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बांग्लादेश बनने के इतिहास में छिपी है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 'सत्याग्रही' वाले बयान की सच्चाई!

नज़रिया: पूरा देश साल 1971 में बांग्लादेश की लड़ाई के साथ खड़ा था तो फिर क्यों जनसंघ और आरएसएस बांग्लादेश की आज़ादी के लिए मुखर होकर बयानबाज़ी करने की रणनीति अपनाए हुए थे?
बांग्लादेश बनने के इतिहास में छिपी है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 'सत्याग्रही' वाले बयान की सच्चाई!
Image courtesy : The Hindu

"यूनाइटेड पाकिस्तान एक अजीब तरह की चिड़िया है जिसके दो पंख हैं लेकिन शरीर पंख से अलग मौजूद है" यह लाइन मशहूर लेखक सलमान रुश्दी की है। इस लाइन का संबंध पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान की कहानी से जुड़ा है। वही पश्चिमी पाकिस्तान जिसे आज के जमाने में पाकिस्तान कहा जाता है और पूर्वी पाकिस्तान जिसे आज के जमाने में बांग्लादेश कहा जाता है। वहीं बांग्लादेश जिसकी आजादी की 50 वीं वर्षगांठ पर जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह कहकर आए हैं कि बांग्लादेश की मुक्ति संघर्ष से जुड़े सत्याग्रह में उन्होंने भाग लिया था और इसके लिए वह जेल भी गए थे। यह बात सच्चाई के कितने नजदीक है। इस परखने के लिए बांग्लादेश बनने की यात्रा पर चलते हैं।

अप्रैल 1946 में मौलाना अबुल कलाम आजाद ने एक पत्रकार से बात करते हुए कहा था कि मैं जिन्ना के पाकिस्तान के मांग में एक खतरनाक पहलू देख रहा हूं। आज नहीं तो कल पूर्वी पाकिस्तान में संघर्ष पनपेगा। असंतोष के बिंदु उपजेंगे। महज धर्म के आधार पर पूर्वी और पश्चिमी भाग एक साथ नहीं रह सकते। 

द लिब्रेशन ऑफ बांग्लादेश के लेखक दाऊद हैदर इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि पूर्वी पाकिस्तान की आबादी अधिक थी। पूर्वी पाकिस्तान का कच्चा माल पश्चिमी पाकिस्तान जाता था। जूट और दूसरी तरह की फसलों की पैदावार पूर्वी पाकिस्तान में होती थी लेकिन कीमतें पश्चिमी पाकिस्तान तय करता था। इसका बहुत छोटा हिस्सा मुनाफे के तौर पर पूर्वी पाकिस्तान को मिल पाता था। पश्चिमी पाकिस्तान के सेब, अंगूर और गर्म कपड़े पूर्वी पाकिस्तान में 10 गुना अधिक कीमत पर बिकते थे। भेदभाव का स्तर इतना भयानक था कि विरोध की लहर को पाकिस्तान और इस्लाम के खिलाफ कहकर खारिज कर दिया जाता था। 

और सबसे बड़ा था भाषा का सवाल। पूर्वी पाकिस्तान के बाशिंदे बंगाली बोला करते थे और पश्चिमी पाकिस्तान के बाशिंदे उर्दू में रचे हुए थे। एक आधुनिक मुल्क इस तरह की विविधता को अपने अंदर समा लेने की कोशिश करता है लेकिन पाकिस्तान ने ऐसा नहीं किया पूरे पाकिस्तान की महज एक ही भाषा बनी जो उर्दू थी। जरा सोच कर देखिए कि ढाका का एक विद्यार्थी जो बंगाली में पल बढ़ रहा था, जिसे अपने देश की सेवा करने के लिए सिविल सर्विस में आने की चाहत होगी, उसे बंगाली से उर्दू में परीक्षा देने में कितनी अधिक तकलीफ और पीड़ा से जूझना पड़ता होगा। भाषा ने पश्चिमी पाकिस्तान के प्रति पूर्वी पाकिस्तान के लोगों में असंतोष पैदा करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। इस तरह से पश्चिमी पाकिस्तान के कई तरह के शोषण और उत्पीड़न का शिकार पूर्वी पाकिस्तान हो रहा था। 

