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कोरोना लॉकडाउन से उबरने के लिए सरकार ने मदद नहीं की बल्कि लोन मेला लगाया

आत्मनिर्भर भारत की शुरुआत नए इकोनोमिक्स के साथ की जा रही है। एकाउंटिंग की बाजगीरी की जा रही है। आंकड़ों की कलाबाज़ी की जा रही है। मुट्ठी भर दिया जा रहा है और समुद्र भर बताया जा रहा है।
आत्मनिर्भर भारत
Image courtesy: NewsWing

कोरोना समय में लगातार लॉकडाउन से पैदा हुए संकटों का सामना करने के नाम पर एक बार फिर प्रधानमंत्री का भाषण हुआ। भाषण में कुछ नहीं था। बस एक बात थी कि सरकार 20 लाख करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज देगी। अगले दिन सभी अख़बारों की हेडलाइन 20 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज पर केंद्रित थी। इससे एक इशारा साफ़ तौर पर निकलता है कि प्रधानमंत्री के भाषण का मकसद केवल इतना था कि 20 लाख करोड़ रुपये की सरकारी मदद का ऐलान वे अपने मुंह से करें। ताकि इस बहाने आत्म प्रचार और चुनावी प्रचार जारी रहे। आगे जब चुनावी मैदान में भाजपा कूदे तो प्रधानमंत्री जमकर कह सकें कि 130 करोड़ देशवासियों को कोरोना से उबारने के लिए उन्होंने 20 लाख करोड़ रुपये खर्च किए। अब एक-एक करके इसका ब्योरा वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण दे रही हैं और इसी के साथ इसकी हक़ीक़त भी खुलती जा रही है। शुरुआती दो दिन की घोषणाओं ने ही बता दिया है कि दरअसल इस 20 लाख करोड़ रुपये की सच्चाई क्या है?

वाकई 20 लाख करोड़ रुपये बहुत अधिक होते हैं। एक आम इंसान जो साल भर में लाख रुपये की बचत नहीं कर पाता। वह इतनी बड़ी राशि सुनकर अंदाज़ा ही नहीं लगा पाता कि आखिकरकार यह होता कितना है। इसलिए 20 लाख करोड़ रुपये को थोड़ा सरल अंदाज़ में समझते हैं ताकि बात समझी और समझायी जा सके। यह इतनी बड़ी राशि है कि अगर 130 करोड़ लोगों में बांटी जाए तो सबके जेब में तकरीबन 15 हजार रुपये आ जायेंगे। अगर सुपर अमीरों को छोड़कर बांटा जाए तो सबकी जेब में 20 हजार रुपये आ सकते हैं। यानी 5 लोगों के परिवार को तकरीबन 1 लाख रुपये मिल सकता है। अब आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि 20 लाख करोड़ रुपये का मतलब क्या है ?

होना तो यह चाहिए था कि 20 लाख करोड़ रुपये का बंटवारा कैसे होगा? सरकार इसके बारे में एक ही बार में बता दे लेकिन यह नहीं हुआ।  पहले प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा कि इस 20 लाख करोड़ रुपये में रिज़र्व बैंक द्वारा दी गयी मदद और कोरोना के लिए घोषित किया गया पहला आर्थिक पैकेज भी शामिल है। इस वाक्य को थोड़ा सरल तरीके से समझा जाए तो बात यह है कि इससे पहले करीबन 9.74 लाख करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज जो पहले ही जारी किया गया है, वह भी इस 20 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज में शामिल है। इस 9.74  लाख करोड़ रुपये में पहले आर्थिक पैकज में ऐलान की गयी 1 लाख 70 हजार करोड़ रुपये की राशि शामिल है, साथ में आरबीआई द्वारा बैंकों को दिया गया तकरीबन 6 लाख करोड़ शामिल है। आरबीआई ने बैंकों की मदद इसलिए कि ताकि वह कॉरपोरेट बांड में पैसे को निवेश करे।  साथ में कुछ और पैसे भी पहले ही लोन देने के तौर पर सरकार द्वारा दिए जा चुके हैं। इसे भी 20 लाख करोड़ में ही शामिल किया गया। प्रधानमंत्री ने 20 लाख करोड़ रुपये की आर्थिक पैकेज का ऐलान नहीं किया। 

प्रधानमंत्री के भाषण के एक दिन बाद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की। इसमें उन्होंने तकरीबन 5 .94 लाख करोड़ रुपये पैकेज का ऐलान कर दिया। जानकारों का कहना है कि यह पैकेज एक तरह से मॉनीटरी स्टिमुलस की तरह है। सरल भाषा में समझा जाए तो एक तरह से यह कर्ज के तौर पर होगा, जो इस बात पर निर्भर करता है कि बिजेनस चलाने वाले लोग इसे लेना चाहते है या नहीं। क्या उनका कारोबार इजाजत देता है कि वह बैंक से जाकर लोन ले? या क्या बैंक को लगता है कि किसी अमुक कारोबार में पैसा लगाना चाहिए या नहीं।

