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जातीय जनगणना: जलता अंगार

यदि नीतीश सचमुच में इस मुद्दे पर ईमानदार हैं, तो उन्हें मांग करनी चाहिये थी कि केंद्र सरकार, जिसको आरएसएस-भाजपा का ओबीसी मास्टहेड मोदी का नेतृत्व मिला है, 2011 के सामाजिक-आर्थिक व जातीय जनगणना के जाति-आधारित जनसंख्या के आंकड़े प्रकाशित करे।
जातीय जनगणना: जलता अंगार
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

भारतीय आधुनिकता का अधपका चरित्र, खासकर उसके अंदर निहित अंतरविरोध, अस्थिरता और विसंगतियां, यदि कहीं सबसे अधिक दिखाई पड़ता है, तो वह भारत में जाति के प्रश्न के विकासक्रम में। क्योंकि यह बर्तानवी साम्राज्यवाद से विरासत में प्राप्त हुआ था, उदार भारतीय राज्य को कुछ समतावादी आडम्बर रखना पड़ा, पर उसके वर्गीय व जातीय चरित्र ने उसे बारंबार एक यथास्थितिवादी, रूढ़िवादी राज्य के रूप में हीे पेश किया।

सामाजिक सुधार के उसके उदारवादी आडम्बर के अनुरूप, भारतीय संविधान ने सरकार के लिए अनिवार्य बनाया कि वह ‘सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े समुदायों’ को आरक्षण के माध्यम से सकारात्मक भेदभाव का लाभार्थी बनाए। इसका सबसे तार्किक व ईमानदार रास्ता होता ऐसी जातीय जनगणना करवाना जिसके माध्यम से शैक्षिक व आर्थिक स्थिति से संबंधित तथ्य एकत्र किये जाते। मात्र यही एक तरीका है तय करने का कि कौन वास्तव में पिछड़े हैं और किन्हें आरक्षण की जरूरत है; व प्रत्येक आरक्षण ‘बैंड’ श्रेणी के लिए कितना प्रतिशत आरक्षण होना चाहिये।

परंतु, जैसा कि केंद्रीय गृहमंत्री ने 10 मार्च 2021 को पीएमके नेता अंबुमणि रामदास के प्रश्न का जवाब देते हुए राज्यसभा में कहा कि भारतीय संघ ने आज़ादी के बाद नीतिगत तौर पर तय किया था कि 10-साला जनगणना में जनसंख्या की, एससी-एसटी को छोड़कर, जातीय गणना नहीं की जाएगी।

जाति-आधारित सामाजिक-आर्थिक व शैक्षिक स्थिति संबंधी डाटा के अभाव में यह विभिन्न पिछड़ी जाति आयोगों और उनके अध्यक्षों पर छोड़ दिया गया कि वे पता लगाएं कि कौन सी जातियां ओबीसी की श्रेणी में आती हैं और उनके लिए केंद्र और राज्यों की शिक्षा क्षेत्र व सरकारी नौकरियों में कितने प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान रखा जाए।

यद्यपि आरक्षण की परिकल्पना मूल रूप से सामाजिक प्रतिनिधित्व और विकास के उद्देश्य से की गई थी, चुनावी राजनीति की प्रतियोगी व्यवस्था के चलते जल्द ही वह जातीय श्रेणियों की राजनीतिक दावेदारी और प्रतिनिधित्व का माध्यम बन गया।

स्वाभाविक है कि आरक्षण का मुद्दा एक ओर चुनावी राजनीति और डेमोग्राफिक कारकों और दूसरी ओर जाति-आधारित समाज की ‘पावर हाइरारकी’ के परस्पर विरोधी दबावों के चलते विकसित हुआ।

