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बदलाव: किसान आंदोलन जनतंत्र के सभी आंदोलनों की मां है!

किसान-आंदोलन संकीर्ण पहचानों के पार किसानी, पानी और माटी के प्रतीक से राष्ट्रीय एकता का नया मुहावरा गढ़ रहा है।
किसान
फोटो साभार : द प्रिंट

किसान नेताओं के आह्वान पर कल, 18 फ़रवरी देश के तमाम राज्यों में 4 घंटे का सफल रेल-रोको आंदोलन हुआ। तीन कृषि कानूनों की वापसी की मांग के साथ पंजाब के चंद गांवों से शुरू हुआ किसान आंदोलन आज राष्ट्रीय आंदोलन बन चुका है, जिसकी पूरी दुनिया मे अनुगूंज है और जो अब राजनीति की तकदीर तय करने की ओर भी बढ़ रहा है ।

ठीक किसान आंदोलन के बीच सम्पन्न हुए पंजाब के शहरी निकाय चुनाव मोदी सरकार के कृषि कानूनों पर जनमत संग्रह जैसे थे। इन चुनावों में भाजपा का पूरी तरह सफाया हो गया है। किसान आंदोलन के दबाव में भाजपा का साथ छोड़ने के बाद भी अकाली दल दुर्गति से बच नहीं पाया और भाजपा से थोड़ी ही बेहतर स्थिति में है।

यह भी गौर करने लायक है कि ये चुनाव किसान-आंदोलन के गढ़ ग्रामीण क्षेत्र में नहीं, वरन शहरी इलाके में थे, जहां भाजपा के लिए बेहतर सम्भावनाओं की उम्मीद की जाती है। पर वहां भी भाजपा और अकाली दल के सफाए ने इस सच्चाई पर मुहर लगा दी है कि अब यह महज गांव और किसान आंदोलन नहीं है, वरन पूरे समाज का जनांदोलन बन चुका है।

किसान आंदोलन का चुनाव परिणाम पर यह असर बिल्कुल expected lines पर है और आने वाले दिनों में भाजपा के लिए यही भविष्य किसान आंदोलन के लगातार बढ़ते दूसरे इलाकों में उसका इंतजार कर रहा है। भाजपा ही नहीं, मोदी कैबिनेट से और NDA से अलग हटकर आंदोलन के समर्थन में आ चुके अकाली दल की भी  ऐतिहासिक पराजय हुई है। हरसिमरत कौर बादल की लोकसभा सीट बठिंडा में 53 साल बाद कोई गैर-अकाली मेयर होगा ।

यह भाजपा सरकार की बैसाखी बने दुष्यंत चौटाला जैसे नेताओं के लिए सीधी चेतावनी है। ये नतीजे आंदोलन के सघन इलाकों पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, पश्चिम उत्तर प्रदेश में गहरी राजनैतिक हलचल को जन्म देंगे, और नए सामाजिक-राजनैतिक समीकरण उभरेंगे।

बंगाल व अन्य राज्यों में होने जा रहे चुनाव भी किसान-आंदोलन के ripple effect से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। किसान नेताओं ने बंगाल चुनाव में अपने संदेश के साथ पहुंचने का ऐलान करके भाजपा रणनीतिकारों की नींद उड़ा दी है।

खबरों के अनुसार, इससे बेहद चिंतित अमित शाह और नड्डा ने पूरे अंचल के जाट नेताओं की आनन-फानन में बैठक कर उन्हें जाट खापों से सम्पर्क करने, उन्हें कृषि कानूनों के बारे में समझाने के लिए grass-root level पर उतरने के निर्देश दिए हैं। पर किसानों को समझाने की यह कोशिश तो पहले भी हो चुकी है, वह अगर सफल हुई होती तो आंदोलन यहां तक पहुंचता ही कैसे?, उसे तो किसान reject कर चुके हैं। किसानों को समझाने जा रहे  हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर अपने जिले में ही रैली नहीं कर सके थे, आक्रोशित किसानों ने उनका मंच उखाड़ दिया था। उसी के बाद अमित शाह ने ऐसे कार्यक्रमों को रद्द करने के निर्देश जारी किए थे।