साल 1966 में विपक्ष के नेताओं ने इकट्ठे होकर शेख मुजीबुर्रहमान की अगुवाई में छह पॉइंट एजेंडा पेश किया। आबादी के आधार पर संघीय संसद में प्रांतों का प्रतिनिधित्व दिया जाए, विदेश मामले सुरक्षा और करेंसी को छोड़कर सारे मामले प्रांतों के अधीन किए जाएं, पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के लिए दो तरह की करेंसी की व्यवस्था की जाए या एक ही फेडरल रिजर्व करेंसी सिस्टम हो लेकिन उनमें पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान का अलग अलग हिस्सा हो, कर वसूलने और लागू करने का अधिकार प्रांतों को दिया जाए। अब यह इस तरह की मांगे थी, जिन्हें मुजीबुर्रहमान की अगुवाई में पेश तो इस लिहाज से किया का रहा था कि  पाकिस्तान के अंदर से असंतोष धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा। इन मांगों के पूरा हो  जाने के बाद पाकिस्तान अपनी आंतरिक कलह को दूर करके एक मजबूत राष्ट्र के तौर पर उभरेगा। लेकिन हकीकत यह थी कि साल 1965 के बाद से पूर्वी पाकिस्तान में विद्यार्थियों, मजदूरों और तमाम तरह के धड़े पाकिस्तान से अलग होने की अलगाववादी चाह लेकर अपनी लड़ाई लड़ रहे थे और अपना नेता शेख मुजीबुर्रहमान को बना रखा था। 

पूर्वी पाकिस्तान के नेताओं द्वारा पेश किए गए सिक्स पॉइंट एजेंडे के बाद पाकिस्तान की सरकार को लगने लगा था कि पूर्वी पाकिस्तान का असंतोष अलगाववादी रुख की तरफ बढ़ने लगा है।

साल 1970 के चुनाव में पूर्वी पाकिस्तान की पार्टी अवामी लीग ने बहुमत हासिल किया। पूर्वी पाकिस्तान की 162 सीटों में शेख मुजीबर्रहमान की अवामी लीग ने 160 सीटें जीत ली। लेकिन इन चुनावी नतीजों को मान्यता नहीं मिली। सैनिक तानाशाह याह्या ख़ान नहीं चाहता था कि पाकिस्तान को संभालने वाले पूर्वी पाकिस्तान के नेता हों। 

पूर्वी पाकिस्तान के असंतोष को पूरी तरह से दबाने के लिए पूर्वी पाकिस्तान के पूरे इलाके में मार्शल लॉ लगा दिया गया। यानी सेना तैनात कर दी गई।  मार्च 1971 में शेख मुजीबुर्रहमान को ढाका से गिरफ्तार कर रावलपिंडी भेज दिया गया। 

पाकिस्तान की सेना को निहत्थे लोगों पर भी हमला करने की इजाजत दे दी गई थी। इस वजह से बड़े स्तर पर जनसंहार हुआ। पूर्वी पाकिस्तान के नेताओं बौद्धिकों, वकीलों और कार्यकर्ताओं की हत्याएं कर दी गईं। लाखों लोगों ने भारत में शरणार्थी के तौर प्रवेश किया। 

उस समय भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारतीय संसद में पूर्वी पाकिस्तान से सहानुभूति और पूर्वी पाकिस्तान के समर्थन में अनुमोदन पेश किया। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि इस अनुमोदन के 4 दिन पहले यानी 27 मार्च साल 1971 के दिन पूर्वी पाकिस्तान के मेजर जियाउर्रहमान ने चिटगांव स्थित रेडियो केंद्र से पूर्वी पाकिस्तान की आजादी की घोषणा कर दी थी। इस आजादी का जिक्र  इंदिरा गांधी ने संसद में पेश किए गए अनुमोदन में नहीं किया था। आखिरकार ऐसा क्यों हुआ? 

