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जनता बर्बर, विभाजनकारी, विनाशकारी राज से मुक्ति चाहती है - विधानसभा चुनाव का यही संदेश

पश्चिम बंगाल चुनाव में मोदी-शाह जोड़ी ने जो रिकॉर्ड राजनैतिक निवेश किया, वह उनके अपने पैमाने से भी अभूतपूर्व था। सम्भवतः, इस चुनाव में उन्होंने जो किया वह उनकी अपनी क्षमता और कोशिश की पराकाष्ठा थी।
Modi and Shah

जाहिर है, चुनाव परिणाम ने इस 'सर्वशक्तिमान' जोड़ी की सीमाओं को दोस्त-दुश्मन सबके सामने उजागर कर दिया है और मोदी की अपराजयता के मिथक को ध्वस्त कर दिया है। स्वयं संघ-भाजपा खेमे के अंदर मोदी की बंगाल-पराजय ने कैसी प्रतिक्रिया को जन्म दिया है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि बंगाल भाजपा के अध्यक्ष दिलीप घोष ने मोदी के "दीदी ओ दीदी" जैसे जुमलों पर परोक्ष रूप से सवाल खड़े किए हैं और रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने मोदी जी से पहले ममता बनर्जी को शुभकामनाएं दे दीं। कल तक यह सब भाजपा में अकल्पनीय था।

बताया जा रहा है कि पहले ही महामारी, ध्वस्त अर्थव्यवस्था और किसान-आंदोलन के चौतरफा संकट से घिरे सत्ता प्रतिष्ठान में बंगाल पराजय के बाद घबड़ाहट का माहौल है। खतरे की घण्टी बज चुकी है।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह मोदी राज के अंत की शुरूआत हो सकती है।

किसान-आंदोलन समेत तमाम लोकतांत्रिक ताकतों को विधान-सभा चुनाव परिणाम से बल मिला है और निराश-हताश विपक्ष की राजनैतिक ताकतों का भी मनोबल बढ़ा है।

आख़िर बंगाल चुनाव को लेकर इतना बड़ा दांव मोदी ने क्यों लगाया?

जिस तरह कोरोना के रिकॉर्ड बढ़ते मामलों और मौतों के बावजूद, मोदी-शाह चुनाव-आयोग के माध्यम से बंगाल में 8 चरणों के मतदान पर अंत तक अड़े रहे, वह अकल्पनीय था। उससे यह स्पष्ट सन्देश गया कि बंगाल फतह के लिए वे इतने उतावले हैं कि उसके लिए उन्हें अपने देशवासियों के जीवन को दांव पर लगाने में कोई गुरेज़ नहीं है। इधर कोरोना को लेकर पूरे देश मे हाहाकार मचा हुआ था, ऑक्सीजन, अस्पताल-बेड के अभाव में राजधानी दिल्ली तक में लोगों की साँसे उखड़ रही थीं, लोग सड़कों पर मर रहे थे, उधर देश के दो सबसे ताकतवर पदों पर बैठे शख्स, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री , इस अभूतपूर्व मेडिकल इमरजेंसी पर पूरी ऊर्जा और ताकत केंद्रित करने की बजाय, बंगाल विजय पर पूरा ध्यान लगाये हुए थे। 17 अप्रैल को जिस दिन देश मे कोरोना के ढाई लाख नए मामले आये, मोदी जी आसनसोल में अपनी चुनावी रैली में शेखी बघार रहे थे कि इतनी बड़ी भीड़ मैंने आज तक अपने जीवन में नहीं देखी।

द टेलीग्राफ़ ने बिल्कुल सही टिप्पणी किया कि कोरोना की इस दूसरी मारक लहर से निपटने की मोदी सरकार की रणनीति है कि Silence is golden!