किसान नेताओं ने भाजपा की इस जाट-केंद्रित मुहिम पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है, खालिस्तान के बाद अब जाटलैंड के नैरेटिव को उन्होंने देश तोड़ने की कार्यवाही करार दिया है। उनका कहना है कि यह आंदोलन किसी एक जाति का नहीं, वरन किसानों का है जो सभी जाति-समुदायों के हैं। वे इस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं कि समावेशी चरित्र वाले उनके राष्ट्रीय आंदोलन को गोदी मीडिया की मदद से धर्म, जाति और एक अंचल के दायरे में सीमित दिखाने की साजिश हो रही है।

बहरहाल, किसान-आंदोलन संकीर्ण पहचानों के पार किसानी, पानी और माटी के प्रतीक से राष्ट्रीय एकता का नया मुहावरा गढ़ रहा है, देश के सुदूर अंचलों तक फैलता यह आंदोलन संघ-भाजपा की बहुसंख्यकवादी, विभाजनकारी राष्ट्रीयता के बरअक्स किसान-मेहनतकश आइडेंटिटी के आधार पर नई लोकतांत्रिक राष्ट्रीयता का मॉडल गढ़ रहा है।

नए चरण में आंदोलन जिला-मुख्यालयों, क़स्बों, गांवों तक में हो रही ताबड़तोड़ पंचायतों, महापंचायतों के माध्यम से अब ग्रासरूट स्तर तक उतर चुका है और  जनांदोलन का रूप लेता जा रहा है जिसके गर्भ में नए सामाजिक-राजनीतिक समीकरण आकर ले रहे हैं।

आंदोलन ने अब सुस्पष्ट राजनैतिक आयाम ग्रहण कर लिया है। पहले किसान, केवल अपनी मांगे सरकार के सामने रख रहे थे, न सरकार के विरोध की बात थी, न भाजपा के। सही बात तो यह है कि किसानों का अच्छा खासा हिस्सा मोदी समर्थक था। आंदोलनकारियों ने समान भाव से पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और अकाली दल नेता बादल दोनों के घर के सामने धरने दिए थे। पर अब यह परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका है। अपने खिलाफ मोदी सरकार के शत्रुतापूर्ण व्यवहार के बाद, अब किसानों का रुख भी सरकार, भाजपा और मोदी के खिलाफ हो चुका है।

विपक्ष के अनेक दल और नेता भी खुलकर मैदान में उतर पड़े हैं। वे किसान-आंदोलन में भी जा रहे हैं और किसान mobilisation के अपने स्वतन्त्र कार्यक्रम भी कर रहे हैं। महापंचायतों में जहाँ लाखों किसान भाग ले रहे हैं, खुल कर किसान अब सरकार और मोदी के खिलाफ बोल रहे हैं।

आंदोलन की इन राजनीतिक और चुनावी सम्भावनाओं के मद्देनजर सरकार की चिंता और घबराहट बढ़ती जा रही है।

सरकार ऊपर से भले ही bold face मेन्टेन कर रही हो, पर मोदी जी को इस मुद्दे पर अंततः दोनों सदनों में जिस तरह बोलना पड़ा, इसके आधार पर प्रमुख किसान नेता राजेवाल का आंकलन है कि, " मोदी अंदर से हिल चुके हैं"।

सचमुच, सरकार किसान-आंदोलन से कितनी घबराई हुई है, इसे सरकार ने जिस तरह आंदोलन के समर्थन में उठती अंतरराष्ट्रीय आवाजों पर प्रतिक्रिया दी है और देश के अंदर जिस तरह स्वतन्त्र मीडिया और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं की आवाज कुचलने पर आमादा है, उससे समझा जा सकता है। पॉपस्टार रिहाना के बयान पर जवाब देने सीधे विदेश मंत्रालय उतर गया और फिर पर्यावरण आंदोलन की युवा आइकॉन ग्रेटा तथा अमेरिकी उपराष्ट्रपति की भतीजी मीना हैरिस के बयानों को काउंटर करने के लिए देश की तमाम सेलिब्रेटीज को उतार दिया गया।

