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विचार: मानव मनोविज्ञान को समझना!

असहिष्णुता राजनेता और राजनीतिक दलों में इस कदर पैठ गई है, कि अब वे जनता के मन को समझने में भी नाकाम हैं।
विचार: मानव मनोविज्ञान को समझना!
तस्वीर केवल प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए

मानव मनोविज्ञान को समझना हर एक के वश की बात नहीं होती। इसके लिए काफ़ी उदार-चरित यानी बड़े दिल वाला होना पड़ता है। राजनेताओं में वही सफल समझा जाएगा, जिसे मानव मनोविज्ञान समझने में महारत हो। शायद इसीलिए पहले के शासकों को शतरंज के खेल में बहुत रुचि होती थी। प्रतिद्वंदी को कहाँ कैसे गिराना है, यह एक माहिर खिलाड़ी ही समझ सकता है। माहिर वह जो प्रतिद्वंदी कि अगली चाल को ताड़ ले। उसे पता होना चाहिए कि उसकी क्रिया की प्रतिक्रिया क्या होगी। लेकिन इसमें भी चतुर वह जो बिना अपने मनो-विकार व्यक्त किए चाल को अपने पक्ष में कर ले। हम इसीलिए अशोक और अकबर तथा जवाहर लाल नेहरू को बड़ा कहते हैं, कि उन्होंने बिना अनावश्यक रक्त-पात के माहौल अपने अनुकूल किया। इसके लिए किसी एकेडेमिक डिग्री की ज़रूरत नहीं पड़ती, इसके लिए अनुभव ही बहुत है।

अब इसमें कोई शक नहीं कि सत्तारूढ़ भाजपा शतरंज के शह और मात में माहिर है लेकिन मानव मनोविज्ञान समझने में मूढ़। क्योंकि उसकी हर चाल प्रतिद्वंदी को उत्तेजित करने में होती है। और इस तरह वह ध्रुवीकरण की राजनीति करती है। मगर अपने इस खेल में वह ममता बनर्जी से मात खा रही है। ममता बनर्जी उत्तेजित होती हैं और फिर ऐसा क़रारा जवाब देती हैं कि भाजपा और उसके प्रधानमंत्री चारों खाने चित! भाजपा को लगता है कि वह इसे प्रधानमंत्री के पद का अपमान के तौर पर प्रचारित करेगी और इसे भुना लेगी। लेकिन वह भूल जाती है, कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। ताज़ा मामला 28 मई का है। प्रधानमंत्री यास तूफ़ान से हुए नुक़सान का सर्वे करने ओडिशा और पश्चिम बंगाल गए। दोनों राज्यों की राजधानियों में वहाँ के मुख्यमंत्रियों तथा अधिकारियों के साथ उन्होंने आपात बैठक भी की। कोलकाता में हुई बैठक में नेता विपक्ष शुभेंदु अधिकारी तथा वहाँ के गवर्नर भी बुलाए गए। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस पर आपत्ति की और वे मीटिंग में नहीं गईं। वे आधा घंटे बाद अपने मुख्य सचिव अलपन वंद्योपाध्याय के साथ प्रधानमंत्री से मिलने पहुँचीं और उन्हें 10 हज़ार करोड़ के राहत पैकेज को देने की एक अर्ज़ी पकड़ा कर वापस लौट गईं।

भाजपा इसे प्रधानमंत्री पद का अपमान बता रही है। और इस बहाने ममता पर हमलावर है। उधर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस का कहना है कि भाजपा राहत के बहाने राजनीति कर रही है क्योंकि आपदा में अवसर तलाशना उसकी सिफ़त है। अब पूरा पश्चिम बंगाल राजनीति का अखाड़ा बन गया और भाजपा से पहली बार कोई ऐसा दल टकराया है जो तुर्की-ब-तुर्की जवाब देना जानता है। तृणमूल के नेता भी कोई मुरव्वत नहीं करते। इसीलिए भाजपा अब अपनी चाल में मात खाने लगी है। तृणमूल ने इस पूरे प्रकरण को प्रधानमंत्री बनाम मुख्यमंत्री नहीं बल्कि मोदी बनाम ममता बना दिया है। लोगों में इससे संदेश गया है कि ममता ने मोदी को औक़ात दिखाई। नतीजा यह है कि भाजपा सरकार अब वहाँ की अफ़सरशाही पर शिकंजा कस रही है। मुख्य सचिव अलपन वंद्योपाध्याय को दिल्ली बुलाए जाने का आदेश हुआ है। उधर ममता सरकार अड़ी हुई है। यह एक तरह की बदले की राजनीति है और इससे नुक़सान ही होगा। सूत्रों की मानें तो पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव का कार्यकाल बहुत कम बचा है और वे इस ज़िल्लत से बचने के लिए इस्तीफ़ा भी दे सकते हैं।