इतिहासकार श्रीनाथ राघवन कहते हैं कि बांग्लादेश बनने के इतिहास में अगर औपनिवेशिक स्थिति से आजाद होने की लड़ाई, वैश्वीकरण की प्रक्रिया और उस जमाने की शीत युद्ध से जुड़े अहम देशों की भूमिका को ध्यान में नहीं रखा जाएगा तो बांग्लादेश बनने की कहानी अधूरी रह जाएगी। दक्षिण एशिया के देशों में पूर्वी पाकिस्तान एक ऐसा इलाका था जो अंग्रेजों से तो आजाद हो चुका था लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान के उपनिवेश के तौर पर उसकी स्थिति गुलामों वाली थी। साल 70 के अंतिम दशकों से वैश्वीकरण की प्रक्रिया पूरी दुनिया में धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ रही थी। फ्रांस जर्मनी वियतनाम इटली हर जगह छात्रों का जमावड़ा विरोध कर रहा था। साल 1968 में पाकिस्तान में पहली बार टीवी आया। अब सूचनाओं का प्रसार क्षेत्रीय से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने लगा। यही वह दौर था जब अमेरिका बनाम सोवियत संघ की शीत युद्ध के बीच दुनिया के कई दूसरे देश खुद को संभालने की जुगत में लगे हुए थे। कहने का मतलब यह है कि इन परिस्थितियों का भी बांग्लादेश के मुक्ति संघर्ष से जुड़ाव है।

इसीलिए भारत की खुफिया एजेंसी इंदिरा गांधी की सरकार से बांग्लादेश की आजादी में पुरजोर भागीदारी की मांग कर रही थी लेकिन भारत की सरकार कई तरह के घरेलू और वैश्विक समीकरणों को देखते हुए बड़े ही संकोच और सधे हुए कदमों के साथ पूर्वी पाकिस्तान में चल रहे संघर्ष के प्रति अपनी राय रख रही थी।

इतिहासकार और जानकारों की माने तो इंदिरा गांधी और मौजूदा भारत सरकार बड़े सूझबूझ के साथ जायज कदम उठा रहे थे। अचानक से पूर्वी पाकिस्तान की आजादी को मान लेना और पश्चिमी पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध छोड़ देना भारत के लिए बहुत अधिक घातक साबित हो सकता था। 

इतिहास की घटनाएं भले ही एक लाइन में लिख दी जाती हो कि इंदिरा गांधी की मदद से बांग्लादेश आजाद हुआ। लेकिन इनकी सच्चाई इतनी सीधी और एक परतीय नहीं होती है। इसकी बहुत सारी परतें होती हैं और यह बहुत टेढ़ी मेढ़ी होती है।

शेख मुजीबुर्रहमान पाकिस्तान की जेल में बंद थे, इसलिए भारत सरकार यह भी सोच रहे थी कि कुछ भी हो सकता है। पूर्वी पाकिस्तान भविष्य में अपनी आजादी से मुकर भी सकता है। पाकिस्तान की एक संप्रभु राष्ट्र के तौर पर संयुक्त राष्ट्र संघ में सदस्यता थी। इसलिए सीधे लफ्जों में पूर्वी पाकिस्तान की मदद करना भारत की तरफ से एक्ट ऑफ वार की श्रेणी में आ सकता था। यह होता तो पाकिस्तान की तरफ से मदद करने के लिए चीन और अमेरिका जैसे देश पहले से ही खड़े थे। अपना खेमा मजबूत करने के लिए इंदिरा गांधी ने कई देश के नेताओं से बातचीत की।  भारत ने इसी दौरान सोवियत संघ के साथ मैत्री संधि की।

इंदिरा गांधी ने भारत की सभी विपक्षी दलों को साथ में लेकर बैठक भी की। जिस बैठक में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, डीएमके समेत कई दूसरे दलों के साथ जनसंघ भी शामिल था। सब को एक साथ लेकर यह मंत्रणा हुई कि पूर्वी पाकिस्तान की मदद की बात खुलकर सामने नहीं आनी चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो भारत को बहुत सारी परेशानी झेलनी पड़ेगी। इसी समय भारतीय सेना ने भी भारत सरकार को कह दिया था कि अभी वह हाल फिलहाल युद्ध करने की तैयारी में नहीं है। उसे बहुत सारे संसाधन जुटाने पड़ेंगे। फिर भी इन सभी स्थितियों के बीच बांग्लादेश की प्रोविजनल सरकार कोलकाता के किसी बिल्डिंग से चल रही थी। 