1979 में जनता पार्टी सरकार द्वारा मण्डल आयोग की नियुक्ति हुई और उसने 30 दिसम्बर 1980 को अपनी रिपोर्ट दी। इसमें एक दूरगामी परिणाम देने वाला प्रस्ताव लाया गया कि- ओबीसी समुदाय को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए। अगस्त 1990 भारतीय राजनीति में ‘वाॅटरशेड’ था, जब चारों ओर से घिरे हुए वीपी सिंह ने मण्डल आयोग को लागू करने की घोषणा की। जिस समय सवर्ण वर्चस्व वाले जनसंघ ने (भाजपा का पुराना अवतार), जो जनता पार्टी का घटक था, हिन्दू साम्प्रदायिक राजनीति को आडवाणी की रथयात्रा के जरिये चरम अवस्था तक पहुंचाया, और वीपी सिंह सरकार को गिराने की कोशिश की, हिंदू बहुमत के एक लोकप्रिय सामाजिक मुद्दे को उठाना वीपी सिंह का ‘मास्टरस्ट्रोक’ था। इससे उन्होंने साम्प्रदायिक राजनीति को कड़ी चुनौती दी। हिंदू दक्षिणपंथ व सवर्ण राजनीतिक ताकतों ने सवर्ण छात्रों द्वारा आरक्षण-विरोधी आन्दोलन को गति दी। जबकि भाजपा ने वीपी सिंह सरकार को गिरा दिया। ओबीसी राजनीतिक ताकत, प्रमुख तौर पर सापेक्षिक रूप से अधिक आगे बढ़े हुए यादवों के नेतृत्व में, मण्डल के इस तीव्र राजनीतिक ध्रुवीकरण से जागृत हो उठे। वे महत्वपूर्ण हिंदी पट्टी के राज्य-बिहार और उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में सफल दावेदारी प्रस्तुत करते हुए अपनी सरकारें बना सके।

जातीय राजनीति तभी से हमारे देश में रच-बस गई, और नए-नए आकार ग्रहण करती रही तथा विविध सामाजिक शक्तियों की ओर से नित नई मांगें प्रस्तुत करती रही; ये सामाजिक शक्तिया कई बार परस्पर विरोधी भी बन गईं। 1992 में चर्चित इंदिरा साहनी केस में सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा या कैप लगा दिया। कोर्ट ने एक काफी विवादित तर्क दिया कि ‘50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण बराबरी की परिकल्पना को ही नष्ट कर देगा’, जबकि ऐसे निर्णय का कोई डेमोग्राफिक औचित्य नहीं था। कई राज्यों में सवर्ण अल्पसंख्यक थे और ओबीसी जनसंख्या 50 प्रतिशत से कहीं अधिक थी।

जब राजस्थान सरकार ने 2016 में और ओडिशा सरकार ने 2017 में आदेश दिया कि 50 प्रतिशत की सीमा से अधिक आरक्षण कुछ श्रेणियों के लिए जरूरी है, इन निर्णयों को संबंधित उच्च न्यायालयों ने खारिज कर दिया। और हाल में मराठा आरक्षण के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी ऐसा किया।

परन्तु तमिलनाडु की विचित्र डेमोग्रफिक संरचना थी, जिसमें केवल 13 प्रतिशत सवर्ण थे और अनुमानित 68 प्रतिशत ओबीसी (जिसमें 40 प्रतिशत एमबीसी, यानी अति पिछड़े और 20 प्रतिशत ओबीसी थे) और 18 प्रतिशत अनुसूचित जाति व 1 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति थे। पहले करुणानिधि द्वारा ओबीसी कोटा को 31 प्रतिशत किया गया; फिर एमजीआर द्वारा 50 प्रतिशत किया गया। पर राज्य में 69 प्रतिशत आरक्षण केवल इस विशेष सामाजिक संरचना की वजह से नहीं था; यह द्रविड़ आन्दोलन जैसे सशक्त सामाजिक आन्दोलन का नतीजा था। यह आन्दोलन गैर-ब्राह्मण ताकतों की राजनीतिक दावेदारी थी।

इंदिरा साहनी जजमेंट वस्तुगत रूप से राज्य में 69 प्रतिशत कोटा के लिए खतरा बन गया। जब 1993 में तमिलनाडु में 69 प्रतिशत ओबीसी कोटा के विरुद्ध मद्रास उच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई, न्यायालय ने उस वर्ष के लिए 69 प्रतिशत कोटा को जारी रखने और अगले साल से सरकार द्वारा उसे घटाकर 50 प्रतिशत करने का आदेश दिया।

जब निवर्तमान जयललिता सरकार ने इस आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में एसएलपी (Special Leave Petition) दाखिल की, सुप्रीम कोर्ट ने भी मद्रास उच्च न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा। सुश्री जयललिता ने तमिलनाडु पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति व जनजाति (शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण व राज्य की सेवाओं में नियुक्तियों व पदों में आरक्षण) विधेयक, 1993 लाकर 69 प्रतिशत आरक्षण कोटा को बचाने की कोशिश की। उन्होंने केंद्र पर अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करके प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव द्वारा उसे संविधान के नौवें शिड्यूल में शामिल करवाया, ताकि कोई न्यायालय इसमें छेड़छाड़ न कर सके। तो तमिलनाडु में इंदिरा साहनी जजमेंट के बावजूद आज तक 69 प्रतिशत आरक्षण जारी है। और, महाराष्ट्र जैसे राज्य से, जिसने मराठा आरक्षण के मध्यम से 50 प्रतिशत आरक्षण को बढ़ा लिया, दबाव भी आया है। इस कारण केसी राव ने भी सर्वोच्च न्यायालय में अपील की है कि 50 प्रतिशत की सीमा हटाई जाए।

