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किसान आंदोलन लोकतंत्र के लिए प्रतिरोध का निर्णायक मोर्चा है

यह ऐतिहासिक किसान आंदोलन हमारे राष्ट्र और लोकतंत्र के भविष्य के लिए शुभ है। यह निराशा और अंधकार के माहौल में उम्मीद की किरण बन कर आया है।
किसान आंदोलन
प्रतीकात्मक तस्वीर : किसान एकता मोर्चा के फेसबुक पेज से साभार

किसान आंदोलन इस देश में लोकतंत्र के लिए प्रतिरोध का निर्णायक मोर्चा है।  पिछले साढ़े 6 वर्षों से मोदी-शाह जोड़ी जिस तरह से देश मे लोकतंत्र को  रौंद रही है और मुख्यधारा विपक्ष के बड़े हिस्से ने जिस कदर उसके आगे वैचारिक और राजनीतिक समर्पण कर दिया है, उससे देश में एक full-fledged बहुसंख्यकवादी अधिनायकवादी/फासीवादी शासन का दुःस्वप्न हकीकत मे तब्दील होता नजर आ रहा था। उस निराशा और अंधकार के माहौल में यह आंदोलन उम्मीद की किरण बन कर आया है।

विडंबना देखिए कि इसी महीने 10 दिसम्बर को नए संसद-परिसर के भूमिपूजन का कर्मकांड मोदी जी ने आडम्बरपूर्वक किया, जिसे गोदी मीडिया ने मेगा इवेंट बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, पर हमारे लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार संसद का शीत-सत्र, जो आमतौर पर नवम्बर के तीसरे सप्ताह में होता है, वह इस बार स्थगित कर दिया गया। 

सुप्रीम कोर्ट के स्वतः संज्ञान लेकर इसे नैतिक रूप से disapprove करती टिप्पणी के बावजूद, इस पर दायर वाद की परवाह न करते हुए, प्रधानमंत्री ने घनघोर आर्थिक संकट के इस दौर में 20 हजार करोड़ के बजट से प्रस्तावित सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट पर बढ़ने का फैसला किया। और यह एक ऐसे समय हुआ, जब देश के लाखों किसान अन्नदाता अपने जीवन ज़ौर लोकतंत्र की रक्षा के लिए इस कड़कड़ाती ठंड में शहादत देते दिल्ली के बॉर्डर पर बैठे हुए हैं।

मजेदार यह है कि जिस कोरोना महामारी के नाम पर अब संसद-सत्र रद्द किया गया, वह सितम्बर में, तब बाकायदा  आयोजित किया गया जब महामारी अपने peak पर थी ! हालाँकि उसमें से भी प्रश्नकाल गायब था, ताकि सरकार को घेरते असुविधाजनक सवाल न पूछे जा सकें।

यह crystal clear है कि इसके पीछे केवल और केवल एक वजह है, उस समय हर हाल में कृषि कानून पारित कराना था, लेकिन अब उसके खिलाफ उठ खड़े हुए अभूतपूर्व किसान आंदोलन पर चर्चा से हर हाल में बचना है। 

इसे उसी समय पास कराना जरूरी था, क्योंकि महामारी के नाम पर तब भयग्रस्त समाज में लोगों को इसके विरोध में सड़क पर उतरने से रोकने की अधिक अनुकूल परिस्थिति मौजूद थी। यद्यपि जानलेवा महामारी की दृष्टि से तब संसद-सत्र आयोजित करना आज की तुलना में अधिक खतरनाक था।  पर इस सरकार के लिए राजनैतिक लाभ मानव जीवन से अधिक महत्वपूर्ण है !

संसद सत्र तो महामारी के नाम पर स्थगित हो गया, पर बिहार विधानसभा व मध्यप्रदेश उपचुनाव समेत तमाम चुनाव राजनैतिक फायदे और जरूरत की जोड़-गणित के आधार पर करवाये गए और आजकल बंगाल में रैलियां धड़ल्ले से जारी हैं, जिनमे स्वयं अमित शाह समेत भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भाग ले रहा है।

क्या सरकार के लिए संसदीय क्रियाकलाप महज कर्मकांड बनकर रह गये हैं, जिनका महज अपने जनविरोधी कारनामों को वैधता देने के लिए इस्तेमाल किया जाना है?

