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कोरोना की 'नई लहर’ के राजनीतिक मायने

आम लोग भी यह जान चुके हैं कि कोरोना बीमारी तो है, उससे भी कहीं ज्यादा यह राजनीतिक महामारी है। बीमारी से तो कुछ सावधानियां बरत कर बचा जा सकता है, लेकिन राजनीतिक महामारी से बचने की चुनौती आसान नहीं है।
कोरोना की 'नई लहर’ के राजनीतिक मायने
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: indiatoday

भारत में एक बार फिर कोरोना ने मीडिया की सुर्खियां बटोरनी शुरू कर दी हैं। अखबारों के पहले पन्नों पर हेडलाइन बन रही है। खबरों के नाम पर सरकारी प्रोपेगेंडा फैलाने वाले टेलीविजन चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज दिखाई जा रही है। बताया जा रहा है कि भारत में कोरोना वायरस का संक्रमण एक बार फिर तेजी से बढ़ने लगा है। कोई इसे कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर बता रहा है तो कोई तीसरी लहर। पहली लहर कब खत्म हुई, यह शायद किसी को नहीं मालूम- न तो सरकार को और न मीडिया को। इसीलिए कोई नहीं बता रहा है कि पहली लहर कब थमी थी या खत्म हुई थी।

अगर कोरोना संक्रमण के मामलों की वास्तविक स्थिति और कोरोना मामलों की जांच में सरकारों के स्तर पर हो रहे फर्जीवाडे को देखें तो हम पाएंगे कि संक्रमण बढ़ने के मामलों में यह एकदम से कोई बड़ा उछाल नहीं है। लेकिन फिर भी माहौल बनाया जा रहा है। इसी तरह का माहौल पिछले सात-आठ महीनों के दौरान मौके-मौके पर बनाया जा चुका है। यह सही है कि कोरोना वायरस ने एक गंभीर बीमारी के तौर पर दुनिया की एक बडी आबादी को संक्रमित किया है लेकिन भारत में इस महामारी ने लोगों के साथ ही हमारी समूचे व्यवस्था तंत्र को भी बुरी तरह संक्रमित कर दिया है। यानी भारत में कोरोना संक्रमण को राजनीतिक महामारी के रूप में भी देखा जा सकता है।

कोरोना की जिस वैश्विक महामारी को भारत सरकार ने शुरुआती दौर में जरा भी गंभीरता से नहीं लिया था और जिसे नजरअंदाज कर वह नमस्ते ट्रंप जैसे खर्चीली तमाशेबाजी और विपक्षी राज्य सरकारों को गिराने के अपने मनपंसद खेल में जुटी हुई थी, वह महामारी बाद में उसके लिए विन-विन गेम यानी हर तरह से फायदे का सौदा बन गई। उसके दोनों हाथों में लड्डू हैं। अगर संक्रमण के मामलों में कमी आने लगे तो अपनी पीठ ठोंको कि सरकार बहुत मुस्तैद होकर काम कर रही है। कॉरपोरेट मीडिया भी झूमते और कूल्हें मटकाते हुए सरकार की प्रशस्ति में कीर्तन करने लगता है- ''प्रधानमंत्री मोदी ने देश को बचा लिया’’, ''मोदी की दूरदर्शिता का लोहा दुनिया ने भी माना’’... आदि आदि। ताली-थाली और दीया-मोमबत्ती, आतिशबाजी आदि के उत्सवी आयोजनों को भी कोरोना नियंत्रण का श्रेय दिया जाने लगता है। प्रधानमंत्री मोदी तो अक्सर कहते ही रहते हैं कि कोरोना के खिलाफ वैश्विक लडाई में भारत नेतृत्वकारी भूमिका निभा रहा है।

इसके विपरीत अगर संक्रमण जरा सा भी तेजी से बढता दिखे तो उसका सारा दोष मीडिया के माध्यम से जनता के मत्थे मढ दो कि लोग मास्क नहीं पहन रहे हैं, सेनेटाइजर का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, शारीरिक दूरी का पालन नहीं कर रहे हैं, पारिवारिक और सामाजिक आयोजनों में भी कोविड प्रोटोकॉल का पालन नहीं हो रहा है। यही नहीं, संक्रमण के मामलों में बढोतरी की प्रायोजित खबरों के साथ ही फिर से लॉकडाउन और कर्फ्यू का भय फैलाया जाने लगता है। अखबारों और टीवी चैनलों पर हेडलाइन बनने लगती है- ''कोरोना से निबटने के लिए गृह मंत्री अमित शाह ने कमान संभाली।’’ स्वास्थ्य मंत्री और अफसरों के साथ उनकी बैठकों की तस्वीरें दिखाई जाने लगती हैं। फिर कुछ ही दिनों बाद प्रायोजित खबरें आने लगती है कि शाह के कमान संभालने से स्थिति नियंत्रण में है।