इंदिरा साहनी केस के फैसले पर रिव्यू सर्वोच्च न्यायालय के 5-सदस्यीय पीठ को सौंपा गया और उसकी सुनवाई जारी है, यद्यपि मार्च 2021 में अंतरिम आदेश आ चुका है कि फैसले को बदला नहीं जाएगा। पर सर्वोच्च न्यायालय तमिलनाडु में 69 प्रतिशत कोटा पर कोई भी ताज़ा अपील सुनने को तैयार नहीं है, क्योंकि वह कहती है कि 5-सदस्यीय पीठ के फैसले का इंतेज़ार करना होगा। लेकिन, फरवरी 2021 में सर्वोच्च न्यायालय एक अपील पर सुनवाई करने को तैयार हो गया, जो तमिलनाडु के कानून को चुनौती देता था। तो जातीय प्रश्न के इस पहलू पर अभी अनिश्चितता बरकरार है।

2011 में भी एक बार जातीय जनगणना की मांग उठी थी, जिसके बारे में दावा किया गया था कि वह कई सारे विवादों का निस्तारण कर देगी। दरअसल जाति-आधारित जनगणना को अंग्रेज़ों ने स्वये अपने साम्राज्यवादी शासन के दौरान समाप्त कर दिया था। तो 1931 की जनगणना आखरी जाति-आधारित जनगणना थी।

नीतीश का सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल

इस पृष्ठभूमि में, जब बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार, जो एनडीए में भाजपा के सहयोगी हैं, ने राज्य-स्तर के एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल का नेतृत्व करते हुए प्रधानमंत्री से भेंट की, बहुतों को आश्चर्य हुआ। वास्तव में अपनी दिखावेबाज़ी की राजनीति से नीतीश केवल यह दर्शाना चाह रहे थे कि भाजपा से इतर भी उनके पास विकल्प हैं। लालू भी इतना तिकड़म जानते हैं कि भाजपा और नीतीश के जदयू के बीच इस मुद्दे पर कैसे दरार पैदा करें। इसी कारण से वामपंथ भी मुद्दे का पुरजोर समर्थन करते हुए प्रतिनिधिमण्डल में शामिल हुआ। यह थी मोदी से सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल के मिलने की राजनीति।

परंतु, यदि नीतीश सचमुच इस मांग पर गंभीर थे, तो उन्हें मोदी से तब मिलना चाहिये था जब कुछ वर्ष पूर्व, यानी 2016 में 2021 जनगणना की शर्तें केंद्र द्वारा अधिसूचित की गई थीं। अब 2021 की जनगणना आरंभ होने के कुछ माह पूर्व इस मांग को उठाना केवल तेवर दिखाने की बात हो सकती है, क्योंकि नीतीश जानते हैं कि केंद्र द्वारा इसे मानने की कोई संभावना नहीं है। हां यह जरूर है कि वे इस प्रकार, बिहार में पुनः भाजपा को सहयोग देकर सवर्ण वर्चस्व वापस लाते हुए, अपने सोशल जस्टिस वाले आवरण को भी बचाए रखना चाहते हैं। साथ में वे भूमिहार जाति को भी खुश रखना चाहते हैं।

पर, यदि नीतीश सचमुच में इस मुद्दे पर ईमानदार हैं, तो उन्हें मांग करनी चाहिये थी कि केंद्र सरकार, जिसको आरएसएस-भाजपा का ओबीसी मास्टहेड मोदी का नेतृत्व मिला है, 2011 के सामाजिक-आर्थिक व जातीय जनगणना के जाति-आधारित जनसंख्या के आंकड़े प्रकाशित करे। इसपर तो नीतीश कुमार ने एक शब्द भी नहीं कहा। और, इससे भी आगे जाकर उन्हें कर्नाटक (2015 जातीय जनगणना) की भांति बिहार में जाति-जनगणना का आदेश देना चाहिये था। उन्हे तथ्य-प्रेरित, जाति-आधारित विकास और सकारात्मक भेदभाव प्रदत्त नीतियों का राज्य-स्तरीय माॅडल प्रस्तुत करते हुए केंद्र से उसे देश पैमाने पर लागू करने की मांग करनी चाहिये थी।