अगर संपूर्णता में उस समय के माहौल को समझा जाए तो उस समय स्थितियां ऐसी थी जहां पर भारत को फूंक-फूंक कर कदम रखना था। समय लेना था ताकि वह सही कदम उठा पाए। भारत यही कर रहा था और इसके साथ वह परोक्ष तौर पर पूर्वी पाकिस्तान की मदद भी कर रहा था। 

ऐसे में जनसंघ और आरएसएस ने जो किया उसे उस दौरान के वर्तमान के हिसाब से समझा जाए तो महज राजनीतिक चालबाजी के अलावा और कुछ नहीं दिखता। क्योंकि यह बात सबको पता थी कि भारत परोक्ष रूप से बांग्लादेश के मुक्ति वाहिनी का सैन्य समर्थन कर रहा है। जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक को भी पता था कि भारत पूर्वी पाकिस्तान के संघर्ष में शामिल है। लेकिन कई तरह के अंतरराष्ट्रीय समीकरणों को देखते हुए इसे प्रत्यक्ष तौर पर स्वीकार नहीं कर रहा है। यह जरूरी कूटनीतिक फैसला था। 

ऐसे में जनसंघ की अटल बिहारी वाजपेई की अगुवाई में अगस्त 1971 में दिल्ली में रैली हुई। वही रैली जिसमें शामिल होने की बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर रहे हैं। अब इस रैली में 21 या 22 साल के नरेंद्र मोदी शामिल हुए थे या नहीं लेकिन असल बात तो यह है कि वह रैली मौजूदा समय में भारत की रणनीति के हिसाब से नहीं थी। 

वह रैली खुलकर पूर्वी पाकिस्तान की सरकार को मान्यता देने की बात कर रही थी और सीधे युद्ध संघर्ष में शामिल होने के लिए आग भड़काने का काम कर रही थी। जो भारत के लिए मौजूदा हालात के मुताबिक नहीं था। अगर सब कुछ खुलकर होता तब 1971 का मंजर ही कुछ अलग होता। चीन अमेरिका और पाकिस्तान के साथ उस भारत की भिड़ंत होती जिसका सैन्य प्रमुख सैम मानेकशॉ का मानना था कि उसकी सेना युद्ध के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है। उसके पास इतने संसाधन नहीं है।

यानी इस की संभावना सबसे अधिक थी कि जिस सत्याग्रह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शामिल होने की बात कही अगर पूरी तरह से राजनीतिक इरादे से की गई उस सत्याग्रह की बात मान ली जाती तो भारत को युद्ध का सामना करना पड़ता और मुंह की खानी पड़ती।

यह वह पूरी पृष्ठभूमि है जिसके धरातल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिए गए वक्तव्य को देखा जाए तो उस समय भी महज एक राजनीतिक स्टंट की तरह दिखती है और इस समय भी महज एक राजनीतिक स्टंट के तौर पर दिखती है। 

अगर सच में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विचार दूसरे देशों में हो रहे तकलीफों से गहरे तौर पर जुड़े हुए हैं तो कोई भी यह सवाल पूछ सकता है कि वह और उनकी पार्टी बांग्लादेश से आए शरणार्थियों को घुसपैठी कहकर क्यों पुकारते है? नागरिकता से जुड़ा है ऐसा कानून बनाया जो मुस्लिमों के अलावा सभी धर्मों के मानने वाले लोगों को गैर कानूनी तौर पर भारत में रहने की आजादी देता है? क्या ऐसे तमाम सवालों के जवाब से लगता है कि भारत के प्रधानमंत्री सच्चे अर्थों में बांग्लादेश के दुख से द्रवित होकर सत्याग्रह में भाग लिए होंगे और जेल भी गए होंगे?

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