विधान-सभा चुनाव जैसे जैसे नजदीक आ रहा है, किसान आन्दोलन को लेकर हलचल बढ़ती जा रही है।
ऐतिहासिक महत्व के इस आंदोलन में, जिसमें बड़े हितों का बुनियादी टकराव involve है और जो देश की राजनैतिक अर्थव्यवस्था पर दूरगामी असर डालने वाला है, स्वाभाविक रूप से भारतीय लोकतंत्र के सभी स्तम्भ अपने अपने ढंग से सक्रिय हैं।
सर्वोच्च न्यायालय में 3 कृषि कानूनों की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर 11 महीने बीत जाने पर भी अभी तक सुनवाई शुरू नहीं हो सकी है, न ही किसानों के संवैधानिक Right to protest को SC द्वारा बार-बार reiterate किये जाने के बावजूद, किसानों को दिल्ली में प्रवेश करने और आंदोलन की अनुमति देने के लिए सरकार को निर्दिष्ट किया गया है।
बहरहाल, 21 अक्टूबर को सर्वोच्च न्यायालय ने किसानों को रास्ते खाली करने के लिए कहा, जिसके जवाब में किसानों के वकील दुष्यंत दवे और प्रशांत भूषण ने न्यायालय को सूचित किया कि दिल्ली के रास्ते किसानों ने नहीं भारत सरकार ने बंद किया है। उन्होंने मांग की कि किसानों को रामलीला मैदान में, जो परम्परागत रूप से ऐसे प्रोटेस्ट्स का साइट रहा है, वहां जाने की इजाज़त दी जाय। मामले की अगली सुनवाई 7 दिसम्बर को है। किसानों ने बिना अपनी मांगे पूरी हुए दिल्ली से वापस जाने की किसी भी सम्भावना को सिरे से खारिज करते हुए हर हाल में अपने आंदोलन को जारी रखने के संकल्प को दुहराया है।
स्वाभाविक रूप से संघ-भाजपा की बेचैनी बढ़ती जा रही है। किसान आंदोलन के राजनैतिक प्रभाव और चुनावी असर को लेकर भाजपा के अंदर कैसी घबराहट है, इसे जमीनी सच्चाई समझ रहे भाजपा के जाट नेता और मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक के बयान से जाना जा सकता है, " अगर किसानों की मांग नहीं मानी गयी तो यह सरकार दोबारा नहीं आएगी। BJP नेता पश्चिम UP के कई गाँवों में घुस तक नहीं पा रहे..."
इससे उबरने का एक रास्ता वह हो सकता है जो सत्यपाल मलिक, वरुण गांधी या भाजपा के नए दोस्त बने कैप्टन अमरिंदर सिंह सुझा रहे हैं कि सरकार किसानों की मांग स्वीकार करे, हो सकता है इस line पर पर्दे के पीछे कुछ कोशिशें चल भी रही हों, पर यह पब्लिक domain में नहीं हैं और इनका अंजाम अज्ञात है। सम्भव है इस तरह की कोशिशें भी आंदोलन में फूट डालने और नेताओं को बदनाम करने की कवायद का हिस्सा हों, जैसा राकेश टिकैत ने दावा किया।
फिलहाल तो संकेत यह है कि सरकार एक बार फिर नाज़ी साजिशों और प्रोपेगंडा की किताब से clue लेकर आंदोलन की चौतरफा घेरेबंदी में लग गयी है।
अबकी बार यह कोशिश पहले की तुलना में अधिक गहरी, खतरनाक और desperate है क्योंकि अब जो दांव पर है वह via UP सीधे दिल्ली की कुर्सी है।