पर नीतीश ऐसा कभी करेंगे नहीं, क्योंकि बिहार में जाति जनगणना के अप्रत्याशित परिणाम हो सकते हैं। पहले से ही देश भर में कई आन्दोलन व्यापक ओबीसी या एससी कोटा में सब-कोटा देने की मांग उठा रहे हैं। बिहार में दलित ‘दलित’ व ‘महादलित’ में विभाजित हैं, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में ‘माला’ और ‘मादिगा’ में विभाजित हैं। अलग-अलग राज्यों में संभावित रूप से सभी श्रेणियों के कोटा के आंकड़ों पर दबाव आएगा, क्योंकि जनसंख्या में विभिन्न जातीय श्रेणियों का हिस्सा अलग-अलग है।

कर्नाटक के राज्य-स्तरीय जातीय जनगणना और उसके परिणाम

जाति-आधारित सर्वे के परिणाम कई बार उसके अलम्बरदारों पर भारी पड़ सकते हैं, इसीलिए वे केवल दिखावा करते हैं और गंभीरता से मुद्दे पर काम नहीं करते। चलिये हम कर्नाटक का उदाहरण ले लें। 1972 में कांग्रेस की देवराज उर्स सरकार ने हवानूर आयोग नियुक्त किया और उसने ओबीसी समुदाय के लिए समग्र आरक्षण का प्रस्ताव रखा। इसे मण्डल रिपोर्ट के अग्रदूत के रूप में काफी प्रशंसा मिली। फिर, 1983 में, जब रामकृष्ण हेगडे़ के राज में वोक्कलिगों और लिंगायतों का वर्चस्व स्थापित हुआ, वेंकटस्वामी आयोग की नियुक्ति हुई और उसने हवानूर आयोग के कार्य को पलटकर रख दिया। उसने वोक्कलिगों और लिंगायतों के एक बड़े हिस्से को ओबीसी श्रेणी में शामिल करके ओबीसी आरक्षण को भीतर से क्षतिग्रस्त कर दिया। इन दो जातियों का वर्चस्व आगामी कांग्रेस व भाजपा-जद (स) सरकारों के शासनकाल में जारी रहा और 2013 में सिद्धरमय्या, जो स्वयं कुरुबा पिछड़ी जाति से थे, कांग्रेस मुख्यमंत्री बने। वे ‘अहिंद’ (कन्नड़ में अल्पसंक्ष्यदरु, यानि अल्पसंख्यक; हिंदूलितवरु यानि पिछड़ी जाति और दलितरु यानी दलित के लिए एक नाम) राजनीति के अपने अभियान की वजह से सत्तारूढ़ हुए। डेमोग्राफी के लिहाज से यह बहुत ही शक्तिशाली गठबंधन था।

वेंकटस्वामी आयोग की सिफारिशों को पलटने का औचित्य बताने के लिए सिद्धारमय्या ने 2015 में एक राज्य-स्तरीय जातीय जनगणना करवाई, जिसे ‘‘सोशल ऐण्ड एजुकेश्नल सर्वे’’ या सामाजिक व शैक्षिक सर्वे कहा गया। इस सर्वे की जो रिपोर्ट प्रेस को लीक हुई, उसके अनुसार जनसंख्या का जातीय विभाजन कुछ इस प्रकार था- लिंगायत 14 प्रतिशत, वोक्कलिगा या गौड़ा 11 प्रतिशत, अनुसूचित जाति 19.5 प्रतिशत, मुसलमान 16 प्रतिशत, ओबीसी 20 प्रतिशत (इनमें से कुरुबा केवल 7 प्रतिशत थे) और अनुसूचित जन जाति 5 प्रतिशत। इसके मायने यह था कि कांग्रेस के बंगारप्पा दौर को छोड़कर, जनसंख्या में 25 प्रतिशत हिस्से के बावजूद, 1983 से लगातार दो जातियां (लिंगायत व वोक्कलिगा) राज्य की राजनीति पर बर्चस्व कायम की रहीं। पर कांगे्रस हाई कमान इन दो समुदायों को अलगाव में नहीं डालना चाहती थी, इसलिए उसने सिद्धरमय्या के द्वारा उसे प्रकाशित नहीं करवाया। 2018 में भी, जब भाजपा शासन कायम हुआ, इस सर्वे रिपोर्ट को उजागर नहीं किया गया। तो, हम कह सकते हैं कि पहली जातीय जनगणना सिद्धारमय्या पर पलटवार साबित हुई।

