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असल सवाल इन धर्म संसदों के औचित्य का है

सवाल हरिद्वार या रायपुर में एक या अनेक लेकिन एक जैसे कथित संतों द्वारा बदतमीज़ी और उकसाने वाले बयानों का नहीं है बल्कि असल सवाल इन कथित धर्म सांसदों के आयोजनों के औचित्य का है।
dharm sansad
Image Courtesy: Telegraph India

ज्ञानोदय के पड़ाव ने मानव सभ्यता के विकास में एक महत्वपूर्ण योगदान यह दिया कि ‘धर्म’ को ‘तर्क’ से स्थानापन्न किया गया। यहाँ से विज्ञान और लोकतन्त्र की नींव पड़ी। इस दौर में धर्म के व्याख्याकारों और प्रतनिधियों को राजसत्ता के उच्चासीनों से उतार दिया। धर्म और उसके मौजूदा स्वरूप तर्क और विज्ञान के सामने ढेर हो गए। 17वीं सदी के इस दौर के बाद से धर्म के नाम पर जो भी हो रहा है वह उस प्रतिष्ठा को पाने की ललक के सिवा कुछ नहीं है।

चूंकि यह ज्ञानोदय यूरोप से शुरू हुआ था इसलिए धर्म एक लगभग गैर ज़रूरी संस्था के तौर पर वहाँ इक्कीसवीं सदी तक रह गया है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि वहाँ धर्म और धर्म के व्यखाकारों की अहमियत ही नहीं है लेकिन इनके अनुयायियों के लिए धर्म ठीक ठीक उसी स्वरूप में नहीं है जैसा कि हिंदुस्तान में दिनों दिन हम देख रहे हैं। हिंदुस्तान में बहुसंख्यकों का धर्म जो विशेष रूप से कई मत-मतांतरों में विशाल भूगोल में फैला है और अपनी मौजूदगी बनाए हुए है अंतत: वर्ण और जाति जैसी सामाजिक संस्थाओं को पुनर्स्थापित किए जाने और यथास्थिति बनाए रखने का जरिया भर बन चुका है।

हिंदुस्तान में बहुसंख्यकों की ही तरह धार्मिक विश्वासों, मान्यताओं और रूढ़ियों में इतनी विविधताएँ रही हैं कि उसे संगठित किए जाने की ज़रूरत हर दौर में महसूस की गयी है। संगठित किया जाना बहुसंख्यक वर्चस्व के लिए बहुत ज़रूरी माना गया। समय समय पर इसकी कोशिशें हिन्दू संतों और व्याख्याकारों द्वारा होती हैं। कभी कुछ अच्छा रच कर और कभी महज़ पुराने रचे गए की समसामयिक व्याख्या करके। लगभग छह सौ सालों यानी भक्ति काल के बाद से किसी नयी भक्ति धारा का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता जहां कुछ नया रचकर धर्म को प्रासंगिक बनाए रखने की कोई रचनात्मक पहल हुई हो।

ऐसे दौर में जब विज्ञान आम इंसान की दैनंदिन व्यवस्था का आसरा बन चुका हो, धर्म की प्रासंगिकता बचाए रखना न केवल एक चौनौतीपूर्ण काम है बल्कि यहाँ ज़रूरत कुछ नया रचने की भी है। जब कुछ नया नहीं रचा जा सके और पीड़ित मानवता को धर्म के जरिये राहत दिलाने के दावे किए जाएँ तो वो ऐसे छद्म के रूप में सामने आते हैं जिन्हें लंबे समय तक बनाए रखना न केवल मुश्किल काम है बल्कि उसके लिए अनिवार्य रूप से सत्ता संरक्षित होना ज़रूरी हो जाता है।

मौजूदा दौर में संतों का जो स्वरूप हमें दिखलाई दे रहा है वह इसी अकर्मण्यता और नाकाबिलियत से पैदा हुई कुंठा का दौर है। जिस देश में लंबे समय तक यह कहा जाता रहा हो कि आधुनिक युग की लगभग सर्वमान्य भाषा यानी अंग्रेज़ी पढ़कर महज़ अच्छी आजीविका और पद प्रतिष्ठा हासिल की जा सकती है लेकिन संस्कृत जान भर लेने से अंग्रेज़ीदां जमात से पाँव पुजवाए जा सकते हैं तो इस स्वत: हासिल वैभव की तरफ उन लोगों का ध्यान भी गया जिन्हें इस शार्ट कट में अपना भविष्य नज़र आया।

हाल ही में देश में धर्म सांसदों का आयोजन हो रहा है जिनकी निष्पत्ति देश के अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुसलमानों के संहार की घोषणा और आव्हान में हो रही है और जो प्रत्यक्ष रूप से देश की सत्ता पर आसीन भारतीय जनता पार्टी और इसकी बुनियाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की राजनैतिक विचारधारा के प्रचार के काम आ रही है।

सवाल हरिद्वार या रायपुर में एक या अनेक लेकिन एक जैसे कथित संतों द्वारा बदतमीजी और उकसाने वाले बयानों का नहीं है बल्कि असल सवाल इन कथित धर्म सांसदों के आयोजनों के औचित्य का है। जब पूरे देश का ध्यान इन हिंसक भाषणों पर जा रहा है तब यह जानने भर से क्या होगा कि किस संत ने क्या कहा? किसने मुसलमानों की हत्याओं के लिए सभागार में बैठे दर्शकों को संबोधित करते हुए पूरे देश के बहुसंख्यक हिंदुओं को सीधे तौर हत्यारे बन जाने का आव्हान किया। सवाल यह भी नहीं है कि किस संत ने गांधी या नेहरू के लिए अपशब्द कहे या सवाल यह भी नहीं है कि इनमें संतों के गुण हैं या नहीं? सवाल सीधा सीधा इस तरह की धर्म और संसद जैसे मानव सभ्यता के विकास में आयीं दो अपने- अपने समय की दो महान संस्थाओं के संयोजन से बने उस आयोजन के औचित्य और उनकी प्रासंगिकता का है।

