेशन द बेस्ट काॅन्ट्रासेप्टिव?’में बताया है। उनके अनुसार महिलाओं की शिक्षा पर निवेश जनयंख्या नियंत्रण का सबसे कारगर उपाय है, क्योंकि यह अध्ययन किये गए 28 देशों में देखा गया है कि लड़कियों को यदि माध्यमिक शिक्षा के स्तर तक पहुंचा दिया जाता है तो वे कम उम्र में या जबरन थोपे गए विवाह से इन्कार कर पाती हैं, अपने प्रजनन-संबंधी फैसले खुद लेने के मामले में बेहतर स्थिति में होती हैं, पहला बच्चे को देर में जन्म देती हैं और दो बच्चों में ठीक-ठाक अंतराल रखती हैं। जैसे-जैसे विवाह की उम्र बढ़ती है, महिला के निर्णय लेने की क्षमता बढ़ती है और वह अपने बच्चों का बेहतर ध्यान रख पाती है। इसके कारण मातृ व शिशु मृत्यु दर में भी कमीं आती है। लेकिन हमारे प्रदेश की स्थिति क्या रही है? एक अध्ययन के अनुसार प्रदेश में काफी लड़कियां कोरोना खत्म हाने के बाद स्कूल वापस जाने की स्थिति में नहीं हैं। इसका कारण मुख्यतः पिता की नौकरी का जाना, वेतन कटौति, आॅनलाइन शिक्षा का खर्च उठा पाना और मोबाइल फोन न होना हैं। आॅक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार अप्रैल 2020 में प्रतिदिन 1 लाख 70 हज़ार लोगों की नौकरियां जाती रहीं। क्या ये परिवार अपनी बेटियों की शिक्षा जारी रख पाए होंगे? राइट टू एजुकशन फोरम, सेन्टर फाॅर बजट ऐण्ड पाॅलिसी स्टडीज़ और चैंपियन्स फार गल्र्स एजुकेशन की रिपोर्ट के अनुसार महामारी खत्म होने के बाद केवल 54 प्रतिशत छात्राएं स्कूल लौट पाएंगी। योगीजी ने इस विसंगति को खत्म करने के बारे में क्यों नहीं सोचा जबकि ये छात्राएं ही भविष्य की पढ़ी-लिखी माताएं बनतीं तो संपूर्ण परिवार की बेहतरी में योगदान दे सकती थीं? सरकार जनसंख्या नियंत्रण के बजाय महिला शिक्षा के क्षेत्र में निवेश क्यों नहीं कर रही?

वर्तमान समय में प्रदेश में महिलाओं की सामाजिक स्थिति का अंदाज़ा लगाने के लिए हम कुछ सोशल इंडिकेटर देखें।

नाबालिग लड़कियां मां न बने

ऐसोसिएशन फाॅर ऐडवोकेसी ऐण्ड लीगल इनिशिएटिव्स ने 2017 में एक सर्वे के माध्यम से बताया कि प्रदेश की 20 लाख लड़कियों का विवाह 10-19 वर्ष की आयु में हो गया। जाहिर है इन लड़कियों की शिक्षा बंद हो गई होगी। जहां तक बच्चियों के संतान पैदा करने की बात है तो ऐसे 10 लाख संतान पैदा हुए, जिनकी मां बालिग नहीं थी। यही कारण है कि प्रदेश का मातृत्व मृत्यु दर असम के बाद सबसे अधिक, यानि 197 है। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 2019 में केरल की तुलना में शिशु मृत्यु की संभावना भी उत्तर प्रदेश में 5 गुना अधिक थी। यानि 5 साल से कम आयु वाले शिशुओं की मृत्यु 1000 लाइव बर्थ में 51 थी। जाहिर है कि ऐसी अनिश्चितता की स्थिति में गरीब परिवार अधिक बच्चे पैदा करना चाहेंगे।

परिवार नियोजन और कुल प्रजनन दर

अब विधेयक में दिये गए आंकड़ों को देखें तो पाएंगे कि प्रदेश में महिला नसबंदी की दर 17.3 प्रतिशत है और पुरुष नसबंदी की 0.1 प्रतिशत जबकि अखिल-भारतीय स्तर पर ये आंकड़े क्रमशः 36 प्रतिशत और 0.3 प्रतिशत हैं। यहां हम यह भी देख पाते हैं कि परिवार नियोजन के प्रति परुषों का रुख पूरी तरह नकारात्मक है। यदि पिछले 20 वर्षों में हम प्रदेश में पितृसत्तात्मक सोच में राई बराबर भी बदलाव नहीं ला पाए हैं, तो कैसे मान लिया जाए कि जनसंख्या नीति को ढोने का दारोमदार सिर्फ औरतों पर नहीं होगा? आप आगे देखेंगे कि निरोध का प्रयोग केवल 10.8 प्रतिशत पुरुष करते हैं और गर्भ निरोधक गोलियां केवल 1.9 प्रतिशत औरतें लेती हैं। ऐसे में तब कानून बन जाने से 9-10 वर्षों में कुल प्रजनन दर या टोटल फर्टिलिटी रेट को 2.7 से 2.1 तक लाने की बात यदि की जा रही है तो उसका एक ही तरीका हो सकता है-महिलाओं को शिक्षित करना न कि मुस्लिम और गरीब परिवारों को टार्गेट करना।