इसी कोरोना महामारी के शुरुआती दौर में सरकार और सत्तारुढ पार्टी ने कॉरपोरेट मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए सांप्रदायिक नफरत फैलाने का अपना एजेंडा भी खूब चलाया। तब्लीगी जमात के बहाने एक पूरे मुस्लिम समुदाय को कोरोना फैलाने का जिम्मेदार ठहराया। सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर सुनियोजित तरीके से चलाए गए इस नफरत अभियान की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तीखी आलोचना भी हुई। बाद में विभिन्न अदालतों ने कोरोना फैलाने के आरोप में गिरफ्तार किए गए तब्लीगी जमात के तमाम लोगों को बरी करते हुए सरकार और मीडिया की भूमिका की कड़ी आलोचना भी की, लेकिन सरकार और मीडिया की सेहत पर कोई असर नहीं हुआ।

कोरोना से बचाव के लिए बगैर किसी तैयारी के ही देशव्यापी लॉकडाउन लागू किया गया और उस लॉकडाउन के दौरान समूचा देश पुलिस स्टेट में तब्दील कर दिया गया। उसी दौरान देश की स्वास्थ्य सेवाओं की बीमार हकीकत भी पूरी तरह उजागर हुई। निजी अस्पतालों को लूट की खुली छूट दे दी गई। कोरोना संक्रमण के चलते देश के औद्योगिक शहरों से प्रति पलायन करते लाखों प्रवासी मजदूरों के साथ सरकार ने बेहद निर्मम व्यवहार किया। परिवहन के सभी साधनों को बंद कर दिए जाने के कारण पैदल ही अपने परिवार के साथ भीषण गर्मी में अपने घर-गांव को लौट रहे इन मजदूरों और उनके परिजनों में से सैकडों लोगों की मौत पर भी समूचा व्यवस्था तंत्र निष्ठुर बना रहा, यहां तक कि न्यायपालिका भी। मीडिया के एक बडे हिस्से ने तो सरकार की शह पर इन प्रवासी मजदूरों को कोरोना वाहक और देशद्रोही तक करार देने से भी गुरेज नहीं किया। इन सब बातों से लोगों का ध्यान हटाने के लिए प्रधानमंत्री के आह्वान पर हुए ताली-थाली बजाने, दीया-मोमबत्ती जलाने, अस्पतालों पर फूल बरसाने और सेना से बैंड बजवाने जैसे उत्सवी आयोजनों को भी कोरोना नियंत्रण का श्रेय दिया गया।

कोरोना की आड़ लेकर ही सरकार संसद से भी मुंह चुराती रही और कोरोना के शोर में उसने कई जन-विरोधी अध्यादेश जारी किए, जिन्हें बाद में खानापूर्ति के लिए आयोजित संसद के संक्षिप्त सत्रों में कानून के तौर पर पारित कराया। उन्हें पारित कराने में भी मान्य संसदीय प्रक्रिया और स्थापित परंपराओं को नजरअंदाज किया गया। कोरोनो के नाम पर ही विभिन्न मुद्दों पर असहमति की आवाजों का दमन किया गया। विवादास्पद नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन को भी कोरोना के नाम ही बदनाम कर उसका दमन किया गया। कोरोना के नाम पर ही पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस और अन्य आवश्यक वस्तुओं के दामों में अनाप-शनाप बढोतरी की गई और अभी भी की जा रही है। लॉकडाउन के दौरान बंद की गई रेल सेवाएं एक साल बाद भी पूरी तरह शुरू नहीं की जा रही है। कुछेक ट्रेनें चलाई भी गई हैं तो उनके यात्री किराए में 30 से 40 फीसद की बढ़ोतरी कर दी गई है।

