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किसान आंदोलन में लोकतंत्र का सवाल अब सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न बन गया है

नए चरण में आंदोलन ने कृषि कानूनों की वापसी और MSP की कानूनी गारंटी अर्थात कॉरपोरेट रास्ते के ख़िलाफ़ किसान रास्ते की आर्थिक व वर्गीय लड़ाई के साथ-साथ, वृहत्तर वैचारिक- राजनैतिक आयाम भी ग्रहण कर लिया है, मोदी राज की साम्प्रदायिक, फासिस्ट तानाशाही के ख़िलाफ़ लोकतंत्र की लड़ाई भी अब इसका महत्वपूर्ण मुद्दा बन कर उभर गयी है।
किसान आंदोलन
Image courtesy: Social Media

किसान आंदोलन में लोकतंत्र का सवाल अब सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न बन गया है। आंदोलन को पूरी तरह कुचल देने के लिए सारे घोड़े खोल दिये गए हैं। गोदी मीडिया द्वारा  आंदोलन के खिलाफ आक्रामक राष्ट्रवादी उन्माद भरा, सिखों के खिलाफ साम्प्रदायिक नफ़रत भड़काता अभियान छेड़ दिया गया है, प्रायोजित नफ़रती भीड़ों को आंदोलन की जगहों और नेताओं के घरों पर किसानों के खिलाफ हमला करने के लिए छोड़ दिया गया है, जहाँ पुलिस न सिर्फ मूक दर्शक बन कर खड़ी रहती है, वरन हमलावरों की मदद करती है, दूसरी ओर पुलिस द्वारा सभी किसान नेताओं के खिलाफ UAPA और राष्ट्रद्रोह तक की धाराओं में मुकदमे  दर्ज कर दिए गए हैं और आंदोलन की सभी जगहों से किसानों को खदेड़ने की कार्रवाई शुरू कर दी गयी।

उनके खिलाफ लुक आउट नोटिस जारी कर उनके पासपोर्ट जब्त कर अपमानित और प्रताड़ित किया जा रहा है। जिनके साथ सरकार कल तक वार्ता कर रही थी, उनसे अब अपराधियों जैसा व्यवहार किया जा रहा है और उन्हें गद्दार बताया जा रहा है।

आंदोलन का प्रमुख चेहरा बन कर उभरे नेता राकेश टिकैत की कर्मभूमि मुजफ्फरनगर में लाखों लोगों की महापंचायत ने लड़ाई के इस चरण को सटीक शब्द देते हुए कहा है कि अब यह किसानों की इज्जत की लड़ाई है, राकेश टिकैत ने संकल्प व्यक्त किया है, " हम अपना सम्मान वापस लेकर जाएंगे, अपमानित होकर नहीं जाएंगे।"

किसानों ने आज राष्ट्रपिता गांधी के शहादत-दिवस के अवसर पर उपवास कर इस अन्याय के प्रतिकार का आह्वान किया है।

सत्ता और जनता के बीच किसान-आंदोलन के माध्यम से जो epic war चल रहा है, उसके एक युगांतकारी, रोमांचक क्षण का साक्षी 28 जनवरी की रात पूरा देश बना। करोड़ो लोग सांसे रोके, दिल थाम कर अपने मोबाइल स्क्रीन पर आंखे गड़ाए उस पल को जी रहे थे, जो इतिहास में, दशकों और सदियों में कभी कभी आता है। 

असली और नकली भारत की टक्कर में, सच्चे देशभक्तों और छद्म राष्ट्रवादियों की टक्कर में फिलहाल नकली छद्म ताकतें टिक न सकीं, उन्हें मुंह की खानी पड़ी, एक ओर सत्ता का गुरूर और प्रचंड ताकत थी, दूसरी ओर इस देश के गण की छले जाने की मरणांतक पीड़ा थी और जालिमों के खिलाफ लड़ने का संकल्प था। आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों- बख्तरबंद गाड़ियों, वज्रयान, फायरब्रिगेड से लैस 5000 बल मोदी-शाह-योगी के निर्देश पर गाजीपुर बॉर्डर पर निहत्थे, भोले भाले किसानों को खदेड़ने के लिए तैयार बैठे थे।

