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नए ‘कम्पनी राज’ के ख़िलाफ़ दूसरी आज़ादी की लड़ाई भी दूर नहीं!

आपदा को अवसर में बदलने के अपने प्रिय नुस्खे पर अमल करते हुए मोदी जी जिस तरह कृषि क्षेत्र में इन विनाशकारी बदलावों की ओर बढ़े है, वह चौंकाने वाला है और इसके पीछे की मंशा को भी उजागर करता है।
नए ‘कम्पनी राज’ के ख़िलाफ़ दूसरी आज़ादी की लड़ाई भी दूर नहीं!
नए कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में प्रदर्शन करते किसान। फोटो साभार: Indian Express

80 दशक के राष्ट्रव्यापी जुझारू किसान आंदोलन के चौथाई सदी बाद देश में किसान आंदोलन की एक नई लहर उठ रही है। इसका epicenter भले आज पंजाब-हरियाणा है, लेकिन इसकी अनुगूंज पूरे देश में है। किसानों ने 25 सितम्बर को भारत बंद का ऐलान किया है और 24 से 26 सितम्बर तक रेल रोको का आह्वान किया है। 

करीब करीब समूचा विपक्ष आज किसान आंदोलन के पक्ष में खड़ा दिख रहा है, यहां तक कि भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगियों में से एक अकाली दल की इकलौती कैबिनेट मंत्री प्रकाश सिंह बादल की पुत्रवधू हरसिमरत कौर ने विरोध में इस्तीफा दे दिया है।

आपदा को अवसर में बदलने के अपने प्रिय नुस्खे पर अमल करते हुए मोदी जी जिस तरह कृषि क्षेत्र में इन विनाशकारी बदलावों की ओर बढ़े है, वह चौंकाने वाला है और इसके पीछे की मंशा को भी उजागर करता है।

कहां तो वायदा किसानों की आय दोगुना करने का था और कहां अचानक यह वज्रपात !

इन्हें लागू करने के लिए सरकार ने महा-आपदा के इस कोरोना काल को चुना, यह अपने आप में सरकार की संवेदनहीनता और शातिर मंशा को दिखाता है। जून में अध्यादेश लाये गये और अब पहला मौका मिलते ही, सदन में लोकतंत्र की हत्या करते हुए इसे सदस्यों की मांग के बावजूद बिना वोट करवाये, बिल पास घोषित कर दिया गया। सरकार का यह दावा अगर सच है कि उसके पास बहुमत था तो वह राज्यसभा में मत विभाजन से क्यों भाग खड़ी हुई ?

धूर्तता का आलम यह है कि मोदी जी इसे किसानों को "आज़ादी" दिलाने वाला कानून बता रहे हैं।

सचमुच अगर यह इतना ही किसान हितैषी प्रावधान है तो इसे इतने साजिशाना ढंग से क्यों लागू किया जा रहा है? क्या इस पर किसानों से, उनके संगठनों- प्रतिनिधियों से राय-बात की गई? कृषि तो राज्य का विषय है क्या इस पर राज्यों से राय ली गयी? संसद में सरकार के पक्ष में रहने वाले TRS, BJD, AIADMK जैसे दलों समेत प्रायः सम्पूर्ण विपक्ष ने बिल को Select Committee को भेजने की मांग की, ताकि और गहराई से विचार विमर्श हो सके, फिर उसे क्यों ठुकरा दिया गया?

मोदी जी ने यह सही कहा है कि APMC में बदलाव की बात कांग्रेस के घोषणापत्र में थी, भाजपा के नहीं ! 

पर आप तो अपने घोषणापत्र पर चुनाव जीत कर आये, फिर कांग्रेस के घोषणापत्र को लागू करने की इतनी बेचैनी और हड़बड़ी क्यों?

गाहे-बगाहे वे यह भी कहने से नहीं चूक रहे कि इससे किसानों की आय दोगुनी करने में मदद मिलेगी। यह बेहाल किसानों के जले पर नमक छिड़कने से कम नहीं है। विशेषज्ञ बार बार बता चुके हैं कि इसके लिए कृषि विकास दर मौजूदा 3% की तुलना में 5 गुना अधिक 15% होनी पड़ेगी! यह असम्भव है!

