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किसान आंदोलन को उसके उन "शुभचिंतकों" से बचाना होगा जो संघ-भाजपा की भाषा बोल रहे हैं 

जाहिर है मुद्दा  आधारित आंदोलन में सबका विचार हर प्रश्न पर एक हो, इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। लेकिन आंदोलन की unity in action हर हाल में बनी रहे, इसे बेशक सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
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फाइल फोटो। साभार: एएनआई

किसान आंदोलन के खिलाफ साजिशों का बाजार गर्म है और उसे एक के बाद दूसरे अनावश्यक विवाद में घसीटा जा रहा है।

ताजा मामला योगेन्द्र यादव के निलंबन का है। आन्दोलनविरोधी ताकतें जिनमें आंदोलन के कतिपय "शुभचिंतक" बुद्धिजीवी/पत्रकार भी शामिल हैं आंदोलन के नेतृत्व को बदनाम करने और आंदोलन की नैतिक आभा को खंडित करने के लिए इस मौके का इस्तेमाल कर रहे हैं, वे दरअसल आंदोलन को खत्म करने के तर्क ढूंढ रहे हैं और आंदोलन की कथित अनैतिकता, अमानवीयता के आधार पर उसके अंत की भविष्यवाणी कर रहे हैं।

यह सर्वविदित है कि यह आंदोलन किसी विचारधारा के आधार पर एकताबद्ध सुगठित मंच द्वारा संचालित नहीं है, वरन देश के विशेषकर पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश के 500 से ऊपर अलग-अलग सोच-विचार वाले संगठनों के द्वारा चलाया जा रहा है जो एक खास मुद्दे को लेकर एक साथ आये हैं। उसी के अनुरूप उनका सांगठनिक ढांचा और निर्णय प्रक्रिया है। उनके  नेतृत्व और सांगठनिक निर्णय प्रक्रिया को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि इस अभूतपूर्व आंदोलन को सत्ता की हर चुनौती का मुकाबला करते हुए उन्होंने लगभग एक साल से न सिर्फ जारी रखा है,बल्कि लगातार नई ऊंचाई की ओर ले जा रहे हैं और अपनी संघर्षशील एकता ( unity in action ) को उन्होंने बरकरार रखा है।

भविष्य में यह मुद्दा-आधारित एकता उच्चतर वैचारिक एकता में विकसित हो, यह कामना करना और इसमें उनकी मदद करना एक बात है, पर आज उनसे यह अपेक्षा करना कि वे कथित नैतिकता व विचारधारा के एक  uniform मानक पर खड़े हो जाएं और अमुक ढंग से व्यवहार करें, अमुक फैसला न करें, और ऐसा न कर पाने पर उन्हें अमानवीय, अन्यायपूर्ण और dictatorial घोषित कर देना  आंदोलन के साथ ज्यादती है, उस पर अपने subjective कल्पित मानदंडों और तौर-तरीकों को थोपना है। यह दरअसल शक पैदा करता है कि इस तरह के अभियान के पीछे कोई ulterior motive तो नहीं है। 

लखीमपुर घटना को लेकर राकेश टिकैत ने जब क्रिया की प्रतिक्रिया वाला बयान दिया था, तब योगेन्द्र यादव ने हस्तक्षेप करते हुए उसे explain किया था और यह कहते हुए कि कोई भी मौत दुःखद होती है, सचेत, योजनाबद्ध हिंसा और स्वतःस्फूर्त हिंसा के बीच फर्क को स्पष्ट किया था, जिसे कानून भी मानता है।

दरअसल, बात उसके बाद खत्म हो गयी थी और योगेन्द्र जी की सैद्धांतिक स्थिति  स्पष्ट हो चुकी थी, वे मृत भाजपा कार्यकर्ता के घर न जाते तो भी।