लेकिन जैसे ही इस आसन्न दमन के प्रतिरोध में आंसुओं में भीगी अपनी अपार पीड़ा का इजहार करते और उसके खिलाफ मर मिटने का संकल्प व्यक्त करते अपने नेता को किसानों ने देखा, वे इसका प्रतिकार करने के लिए तड़प उठे। वे तुरंत आधी रात, कड़कड़ाती ठंड में अपने घरों से निकल पड़े, मंदिरों तक से इस जुल्म का प्रतिकार करने के लिए दिल्ली कूच के आह्वान किये गए, खाप पंचायतों ने मोर्चा संभाला, जिसको जो साधन मिला, लोग दिल्ली की ओर दौड़ पड़े और सत्ता द्वारा खड़ी की गयी हर विघ्न को पार करते हुए दिल्ली पंहुँच गए। युवा बोले, "तुमने हमारे बूढ़े को रुला दिया तो हमारी जवानी किस काम की, आंसू का बदला लेंगे।" 

और देखते देखते बाजी पलट गई। माहौल किसान पॉवर के जश्न में तब्दील हो गया।

फासिस्ट सत्ता द्वारा किसानों के न्याय-युद्ध को  सिख विरोधी साम्प्रदायिक रंग देते हुए, राष्ट्रवाद की नकाब में किसान आंदोलन को खून और आंसुओं में डूबो देने की साजिश नाकाम कर दी गई।

इस रात ट्विटर पर रात ‘#मोदी_कायर_है’ टॉप ट्रेंड कर रहा था। इसे 12 बजे रात तक 7 लाख 19 हजार ट्वीट मिले थे और दूसरे नंबर पर ‘#राकेश_टिकैत_हीरो_है’ ट्रेंड कर रहा था।

और 29 जनवरी की सुबह से ट्विटर पर “#फॉर्मर टिकैत वर्सेस मोदी डकैत” नंबर एक पर ट्रेंड करता रहा और दूसरे नंबर पर “#मोदी_कायर_है” ट्रेंड कर रहा है। 

दरअसल, सत्ता के बेहद खतरनाक षड्यंत्र और दमन के खिलाफ किसान नेता राकेश टिकैत का साहस और संकल्प, जिसने अचानक उनका कद बहुत बढ़ा दिया, वास्तव में छले जाने, गद्दार बताए जाने की साजिश के खिलाफ किसानों के उबलते सामूहिक आक्रोश और अदम्य प्रतिरोध की भावना की ही प्रतिध्वनि थी,  जिसे नेता ने जैसे ही आवाज दिया, वह भौतिक शक्ति बन कर खड़ी हो गयी।

शह-मात का यह खेल इस महायुद्ध की बुनियादी अंतर्वस्तु में निहित है-किसान पॉवर या कारपोरेट पॉवर! भारत में कृषि विकास का कारपोरेट रास्ता या किसान रास्ता ! क्योंकि, इस युद्ध के दोनों पक्षों के बीच शक्ति संतुलन आज बेहद नाजुक है, इसलिए इस जंग में कई climax और anti-climax अब तक आये और शायद आगे भी आते रहेंगे।

26 नवम्बर एक क्लाइमेक्स था जब मोदी-शाह के सारे दमन को धता बताते हुए, 1983 की इंदिरा गांधी की शैली में हरियाणा से ही बेइज्जत करके खदेड़ दिए जाने की हर कोशिश को नाकाम करते हुए पंजाब के किसान, जो आज पूरे देश के किसानों की रहनुमाई कर रहे हैं, दिल्ली बॉर्डर पर पहुंचने और वहां  मोर्चा लगाने में कामयाब हो गए।

सरकार की डराने, बदनाम करने, बांटने की सारी चालों को नाकाम करते हुए आंदोलन न सिर्फ अंगद के पांव की तरह जमा रहा, बल्कि व्यापक और गहरा होता गया। यहां तक कि किसानों ने 26 जनवरी के लिए एक अनोखे कार्यक्रम का एलान कर दिया, गण की supremacy स्थापित करने के लिए गणतन्त्र दिवस के इतिहास में पहली बार किसानों की ट्रैक्टर परेड का। 

इसके फलस्वरूप आया अगला क्लाइमेक्स, 22 जनवरी को, जब सरकार को अपनी हर चाल नाकाम होने के बाद एक कदम पीछे हटना पड़ा, उन्हें कानूनों को डेढ़ साल होल्ड पर रखने का प्रस्ताव रखना पड़ा। जाहिर है, यह tactical retreat कानूनों को बचाये रखने और आंदोलन को diffuse करने के लिए ही था। किसानों ने बिल्कुल सही ही इसे reject कर दिया।

26 जनवरी के अनोखे कार्यक्रम की घोषणा ने किसानों को पूरी तरह चार्ज कर दिया, गणतन्त्र दिवस जिस दिन वे तंत्र के शक्ति प्रदर्शन के मूक दर्शन बने रहते थे, उस राष्ट्रीय पर्व को खुद भी celebrate करने और गणतन्त्र में गण की सर्वोच्चता को स्थापित करने, लाखों किसान दिल्ली की ओर ट्रैक्टरों में सवार होकर चल पड़े।