लोकतंत्र का लोक तो पहले ही खत्म हो गया था, क्या उसका जो तंत्र बच रहा था, उसके भी खात्मे की तैयारी है?

क्या लोकतंत्र की बस औपचारिकता बची है, उसकी  आत्मा का कत्ल हो चुका है ?

आज ये बेचैन करने वाले सवाल हमारे गणतंत्र के सामने मुंह बाए खड़े हैं। इसी बीच नीति आयोग के उपाध्यक्ष अमिताभ कांत की वह कुख्यात टिप्पणी आयी जिसमे उन्होंने कृषि सुधारों के खिलाफ उठ खड़े हुए अभूतपूर्व किसान आंदोलन के प्रति अपनी खीझ व्यक्त करते हुए भारत में जरूरत से अधिक लोकतंत्र ( too much democracy ) का रोना रोया। इस संदर्भ में उन्होंने चीन से तुलना करते हुए कहा कि इसी वजह से चीन जैसे सुधार यहां करना मुश्किल हो रहा है। गौरतलब है कि अमिताभ कांत नौकरशाहों की भीड़ में बस एक और नाम नहीं,  वरन मोदी जी के सबसे चहेते नौकरशाहों में हैं और कोविड से लेकर कृषि कानून तक सभी महत्वपूर्ण मामलों में नीति आयोग उनके नेतृत्व में नोडल पॉइंट बना हुआ है। 

हाल ही में, कृषि कानूनों के कट्टर समर्थक चर्चित स्तम्भकार स्वामीनाथन अय्यर ने कहा कि चीन में इस तरह के आंदोलन को मसल दिया गया होता। 

मजेदार यह है कि कल तक यही स्वनामधन्य बुद्धिजीवी लोकतंत्र को,  चीन से भिन्न, भारत का USP बताते थे और उम्मीद लगाए थे कि विदेशी निवेशक चीन छोड़कर भारत आएंगे क्योंकि यहाँ लोकतंत्र है।

जरूरत से अधिक लोकतंत्र ( Too much democracy ) की सच्चाई यह है कि किसानों के जीवन के लिए और पूरे देश के लिए इतने दूरगामी महत्व के कानून बिना किसी  stake-holder से राय मशविरा किये पास कर दिए गए। न किसान संगठनों से, न राजनीतिक दलों से, न ही राज्य-सरकारों से ( संविधान के अनुसार कृषि जिनका विषय है )  विचार-विमर्श किया गया,  अध्यादेश के चोर दरवाजे से लाकर बाद में राज्यसभा में लोकतांत्रिक मर्यादा की धज्जियां उड़ाते हुए पारित घोषित करवा दिया गया।

हालत यह है कि विभिन्न चुनावों में जनता का लोकप्रिय समर्थन व मत न मिल पाने के बावजूद भाजपा सारी लोकतांत्रिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर प्रलोभन और भयादोहन के बल पर दल बदल कराते, राज्यपालों को खुले-आम अपने एजेंट के बतौर इस्तेमाल कर विपक्ष की चुनी सरकारें गिराते, चुनाव हारने के बावजूद जोड़-तोड़ से अपनी सरकार बनाती जा रही है। ("लगातार 11 राज्यों- कर्नाटक, राजस्थान, MP, छत्तीसगढ़, ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, दिल्ली-में खराब परफॉरमेंस के बाद भाजपा ने 12 वें राज्य बिहार में बमुश्किल जीत हासिल की है।" ( स्वामीनाथन अय्यर, TOI, 20 दिसम्बर), वह भी counting में भारी धांधली के आरोपों के बीच।