सिंघु हत्याकांड के बाद जितनी तत्परता से सरकार, भाजपा IT सेल, गोदी मीडिया ने किसान आंदोलन की घेरेबंदी शुरू की, वह चकित करने वाली थी। भाजपा IT सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने तो इस हत्या के लिए परोक्ष रूप से राकेश टिकैत और योगेंद्र यादव को ही जिम्मेदार ठहरा दिया। उन्होंने ट्वीट किया, " बलात्कार, हत्या, वेश्यावृत्ति, हिंसा और अराजकता-किसान आंदोलन के नाम पर .!", जैसे किसान-आंदोलन में बस यही सब हो रहा है! उन्होंने लिखा," किसानों के नाम पर हो रही अराजकता का पर्दाफाश होना चाहिए।"
मौके की तलाश में बैठे आन्दोलनविरोधी बुद्धिजीवी, जिनमें कतिपय liberals और दलित-बहुजन विमर्शवादी भी थे, इस मुहिम में शामिल हो गए। उन्हें जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गयी। देखते-देखते लखीमपुर हत्याकांड से, जहां सरकार कठघरे में थी उससे ध्यान हटाकर, अब किसान आंदोलन को ही पूरी तरह कठघरे में खड़ा कर दिया गया। कहा गया कि आप इससे पल्ला नहीं झाड़ सकते, आपको इसकी जिम्मेदारी लेनी ही होगी, यह सब आपके आंदोलन की वजह से हो रहा है, लखीमपुर कांड की हिंसा से जोड़ते हुए सलाह दी गयी कि जैसे चौरीचौरा के बाद गाँधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया था, वैसे ही समय आ गया है कि किसान आंदोलन अब अपना बोरिया बिस्तर समेट ले!
कुछ ने तो इसे आंदोलन के अंत की शुरुआत, और वह भी जल्द ही, बताते हुए आंदोलन की obituary भी लिखना शुरू कर दिया। आंदोलन खत्म हो जाय, अपनी इस इच्छा को उन्होंने वस्तुगत सम्भावना के रूप में पेश कर दिया।
स्वाभाविक रूप से कई सरल नेक लोग भी जो आंदोलन के समर्थक थे, वे भी तात्कालिक तौर पर इस false narrative और शरारतपूर्ण प्रचार में बह गए।
दरअसल, जो सवाल सरकार से पूछा जाना चाहिए था, वह किसानों से पूछा जा रहा है जिनका न निहंगों से कोई लेना देना है, न इस मामले से।
सवाल तो यह है कि निहंग पुलिस बैरिकेड के पास किसान नेताओं की अनिच्छा और शिकायतों के बावजूद 11महीने से कैसे जमे हुए हैं, हत्या हुई, लाश टांगी गयी, यह सब कई घण्टे चलता रहा, उस दौरान आखिर पुलिस, intelligence क्या करती रही ? एक इतने बड़े आंदोलन-स्थल के आसपास कानून-व्यवस्था ( law and order ) बनाये रखने की जिम्मेदारी किसकी है ?
उल्टे माहौल यह बना दिया गया जैसे इसकी जिम्मेदारी, जवाबदेही किसान नेताओं की है।
इस पूरे मिथ्याभियान के तार सुप्रीम कोर्ट में रास्ते खुलवाने के नाम पर किसानों को बॉर्डरों से हटाने की जो खतरनाक मुहिम चल रही है, उससे जुड़े हों तो आश्चर्य नहीं।
किसान नेताओं ने पूरे प्रकरण पर तत्काल एक स्पष्ट democratic stand लिया। "संयुक्त किसान मोर्चा इस नृशंस हत्या की निंदा करते हुए यह स्पष्ट कर देना चाहता है कि इस घटना के दोनों पक्षों, निहंग समूह या मृतक व्यक्ति,का संयुक्त किसान मोर्चा से कोई संबंध नहीं है।"