इससे नौकरशाही हतोत्साहित होगी और वह काम करने की बजाय सदैव इस द्वन्द में पिसेगी कि वह राज्य का साथ दे या केंद्र का। ऐसा ही एक मामला प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय भी हुआ था। उस समय तमिलनाडु में जयललिता मुख्यमंत्री थीं। तब द्रमुक के अध्यक्ष करुणानिधि के साथ एक आला पुलिस अधिकारी ने दुर्व्यवहार किया। उस पुलिस अधिकारी के ऊपर जयललिता का हाथ था। मामला पीएमओ तक आया तो उस अधिकारी को दिल्ली बुलाया गया किंतु जयललिता अड़ गईं और प्रधानमंत्री ने बीच-बचाव कर मामला शांत कर दिया। अधिकारी वहीं रहा। यह प्रधानमंत्री का बड़प्पन था। लेकिन आज प्रधानमंत्री से ऐसे बड़प्पन की उम्मीद नहीं की जा सकती। हालाँकि अखिल भारतीय सेवा (आचार) नियम,1954 व आईएएस काडर नियम, 1954 की धारा 6(1) के अनुसार केन्द्रीय कार्मिक, पेंशन व लोक शिकायत मंत्रालय को यह अधिकार है कि वह अखिल भारतीय सेवा के किसी भी अधिकारी को राज्य से केन्द्र में प्रतिनियुक्ति पर बुला सकता है।

भाजपा के लोग तर्क देते हैं, कि यह प्रधानमंत्री का बड़प्पन है कि वे पश्चिम बंगाल विधानसभा भंग नहीं करते जबकि ममता अभी से नहीं पिछली सरकार के वक्त से ही प्रधानमंत्री का अपमान करती आई हैं। ऐसे कुतर्कों का एक जवाब तो यह है, कि अब ऐसा संभव नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने बोम्मई मामले में ऐसी व्यवस्था दी थी कि किसी भी सरकार का फ़ैसला फ़्लोर पर ही होगा। दूसरे मोदी बनाम ममता विवाद में यह कैसे संभव है? यह तो दो नेताओं का पारस्परिक विवाद है। इस पर केंद्र सरकार अपनी किस विशेष शक्ति का प्रयोग करेगी?

सच बात तो यह है कि राजनीति अब क्षुद्र होती जा रही है और राजनेता असहनशील। यह केवल नेताओं के चुनावी भाषणों में ही नहीं दीखता बल्कि उनके सामान्य शिष्टाचार में भी दिखने लगा है। प्रतिद्वंदी राजनेता को येन-केन-प्रकारेण तंग करना अब एक सामान्य प्रक्रिया हो गई है। और इसकी वजह है राजनीति अब समाज केंद्रित नहीं, अपितु व्यक्ति-केंद्रित होती जा रही है। राजनीति अब लाभ का सौदा है, उसके अंदर से सेवा भाव और राजनय लुप्त हो चला है। राजनीति में मध्यम मार्ग अब नहीं बचा है। पारस्परिक विरोध का हाल यह है कि न केवल प्रतिद्वंदी को पछाड़ने के लिए एक-दूसरे के फालोवर के सफ़ाये का अभियान चलाया जाता है बल्कि जो दल सत्ता में होता है, वह सत्ता की धमक का इस्तेमाल कर विरोधी को हर तरह से तंग करता है। पहले यह उन राज्यों तक सीमित था, जहां धुर वामपंथी या दक्षिणपंथी सरकारें थीं। क्योंकि सफ़ाया-करण की थ्योरी ही उनकी है। पर अब यह केंद्र तक आ धमका है। कोर्ट से लेकर चुनाव आयोग, सीबीआई जैसी संस्थाएँ भी केंद्र के इशारे पर काम करने लगी हैं। कहाँ तो केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी एक जमाने में लोकपाल बिल लाने की माँग करती थी और कहाँ आज वह सारी सांवैधानिक संस्थाओं को नष्ट करने पर तुली है। अब स्थिति यह है कि उसके विरोधी दलों के अंदर भी यही चिंतन हावी है।

पश्चिम बंगाल और केरल को इस तरह की राजनीति का गढ़ समझा जाता था। पश्चिम बंगाल में वहाँ पर नक्सलबाड़ी आंदोलन से उपजे विचार और उसके कार्यकर्त्ताओं का हिंसक कैडर की मदद से संहार किया गया था। पकड़-पकड़ कर मारा गया था। ठीक इसी तरह नब्बे के दशक में पंजाब की बेअंत सिंह सरकार ने आतंकवादियों को ख़त्म करने के नाम पर पुलिस को असीमित अधिकार दिए थे। याद करिए, वहाँ के पुलिस महानिदेशक केपीएस गिल ने किस तरह नौजवानों को घर से घसीट-घसीट कर मार दिया था। युवा शक्ति का ऐसा संहार पहले कभी नहीं देखा गया था। यही हाल कश्मीर में हुआ। जिस किसी ने नागरिक स्वतंत्रता की माँग की, उसे मार दिया गया अथवा जेलों में ठूँस दिया गया। जब हमारे विपरीत विचार वाले लोगों का उत्पीड़न होता है, तब हम खुश होते हैं और सोचते हैं कि यह देश-हित में हो रहा है। नतीजा एक दिन सत्ता का कुल्हाड़ा हमारे सिर पर भी गिरता है और हम उफ़ तक नहीं कर पाते। तब हमें बचाने के लिए भी कोई नहीं होता क्योंकि व्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक आज़ादी की माँग करने वालों को तो हम खो चुके होते हैं। यही असहिष्णुता है।

यह असहिष्णुता राजनेता और राजनीतिक दलों में इस कदर पैठ गई है, कि अब वे जनता के मन को समझने में भी नाकाम हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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