ऐसा लग रहा था कि प्राथमिकता तो छोड़िए, यह उनके एजेंडा में ही नहीं है। कुछ रस्मी बैठकों, मसलन राज्यपालों के साथ या कुछ अधिकारियों के साथ बैठको की रस्मअदायगी को छोड़ दिया जाए तो संघ ब्रिगेड के तीनों महारथी मोदी-शाह-योगी खूनी अप्रैल के उस पूरे निर्णायक दौर में शांत भाव से कान में तेल डालकर पड़े थे। क्योंकि वे दरअसल एक अलग ही मिशन में लगे थे, अगर वे महामारी को उस गम्भीरता के साथ देखना शुरू कर देते जिसकी सचमुच ज़रूरत थी तो वे जो रैलियां कर रहे थे उसकी क्या सफ़ाई देते? सारी पार्टियों की अपील के बावजूद उन्होंने जो बंगाल चुनाव के चरण कम नहीं करने दिए उसका क्या जवाब देते?

यह अनायास नहीं है कि कोरोना काल की अपनी पहली और इकलौती विदेश-यात्रा भी मोदी ने बंगाल चुनाव के लिए कर डाली बांग्लादेश की, जिसके विरोध में वहां भड़की हिंसा में अनेक लोग मारे गए।

सम्भवतः चौतरफ़ा संकट से घिरे मोदी-शाह को अपने बेचैनी में यह उम्मीद ( जो सच की बजाय कल्पना की उड़ान अधिक लगती है) थी कि बंगाल अगर जीत गए तो एक झटके में देश मे पूरा नैरेटिव बदल जायेगा- किसान आंदोलन की तो हवा निकल ही जाएगी, कोरोना को लेकर मोदी सरकार की चौतरफा आलोचना के माहौल से भी एक diversion होगा। एक बार फिर मोदी समर्थक बुद्धिजीवी गोदी मीडिया की मदद से यह नैरेटिव उछाल सकेंगे कि मोदी की राजनीति अपराजेय है, अर्थव्यवस्था और समाज की हालत चाहे जो हो।

बंगाल चुनाव परिणाम और उसके तमाम तथ्य सामने आ जाने के बाद अब यह बिल्कुल स्पष्ठ है कि बंगाल फतह का सपना मोदी-शाह की कोई फैंटेसी नहीं बल्कि एक वास्तविक सम्भावना थी,  जिसे बंगाल की सजग जनता ने अपनी दूरदृष्टि और सटीक रणनीति से ध्वस्त कर दिया है।

ममता बनर्जी के 10 साल के शासन के खिलाफ ऐंटी-इनकंबेंसी थी जिसे संघ-भाजपा ने तीखे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और सोशल इंजीनियरिंग की मदद से बड़ी सामाजिक ताकत के रूप में गोलबंद कर लिया। बेशक इसमें मीडिया, मनी, मसल पावर, एजेंसीज और अंततः चुनाव आयोग का खुला खेल उनके पक्ष में जम कर खेला ही जा रहा था, और उसके रास्ते किसी मूल्य, नैतिकता, संवैधानिक मर्यादा को आड़े नहीं आने दिया गया।

बंगाल में किसी आर्थिक पुनर्जीवन, औद्योगीकीकरण, रोजगार सृजन के अभाव में ममता बनर्जी को भी सहारा अपनी कुछ लोकलुभावन कल्याणकारी योजनाओं और सोशल इंजीनियरिंग का ही था। उनकी गैर लोकतांत्रिक कार्यशैली विशेषकर राजनीतिक विरोधियों के प्रति वैमनस्यपूर्ण दमनात्मक रवैये, अपराधीकरण तथा भ्रष्टाचारके खिलाफ लोकतांत्रिक तबकों में व्यापक नाराजगी थी। सच्चाई तो यह है कि अगर ममता मोदी के बीच यह ध्रुवीकरण न होता तो बिहार की तरह बंगाल में भी रोजगार का सवाल सबसे बड़ा मुद्दा बनता, जो जाहिर है ममता के लिए बेहद असुविधाजनक होता।

लेकिन ममता की नीतियों और शासन के खिलाफ तमाम नाराजगी के बावजूद, जैसे ही मोदी-शाह ने अकल्पनीय आक्रामकता के साथ अपना बंगाल फतह का  नंगा साम्प्रदायिक अभियान शुरू किया, बंगाल में लोकतांत्रिक ताकतों , मेहनतकशों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों, उन तमाम ताकतों का जो बंगाल की प्रगतिशील सांस्कृतिक परम्परा और गंगा-जमनी तहज़ीब पर इस हमले को लेकर सकते में आ गए थे, उनका तेजी से ममता के पक्ष में ध्रुवीकरण शुरू हो गया।