सरकार ने जिस तरह बेंगलुरु की 21 साल की पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि को toolkit के नाम पर गैरकानूनी ढंग से गिरफ्तार किया है और उन्हें खालिस्तान समर्थकों व दूसरी भारत विरोधी ताकतों के साथ मिलकर देश को तोड़ने और बदनाम करने की अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा साबित करने की कोशिश कर रही है, वह हास्यास्पद और absurd तो है ही, सरकार के desperation को भी दिखा रही है कि वह किसान आंदोलन को बदनाम करने और उसके समर्थकों को डराने के लिए झूठ बोलने और साजिश रचने में किस हद तक जा सकती है।

ठीक इसी तरह मीडिया के non-conformist हिस्सों पर लगाम लगाने की जीतोड़ कोशिश की जा रही है। ट्विटर के साथ सरकार का टकराव, तमाम स्थापित पत्रकारों के खिलाफ राष्ट्रद्रोह और UAPA के तहत मुकदमे, मनदीप पुनिया जैसे प्रतिबद्ध, युवा पत्रकार की गिरफ्तारी और जनपक्षधर स्वतन्त्र वेब पोर्टल न्यूज़क्लिक के खिलाफ राजनीतिक वैमनस्यपूर्ण कार्रवाई इसी के नमूने हैं। इसी बीच JNU छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार व अन्य छात्र नेताओं के खिलाफ लंबे समय से ठंडे बस्ते में पड़े मामले को फिर से जिंदा कर दिया गया है और 15 मार्च से उनके ऊपर मुकदमें की कार्रवाई शुरू हो रही है। जाहिर है सरकार के खिलाफ बढ़ते चौतरफा विक्षोभ और किसान आंदोलन के साथ व्यापक एकता की सम्भवनाओं से सरकार बेतरह डरी हुई है। भयादोहन की तमाम कार्रवाइयों का उद्देश्य छात्रों, युवाओं,  सामाजिक-राजनैतिक कायकर्ताओं, सोशल मीडिया की स्वतन्त्र, निष्पक्ष आवाजों को डराना और आने वाले दिनों में आंदोलनों के पक्ष में खड़े होने से इन्हें रोकना है।

जैसे जैसे किसान आंदोलन आगे बढ़ रहा है, लोकतन्त्र का सवाल इस दौर का प्रमुख प्रश्न बन कर उभरता जा रहा है।

दरअसल 3 कृषि कानून, कृषि क्षेत्र में नव-उदारवादी सुधारों के लंबे समय से लंबित कदम हैं जो सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में मोदी सरकार द्वारा किये जा रहे ' सुधारों' और बड़े नीतिगत बदलाव का के पैकेज का हिस्सा हैं। यह बात बजट में  निजीकरण की एकसूत्रीय मुहिम और प्रधानमंत्री द्वारा देश के इतिहास में पहली बार ' wealth creators ' बताते हुए कॉरपोरेट के पक्ष में खुल कर खड़े होने से बिल्कुल साफ हो गयी। उन्होंने उन्हें राष्ट्रीय विकास और रोजगार-सृजन की केंद्रीय धुरी घोषित किया। सरकार के तमाम मंत्री और कॉरपोरेट बुद्धिजीवी भी इस अभियान में युद्धस्तर पर उतर पड़े हैं।

इन बदलावों की नीतिगत दिशा अर्थव्यवस्था को एकदम नये आधार पर पुनर्गठित करने की ओर निर्देशित है, एक वाक्य में कहा जाय तो सरकार वह सब कुछ जो कॉरपोरेट मुनाफे के लिए मुफीद है, देशी-विदेशी कॉरपोरेट और वित्तीय पूँजी के धनकुबेरों, विशेषकर अपने चहेते घरानों के हाथ सौंप देने की ओर बढ़ रही है- जनता की गाढ़ी कमाई से 75 साल में बनी हर तरह की सरकारी/सार्वजनिक सम्पदा, राष्ट्रीय प्राकृतिक संसाधन, और अंततः कृषि क्षेत्र!