फर्जी-गढ़ी हुई conspiracy theories के आधार पर तमाम जनपक्षधर बुद्धिजीवियों, छात्रों, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर दमन चक्र चलाते, मनमाने ढंग से निरंकुश काले कानून बनाते, खुलेआम राज्य को साम्प्रदायिक भूमिका में वे खड़ा करते गए हैं। यह घोर लोकतंत्र विरोधी आचरण अब  मोदी जी के New India में भारतीय राजनीति का new normal हो गया है। मुख्यधारा मीडिया इस पर कोई सवाल उठाने की बजाय इस नैरेटिव का भोंपू बन गया है।

हद तो तब हो गयी, जब इन कानूनों के विरोध के लिए, जिसे अब सुप्रीम कोर्ट कह रहा है कि यह किसानों का संवैधानिक अधिकार है,पंजाब से दिल्ली आ रहे किसानों के साथ दुश्मन सेना जैसा बर्ताव किया गया, उन्हें रोकने के लिए सड़कें खोदकर खाई बना दी गयी, कँटीले तारों की बाड़ लगा दी गयी, लाठीचार्ज, आंसूगैस और वाटर कैनन से हमला किया गया। सरकारी क्रूरता और संवेदनहीनता का आलम यह है कि दिल्ली बॉर्डर पर 21 दिन में 33 किसानों की मौत हो चुकी है।

दरअसल, जरूरत से ज्यादा लोकतंत्र ( Too much democracy ) से शिकायत और सीमित तानाशाही की वकालत भारत के कॉरपोरेट की आवाज है, जिसके पीछे उसने अपने paid बुद्धिजीवियों के अतिरिक्त  आत्मकेंद्रित औपनिवेशिक, सामन्ती-अधिनायकवादी मानसिकता वाले " ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास" को भी मजबूती से लामबंद किया है, जो नव-उदारवादी नीतियों का सबसे बड़ा beneficiary है। इन्हें मेहनतकश जनता के लोकतंत्र से, democratic mass action से नफरत है, उसकी दावेदारी से डर है। पर अफसोस नफ़रती, हत्यारी lynch-mobs उनकी आत्मा को नहीं झकझोरतीं, उनसे उन्हें कोई परहेज नहीं!

यह अनायास नहीं है कि लोकतंत्र-विरोधी फासीवादी विचार जिस संघ-भाजपा के हिंदुत्व के DNA में है, वह आज इनकी सबसे चहेती पार्टी है और इन विचारों और सत्ता के चरम केंद्रीकरण के मूर्त रूप नरेंद्र मोदी इनके सबसे चहेते नेता हैं, जिन्हें गोदी मीडिया के महिमामंडन द्वारा भक्तों का भगवान और एक तरह से राष्ट्र का प्रतीक ही बना दिया गया है।

इनके लिए अम्बानी-अडानी राष्ट्र हैं! उनके चौकीदार ही देशभक्त हैं। उनका विरोध करने वाले देशद्रोही, वे चाहे दिल्ली बॉर्डर पर शहादत देते किसान हों या अपने श्रम से देश को समृद्ध बनाते मेहनतकश और लोकतांत्रिक बुद्धिजीवी या JNU-जामिया के छात्र!

प्रो. प्रभात पटनायक ने बिल्कुल सही नोट किया है कि किसान आंदोलन ने इनके पूरे नैरेटिव को एक comprehensive चुनौती दी है। उसने एलान कर दिया है कि अम्बानी-अडानी राष्ट्र नहीं हैं, बल्कि राष्ट्र इस देश के किसान-मजदूर हैं, इस देश की जनता है। किसी अमूर्त राष्ट्रवाद की बजाय, जनता के जीवन के ठोस सवालों, उनकी उम्मीदों-आकांक्षाओं की पूर्ति को उन्होंने राष्ट्रवाद की कसौटी बना दिया है। जनता के जीवन को लोकतंत्र की बुनियाद बनाते हुए, उन्होंने विरोध के संवैधानिक लोकतांत्रिक अधिकार को non-negotiable बना दिया, जिसे किसी भी नाम पर कोई अहंकारी शासन छीन नहीं सकता, अमित शाह की धमकियों की परवाह न करते उन्होंने बॉर्डर से टस से मस होने से इनकार कर दिया।