इसे देखते हुए ऐसा लगता है कि यदि नीतीश ऐसा ही राज्य-स्तरीय जातीय जनगणना करवाएं तो वह उनपर भारी पड़ सकता है। बिहार की जातीय संरचना देखें तो कुछ इस प्रकार है- कुर्मी (जिस जाति से नीतीश स्वयं आते हैं) 2-3 प्रतिशत हैं। बिहार की कुल ओबीसी जनसंख्या, बहरहाल, 45-48 प्रतिशत है जिनमें आर्थिक रूप से पिछड़े, यानी केवल ईबीसी 26 प्रतिशत हैं। पिछड़ी जातियों में कुशवाहा और कोयरी 5 प्रतिशत हैं, यादव 12 प्रतिशत हैं और मुसलमान 17 प्रतिशत हैं। सवर्णो में राजपूत 5-8 प्रतिशत होंगे, भूमिहार 5 प्रतिशत हैं, ब्राह्मण 4-5 प्रतिशत हैं और कायस्थ 1 प्रतिशत हैं।

यह आश्चर्यजनक है कि यद्यपि नीतीश कुर्मी जाति से आते हैं, जो जनसंख्या का मात्र 2-3 प्रतिशत हिस्सा है, वे न केवल लालू से सामाजिक न्याय का झंडा छीन सके, बल्कि भाजपा के सहयोगी बनकर, कुर्मी समर्थन के साथ, सवर्ण सुदृढ़िकरण के लिए पुल का काम करते रहे। यदि कर्नाटक की भांति बिहार में जाति जनगणना हो जाए, तो नीतीश के नाटक का पटाक्षेप हो जाएगा। फिर भी, नीतीश दिखावे की राजनीति इसलिए कर रहे हैं कि भाजपा उन्हें हाशिये पर न ढकेल दे।

जातीय जनगणना का औचित्य

यदि जातीय जनगणना की जाए, तो हरेक जाति की जनसंख्या के सही आंकड़े मिलेंगे और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का भी डाटा उपलब्ध होगा। इससे आयोगों को संयमित आरक्षण संबंधी प्रस्ताव लाने में मदद मिलेगी; साथ ही एससी, एसटी व ओबीसी आयोगों को अपना काम और भी बेहतर ढंग से करने में मदद मिलेगी और यह सुनिश्चित हो सकेगा कि ट्राइबल सब-प्लान और तमाम योजनाओं के एससी कम्पोनेंट के तहत आने वाले विकास फंड सही व इच्छित लाभार्थियों को मिल सकें।

चरम वामपंथियों के कुछ हिस्सों ने आरक्षण का इस आधार पर समर्थन किया था कि वह एक ‘आवश्यक बुराई’ है। ‘आवश्यक’ इसलिए कि वह सभी सवर्णों और पिछड़ी जातियों के अभिजात्य हिस्सों के बीच अधिक बराबरी ला देगी, जिससे कि सभी जातियों के सर्वहारा हिस्सों को वर्गीय आधार पर गोलबंद किया जा सकेगा। और, ‘बुराई’ इसलिए कि वह पिछड़ी जातियों के बीच भ्रम पैदा करता है कि आरक्षण के माध्यम से वे सवर्णों के साथ बराबरी हासिल कर सकेंगे। इसी आधार पर वे भी जातीय जनगणना का समर्थन करते हैं, खासकर एसईसीसी (SECC) जैसा, जिसने 4635 जातियों/समुदायों के बारे में 43 ग्रंथों में डाटा जुटाया था। इसमें प्रत्येक जाति के आरक्षण की योग्यता को तय करने हेतु 13 अपवर्जन के मापदंड और 5 समावेश के मापदंड रखे गए थे। यही नहीं, यह जानकारी के अलावा कि कौन किस जाति के अंतर्गत आता है, प्रत्येक जाति समूह के सामाजिक-आर्थिक स्थिति का जायजा कई विकास मापदंडों के आधार पर दर्ज किया गया था। जो जातीय जनगणना का विरोध कर रहे हैं, उनका आधार है कि इससे एक नए किस्म का जातिवाद शुरू होगा। पर ये लोग जो जाति-निरपेक्ष बनते हैं वे अपने सवर्ण वर्चस्व को बनाए रखने और गरीब पिछड़ी जातियों की दावेदारी पर रोक लगाने के लिए आवरण खोज रहे हैं।

नीतीश यह दिखवा करके कि वे जातीय जनगणना के पक्ष में हैं अभी एक खतरनाक जुआ खेल सकते हैं पर आगे आने वाले समय में यह लाखों लोगों को आकर्षित करेगा और भारतीय राजनीति व समाज पर सवर्ण वर्चस्व को समाप्त करेगा।

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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