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आज की वार्ता : किसान-आंदोलन का एक निर्णायक मोड़

सरकार और किसान नेताओं के बीच आज होने जा रही वार्ता इस ऐतिहासिक आंदोलन का एक निर्णायक मोड़ साबित हो सकती है।
किसान-आंदोलन

आज का दिन किसान-आंदोलन के लिए बेहद अहम है। सरकार और किसान नेताओं के बीच आज होने जा रही वार्ता इस ऐतिहासिक आंदोलन का एक निर्णायक मोड़ साबित हो सकती है। सरकार यदि पीछे न हटी, तो हालात खतरनाक टकराव की ओर बढ़ सकते हैं, जाहिर है जिसकी पूरी जवाबदेही सरकार की होगी।

कल तो जैसे प्रकृति ने भी किसानों का इम्तेहान ले लिया। बहरहाल, कड़ाके की ठंड के बीच रात से दोपहर तक जारी मूसलाधार बारिश भी उनके हौसले तोड़ न सकी और वे पूर्ववत अपने फौलादी इरादों के साथ डटे हुए हैं।

आंदोलनरत किसानों के मूड, उनके रोष और आखिरी दम तक लड़ाई के संकल्प को किसान नेता अशोक धवले के इस वाक्य से समझा जा सकता है, " इन कानूनों को रद्द करो या हमें यहाँ से हटाने के लिए बलप्रयोग करो" (तीसरा कोई विकल्प नहीं है!)

किसानों के मन मे कहीं न कहीं यह एहसास घर करता जा रहा है कि सरकार कारपोरेट समर्थक रणनीतिकारों की सलाह पर  इस आंदोलन को लंबे समय तक खींचकर और थकाकर , जैसा किसान नेताओं ने आरोप लगाया है, शाहीन बाग आंदोलन जैसे किसी अंत की ओर ले जाना चाहती है।

जून में चोर दरवाजे से अध्यादेश के माध्यम से इस कुख्यात कानून के introduce होने के तुरन्त बाद ही पंजाब में किसान यूनियनों ने तथा उनके समर्थक बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध शुरू कर दिया था। सितम्बर में इसके कानून की शक्ल अख्तियार करते ही वहां आंदोलन शुरू हो गया, किसान सड़क पर उतरने लगे, वे ट्रेन tracks पर आकर जम गए और पूरे 2 महीने वहां डटे रहे, पूरे पंजाब में यह जनांदोलन की शक्ल अख्तियार करता गया, लेकिन सरकार के कान पर जूँ नही रेंगी। तब किसानों ने 26 नवम्बर के दिन, जो हमारा संविधान दिवस भी है, राजधानी की ओर कूच किया और हरियाणा की खट्टर सरकार की सारी बाधाओं को पार करते हुए दिल्ली बॉर्डर पर आकर जम गए।

पिछले 40 दिनों से वे बेहद शांतिपूर्ण ढंग से अपना आंदोलन चला रहे हैं। इस दौरान उन्होंने अपार धैर्य, साहस और रणनीतिक कौशल का परिचय देते हुए, सरकार द्वारा उन्हें बदनाम करने, विभाजित करने, उकसावेबाजी और दमन के बल पर कुचल देने की सारी शातिर चालों को मात दिया है। गोदी मीडिया के माध्यम से सरकार और कारपोरेट बुद्धिजीवियों द्वारा युद्धस्तर पर चलाये गए मिथ्या प्रचार अभियान (disinformatin campaign ) की तथ्यों और तर्कों के साथ उन्होंने कारगर और सटीक काट करते हुए मुंहतोड़ जवाब दिया है और perception के स्तर पर समाज मे अपने आंदोलन की वैधता को स्थापित करने तथा सरकार को कठघरे में खड़ा करने में सफल हुए हैं। वे यह धारणा बनाने में सफल हुए हैं कि मोदी सरकार की कारपोरेट घरानों, विशेषकर अम्बानी-अडानी के साथ कोई ऐसी दुरभिसंधि है जिसके कारण वह किसानों की मौतों तक पर संवेदनहीन बनी हुई है और किसानों की मांगों पर अड़ियल रुख अपनाए हुए है।

पिछले 40 दिन से कड़कड़ाती ठंड में जब पारा शून्य डिग्री तापमान के आसपास पंहुँच रहा है, किसान खुले आसमान के नीचे पड़े हैं।