स्वाभाविक रूप से इस प्रोजेक्ट से प्रभावित हो रहे सभी तबकों से सरकार के अंतर्विरोध तीखे होते जा रहे हैं,  इस प्रोजेक्ट की राह में बाधक सभी ताक़तों से उसका टकराव बढ़ता जा रहा है और वह येनकेन प्रकारेण उन्हें दबाने पर आमादा है।

किसान-आंदोलन इस टकराव के अग्रिम मोर्चे पर है और इसकी मजबूत धुरी बनकर उभरा है। किसान आंदोलन जिस तरह unfold हो रहा है, लगता है वह हमारे महादेश में सारे आंदोलनों की जननी है (mother of all movements )।

किसान आंदोलन का समर्थन करते हुए और उससे प्रेरणा लेते हुए सामाजिक न्याय आंदोलन और अम्बेडकरवादी संगठनों के बुद्धजीवियों और कार्यकर्ताओं ने नौकरशाही के सर्वोच्च स्तरों पर जिस तरह गैर-आईएएस निजी क्षेत्र के कथित विशेषज्ञों को रखा जा रहा है, जाहिर है बिना आरक्षण के, उस Lateral entry के खिलाफ इसी सप्ताह जंतर-मंतर पर प्रदर्शन किया है और 7 मार्च को भारत-बंद का आह्वान किया गया है।

यह साफ है कि जिस तरह सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी सेवाओं का निजीकरण हो रहा है, उन्हें कॉरपोरेट को सौंपा जा रहा है, आरक्षण के अवसर तेजी से कम होते जाएंगे।

ठीक इसी तरह निजीकरण की भयानक मार मजदूर-कर्मचारी वर्ग पर पड़ रही है, छंटनी और श्रम- कानूनों का खात्मा इसी का हिस्सा है। इसके फलस्वरूप खत्म होती नौकरियां और कम होते रोजगार के अवसर पहले से ही बेरोजगारी का दंश झेलते छात्रों-युवाओं को और भी असुरक्षित बना रही हैं।

देश की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को कॉरपोरेट के हवाले करने की मोदी सरकार की सनक वह धुरी है, जो किसानों, मजदूरों-कर्मचारियों, छात्र-युवाओं, लोकतांत्रिक आंदोलन और सामाजिक न्याय के कार्यकर्ताओं को इसके खिलाफ एक प्लेटफार्म पर लामबंद करती जाएगी।

दरअसल, पहले सर्वोच्च न्यायालय द्वारा और फिर सरकार द्वारा डेढ़ साल hold पर रखने के प्रस्ताव के साथ कानून तो dead हो ही गए हैं, सरकार की मुख्य चिंता यह है कि कानूनों को खुले-आम वापस लेना पड़ा तो कॉरपोरेट के बीच मोदी जी की साख खत्म हो जाएगी और जनता के बीच उनका कभी न झुकने वाले नेता ( Iron Man ) का तिलिस्म टूट जाएगा। ये कानून क्योंकि बहुआयामी कॉरपोरेटपरस्त सुधारों और निजीकरण के एक पूरे पैकेज का अंग हैं, इसलिए  कॉरपोरेट की चिंता यह है कि इन कानूनों की वापसी से एक ऐसा chain reaction शुरू हो सकता है, जिससे सुधारों का यह पूरा पैकेज ही खतरे में पड़ सकता है। कृषि कानूनों के मुख्य सूत्रधार अशोक गुलाटी ने साफ शब्दों में यह चिंता व्यक्त की है कि " कृषि कानूनों की वापसी से सभी सुधारों को पलटने के लिए दबाव बन सकता है।"

किसान-आंदोलन आज राज, समाज और अर्थतंत्र के जनतांत्रीकरण के सभी आंदोलनों की प्रेरणा बनता जा रहा है। इसका end रिजल्ट जो भी हो, इसने देश में ऐसी ताकतवर प्रक्रियाओं को जन्म दे दिया है जिनका दूरगामी और गम्भीर असर इस देश की राजनीति और अर्थनीति दोनों पर पड़ना तय है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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