"हम किसी भी धार्मिक ग्रंथ या प्रतीक की बेअदबी के खिलाफ हैं,लेकिन इस आधार पर किसी भी व्यक्ति या समूह को कानून अपने हाथ में लेने की इजाजत नहीं है, हम यह मांग करते हैं कि इस हत्या और बेअदबी के षड़यंत्र के आरोप की जांच कर दोषियों को कानून के मुताबिक सजा दी जाए। संयुक्त किसान मोर्चा किसी भी कानून सम्मत कार्यवाही में पुलिस और प्रशासन का सहयोग करेगा। लोकतांत्रिक और शांतिमय तरीके से चला यह आंदोलन किसी भी हिंसा का विरोध करता है।"
अब जो खुलासे हो रहे हैं, वे किसी गहरी साजिश की ओर इशारा कर रहे हैं और संयुक्त किसान मोर्चा ने पहले दिन से जो शक जाहिर किया था, उसे ही पुष्ट करते दिख रहे हैं।
कृषिमंत्री तोमर के साथ निहंग प्रमुख बाबा अमन सिंह, जिसने सिंघु हत्याकांड का समर्थन किया, के वायरल फोटो ने लोगों के मन में गहरा संशय पैदा कर दिया है। जिन निहंगों ने इकबालिया बयान देकर हत्या का जुर्म कबूल किया है, उनके डेरे के प्रमुख की पंजाब के कुख्यात बर्खास्त पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में कृषि मंत्री तोमर के साथ क्या मीटिंग चल रही थी, जबकि उसका न संयुक्त किसान मोर्चा से कोई लेना देना है, न वह दूर दूर तक किसान नेतृत्व का कहीं हिस्सा है। इस पर सरकार को पूरी स्थिति स्पष्ट करना चाहिए।
बाबा अमन सिंह ने कहा है कि सरकार ने आंदोलन स्थल खाली करने के लिए उसे 10 लाख और उसके संगठन को 1 लाख देने का प्रस्ताव दिया था, जिसे उसने ठुकरा दिया था। इस पर सरकार को क्या कहना है, अगर निहंग प्रमुख का आरोप सच नहीं है तो फिर वह मुलाकात किस लिए थी, यह अब उन्हें पूरे देश को अवश्य बताना चाहिए। वरना पूरे देश मे इस पर शक गहराना लाजिमी है। इसके बारे में ट्रिब्यून ने लिखा है कि वह आंदोलन खत्म कराने की योजना व रणनीति का हिस्सा हो सकता है।
मारे गए लखबीर सिंह का एक क्लिप भी सामने आया है, जिसमें वे कह रहे हैं कि उन्हें 30 हजार रुपया दिया गया था, उधर उनकी बहन और गांव-घर के लोगों, रिश्तेदारों ने भी जो बातें कहीं हैं, वे उक्त क्लिप के बयान की पुष्टि करती लगती हैं और साफ-साफ किसी गहरे षडयंत्र की ओर इशारा करती हैं। केंद्र सरकार भले चुप्पी साधे है, पंजाब सरकार ने इस पूरे षडयंत्र को बेनकाब करने के लिए SIT का गठन किया है। उपमुख्यमंत्री सुखजिन्दर सिंह रंधावा ने कहा है, " यह किसान आंदोलन को बदनाम करने का गहरा षडयंत्र था जिसका हम पर्दाफाश करेंगे।"
सिंघु हत्याकांड के बाद एक बार फिर उन सभी fault lines को उभारा गया, जिन्हें आंदोलन को बदनाम करने और कुचलने के लिए पहले दिन से इस्तेमाल किया जा रहा है। यह सच है कि जिस व्यक्ति की नृशंस हत्या हुई, वह दलित खेत मजदूर थे, बेशक इसने दलितों की vulnerability को फिर शिद्दत से उजागर किया कि कैसे वे हर कहीं आसान शिकार बनाये जा रहे हैं, पर मृतक की दलित पहचान को highlight करने वालों का purpose कुछ और था, वे यह message देना चाहते थे कि दलित, खेत मजदूर की जाट सिख किसानों ने हत्या कर दी और इसके माध्यम से अपने उस पूर्वाग्रहपूर्ण नैरेटिव को पुष्ट करना चाहते थे कि आंदोलनकारी किसान दलित व खेत मजदूर विरोधी हैं। इसके माध्यम से दलितों, खेत मजदूरों को आंदोलन से अलग करने और उसके खिलाफ खड़ा करना चाहते थे। बहरहाल, अब यह तथ्य सामने आ चुका है कि हत्या करने वाले भी दलित समुदाय से हैं। शुरू में इसे हिन्दू बनाम सिख रंग देने की भी साजिश की गई, वह भी औंधे मुंह गिर गयी जब यह तथ्य सामने आ गया कि दोनों ही पक्ष सिख थे।