इस दौरान जैसा किसान नेता राकेश टिकैत ने दावा किया, कुल 60 के आसपास किसान योद्धा शहीद हो चुके हैं, हर 16 घण्टे में एक किसान की शहादत, अनेक दुःखद आत्महत्याएं हो चुकी हैं। कल (रविवार) भी दो किसानों की मौत हुई और एक किसान ने खुदकशी की। सबसे शर्मनाक तो यह है कि न तो मोदी, न ही संघ-भाजपा-सरकार के किसी अन्य प्रतिनिधि ने उनके लिए अब तक कोई संवेदना प्रकट की है। यहां तक कि पिछली बैठक में जब किसान नेताओं ने उन्हें श्रद्धांजलि देकर बैठक शुरू करने का प्रस्ताव रखा तो कृषिमंत्री ने उनके लिए हताहत शब्द का प्रयोग कर बेशर्मी की सारी हदें पार कर दीं, श्रद्धांजलि तो दूर की बात है!

किसानों के सब्र का प्याला अब भरता जा रहा है, उनके बीच युवा, जोशीले कार्यकर्ताओं का धैर्य अब जवाब देने लगा है, उन्हें लगने लगा है कि तानाशाह मोदी-शाह हुकूमत ने इसे अपनी नाक का सवाल बना लिया है और उससे भी बढ़कर कारपोरेट का विश्वास खोने के डर से वे इतनी भयभीत है कि अब आर या पार की लड़ाई के बिना वह मानेगी नहीं ।

अपनी संवेदनहीन क्रूरता और बेरुखी से सरकार जैसे खुद ही सारे भरम खत्म कर देने और यह साबित करने पर आमादा है कि जैसी किसानों को आशंका थी, यह अम्बानी-अडानी की ही सरकार है, वही इसके लिए राष्ट्र हैं और उन्हीं के हितों की सेवा देशभक्ति, इसके रास्ते जो भी रोड़ा बने, वे सब देशद्रोही हैं और इसीलिए उपेक्षा, तिरस्कार, दंड और दमन के पात्र !

वरना कोई तुक नहीं है कि चक्र-दर-चक्र, एक एक हफ्ते के लंबे अंतराल के बाद, निरर्थक वार्ताओं  को 40 दिन खींचते सरकार उनकी प्रमुख मांग पर अब तक एक भी ठोस प्रस्ताव तक नहीं ला सकी है, उल्टे उन्हीं से पूछ रही है कि विकल्प बताओ! सबसे नीचे की दो गौण मांगों पर सहमति को, वह भी अलिखित, को वह 50% प्रचारित करवा रही है, जबकि किसान उसे 5% अर्थात हाथी की पूंछ कह रहे हैं।

इतने बलिदान के बाद, इतनी तकलीफें सहकर भी किसान करो या मरो की भावना से इस अभूतपूर्व लड़ाई में बिना विचलित हुए टिके हुए हैं। इसके पीछे कारण बहुत ठोस है,  दरअसल, यह बात किसानों की अनुभूति में समा गई है कि इन कानूनों के कारण अब उनका survival दांव पर है- किसान के रूप में उनका अस्तित्व ही अब खत्म हो जाएगा। उनकी जमीन उनके हाथ से निकल जायेगी और वे अपने ही खेत पर मजदूर बन जाएंगे।

यही बात आज एक एक किसान बोल रहा है, वह नेता हो, आम किसान हो, बूढ़ा हो या जवान हो, पुरुष हो या महिला हो।

कहते हैं कि जब कोई विचार जनसमुदाय की अनुभूति का हिस्सा हो जाता है, तो वह भौतिक शक्ति (material force) बन जाता है। ( कार्ल मार्क्स )

प्रो. प्रभात पटनायक ने इस बात को बेहद शिद्दत से नोट किया है कि यद्यपि हमारी कृषि में पूंजीवाद का विकास 70-80 के दशक से ही हो रहा था, परन्तु वह कृषि अर्थव्यवस्था के अंदर का विकास था, बाहर से पूंजीवादी हमले से कृषि क्षेत्र को बचाने के लिए सरकार बीच में दीवार बनकर खड़ी थी, नव उदारवादी नीतियों के आने के बाद से यद्यपि बहुत से रक्षा-कवच हटते जा रहे थे, लेकिन फिर भी MSP आधारित खरीद के रूप में मूल रक्षा-पंक्ति से छेड़छाड़ नहीं की गई, वह बदस्तूर कायम रही। अब मोदी सरकार ने उस MSP regime को व्यवहारतः ( de facto ) खत्म करके, तीनों कानूनों के माध्यम से नव-उदारवादी deregulation को चरम पर पहुंचा दिया है तथा कृषि क्षेत्र को पूरी तरह बाजार की शक्तियों के हवाले कर दिया है, आज़ाद भारत में पहली बार इसे बेलगाम पूंजीवाद और साम्राज्यवादी लूट के लिए पूरी तरह खोल दिया है।