इस तरह किसान आंदोलन ने पूरा एजेंडा बदल दिया है, कॉरपोरेट राज और बहुसंख्यकवादी लोकतंत्र-विरोधी सत्ता के dominant विमर्श की बुनियाद पर उन्होंने प्रहार किया है। इसीलिए मोदी-शाह सरकार, संघ गिरोह, गोदी मीडिया, IT सेल, ट्रोल आर्मी के तरकश के सारे तीर खाली हो गए-पंजाबी, खालिस्तानी, देशद्रोही, आतंकवादी, टुकड़े-टुकड़े गैंग, मंदिर विरोधी- धारा 370 समर्थक, चीन-पाकिस्तान, अतिवादी वामपंथी-नक्सली-माओवादी; पर किसान आंदोलन की वैधता और लोकप्रियता पर आंच आना तो छोड़ दीजिए, उसका आधार, उसके प्रति समर्थन लगातार बढ़ता जा रहा है और लड़ने का उनका संकल्प और दृढ़ होता जा रहा है। यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़ा कि यह अब राष्ट्रीय आंदोलन बनता जा रहा है।

इस अर्थ में इस आंदोलन ने विनाशकारी-निरंकुश मोदी राज के खिलाफ 6 वर्ष से लगातार जारी छात्रों-युवाओं, बुद्धिजीवियों-साहित्यकारों, मेहनतकशों की लड़ाइयों और अंततः CAA-NRC विरोधी जुझारू शाहीन बागों के प्रतिरोध-संघर्ष को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया है, उसमें नया आयाम जोड़ा है।

90 दशक के शुरुआती दिनों में जब इन कॉरपोरेटपरस्त, लोकतंत्र-विरोधी नीतियों का हमारे देश में आगाज़ हो रहा था, तब इसकी भावी सम्भावनाओं का पूर्वानुमान करते हुए अक्टूबर, 1993 में दिल्ली में डंकल ड्राफ्ट के खिलाफ एक कन्वेंशन को संबोधित करते हुए देश के प्रमुख कम्युनिस्ट सिद्धांतकार दिवंगत विनोद मिश्र ने कहा था, " भारत जैसे देशों के लिए जो डेवलपमेंट स्ट्रेटेजी है, उसमें बहुराष्ट्रीय कारपोरेशन ऊपर से आर्थिक  प्रक्रिया को गाइड करेंगे, और नीचे स्वयंसेवी संगठन  वेलफेयर का काम हथियाते हुए जनता को वांछित आधुनिकीकरण के लिए तैयार करेंगे। सरकार की भूमिका एक बिचौलिए की हो जाएगी और सरकारी राजनेता (और पार्टियां ) कमीशनखोर एजेंटों में तब्दील हो जाएंगे। यह नव-औपनिवेशीकरण की योजना है, जिसे हम लैटिन अमेरिका में देख चुके हैं।....पर भारत को banana republic बनाने की कोशिश हुई, तो लड़ाकू Popular Fronts और गुरिल्ला सेनायें भी अधिक दूर नहीं होंगी।"

दिल्ली बॉर्डर पर आज जो हो रहा है, वह इसी की झांकी है!

यह ऐतिहासिक किसान आंदोलन हमारे राष्ट्र और लोकतंत्र के भविष्य के लिए शुभ है। कृषि पर वित्तीय पूँजी के धनकुबेरों और कारपोरेट के कब्जे को रोककर यह हमारी जनता को तो बेकारी और भुखमरी की तबाही से बचाएगा ही, कारपोरेट-राज और बहुसंख्यकवादी शासन की जड़ों पर प्रहार कर, उसके समूचे विमर्श को ध्वस्त कर यह हमारे लोकतंत्र को भी अधिनायकवाद/ फासीवाद की अंधी सुरंग में जाने से बचाएगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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