दरअसल, यह चुनाव एक ऐसे दौर में हो रहा था जब मोदी सरकार के कोरोना प्रबंधन की भयानक नाकामियां, ध्वस्त अर्थव्यवस्था, अभूतपूर्व बेरोजगारी, राष्ट्रीय सम्पदा की बिक्री,  कारपोरेटपरस्ती पूरी तरह  सामने आ चुकी है। राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर 5 महीने से  करपोरेटपक्षीय कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का घेरा पड़ा हुआ है और उन लोगों ने बंगाल आकर जनता से भाजपा को हराने की अपील भी किया। बंगाल चुनाव परिणाम में इन वाह्य कारकों की भी बड़ी भूमिका है।

इन सब परिस्थितियों का कुल परिणाम यह हुआ कि यह चुनाव बंगाल में मोदी के अश्वमेघ के घोड़े को हर हाल में रोकने के चुनाव में तब्दील होता गया। जाहिर है, इस चरम ध्रुवीकरण में किसी third force के लिए स्पेस सिकुड़ता गया, जिसका खामियाजा वामपंथ समेत सभी ताकतों को भुगतना पड़ा।

बहरहाल, मोदी के बंगाल-कब्जा अभियान की निर्णायक पराजय देश की राजनीति के लिए एक टर्निंग पॉइंट बन सकती है।

असम में भाजपा की पुनर्वापसी के लिए कांग्रेस की गलत चुनावी रणनीति जिम्मेदार रही। असम में सीएए के खिलाफ देश का सबसे जुझारू जनांदोलन हुआ था, जिसमें 5 आंदोलनकारियों की पुलिस फ़ायरिंग में मौत हुई थी। इस आंदोलन ने एएएसयू व अन्य तमाम लोकप्रिय संगठनों एवं अखिल गोगोई जैसे प्रतिबद्ध नेताओं के नेतृत्व में भाजपा के खिलाफ व्यापक जनाक्रोश पैदा किया था तथा सीधे तौर पर भाजपा के सामाजिक आधार में विभाजन पैदा कर दिया था। घबड़ाई भाजपा सरकार को अखिल गोगोई को यूएपीए जैसे काले कानून के तहत पूरे डेढ़ साल, यहां तक कि चुनाव के दौरान भी, जेल में डालना पड़ा । जाहिर है, भाजपा को शिकस्त देने की सफल रणनीति का आधार यह होना चाहिए था कि सीएए-विरोधी आंदोलन द्वारा भाजपा के जनाधार में पैदा इस विभाजन को और चौड़ा किया जाता और चुनाव में इसका तर्जुमा किया जाता, यह एक अवसर था असमिया उपराष्ट्रीय पहचान पर हमले के खिलाफ आंदोलनरत जनता को हिंदुत्व के प्रभाव से  निकालने का। लेकिन कांग्रेस का चुनावी दांव आत्मघाती साबित हुआ। वह इन आंदोलन की ताकतों से तालमेल बना पाने में असमर्थ रही।

उल्टे उसने एआईयूडीएफ़ के साथ जिस तरह मोर्चा बनाया, उसने भाजपा का काम आसान कर दिया और एंटी-इनकम्बेंसी तथा सीएए विरोधी आंदोलन से पैदा भाव से पार पाने में उसके लिए मददगार बन गया। बचा खुचा काम पूर्वोत्तर के अमित शाह कहे जाने वाले हेमंत बिस्वा शर्मा ने कर दिया। मूलतः चरम साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण ने बीजेपी की नैया पार लगा दी। सीएए विरोधी आंदोलन के नेता तथा हाशिये के तबकों और जनमुद्दों  के लिए लड़ने वाले लोकप्रिय, जुझारू सामाजिक कार्यकर्ता अखिल गोगोई की सत्ता के सारे तिकड़म के बावजूद जेल से जीत, असम चुनाव की पूरी dynamics को समझने के लिए जरूरी सूत्र देती है।