बहरहाल, बाद में योगेन्द्र यादव मानवीय संवेदना और नैतिकता की अपनी समझ के अनुरूप  एक मृत भाजपा कार्यकर्ता के घर गए। संयुक्त किसान मोर्चा, जिसका एक बेहद वैविध्यपूर्ण सामाजिक आधार और वैचारिक संरचना है, वहाँ इसे लेकर मतैक्य न होना  अस्वाभाविक नहीं है। बाद में जब बैठक में majority ने बिना मोर्चे की सहमति के वहां जाने को गलत माना तो योगेन्द्र जी ने सामूहिकता की supremacy को स्वीकार करते हुए खेद प्रकट किया। जाहिर है वे पहले ही सामूहिक विचार-विमर्श में गए होते तो मृत भाजपा कार्यकर्ता के घर उनके अकेले जाने की स्थिति ही न आती। 

सारतः योगेन्द्र जी के इस खेद-प्रकाश के बाद मामला समाप्त हो जाता है। 

योगेन्द्र जी के यह गलती मान लेने के बाद कि बिना सामूहिक निर्णय के वहां जाना ठीक नहीं था, इस प्रश्न पर उनके अलग विचार के कारण उन्हें दंडित करना over- reaction है। 

जाहिर है मुद्दा  आधारित आंदोलन में सबका विचार हर प्रश्न पर एक हो, इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। लेकिन आंदोलन की unity in action हर हाल में बनी रहे, इसे बेशक सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

बहरहाल, संयुक्त मोर्चा के स्तर पर यह मामला खत्म हो जाने के बाद भी न सिर्फ गोदी मीडिया में, बल्कि सोशल मीडिया के अंदर किसान आंदोलन के प्रति सहानुभूति रखने वाले एक हिस्से के द्वारा भी इस पूरे मामले को अनावश्यक तूल दिया जाना चिंताजनक है। दरअसल, यह उदारवादी हिस्सा "शुभचिंतक" के वेश में आंदोलन पर टूट पड़े आन्दोलन-विरोधियो के propaganda में बह गया है। संयुक्त किसान मोर्चा में नेताओं के खिलाफ पहले भी action हुए हैं, लेकिन अबकी बार यह हिस्सा योगेन्द्र यादव के प्रति सहानुभूति में दुबला नहीं हुआ जा रहा है, बल्कि उनके बहाने आंदोलन को बदनाम करने के अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने का उसे मौका मिल गया है। और वह आंदोलन का मर्सिया लिखने में लग गया है।

इस पूरे मामले के संदर्भ में नैतिकता के प्रश्न पर मोर्चे के अंदर बहस चलती रहे,  यहां तक कि समाज में इस पर बहस हो और पूरा आंदोलन तथा समाज उच्चतर नैतिक-वैचारिक धरातल पर पहुंचे यह तो एक बात है, लेकिन क्या इसके नाम पर आंदोलन के खिलाफ मिथ्या अभियान चलाया जाना चाहिए ?

क्या इसमें किसान आंदोलन से सम्बंधित कोई ऐसा नीतिगत प्रश्न या उसूल का सवाल involve है जिसका violation हुआ है? उक्त विवाद के आधार पर आखिर यह निष्कर्ष कैसे निकाला जा सकता है कि आंदोलन हिंसा का समर्थक हो गया है, अन्याय का समर्थक हो गया है, अमानवीय और अनैतिक हो गया है, आखिर मोर्चे के सामूहिक निर्णय को dictatorship की संज्ञा कैसे दी जा सकती है ? 

कुछ लोगों ने तो यहाँ तक सलाह दे दी कि आंदोलन अगर गांधीवादी है तो लखीमपुर और सिंघु बॉर्डर की घटना के बाद आंदोलन को वापस ले लेना चाहिए जैसे चौरीचौरा कांड के बाद गांधी जी ने आंदोलन वापस ले लिया था! यह है असली बात जिसके लिए 'न्याय, नैतिकता, मानवता' की आड़ में अभियान चलाया जा रहा है और आंदोलन के नेतृत्व को बदनाम करने और विभाजित करने की साजिश की जा रही है। याद कीजिये, यही सलाह आंदोलन के  "शुभचिन्तकों " ने  26 जनवरी लाल किला प्रकरण के बाद भी दी थी और नेतृत्व का एक हिस्सा ऐसे फैसले की ओर inclined दिखा था।