दरअसल, आंदोलन की शुरूआत से ही बार बार इसे सिख धर्म से जोड़ने की शरारत की जा रही है ताकि इसे साम्प्रदयिक रंग दिया जा सके, कट्टरपंथ, खालिस्तान से जोड़कर राष्ट्रद्रोही कहकर बदनाम किया जा सके।
पर सच्चाई इसकी उल्टी है, यह मूलतः किसानों का आंदोलन है जिसकी कोर leadership पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक, संवैधानिक मूल्यों के प्रति समर्पित है। पंजाब में इसने जनान्दोलन की शक्ल अख्तियार कर लिया है, स्वाभाविक रूप से किसी भी बड़े जनान्दोलन की तरह समाज की तमाम संस्थाएं, जिनमें धार्मिक संस्थाएं भी शामिल हैं, इसके प्रवाह में अपने स्तर पर शामिल हो गई हैं। पर, आंदोलन कहीं से न तो उनके द्वारा प्रायोजित व निर्देशित है, न उनके नियंत्रण में है। यह पूरी तरह स्वतन्त्र आंदोलन है। आज़ादी की लड़ाई के दौर से लेकर स्वातन्त्र्योत्तर भारत के तमाम आंदोलन इस गतिविज्ञान के साक्षी हैं।
किसान-आंदोलन के लिए यह एक कठिन दौर है। किसान नेतृत्व चिंतित, लेकिन सजग है, सूझबूझ और साहस के साथ सटीक स्टैंड लेते हुए कदम बढ़ा रहा है और मोदी-शाह के चक्रव्यूह को तोड़ कर आगे बढ़ने के लिए कृतसंकल्प है।
बेशक आंदोलन के नेतृत्व के लिए यह बेहद चुनौतीपूर्ण कार्यभार बना रहेगा कि वह आंदोलन के सेक्युलर डेमोक्रेटिक credentials, पहचान और दिशा पर मजबूती से कायम रहे, जैसा उसने पिछले 11 महीने से बखूबी किया है। लगातार जारी साजिशों के मद्देनज़र इस पहलू पर और भी अधिक सतर्कता की जरूरत होगी।
किसान-आंदोलन को हर हाल में अपनी एकता कायम रखना होगा, विवादपूर्ण विचार और व्यवहार से बचना होगा और कदम-ब-कदम उच्चतर स्तर की वैचारिक एकता तथा राजनैतिक दिशा की ओर बढ़ना होगा।
किसानों का यह ऐतिहासिक प्रतिरोध हमारे कृषि क्षेत्र को कारपोरेट कब्जे से और हमारे लोकतन्त्र को फासीवाद के शिकंजे से बचाने का निर्णायक संघर्ष है। कृषि पर कारपोरेट कब्जे के हमारी विराट मेहनतकश आबादी की आजीविका के लिए परिणाम प्रलयंकारी होंगे और साम्प्रदायिक फासीवाद एकताबद्ध राष्ट्र के बतौर हमारे अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा देगा।
सभी देशभक्त, लोकतान्त्रिक ताकतों, जनपक्षधर बुद्धिजीवियों, मेहनतकश-उत्पीड़ित जनसमुदाय को किसान-आंदोलन पर हो रहे चौतरफा हमलों तथा इसके खिलाफ रची जा रही साजिशों से इसकी रक्षा करना होगा ।
किसान-आंदोलन की सफल परिणति पर ही हमारे लोकतंत्र का भविष्य और हमारे गणतंत्र के पुनर्जीवन की उम्मीदें टिकी हुई हैं।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)