जिस राष्ट्रवाद के संघ-भाजपा स्वयम्भू चैंपियन बने हुए थे और जिस पर वे अपनी monopoly समझते हैं,  वेल्थ creator के नाम पर जिस तरह कॉरपोरेट को इन्होंने राष्ट्र का पर्याय बना दिया है, उस राष्ट्रवाद पर दावा ठोंकते और Republic को reclaim करते किसानों के  अभूतपूर्व शक्ति-प्रदर्शन से सरकार घबड़ाई थी। ऐसा लगता है कि जब किसान कानूनों को होल्ड पर रखने के उसके झांसे में नहीं आये तब "आपदा को अवसर में बदलते हुए" प्लान बी तैयार किया गया, जिसे 26 जनवरी को लागू किया गया। बेशक, 26 जनवरी को सेंट्रल दिल्ली में  गुमराह होकर तमाम नौजवान- किसान भी पहुँच गए थे, जो परेड रुट के सम्बंध में नेतृत्व की कथित  नरम ' लाइन से असंतुष्ट थे और गरम लगती उस संगठन की ' दुस्साहसिक ' लाइन के पीछे चले गए, जिसके बारे मे प्रशासन बख़ूबी वाकिफ था। इसमें शायद ही किसी को असहमति हो कि लाल किले की अति सुरक्षित  प्राचीर पर, वह भी 26 जनवरी के दिन जहाँ परिंदा पर भी नहीं मार सकता, वहाँ पहुंचकर धार्मिक झंडा लगाना, उसे काफी समय तक उतारा न जाना, लगातार उसका मीडिया डिस्प्ले और उसके लिए कोई कार्रवाई न होना, बेशक किसी बड़ी साजिश का परिणाम था  और शक की सुई सीधे सत्ता प्रतिष्ठान की ओर इशारा करती है।

लेकिन दिल्ली में हुई अराजकता-हिंसा के लिए जिम्मेदार, इस साजिश में शामिल ताकतों को चिन्हित करने और कार्रवाई की बजाय, सरकार ने इसके खिलाफ देश में पैदा हुए गुस्से को किसान आंदोलन के खिलाफ मोड़ दिया और उसे बदनाम करने और कुचल देने के आक्रामक अभियान में उतर पड़ी।

भोले-भाले किसान हक्के-बक्के,  उनके नेता हतप्रभ, असहाय, मायूस, मर्मान्तक पीड़ा के साथ इतनी कुर्बानी से खड़े अपने आंदोलन को बर्बाद किये जाने का यह तमाशा देख रहे थे। बेहद रक्षात्मक होकर वे एक ऐसे अपराध के लिए जिसे उन्होंने कभी किया ही नहीं, बल्कि जिसकी साजिश के वे शिकार बनाये गए, उसके लिए वे माफी मांग रहे थे, अपना कार्यक्रम स्थगित कर रहे थे, प्रायश्चित के लिए उपवास का एलान कर रहे थे लेकिन फासिस्ट सत्ता के दमन पर इससे किसी रोक की बजाय, शायद इस appeasement से उसका मनोबल और बढ़ रहा था और आखिर उसने उत्तर प्रदेश जहां सबसे निरंकुश सरकार चल रही है, वहां से छोटे-छोटे धरनों को उजाड़ते,  यूपी-दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर से किसानों को खदेड़ने की शुरुआत की ठानी। 

लेकिन ठीक उसी क्षण जब लग रहा था कि सरकार अपनी साजिशी चालों में कामयाब हो गयी है और 2 महीने से भारी कठिनाइयों, अनेक शहादतों के बीच अपार धैर्य के साथ जारी, आज़ाद भारत के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण किसान आंदोलन का अंत होने जा रहा है, एक किसान नेता के अत्यंत दूरदर्शितापूर्ण, साहसिक फैसले और भावपूर्ण उद्गार ने बाजी पलट दी। उनके उस फैसले में  किसानों की अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए अदम्य लड़ाकू स्पिरिट की सामूहिक अभिव्यक्ति हुई और इसने पूरे राष्ट्र के लोकतांत्रिक जनमत को उत्साह और जोश से भर दिया है।