सच्चाई यह है कि कोई "वाद" इस आंदोलन की विचारधारा नहीं है। इसके नैतिक मूल्यों, मानदंडों को किसी एक विचारधारा के सांचे/खांचे में ढालना नुकसानदेह होगा तथा उसकी कसौटी पर इसके व्यवहार को परखना  ज्यादती होगी और गलत निष्कर्षों तक ले जाएगी। किसानों के हित के लिए कारपोरेटपरस्त सरकार के खिलाफ समझौताविहीन संघर्ष तथा धर्म-सम्प्रदाय-जाति-लिंग-भाषा-राज्य की सारी विभाजक रेखाओं के पार व्यापक किसान समुदाय के बीच भाईचारा और एकता ही इसकी विचारधारा है और जुझारू लेकिन शांतिपूर्ण जनान्दोलन व प्रतिरोध इसकी रणनीति। 

इस आंदोलन के सरोकार लगातार व्यापक हो रहे हैं, इसने लोकतन्त्र की रक्षा तथा देश बचाने का नारा दिया है एवं राष्ट्रीय सम्पदा कारपोरेट के हवाले करने और मज़दूरविरोधी श्रमक़ानूनों के खिलाफ stand लिया है तथा नौजवानों के रोजगार की लड़ाई का समर्थन किया है।

सच यह है कि किसान-आंदोलन देश में Corporate-driven विकास जिसने आम-जन को अभूतपूर्व तबाही में झोंक दिया है, के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा बनकर खड़ा हो गया है। इसलिए बहुतों की आंख की यह किरकिरी बना हुआ है। कारपोरेट establishment से हजारों ज्ञात-अज्ञात धागों से जुड़ा विराट बौद्धिक तंत्र प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसके खिलाफ है। कुछ सीधे तौर पर तो कुछ छद्मवेश में आंदोलन को कमजोर करने, बदनाम करने में लगे हुए हैं।

आसन्न विधानसभा चुनावों में, जिनसे होकर 2024 का रास्ता गुजरना है, किसान आंदोलन संघ-भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। भाजपा के जाट नेता, मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक के शब्दों में, " किसानों की मांग नहीं मानी तो सरकार की वापसी नहीं होगी।"

उत्तर प्रदेश के कोने कोने से किसानों के बढ़ते असंतोष की खबरें लगातार आ रही हैं।

उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले में एक 58 वर्षीय किसान की खाद की दुकान के बाहर कतार में खड़े-खड़े मृत्यु हो जाने खबर आई, जहां वह दो दिनों से कुछ उर्वरक खरीदने की कोशिश कर रहे थे। देश भर में उर्वरक की कमी, विरोध, पुलिस लाठीचार्ज की खबरें आ रही हैं। लखीमपुर में  मंडी में खरीद न होने से हताश किसान द्वारा अपने धान के ढेर में आग लगाने का वीडियो वायरल हो रहा है।

संयुक्त किसान मोर्चा ने मिशन UP को आगे बढ़ाते हुए 22 नवम्बर को राजधानी लखनऊ में विराट किसान महापंचायत का आह्वान किया है जिसमें 3 कृषि कानूनों व MSP के साथ मोदी सरकार के मंत्री अजय टेनी की बर्खास्तगी और गिरफ्तारी तथा सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में लखीमपुर किसान जनसंहार की जांच की मांग को धार दी जाएगी।

कल 26 अक्टूबर को ऐतिहासिक किसान आंदोलन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली संवेदनहीन कॉर्पोरेट-समर्थक सरकार के खिलाफ शांतिपूर्ण संघर्ष के ग्यारह महीने पूरे करने जा रहा है। संयुक्त किसान मोर्चा ने सुबह 11 बजे से दोपहर 2 बजे तक पूरे देश में विरोध प्रदर्शन (मार्च, धरना आदि) का आह्वान किया है। 

यह आंदोलन आज देश में लोकतन्त्र की लड़ाई का सबसे बड़ा मोर्चा है, इसके गर्भ में विकास के कारपोरेट रास्ते के खिलाफ जनकेन्द्रित विकास के वैकल्पिक रास्ते की उम्मीदें पल रही हैं। 

इस महान आंदोलन को सत्ता के दमन और साजिशों तथा प्रत्यक्ष विरोधियों के हमलों के साथ साथ "शुभचिन्तकों " के कुत्सा-अभियान से भी बचाना होगा।

लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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