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देशभर में गैर-भाजपा सरकारों और राज्यपालों के बीच नहीं थम रहा टकराव!

देश मे राज्यपाल को 'महामहिम' शब्द से संबोधित किया जाता रहा है लेकिन कई बार उनके आचरण इस शब्द की गरिमा को बचाते हुए प्रतीत नहीं होते हैं। कई जानकारों का कहना है कि ये सब कुछ नया नहीं है। पहले भी राज्यपालों को राजनैतिक तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है लेकिन वर्तमान स्थति भयावह है।
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देश की राजधानी से लेकर दक्षिण भारत के केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना से पश्चिम बंगाल होते हुए पंजाब और झारखंड तक जहां भी विपक्षी पार्टी यानी गैर-बीजेपी सरकार है उन सभी जगहों पर निर्वाचित सरकार और राज्यपालों के बीच घमासान है। कई बार तो राज्यपाल चुनी हुई सरकार से अधिक शक्तिशाली नज़र आते है। हालांकि ये कोई नई बात नहीं है। पहले भी राज्य सरकारों और राज्यपाल के बीच मतभेद या विवाद रहे हैं लेकिन वर्तमान समय में ये जिस हद तक आगे बढ़ चुका है वो बेहद चिंताजनक है। देश के पूर्व जज भी इसे लोकतंत्र और संविधान के लिए खतरनाक बता चुके हैं। वहीं वाम दलों ने तो राज्यपाल के पद को ही अप्रासंगिक बताते हुए समाप्त करने की मांग कर दी है।

अभी वर्तमान में दिल्ली में जनता द्वारा चुनी हुई सरकार और केंद्र के द्वारा नियुक्त उपराज्यपाल (एलजी) वीके सक्सेना के बीच घमासान जारी है। दिल्ली के मुख्यमंत्री आए दिन एक आरोप लगाते हैं और उपराज्यपाल उसपर पलटवार करते हैं। मामला यहां तक पहुँच गया है कि अब दिल्ली मे डेली रूटीन के काम को लेकर भी झगड़ा हो रहा है। इसी तरह अन्य गैर-भाजपा शासित राज्यों में सरकारों और राज्यपालों के बीच बयानबाज़ी चलती रहती है जिसमें एक-दूसरे के कामकाज में अड़ंगा लगाए जाने के आरोप आम हैं। गैर-भाजपा शासित राज्यों में राज्यपालों और चुनी हुई सरकार के बीच टकराव काफी बढ़ गया है।

दिल्ली सरकार और एलजी का विवाद

दिल्ली में अभी आम आदमी पार्टी की सरकार है जिसका नेतृत्व अरविंद केजरीवाल कर रहे हैं। केजरीवाल साल 2013 मे कुछ समय के लिए मुख्यमंत्री बने थे लेकिन 2015 से जनता लगातार उन्हें अपने मुख्यमंत्री के रूप में चुन रही है। इस दौरान कई उप-राज्यपाल बदल चुके हैं लेकिन सरकार के साथ उनका विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। बल्कि ये विवाद लगातार और बढ़ता ही जा रहा है। कई बार न्यायालयों ने भी हस्तक्षेप किया लेकिन कोई समाधान नहीं निकला है।

अरविंद केजरीवाल का आरोप है कि एलजी उनकी सरकार की महत्वपूर्ण योजनाओं की स्वीकृति में रोड़ा अटका रहे हैं तो वहीं एलजी का कहना है कि सरकार जनता के हित में काम नहीं कर रही है। उन्होंने सरकार पर फिजूल खर्ची का भी आरोप लगाया है। इसको लेकर वे कई पत्र भी लिख चुके हैं। यही नहीं अभी वर्तमान में एलजी ने मुख्यमंत्री को एक रिकवरी नोटिस भी भेज दिया है जिसमें उन्होंने दिल्ली सरकार के प्रचार मे खर्च किए गए पैसों को एक पार्टी का प्रचार बताया और अब रिकवरी की मांग की है। अब सवाल उठता है क्या कोई एलजी चुने हुए मुख्यमंत्री से रिकवरी कर सकता है? मामला यहीं नहीं रुका है। एलजी ने दिल्ली सरकार की कई योजनाओं के लिए जांच समितियों का गठन कर दिया है।