वित्त मंत्री के ऐलान में सबसे बड़ा पैकेज एमएसएमई के लिए 3 लाख 70 हजार करोड़ रुपये का बैंकों के जरिये लोन देने से जुड़ा है। इसमें से 3 लाख करोड़ कोलैटेरल फ्री लोन की तरह होगा। यानी इससे दिए जाने वाले लोन के लिए बैंक कारोबारी से किसी तरह की गिरवी रखने को नहीं कहेंगे। इसके बाद बचा हुआ 70 हजार करोड़ रुपये भी विशेष फंड के तौर पर माइक्रो स्माल एंड मीडियम इंटरप्राइज के लिए ही ऐलान किया गया।

इस पर जानकारों का कहना है कि इसमें से एक भी रुपया सरकार की जेब से खर्च नहीं हो रहा है। बैंकों से कहा गया है कि वह लोन दें।  और बैंक के जानकारों का कहना है कि सरकार ने उन्हें अजीब स्थिति में डाल दिया है। बिना कोलेट्रल के किसी को लोन कैसे दिया जा सकता है, वह भी तब जब अभी तक छोटे उद्योगों के काम-काज से ऐसा दिखता हो कि वहां पैसा डूबने की संभावना अधिक रहती है। इसके बाद अगर बैंक डूबेंगे तो क्या सरकार इसकी जिम्मेदारी लेगी। क्या सरकार हमसे बैंक डुबाने का काम करना चाहती है। 

वित्त मंत्री के ऐलान का दूसरा बड़ा मद, पावर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों से जुड़ा है। सरकारी कंपनी पीएफसी और आरईसी के जरिए DISCOM को 90 हजार करोड़ का लोन देने की स्कीम का ऐलान किया गया है। अब यहां समझने वाली बात यह है कि पीएफसी और आरईसी बाजार से पैसा लेती है और पावर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों को देती हैं। सरकार इस पैसे पर गांरंटी देती है तो यानी यहाँ भी सरकार की तरफ से जीरो रुपये खर्च किया गया। और यह भी बात समझ से परे है कि पावर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियां कोरोना राहत पैकेज में कैसे शामिल हो गयी। इनका क्या लेना देना? ये तो सरकार के आम दिनों के कामकाज का हिस्सा और परिणाम हैं। 

तीसरा बड़ा मद, नॉन बैंकिंग फाइनेंसियल कारपोरेशन से जुड़ा है। NBFC और एमएफआई के लिए सरकार ने 30,000 करोड़ की 'विशेष लिक्विडिटी स्कीम जारी की है। इसका पूरी गारंटी भारत सरकार ने ली है। साथ में  एनबीएफसी के लिए 45,000 करोड़ रुपये की आंशिक क्रेडिट गारंटी स्कीम भी जारी की है। इसकी केवल 20 फीसदी गारंटी भारत सरकार ने ली है। इसपर जानकारों का कहना है कि पहले से एनबीएफसी में पैसा डूबता चला आ रहा है। कोई भी इन्हें पैसा देने के लिए तैयार है। अब सरकार ने सोचा है कि वह अपने बलबूते पैसा दिलवाएगी। लेकिन अंत में पैसा तो एनबीएफसी को ही लेना है। ऐसे आर्थिक संकट में क्या कोई एनबीएफसी को पैसा देगा। अगर इसे भी समझा जाए तो यहां भी सरकार की तरफ से एक भी राशि खर्च नहीं हो रही है।

जानकारों का कहना है कि वित्त मंत्री के ऐलान में  बहुत साफ़ तौर पर दिख रहा है कि ऐलान किये गए 5 लाख 94 करोड़ के पैकेज में तकरीबन बहुत बड़ा पैकेज सरकार नहीं बल्कि बाजार में बैंको और अन्य वित्तीय संस्थाओं द्वारा कर्जा दिये जाने से जुड़ा है। इंडियन एक्सप्रेस ने आकलन किया है कि सरकार की जेब से केवल 25500 करोड़ रुपये खर्च किया जा रहा है। आत्मनिर्भर भारत की शुरुआत नए इकोनोमिक्स के साथ की जा रही है। एकाउंटिंग की बाजगीरी की जा रही है। आंकड़ों की कलाबाज़ी की जा रही है। मुट्ठी भर दिया जा रहा है और समुद्र भर बताया जा रहा है।

वित्त मंत्री के पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस से यह बात साफ हो गई कि सरकार राहत देने की बजाय लोन मेला लगाकर अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है। अगर मोटे शब्दों में कहें तो सरकार के कहने का मतलब यह है कि सबसे और गरीब वंचित लोगों के नुकसान से उसका कोई लेना-देना नहीं। जिनकी कमाई करोड़ों में होती है वह कर्ज लेकर खुद को बचा सकते हैं तो बचा ले। जबकि करोड़ों में कमाई करने वालों की असलियत यह है कि उनेक पास पहले से इतना नकद रिज़र्व होता है कि आसानी से लम्बे समय का नुकसान झेल सकते हैं। 

पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद अब 14 मई को की गई दूसरी प्रेस कॉन्फ्रेंस पर आते हैं। 8 करोड़ प्रवासी मजदूरों को अगले दो महीने तक 5 किलो गेहूं या चावल और 1 किलो चना प्रति व्यक्ति मुफ्त राशन देने का वायदा किया गया। जो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के दायरे में नहीं हैं या जिनके पास राज्यों की तरफ से मिले गरीबी कार्ड नहीं हैं, वे भी मुफ्त अनाज ले सकेंगे। इसके लिए केंद्र सरकार 3500 करोड़ रुपये खर्च करेगी। राज्य सरकारों को इस पर सिर्फ अमल करना होगा। कल से अगले दो महीने तक राशन मुफ्त दिया जाएगा। जानकारों ने कहा कि इसकी बहुत जरूरत थी कि जिनके पास  राशन कार्ड नहीं थे उन्हें भी राशन मिले। यह सही कदम है । पर पता नहीं क्यों सरकार ने यह फैसला लेने में इतनी देरी क्यों की? यह फैसला पहले ही हो जाना चाहिए था। इसके आलावा अगले तीन महीने में एक देश, एक राशन कार्ड की व्यवस्था पर भी जानकारों ने कहा कि यह सही कदम है। 

इन दो फैसलों के अलावा राहत पैकेज के नाम पर फिर से लोन मेला शुरू हो गया। स्ट्रीट वेंडर्स को 10 हजार रुपये तक का स्पेशल क्रेडिट मुहैया कराया जाएगा। इसके लिए 5 हजार करोड़ रुपये का लोन का प्रावाधान किया गया। किसानों को कम ब्याज दरों पर कर्ज की सुविधा के लिए 2 लाख करोड़ का ऐलान किया गया। छोटे किसानों के लिए इंटरेस्ट सब्वेंशन स्कीम और वक्त पर कर्ज चुकाने पर इंसेटिव देने की स्कीम बढ़ा दी है। जो किसान 3 लाख रुपये तक का शॉर्ट टर्म लोन लेते हैं, उनका 2% ब्याज एक साल के लिए सरकार चुकाती है। इसी तरह अगर वे कर्ज समय पर चुकाते हैं तो उन्हें ब्याज में 3% की छूट दी जाती है। यह एक तरह की इंटरेस्ट सब्सिडी होती है। यह स्कीम 31 मई तक बढ़ा दी गई है।

कहने का मतलब यह है कि दूसरे प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी राहत के नाम पर केवल लोन का खेल खेला गया। स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव में अपने ट्वीटर पर लिखा, “एक बार फिर पैकेज आया, एक बार फिर सिर्फ और सिर्फ कर्ज का वादा, एक बार फिर किसान खाली हाथ। न तो लॉकडाउन में हुए फल, सब्जी, दूध के नुकसान की भरपाई, न फसल के गिरे दाम दिलवाने की योजना, न बीज खाद के लिए कोई सब्सिडी, न डीजल के दाम से राहत, अन्नदाता के साथ बार-बार यह धोखा क्यों?”

आर्थिक मामलों के जानकार वरिष्ठ पत्रकार ऑनिन्द्यो चक्रवर्ती से इस पर बात हुई। उनका कहना है,  “इन पैकेजों को थोड़ा दूसरी नजर से भी देखने की जरूरत है। इसे राजनीतिक तरीके से देखिए तो आपको दिखेगा कि पहली बार भारत के सबसे दबे कुचले लोगों के खाते में 1500 रुपये पहुंच रहा है। उसे सरकार की तरफ से इस तंगहाली में मुफ्त में राशन मिल रहा है। और भी इधर उधर की छिटपुट मदों को जोड़ ले तो सबसे गरीब आदमी को जिसके लिए सरकार का मतलब कुछ भी नहीं है और जिसका सरकारी हिसाब किताब से कोई लेना देना नहीं हैं, उसके खाते में 3 से 4 हजार पहुंच रहा है। यह वह लोग हैं जिनकी शहरों में मासिक कमाई तकरीबन आठ हजार और गांवों में मासिक कमाई तकरीबन चार हजार की होती है। जिन्हें गरीबी रेखा से नीचे के लोग कहा जाता है। जिनसे जुड़ी जातियों की कोई गोलबंदी नहीं है। इनके खाते में सीधे पैसे पहुंच जाने का मतलब इनके लिए यह है कि सरकार ने इनके लिए कुछ किया है।”

भारत की कुल जीडीपी तकरीबन 200 लाख करोड़ है। अर्थव्यस्व्था के जानकरों का कहना है कि जीडीपी वृद्धि दर जीरो फीसदी रहने वाली है। ऐसे में यह कैसे हो सकता है कि लोन के सहारे अपना काम करने के लिए लोग सामने आयें, जब उन्हें पता हो कि जो पैसा वह लगाने जा रहे हैं, वह डूब सकता है? ऐसे में किस चीज़ की जरूरत थी?  ऐसे में जरूरत गरीबों के हाथ में ज़्यादा पैसा देने की थी लेकिन सरकार ने क्या ऐसा किया है? अगर ईमानदारी से सोचे तो बिल्कुल नहीं, बल्कि सिर्फ लोन बांटने का कायदा बनाया है। 

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