बहरहाल, एक बार फिर कोरोना को लेकर माहौल बनाया जा रहा है। बताया जा रहा है कि देश के सात राज्यों में कोरोना संक्रमण के मामले तेजी से बढ रहे हैं। यह स्थिति तब है, जब देश में कोरोना के टीकाकरण की प्रक्रिया शुरू हुए डेढ़ महीने से ज्यादा का समय हो चुका है। टीकाकरण का अभियान भी सरकार अपनी पीठ थपथपाते हुए बड़ी धूमधाम से किया था। रोजाना दस लाख लोगों को टीका लगाने का लक्ष्य घोषित करते हुए कहा गया था कि यह दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान है और इस मामले में भी भारत पूरी दुनिया का नेतृत्व कर रहा है।

लेकिन हकीकत यह है कि भारत में पिछले डेढ महीने से रोजाना औसतन महज तीन लाख लोगों को टीका लगाया जा रहा है। जबकि भारत में न तो टीके की कोई कमी है और न ही आपूर्ति श्रृंखला में कोई बाधा है। भारत की दोनों निजी कंपनियों में टीके के आठ करोड डोज हर महीने बनाने की क्षमता है। इसलिए टीके की कोई कमी नहीं होना है। भारतीय कंपनियों की इसी क्षमता के बूते प्रधानमंत्री मोदी दुनिया के कई देशों को भारत की ओर से टीके उपलब्ध कराने की बात कह रहे हैं।

दरअसल भारत में टीकाकरण अभियान की गति धीमी होने की सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकार खुद श्रेय लेने के चक्कर में पूरे टीकाकरण अभियान को डेढ़ महीने तक अपने नियंत्रण में रखे रही। बाद में निजी अस्पतालों को टीकाकरण की अनुमति दी भी गई तो इसलिए कि सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने सरकार से मंजूरी मिलने के पहले ही जो 20 करोड़ टीके बना लिए थे, उनमें से 25 फीसदी यानी 5 करोड़ टीकों की एक्सपायरी डेट अप्रैल महीने में खत्म होने वाली है। सीरम इंस्टीट्यूट 2 करोड टीकों 'कोविशील्ड’ की आपूर्ति पहले ही सरकार को कर चुकी है, जिन्हें एक्सपायरी डेट से पहले ही इस्तेमाल करना जरुरी है, जबकि अभी तक डेढ महीने में महज 1.35 करोड टीके ही उपयोग में आ पाए हैं। इनमें भारत बायोटेक के टीके 'कोवैक्सिन’ भी शामिल हैं। सीरम इंस्टीट्यूट के प्रमुख कर्ताधर्ता अदार पूनावाला ने अपना तैयार माल खपाने के सिलसिले में पिछले दिनों गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की थी। समझा जाता है कि पूनावाला ने गृह मंत्री को बताया कि अगर टीकाकरण अभियान में प्राइवेट एजेंसियों को शामिल नहीं किया गया तो उनकी कंपनी के तैयार किए गए टीके बडी मात्रा में बेकार हो जाएंगे।

सब जानते हैं कि कोई भी व्यापार मांग और आपूर्ति के परस्पर संबंधों पर निर्भर करता है। भारत में कोरोना के टीकों की आपूर्ति तो आश्चर्यजनक रूप से ज्यादा है लेकिन उसकी तुलना मांग बहुत कम है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अदार पूनावाला की गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात के बाद ही सरकार ने टीकाकरण अभियान को अपने नियंत्रण से मुक्त करते हुए उसमें निजी क्षेत्र को भी शामिल करने का एलान किया। टीके के एक डोज की कीमत भी काफी रियायती रखी गई है- महज 250 रुपए। जबकि टीकाकरण अभियान की शुरुआत के समय कहा जा रहा था कि निजी अस्पतालों और आम लोगों के लिए इसकी कीमत 1000 रुपए प्रति डोज हो सकती है। हालांकि सरकार ने यह डोज करीब 200 रुपए के भाव से खरीदी है इसलिए आम लोगों के लिए 250 रुपए प्रति डोज की यह कीमत हैरान करने वाली है।

सरकार और भाजपा की ओर से टीकाकरण जैसे गंभीर अभियान का बिना किसी संकोच के चुनावी राजनीति में भी इस्तेमाल किया गया और अभी भी किया जा रहा है। जब कोरोना का टीका अपने परीक्षण के दौर में ही था, तब जिन-जिन राज्यों में चुनाव हुए हैं वहां बाकायदा एलान किया गया कि भाजपा अगर सत्ता में आई तो लोगों को मुफ्त में कोरोना का टीका लगाया जाएगा। अभी जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, वहां भी लोगों से ऐसा ही कहा जा रहा है।