अभी हाल ही में दिल्ली नगर निगम चुनाव हुए जिसमें केजरीवाल की पार्टी को बहुमत मिला था लेकिन एलजी और केजरीवाल सरकार के विवाद से ये भी अछूता नहीं रहा। यही वजह है कि आजतक दिल्ली को अपना मेयर नहीं मिला है। एलजी ने चुनी हुई सरकार को बिना पूछे दस कथित बीजेपी कार्यकर्ताओं को नगर निगम मे पार्षद के तौर पर नॉमिनेट कर दिया जबकि आमतौर पर इसका अधिकार चुनी हुई राज्य सरकार के पास होता था। और उनके सुझाए नामों पर ही एलजी मुहर लगाते रहे हैं लेकिन इसबार ऐसा लग रहा है जैसे ये लिस्ट बीजेपी कार्यालय से आई हो।

इसी तरह जब पीठासीन अधिकारी चुनने का सवाल आया तो दिल्ली सरकार ने सबसे वरिष्ठ पार्षद मुकेश गोयल का नाम दिया जिसे एलजी ने खारिज कर दिया और बीजेपी पार्षद सत्या शर्मा को नियुक्त कर दिया। इसके बाद शपथ वाले दिन यानी 6 जनवरी का हंगामा हमने देखा ही है। उस दिन शपथ तक नहीं हो सकी।

इसके अलावा टकराव का ताज़ा मामला दिल्ली सरकार के स्कूल में कार्यरत शिक्षकों को विदेशों मे ट्रेनिग को लेकर है। केजरीवाल सरकार कहती है कि वो अपने शिक्षकों को बेहतर गुणवत्ता के लिए विदेश भेजना चाहती है लेकिन एलजी ने इसमे भी अड़ंगा लगा दिया है। इसके खिलाफ पार्टी ने विधानसभा से लेकर एलजी के घर तक विरोध मार्च भी किया था।

तमिलनाडु में डीएमके ने की राज्यपाल को बर्खास्त करने की मांग

तमिलनाडु की सत्तारूढ़ डीएमके के नेतृत्व वाले धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील गठबंधन (एसपीए) और राज्यपाल के बीच लगातार विवाद बढ़ते ही जा रहे हैं। हाल ही मे हद तब हो गई जब राज्य के राज्यपाल ने टिप्पणी करी कि राज्य को तमिलनाडु के बजाय 'तमिझगम' के रूप में संबोधित किया जाना चाहिए जिसने न केवल सत्तारूढ़ डीएमके बल्कि उसके सहयोगियों के साथ जनता मे भी एक भारी रोष पैदा कर दिया है। इसके बाद राज्य मे विरोध-प्रदर्शन के दौरान राज्यपाल का पुतला भी जलाया गया। हालांकि उन्होंने इसपर सफाई देते हुए कहा कि वो इतिहास के संदर्भ मे ऐसा बोल रहे थे।

इससे पहले राज्यपाल ने अपनी मर्यादा को तोड़ते हुए विधानसभा मे अपने अभिभाषण के दौरान सीएन अन्नादुरई और एम करुणानिधि के साथ-साथ द्रविड़ विचारक, पेरियार और भारतीय संविधान के निमार्ता डॉ. बीआर अंबेडकर सहित डीएमके के कई दिग्गजों की प्रशंसा करने वाले कुछ अंशों को छोड़ दिया था। जबकि राज्यपाल हमेशा सरकार का तैयार अभिभाषण पढ़ते हैं। इसके बाद सत्ताधारी दल के लोगों ने "गवर्नर गो आउट" जैसे नारे भी लगाए।

इस घटना के एक दिन बाद, 13 जनवरी को डीएमके सांसदों के एक डेलीगेशन ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से मुलाकात की और एक याचिका प्रस्तुत की जिसमें कहा गया कि राज्यपाल संविधान का उल्लंघन कर रहे हैं।

ये कोई नया मामला नहीं है। जब से राज्य मे नई सरकार आई है और आरएन रवि ने तमिलनाडु के राज्यपाल के रूप में पदभार ग्रहण किया तबसे राज्य सरकार के साथ उनके नियमित टकराव होते रहे हैं। इससे पहले भी राज्य सरकार ने राज्यपाल रवि को बर्खास्त करने की मांग करते हुए राष्ट्रपति भवन का दरवाज़ा खटखटाया और आरोप लगाया कि उन्होंने "सांप्रदायिक घृणा को भड़काया है।" इसके साथ ही उन्होंने राज्यपाल के पास लंबित विधेयकों की भी लिस्ट सौंपी और स्वीकृति के लिए देरी पर सवाल उठाया। आपको बता दें इन विधेयकों में राज्य को नीट मेडिकल परीक्षा के दायरे से छूट देने के प्रावधान वाला विधेयक भी शामिल है।

डीएमके और उनके सहयोगियों का कहना है कि राज्यपाल, तमिलनाडु सरकार पर केंद्र सरकार के हुक्म को थोपने की कोशिश कर रहे हैं जो शासन की संघीय व्यवस्था में गैर-ज़रूरी है।