क्या यह पूछा जाना अब और ज़रूरी नहीं हो गया है कि इन धर्म सांसदों के जरिये सनातन धर्म के किन पहलुओं की तत्व मीमांसा हुई? या इन आयोजनों से धर्म की किस ज्ञान मीमांसा पर विमर्श हुआ? आखिर इक्कीसवीं सदी में सनातन धर्म मानवता के कल्याण के लिए किस तरह से अपनी चिंताएँ सामने रख रहा है? वो कौन से सवाल हैं जिनसे प्रकृति और मनुष्य के रिश्ते में रचनात्मक समंजस्य बने?

आज इन सवालों से अगर विज्ञान या तर्क से उपजी राजनैतिक व्यवस्था के जिम्मेदार लोगों को सोचना पड़ रहा है तो धर्म इसमें कैसे अपनी भूमिका देख रहा है? धर्म और धार्मिकता के सामने प्रद्योगिकी ने कई तरह की चुनौतियाँ पेश की हैं। क्या वाकई इन धर्म सांसदों में इन चुनौतियों से ताल मेल बैठाने की कोई सार्थक पहल हो रही है? ऐसे में जब धर्म एक पुराना विचार मान लिया गया है और उसके वजूद पर संकट मंडरा रहा है तब धर्म को बदली हुई परिस्थितियों में पुनर्परिभाषित करने की कोई संवादात्मक पहल कहीं से हो रही है? अगर ऐसा कुछ नहीं हो रहा है तो महज़ धर्म के नाम पर संसद चलाने का असल मकसद क्या है यह एक खुला रहस्य है।

यह कहते हुए किंचित भी संकोच की ज़रूरत नहीं है कि ये कथित संत सत्तासीन राजनैतिक दल और उसकी मातृ संस्था के ज़रखरीद सेवक ही हैं। जो अपने आभामंडल और अपने पीछे अनुयायियों की एक फौज के बल पर राजनैतिक आकाओं का काम कर रहे हैं। जिसके बदले इन्हें सत्ता का भरपूर संरक्षण प्राप्त है। इन्हें कुछ भी कहने की आज़ादी है। इन्हें कोई भी गुनाह करने की खुली छूट है। इन्हें अपना वैभव दिखाने और भरपूर विलासिता की खुली छूट है।

हालिया उदाहरण कालीचरण जैसे कथित संत का है जो तमाम अनर्गल बकने के बाद यह अट्ठाहास करते हुए पाया जाता है कि ‘वो तो संत है ही नहीं बल्कि लोग ही उसे संत बनाने पर आमादा हैं। यह उसी का हलफ है कि उसे इस तरह भगवा वस्त्र पहनने का शौक है। वह किसी भी आम गृहस्थ व्यक्ति से ज़्यादा सांसारिक और विलासी है और अपने ऐशो-आराम के लिए वह सब कुछ करता है जिससे उसे फायदा हो।

क्या कालीचरण नाम का यह अकेला यही एक संत है जो नाम और पहचान बदल कर एक राजनैतिक दल के लिए भरपूर कम कर रहा है या यह उन तमाम संतों की ही तरह एक संत है जो इसकी तरह एक खास मकसद से ऐसा कर रहे हैं?

धर्मनिरपेक्ष जनता की भारी मांग पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री और प्रदेश सरकार ने कालीचरण पर त्वरित कार्यवाही ज़रूर की है लेकिन इसकी न तो तारीफ ही की जा सकती है और न ही सराहना। बल्कि मूल सवाल अभी भी अपनी जगह है कि आखिर छत्तीसगढ़ में सरकार के संरक्षण में धर्म संसद के नाम से कोई आयोजन हुआ ही क्यों? ऐसी कौन सी ज़रूरत आन पड़ी कि सरकार और कांग्रेस के संरक्षण में आदिवासी बाहुल्य राज्य में धर्म संसद आयोजित हो।

मौजूदा संतों में एक ऐसा शिरोमणि बता पाना मुश्किल है जो वाकई धर्म के ऐसे पक्षों पर कोई शास्तार्थ करने में दिलचस्पी या काबिलियत रखता हो जो विज्ञान के इस युग में धर्म की स्थापना के लिए कोई तत्वमीमांसा या ज्ञान मीमांसा के क्षेत्र में कुछ नूतन दर्शन लेकर आ रहा हो। यह कहना हालांकि विज्ञान सम्मत नहीं है कि विज्ञान ऐसी नई दृष्टियों के विरोध में हो लेकिन आज कौन सा ऐसा संत शिरोमणि है जो वाकई धर्म को लेकर कोई मौलिक चिंतन कर पाने में सक्षम हो।

यह बहस सनातन जितनी ही पुरानी और नई है कि तमाम उम्र तपस्या कर लेने से प्राप्त हुई शक्तियों का कोई जनपक्षीय उपयोग भी है या वो महज़ चमत्कारिकता का छद्म रचने और तमाम आवाम को उसके वशीभूत करने के सिवा इन शक्तियों का क्या इस्तेमाल हुआ है? फिर बात अगर आज के आधुनिक और राजनैतिक संरक्षणप्राप्त संतों की जाये तब यह कहना बेहद मुश्किल है कि इनमें न तो भाषा की तमीज़ ही है और न ही आध्यात्म का एक अंश। इनसे क्या वाकई धर्म की कोई आध्यात्मिक व्याख्या की उम्मीद की जा सकती है?

(लेखक पिछले डेढ़ दशकों से जन आंदोलनों से जुड़े हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

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