इस नाटकीय उलटफेर से सत्ताधारियों की कुटिल योजना को फिलहाल धक्का जरूर लगा है, पर वे अपनी साजिशों से बाज नहीं आ रहे हैं और लगातार साम्प्रदयिक नफरत तथा अंधराष्ट्रवादी उन्माद भड़काने और सिंघु से टीकरी तक प्रायोजित भीड़ द्वारा हमलों को शह देने में लगे हैं, ठीक वैसे ही जैसे CAA-NRC विरोधी आंदोलन के दौरान किया गया था। उन्हें इसकी भी परवाह नहीं कि खासतौर से सीमावर्ती राज्य पंजाब से आये सिख किसानों के खिलाफ इस तरह भावनाएं भड़काने के राष्ट्रीय एकता के लिए कितने खतरनाक निहितार्थ हो सकते हैं, जबकि देश 80 के दशक में इंदिरा गांधी के ऐसे ही खेल का त्रासद अंजाम भुगत चुका है। सत्ता की हवस और भारत को कॉरपोरेट-हिन्दू राष्ट्र बनाने के मिशन के लिए ये देश को गृह-युद्ध की आग में झोंक रहे हैं। 

कॉरपोरेटपरस्त बुद्धिजीवी मार्ग्रेट थैचर की तरह मोदी जी को हर हाल में अपने "महान "आर्थिक (कृषि व श्रम) सुधारों पर अडिग रहने के लिये ललकार रहे हैं और चेतावनी दे रहे हैं कि यदि अन्ना आंदोलन के समक्ष मनमोहन सिंह की तरह उन्होंने समर्पण किया तो एक मजबूत नेता की उनकी साख मिट्टी में मिल जाएगी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मध्यवर्ग का अच्छा-खासा हिस्सा भी  सब कुछ जानते समझते हुए भी अपनी अदूरदर्शिता, स्वार्थ (वास्तविक या कल्पित) और गैर-लोकतांत्रिक विचारों के कारण इनका साथ दे रहा है।

बहरहाल, यह तय है कि किसानों को गद्दार साबित करने की कोशिश बैकफायर करेगी। हमारे देश में राजनीति की धुरी जो किसान समुदाय है, उसके राजनीतिक प्रशिक्षण का विराट मंच भी यह आन्दोलन बन गया है। किसानों को यह तो समझ में पहले ही आ गया था कि मोदी सरकार, अम्बानी-अडानी-कारपोरेट की सरकार है, उन्हीं के हित में कृषि-कानून किसानों पर बिना उनकी मर्जी के थोपे गए हैं। अब उन्हें यह भी समझ में आ रहा है कि भाजपा-संघ केवल मुसलमान-सिख-ईसाई विरोधी साम्प्रदायिक ताकत ही नहीं हैं, वरन किसानों-मजदूरों की भी दुश्मन है, उन्हें भी देशद्रोही और गद्दार घोषित कर फासिस्ट तौर-तरीकों से  कुचलने में उसे गुरेज नहीं है। 

26 से 28 जनवरी के बीच के इस नाटकीय घटनाक्रम के बाद किसान आंदोलन अब एक नए चरण में प्रवेश कर गया है । 

वैसे तो इस पूरे घटनाक्रम के shock से उबरने में पूरे देश को और इस आंदोलन को भी, थोड़ा समय लगेगा, पर  दरअसल, इस आंदोलन के साथ जो कुछ हुआ, वह किसी भी बड़े जनांदोलन की यात्रा में होता ही है। यह सोचना ही भोलापन होता कि यह आंदोलन सीधी रेखा में आगे और आगे ही बढ़ता जाएगा।

इतिहास गवाह है, सभी बड़े जनांदोलन जो बुनियादी सवालों को लेकर निरंकुश/ अधिनायकवादी/ फासिस्ट सत्ता से टकराते है, वे टेढ़े-मेढ़े रास्तों से, zig-zag, एक कदम आगे दो कदम पीछे होते, आगे बढ़ते हैं और अंततः जीत हासिल करते हैं।

नए चरण में आंदोलन ने कृषि कानूनों की वापसी और MSP की कानूनी गारंटी अर्थात कॉरपोरेट रास्ते के खिलाफ किसान रास्ते की आर्थिक व वर्गीय लड़ाई के साथ-साथ, वृहत्तर वैचारिक- राजनैतिक आयाम भी ग्रहण कर लिया है, मोदी राज की साम्प्रदायिक, फासिस्ट तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र की लड़ाई भी अब इसका महत्वपूर्ण मुद्दा बन कर उभर गयी है।

समय आ गया है कि किसान आंदोलन के क्षितिज को और व्यापक बनाते हुए, मजदूर-कर्मचारी, छात्र-युवा समेत सभी  लोकतांत्रिक आंदोलन, संगठन, सरकार विरोधी सारी राजनैतिक ताकतें इस आंदोलन के साथ  एकताबद्ध हों और इसे कारपोरेट राज और फासीवाद के खिलाफ भारत के नव-निर्माण की लड़ाई में तब्दील करें।

 (लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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