केरल में राज्यपाल बनाम सरकार की जंग जारी

केरल मे निर्वाचित सीपीआई(एम) के नेतृत्व वाली वाम संयुक्त मोर्चे की सरकार और राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के साथ कई बार टकराव हो चुका है। कुछ समय पहले राज्य में तब संवैधानिक संकट खड़ा हो गया जब राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने नौ विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को इस्तीफा देने का निर्देश दिया था। जबकि मुख्यमंत्री विजयन ने कहा कि राज्यपाल के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने उन पर संविधान तथा लोकतंत्र के खिलाफ काम करने का आरोप लगाया।

यह कोई पहला मौका नहीं था जब राज्यपाल ने सरकार के काम में हस्तक्षेप किया हो। राज्यपाल लगातार केरल की चुनी हुई सरकार और उसके मंत्रियों के खिलाफ राजनौतिक बयानबाज़ी करते रहते हैं।

केरल के मुख्यमंत्री विजयन ने कुलपति विवाद के समय कहा था कि, "उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में इस तरह का हस्तक्षेप नैसर्गिक न्याय का उल्लंघन है। कुलपतियों का पक्ष सुने बिना कुलाधिपति का यह कदम एकतरफा है।"

उन्होंने कहा कि कुलाधिपति के तौर पर राज्यपाल उच्चतम न्यायालय के फैसले के आधार पर अन्य विश्वविद्यालयों के कुलपतियों का इस्तीफा नहीं मांग सकते क्योंकि उस मामले का आदेश सभी कुलपतियों पर लागू नही होता है। उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो किसी कुलाधिपति को कुलपति को बर्खास्त करने का अधिकार देता है। उन्होंने कहा कि किसी कुलपति को हटाते वक्त प्रक्रियाओं का पालन किया जाना चाहिए।

इससे पहले भी मुख्यमंत्री ने विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर हस्ताक्षर न करने के लिए राज्यपाल के खिलाफ अपना विरोध जताया। उन्होंने कहा, ‘‘11 अध्यादेशों की मियाद समाप्त हो गई, क्योंकि राज्यपाल ने अपनी मंज़ूरी नहीं दी। सरकार द्वारा पारित कई विधेयकों पर भी राज्यपाल ने हस्ताक्षर नहीं किए।’’

विजयन ने राज्य के मंत्रियों के खिलाफ लगातार टिप्पणी करने के लिए भी खान पर निशाना साधते हुए कहा कि अगर वह संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार काम नहीं कर रहे हैं तो लोकतांत्रिक समाज में विरोध पैदा होगा।

विजयन ने कहा, ‘‘हाल में उन्होंने एक कुलपति का उनकी भाषा के लिए मजाक उड़ाया। उन्होंने एक अन्य कुलपति को अपराधी बताया। उन्होंने एक प्रख्यात विद्वान को ‘गुंडा’ बताया। इसमें कोई हैरानी की बात नही है कि ऐसे व्यक्ति ने मंत्रियों का अपमान करने की ठान ली है।’’

इसके अलावा कई मौकों पर, राज्यपाल चुनी हुई सरकार के विरोधी के तौर पर नज़र आ रहे हैं। राज्यपाल ने चुनी हुई सरकार के खिलाफ प्रेस वार्ता तक आयोजित की है और वहां भी विवाद हो गया जब उन्होंने अपनी पसंद के पत्रकारों से बात की और स्थानीय मीडिया चैनल के लोगों को राजभवन से बाहर कर दिया। इसको लेकर मीडिया संगठनों ने भी अपनी आपत्ति जताई और विरोध प्रदर्शन किया।

तेलंगाना में क्या है विवाद?

तेलंगाना भी बाकी राज्यों की तरह राज्यपाल के विवाद से अछूता नहीं रहा है। सत्ताधारी दल ने आरोप लगाएं कि राज्य में विधायकों की खरीद फरोख्त की कोशिशों के पीछे राजभवन का हाथ हो सकता है। किसी भी राज्य में राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद के इर्द-गिर्द इस तरह के विवाद बेहद दुर्भाग्यपूर्ण हैं। जबकि वहां की राज्यपाल तमिलिसाई सुंदरराजन ने तेलंगाना में 'अलोकतांत्रिक' स्थिति का दावा किया था और संदेह जताया कि तेलंगाना में उनका फोन टैप किया जा रहा है।