जहाँ बंगाल में कीर्तिमान बना कि पहली बार विधानसभा में वाम अनुपस्थित रहेगा, वहीं केरल  में भी वाम ने नया कीर्तिमान बनाया कि राज्य के राजनैतिक इतिहास में कोई पार्टी, लगातार दूसरी बार सत्ता में आ गयी । इसमें सरकार की कल्याणकारी योजनाओं तथा गवर्नेंस, विशेषकर बाढ़ और कोरोना आपदा का बेहतरीन प्रबंधन बड़ा कारण माना जा रहा है। वहीं हिंदुत्व के बढ़ते खतरे ने बड़े पैमाने पर तमाम लोकतांत्रिक ताकतों तथा अल्पसंख्यकों को LDF के पीछे ध्रुवीकृत करने में भूमिका निभाई। केरल ने 2016 के चुनाव में खुला BJP का खाता भी इस बार बंद कर दिया और भाजपा के मुख्यमंत्री पद के चेहरे मेट्रोमैन श्रीधरन खुद अपना चुनाव भी हार गए। इस तरह सबरीमाला और अन्य मुद्दों की मदद से साम्प्रदयिक ध्रुवीकरण के रथ पर सवार होकर केरल में प्रवेश की संघ-भाजपा की महत्वाकांक्षा पर फिलहाल विराम लग गया है।

सच्चाई यह है कि तमिलनाडु में जयललिता के निधन के बाद से केंद्र की प्रॉक्सी-सरकार ही चल रही थी। DMK की जीत के प्रमुख कारणों में 10 साल की AIADMK सरकार के खिलाफ , विशेषकर जयललिता के रंगमंच से विदा होने के बाद की एन्टी-इंकम्बेंसी, स्टालिन द्वारा प्रभावी मोर्चाबंदी ( जिसमें कांग्रेस और वाम के साथ ही तमिल राष्ट्रवादी नेता वाइको की MDMK तथा दलित पार्टी VCK व मुस्लिम संगठन भी शामिल थे ) तो थी ही, यह भी माना जा रहा है कि AIADMK जिस तरह भाजपा की छत्रछाया में खड़ी थी, वह उसके लिए आत्मघाती साबित हुआ। AIADMK को जितनी सीटें मिली हैं, उससे यह साफ है कि तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति में आज भी( जयललिता के न रहने पर भी ) उसकी गहरी जड़ें हैं। लेकिन, हिंदुत्ववादी ताकतों के साथ उसका गठजोड़ बेमेल था और उसे द्रविड़ संस्कृति में रची-बसी जनता ने नापसंद किया और reject कर दिया। उनका यह डर वास्तविक था कि AIADMK हिंदुत्ववादी संघ-भाजपा के द्रविडलैंड में घुसपैठ का vehicle बन जाएगी।

आज हम इतिहास के एक निर्णायक संधिस्थल पर खड़े हैं जहां एक मानवद्रोही सरकार ने पूरे देश को मौत के आगोश में धकेल दिया है। इस हत्यारी सरकार के कारण अब तक 2 करोड़ से ऊपर लोग महामारी की चपेट में आ चुके हैं और 2 लाख के ऊपर लोग काल के गाल में समा चुके हैं।

इसके बर्बर, विभाजनकारी और विनाशकारी राज से जनता मुक्ति चाहती है। यही विधानसभा चुनावों का सन्देश है। 

इसके लिए आज जरूरत है, गरिमामय जीवन के मूलभूत अधिकारों-रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा तथा किसानों को उनकी फसल और मेहनतकशों को उनके श्रम की उचित कीमत की गारंटी  एवं राष्ट्रीय सम्पत्ति तथा लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए  लोकप्रिय राष्ट्रीय अभियान और इसी साझा कार्यक्रम के आधार पर भाजपा विरोधी व्यापकतम राजनैतिक गोलबंदी की। 

यही भारतीय मार्का फासीवाद की कमर तोड़ेगा और 2024 में इनकी विदायी का मार्ग प्रशस्त करेगा। विधान-सभा चुनाव, विशेषकर बंगाल पराजय से इसकी शुरुआत हो चुकी है।

लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

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