वैसे भी आंकड़े बताते हैं कि दो से अधिक बच्चों वाले कपल मुस्लिमों में केवल 13 प्रतिशत हैं, एससी/एसटी में 31.8 प्रतिशत हैं। बाकी 55.2 प्रतिशत तो अन्य जातियों से हैं। पाॅपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की पूनम मुत्तरेजा बताती हैं कि एनएफएचएस आंकड़े बताते हैं कि हिंदुओं में 49 प्रतिशत नव विवाहित औरतें गर्भ निरोधकों का प्रयोग करती हैं जबकि मुस्लिमों में केवल 42.8 प्रतिशत। दूसरे, जरूरत के हिसाब से निरोधक न मिलने की समस्या मुसिलम औरतों में अधिक है क्योंकि उन्हें बेहतर स्वस्थ्य सेवाएं नज़दीकी इलाकों में नहीं मिल पातीं। ऐसी ही स्थिति ग्रामीण गरीबों की है। केरल और तमिल नाडु के माॅडल साबित करते हैं कि बिना कानून थोपे बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं TFR को काफी घटा सकते हैं।

जनसंख्या नियंत्रण का बोझ महिलाओं पर आएगा

कोई माने या न माने, आज जनसंख्या नियंत्रण का बोझ महिलाओं के सिर आएगा। ताऊ या पिता तय करेंगे कि बेटी कितनी उम्र तक पढ़ेगी, कब ब्याही जाएगी, और कैसे परिवार में। विवाह के बाद उसके जीवन के सारे फैसले पति सहित ससुराल के जिम्मे-वह आगे पढ़ेगी या नहीं, उसको बच्चा कब पैदा करना होगा और कैसे उसका लिंग पुरुष ही होगा। एक बच्चे के बाद दूसरा कब होगा, वह भी वे ही तय करेंगे। उत्तर प्रदेश में 2015 में 31 लाख 52 हजार महिलाओं ने गर्भपात रिपोर्ट किया था। संख्या इससे कहीं अधिक होगी क्योंकि केवल 11 प्रतिशत ने स्वास्थ्य केंद्र में गर्भपात करवाया था। क्या हम मान सकते हैं कि इन महिलाओं ने अपनी इच्छा से गर्भ धारण किया होगा, या अपनी इच्छा से गर्भपात करवा रही होंगी? एक समय इलाहाबाद के एक प्रोफेसर ने एक बेटे के लिए 6 बेटियां पैदा की थीं पर आज आधुनिक तकनीक से लिंग-चयन हो जाता है। गर्भपात का अधिकार महिला के पास हो यह एक बात है पर बेटे के लिए जबरन महिला भ्रूण हत्या करवाना दूसरी बात। फिर, बेटियों को पैदा करने के बाद उनके जीवन की गारंटी करना, उन्हें पढ़ाना और सही उम्र में अपनी पसंद से विवाह करने देना, यह सब पितृसत्तात्मक समाज की चूलों को हिलाए बिना संभव नहीं है। यदि महिला पढ़-लिखकर सशक्त नहीं बनती, उसे बेटा पैदा करने के लिए भारी दबाव सहना होगा, क्योंकि यदि कानून लागू हुआ तो सरकारी नौकरी, सरकारी सुविधाएं सहित शिक्षा और रोजगार तथा पदोन्नति संतानों की संख्या पर निर्भर होगी।  5 राज्यों का अध्ययन करके आईएएस निर्मला बुच ने पाया था कि चुनाव लड़ने के मक्सद से ज्यादा बच्चों वाले पिताओं ने पत्नियों को तलाक तक दिये और बच्चों को दूसरों को गोद लेने के लिए दे दिये। लिंग अनुपात भी बिगड़ गया और असुरक्षित गर्भपात की संख्या बहुत बढ़ गई।

जब लिंग अनुपात पुरुष के पक्ष में झुकता जाएगा, हमें ऐसे दिन देखने पड़ेंगे जैसे पंजाब के कुछ गांव, हरियाणा के एक गांव और राजस्थान के मनखेड़ा गांव में देखे गए हैं-पुरुषों को प्रदेश के बाहर से बहू आयातित करनी पड़ती है और कई भाइयों में एक पत्नी होती है। यह स्थिति भी औरतों के लिए बदतर होगी।

क्यों लागू होने के बाद भी वापस लिया गया कानून?

एक और महत्वपूर्ण कारण है जिसकी वजह से 12 राज्यों में से 4 राज्य-हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और हरियाणा ने अपने यहां 2 बच्चों वाले कानून को लागू करने के बाद वापस ले लिया। चीन ने भी 36 वर्षों के बाद वन चाइल्ड पाॅलिसी को इसलिए वापस लिया कि लेबर शाॅर्टेज होने लगा, लिंग अनुपात बिगड़ गया और वृद्धों की संख्या बहुत बड़ी हो गई। इससे पूरी अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ा। उन्होंने देखा कि इस कानून से टोटल फर्टिलिटी रेट घटाने के लिहाज से कोई लाभ नहीं हो रहा था, बल्कि डेमोग्रैफी बिगड़ रही थी यानि सामाजिक संतुलन के गड़बड़ाने के आसार देखे जा रहे थे। तब ऐसा बेमतलब का प्रयोग उत्तर प्रदेश में क्यों करना चाहते हैं मुख्यमंत्रीजी? 

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