आपको बता दें तेलंगाना की राज्यपाल पड़ोसी राज्य तमिलनाडु से हैं और वहां वो पहले बीजेपी का नेतृत्व कर चुकी हैं। टीआरएस नेताओं का कहना है कि वह अब भी बीजेपी नेता की तरह ही काम कर रही हैं। तमिलिसाई ने 8 सितंबर, 2019 को तेलंगाना के राज्यपाल के रूप में कार्यभार संभाला। वह साल 2014 में आंध्र प्रदेश से अलग किए गए इस राज्य में इस पद को संभालने वाली पहली महिला हैं।

बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में भी हो रहा है राज्यपाल और सरकार के बीच गतिरोध

पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़ और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच विवाद किसी से नही छुपा। दोनों खुलकर एक दूसरे पर राजनौतिक आरोप लगाते थे। धनखड़ महामहिम की भूमिका में कम और ममता बनर्जी के प्रतिद्वंदी के रूप में अधिक चर्चित हैं।

इसी प्रकार झारखंड में भी राज्यपाल और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के बीच तकरार देखी जाती रही है। हाल ही मे झारखंड में जनजातीय परामर्शदाता परिषद (टीएसी) के गठन से संबंधित नियमावली को लेकर राज्यपाल रमेश बैस ने कानूनी सलाह लेने के बाद संबंधित फाइल राज्य सरकार को वापस लौटा दी। साथ ही वर्तमान नियमावली को असंवैधानिक बताते हुए उनमें बदलाव के निर्देश दिए हैं। उन्होंने कहा है कि टीएसी के गठन में कम से कम दो सदस्यों का मनोनयन उनके स्तर के अनुसार अनिवार्य रूप से होना चाहिए।

वहीं राज्य सरकार ने टीएसी के गठन को लेकर नई नियमावली गठित कर दी। नई नियमावली में अब टीएसी के गठन और सदस्यों की नियुक्ति में राज्यपाल के पास कोई अधिकार नहीं रह गया है। मुख्यमंत्री की स्वीकृति से ही सदस्यों की नियुक्ति हो रही है। राज्य सरकार का तर्क है कि नई नियमावली छत्तीसगढ़ की तर्ज पर बनाई गई है जिसके तहत सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार मुख्यमंत्री का है।

महाराष्ट्र की भी उस घटना को समझना आवश्यक है जब विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला था और उस समय राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी ने बिना बहुमत वाली बीजेपी के देवेंद्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। हालांकि कुछ ही समय बाद फड़नवीस ने इस्तीफा दे दिया और उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में नई सरकार बनी थी। हालांकि पार्टी मे फूट की वजह से उनकी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। लेकिन पूरे घटनाक्रम ने यकीनन राज्यपाल के पद पर गंभीर सवाल उठाए हैं।

इसके अलावा छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने भी राज्यपाल पर   विधेयक रोकने का आरोप लगाया था।

क्या राज्यपाल पद पर विचार करने का समय है?

देशभर मे जिस तरह से राज्यपालों और उपराज्यपालों पर अक्सर ये आरोप लगते रहते हैं कि वे केंद्र के इशारे पर गैर-बीजेपी सरकारों को परेशान करने और काम मे अड़ंगा लगाने का काम करते हैं ऐसे में इसने देश मे एक बड़ी बहस को खड़ा कर दिया है कि क्या राज्यपाल के पद को समाप्त कर देना चाहिए?

तेलंगाना सीपीआई(एम) के वरिष्ठ नेता के. नारायण ने तो यहां तक कह दिया कि हमारे देश के लिए राज्यपाल व्यवस्था उपयोगी ही नहीं है और उन्होंने पीएम मोदी से आह्वान किया कि सभी राज्यपालों को तुरंत हटा देना चाहिए।

दिल्ली के एक कार्यक्रम में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज गोपाल गौड़ा ने भी कहा कि राज्यपाल आजकल केंद्र के इशारे पर राज्य सरकारों को परेशान कर रहे हैं और ये किसी भी लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।

हमारे देश मे राज्यपाल को 'महामहिम' शब्द से संबोधित किया जाता रहा है लेकिन कई बार उनके आचरण महामहिम शब्द की गरिमा को बचाते हुए प्रतीत नही होते हैं। कई जानकारों का कहना है कि ये सब कुछ नया नहीं है। पहले भी राज्यपालों को राजनैतिक तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है लेकिन वर्तमान स्थति भयावह है। एक शर्म और मर्यादा का पर्दा होता था लेकिन अब वो भी खत्म हो गया। अब वे केंद्र के आदमी के साथ-साथ एक पार्टी के कार्यकर्ताओं की तरह काम कर रहे हैं जो एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है।

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