इस सबके बावजूद आम लोगों में न तो कोरोना संक्रमण का पहले जैसा भय है और न ही टीकाकरण को लेकर कोई उत्साह। सरकार और कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया की ओर से कोरोना संक्रमण फिर से बढ़ने के किए जा रहे प्रचार को भी कोई तवज्जो नहीं मिल रही है। टीके को लेकर लोगों में उत्साह नहीं होने की मुख्य वजह यह है कि टीके के प्रभाव यानी विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं। यही वजह है कि टीकाकरण अभियान के शुरुआती दौर में तो दिल्ली के एक बड़े सरकारी अस्पताल के डॉक्टरों तक ने टीका लगवाने से इंकार कर दिया था।

कोरोना की 'नई लहर’ के बीच इन सवालों और शंकाओं को दूर करने और लोगों को टीकाकरण के प्रति प्रोत्साहित करने के लिए अब खुद प्रधानमंत्री सामने आना पड़ा है। उन्होंने भारत बायोटेक कंपनी का टीका लगवा कर उसकी तस्वीर सोशल मीडिया पर जारी की है। इसके बावजूद लोगों में टीकाकरण को लेकर कोई उत्साह नजर आता नहीं दिख रहा है।

दरअसल, कोरोना की संक्रामकता के बड़े-बड़े दावों की पोल पिछले एक साल के दौरान एक बार नहीं, कई बार खुल चुकी है। पिछले कुछ महीनों के दौरान बिहार सहित कई राज्यों में चुनाव और उपचुनाव हुए हैं। इन चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह आदि कई नेताओं ने बडी रैलियां और रोड शो किए हैं, जिनमें लाखों लोग शामिल हुए हैं। लोगों ने लंबी-लंबी कतारों में लग कर मतदान किया है। हाल ही में पंजाब और गुजरात में नगरीय निकायों के चुनाव हुए हैं, जिनमें बड़ी संख्या में लोगों ने मतदान किया है। यही नहीं, पिछले तीन महीने से दिल्ली की सीमाओं पर लाखों किसान धरने पर बैठे हैं लेकिन कहीं से भी कोरोना संक्रमण फैलने या किसी के कोरोना से मरने की खबर नहीं आई है।

इस समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में किसानों की महापंचायतों का आयोजन हो रहा है। पश्चिम बंगाल और असम में बड़ी-बड़ी चुनावी रैलियां हो रही हैं। हाल ही में खत्म हुए माघ महीने में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद, अयोध्या, बनारस, मथुरा आदि शहरों में माघ मेले सम्पन्न हुए हैं, जिनमें लाखों श्रद्धालुओं ने स्नान और कल्पवास किया है, लेकिन कहीं से भी कोरोना संक्रमण फैलने की खबरें नहीं आई हैं। हरिद्वार में आगामी अप्रैल महीने में कुंभ मेला आयोजित होना है, जिसमें शामिल होने के लिए उत्तराखंड सरकार द्वारा विज्ञापनों के जरिए लोगों को निमंत्रण दिया जा रहा है और उस एक महीने के मेले में लाखों लोग जुटेंगे भी। यानी आम लोग भी यह जान चुके हैं कि कोरोना बीमारी तो है, उससे भी कहीं ज्यादा यह राजनीतिक महामारी है। बीमारी से तो कुछ सावधानियां बरत कर बचा जा सकता है, लेकिन राजनीतिक महामारी से बचने की चुनौती आसान नहीं है।

सरकार इस समय चौतरफा चुनौतियों से घिरी हुई है। देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह ढह चुकी है। महंगाई और बेरोजगारी की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। प्रतिरोध के स्वर अब तेज होने लगे हैं। तीन महीने से जारी किसान आंदोलन लगातार व्यापक होता जा रहा है। सरकार की ओर से आंदोलन को कमजोर करने और दबाने के तमाम प्रयास नाकाम हो चुके हैं। सरकार एक साल पहले संशोधित नागरिकता कानून और एनआरसी के खिलाफ आंदोलन को कोरोना का सहारा लेकर दबा चुकी है, इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि वह कोरोना की इस 'नई लहर’ का इस्तेमाल किसान आंदोलन और प्रतिरोध की अन्य आवाजों को दबाने के लिए भी करे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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