दरअसल टीम मोदी को उम्मीद थी कि कोरोना काल में जनता सड़कों पर नहीं उतरेगी और संसद निष्क्रिय रहेगी। इस दौरान वे सारे बदलाव जो लंबे समय से due थे, जिसके लिए वित्तीय पूंजी और कॉरपोरेट घरानों का अनवरत दबाव था और जिसके प्रति मोदी जी की शुरू से ही असन्दिग्ध प्रतिबद्धता रही है, उन्हें एक झटके में कोरोना आपदा खत्म होने के पहले ही, पास करवा लेने की यह कवायद है, उसके लिए चाहे  जनता का दमन करना पड़े या लोकतंत्र की हत्या!

इसी रणनीति के तहत दूरगामी महत्व के तमाम कदम चाहे वह अंधाधुंध निजीकरण के माध्यम से सारी राष्ट्रीय सम्पदा कॉरपोरेट को सौंपने का सवाल  हो, श्रम कानूनों का खात्मा हो, सरकारी विभागों में स्थायी पदों का बड़े पैमाने पर खात्मा हो या फिर कृषि का कॉरपोरेटीकरण हो, उस दिशा में तेजी से कदम उठाए जा रहे हैं।

उदारवादी चिंतक प्रताप भानु मेहता ने नोट किया है कि " जिस तरह Select Committee को भेजे बिना ताकि गहराई से विचारविमर्श हो सके, सदन में मतविभाजन तक को नकार कर हड़बड़ी में यह कानून बनाये जा रहे हैं-कृषि और श्रम-दोनों क्षेत्रों में , उसका common thread है किसानों और मजदूरों के ऊपर Corporate India के हितों को प्राथमिकता। ...Text से अधिक Context ने किसानों के अंदर यह जायज डर पैदा किया है कि ऐसे दौर में जब सरकार की वित्तीय हालत खस्ता है, कहीं ऐसा तो नहीं कि MSP को खत्म कर दिया जाएगा या सरकार द्वारा अनाज की खरीदी कम कर दी जायेगी, निजी कंपनियों द्वारा खरीद में उनका मोलभाव  करना कठिन हो जाएगा और उनके ऊपर कारपोरेट का एकाधिकार कायम हो जाएगा?"

मोदी जी बार बार यह सफाई दे रहे हैं कि MSP जारी रहेगी, सरकारी खरीद जारी रहेगी आदि। लेकिन यह मजेदार है कि नए कानून के लंबे चौड़े दस्तावेज में MSP का भूलकर भी कहीं जिक्र नहीं किया गया है। उसकी चर्चा से सचेत ढंग से बचा गया है। फिर महज भाषणों में MSP की जुगाली धोखाधड़ी नहीं तो क्या है? किसान इतनी ही तो मांग कर रहे हैं कि MSP को वैधानिक कर दीजिए, प्राइवेट खरीद भी होगी तो MSP पर होगी, उससे कम पर नहीं।

यह अनायास नहीं हूं कि किसानों को अब प्रधानमंत्री की बातों पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं रह गया है।  6 साल से लंबे लंबे वायदों और फिर उनसे 180 डिग्री पलटकर विश्वासघात का किसानों को लंबा अनुभव हो गया है। उन्हें याद है कि मोदी जी ने चीख चीख कर कहा था कि रेल का निजीकरण नहीं होने दूंगा, उससे मेरा निजी रिश्ता है। पर आज वह धड़ल्ले से हो रहा है। 2 करोड़ रोजगार हर साल देने का वायदा था और 2 करोड़ 10 लाख वेतनभोगी नौकरियाँ केवल 6 महीने में चली गईं। 15 लाख हर खाते में जमा करने की बात तो उनके प्रिय शाह जी ने खुद ही कह दिया था कि वह जुमला था !

यह बात धीरे धीरे किसानों की सामूहिक अनुभूति का हिस्सा बनती जा रही है कि मोदी सरकार उनकी जमीन जायदाद छीनकर अम्बानी-अडानी जैसे अपने दोस्त पूंजीपतियों के हवाले कर देना चाहती है। यह जो perception बनता जा रहा है, वह आग में घी का काम कर रहा है।

और यह तय है कि आने वाले दिनों में उन इलाकों के किसान और किसानों के वे तबके भी इसमें शामिल होते जाएंगे, जिनके हित आज तात्कालिक तौर पर प्रभावित होते नहीं दिख रहे हैं।

मोदी जी का दावा है कि उनके नए कानून भारतीय कृषि को 21वीं सदी में ले जाने वाले युगांतकारी बदलाव के वाहक हैं।

बहरहाल, सच्चाई यह है कि ये नए कानून भारतीय कृषि को साम्राज्यवादी देशों तथा कॉरपोरेट  पूंजी की जरूरत और मांग के अनुरूप ढालने के लिए लाए जा रहे हैं। वित्तीय पूंजी लंबे समय से भारत जैसे देशों के सम्पूर्ण कृषि  उत्पादन और विपणन के ढांचे पर  नियंत्रण कायम करने का प्रयास कर रही है।  

इसके लिए वे भारत में खाद्यान्न उत्पादन पर हर तरह की सब्सिडी,  सरकारी समर्थन मूल्य खत्म करने,  APMC के माध्यम से खरीद के ढांचे को समाप्त करने, तथा भारत में कृषि व्यापार के क्षेत्र में देशी-विदेशी निजी खिलाड़ियों को बड़े पैमाने पर प्रवेश देने, कांट्रेक्ट खेती के माध्यम से कृषि उत्पादन का प्रभावी नियंत्रण वित्तीय पूंजी और कॉरपोरेट के हवाले करने तथा विदेश से खाद्यान्न आयात करने के लिए भारत की सरकारो पर दबाव डालते रहे हैं। अपनी बात मनवाने के लिए  विश्व बैंक, IMF और WTO आदि का उन्होंने इस्तेमाल किया है। उनकी यह कोशिश लंबे समय से जारी थी, विशेषकर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के आने के बाद से।

आज, इन कानूनों को लाकर मोदी सरकार ने इन दबावों के आगे समर्पण कर दिया है। इसके फलस्वरूप हमारे कृषि के मालिकाने, उत्पादन, व्यापार के ढांचे में बुनियादी बदलाव होंगे, जिसके  दूरगामी परिणाम होंगे।

कृषि के बढ़ते कॉरपोरेटीकरण के फलस्वरूप जो करोड़ों किसान खेती से बेदखल होंगे, गांवों में बेरोजगारों की जो विराट फौज खड़ी होगी, उस surplus labour की खपत कहाँ होगी, उसे आखिर रोजगार कहाँ मिलेगा।

सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. प्रभात पटनायक ने यूरोप में औद्योगिक क्रांति और कृषि के वाणिज्यिक इस्तेमाल के दौर में खेती से बेदखल हुई आबादी के उस समय विकसित होते उद्योगों तथा तत्कालीन उपनिवेशों में खप जाने की स्थिति से तुलना करते हुए इस बात को रेखांकित किया है कि आज के भारत में ये विकल्प उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए यहाँ खेती के कॉरपोरेटीकरण के फलस्वरूप  86% छोटे-सीमांत किसानों की तबाही और खेती से उनकी बेदखली के परिणाम विध्वंसकारी होंगे।

यहाँ तो उल्टे हालत यह है कि औद्योगिक विकास अवरुद्ध होने के कारण कोरोना काल के पहले से ही मजदूरों का शहर से गांव की ओर reverse migration हो रहा था।

कल्पना करिये  कोरोना काल मे करोड़ों प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक घर वापसी के लिए उनके गांव और थोड़ी बहुत ही सही खेती अगर उपलब्ध न होती, तो आज क्या मंजर होता !

ऐसा लग रहा है कि इतिहास का एक चक्र पूरा हो रहा है, एक सदी बाद दुनिया में जानलेवा महामारी की ही वापसी नहीं हुई है, वरन तब के चंपारण में किसानों की जमीन पर निलहे अंग्रेजों की तरह आज देश की जमीन पर नए कम्पनी-कॉरपोरेट राज की वापसी हो रही है, उससे हजार गुना खौफनाक शक्ल में !

पर तब गांधी के चंपारण आंदोलन और आज़ादी के आंदोलन के एक नए संस्करण की वापसी भी अधिक दूर नहीं होगी!

हम उम्मीद करें, किसान आज़ादी की लड़ाई और उसके बाद के दौर के अपने अतीत के, विशेषकर 80 दशक में चले जुझारू आंदोलनों की समृद्ध विरासत से सीख लेते हुए अपने आंदोलन को और ऊंचाई पर ले जाएंगे और कारपोरेट राजनीति के बरख़िलाफ़ अपने आंदोलन की नई वैकल्पिक राजनीति भी खड़ी करेंगे।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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