MSP पर सरकार द्वारा खरीद के कारण बाजार व्यवस्था की स्वतः स्फूर्तता/अराजकता पर जो बंदिशें थीं, वे अब पूरी तरह खत्म हो जाएंगी। कृषि क्षेत्र में बाजार की शक्तियों के पूरी तरह नियन्त्रण मुक्त operation के कारण, कृषिउत्पादन तथा व्यापार के पूरी तरह माल (commodity) में तब्दील हो जाने के फलस्वरूप, माल-उत्पादन के अर्थशास्त्रीय नियम के तहत बड़ा उत्पादक अर्थात कारपोरेट छोटे उत्पादक अर्थात किसान को देर सबेर हजम कर जाएगा।

हम देख रहे हैं कि अभी जब कृषि क्षेत्र में वित्तीय पूँजी और कारपोरेट का प्रवेश नगण्य है, तभी इसने हमारे ग्रामीण जीवन में किस कदर उथल-पुथल मचा दी है और हमारे किसानों की तबाही की कैसी कहानी लिखनी शुरू कर दी है, पिछले 25 साल में NCRB के सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 4 लाख के ऊपर किसान आत्महत्या कर चुके हैं, 10 हजार किसान केवल इस बीते साल में आत्महत्या किये हैं। असली संख्या इससे बहुत अधिक होगी क्योंकि इसमें केवल उन किसानों का नाम दर्ज होता है,  जो कागज में जमीन के मालिक है, इसमें न महिलाओं की संख्या शामिल है, न परिवार के अन्य सदस्यों की।

अब, जब ये दैत्याकार देशी-विदेशी कॉर्पोरेशन्स पूरी तरह कृषि क्षेत्र को अपने शिकंजे में ले लेंगे, तो उनकी भयावह विनाश-लीला की कल्पना मात्र ही सिहरन पैदा करने वाली है, शायद उससे होने वाली तबाही का आज अंदाज़ा लगा पाना भी हमारे लिए मुश्किल है।

हमारे 70 करोड़ किसानों का जीवन विभिन्न रूपों में इससे सीधे प्रभावित होगा -दरिद्रीकरण, भुखमरी, कर्ज़,  बेरोजगारी, विस्थापन, पलायन, अवसाद, नशाखोरी, आत्महत्या, अपराध, सामाजिक विघटन। कृषि क्योंकि हमारी Life-line हैं, ( जिसे कोरोना-काल ने फिर बखूबी दिखा दिया ) और किसान हमारे primary producer हैं, इसलिए उनके जीवन की उथल-पुथल पूरे समाज को प्रभावित करेगी।

APMC क़ानून खत्म करने का क्या असर होगा, इसे समझने के लिए किसानों के पास बिहार का अनुभव ही पर्याप्त है। मोदी जी जिस APMC मंडी कानून के खात्मे को किसानों के लिए आज़ादी का तोहफा बता रहे हैं, उसे बिहार में नीतीश-भाजपा सरकार ने 2006 में ही खत्म कर दिया था। पर उसका परिणाम क्या हुआ? वह किसानों की बदहाली का सबब बन गया और इस के फलस्वरूप मजदूरी दर में भी गिरावट हुई, जिससे बिहार से रोजी रोटी की तलाश में पलायन तेज हुआ। वहां से लाखों टन अनाज लगभग आधे दाम पर खरीदकर ट्रकों पर ले जाकर पंजाब की मंडी में MSP पर दोगुने दाम पर बिकता है। Times of India में कल ही प्रकाशित एक अध्ययन से इसकी पुष्टि होती है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह बार बार यह कह रहे हैं कि साल-दो साल लागू करके देख लिया जाय, किसानों के लिए फायदेमन्द नहीं हुआ तो बदल दिया जाएगा। पर बिहार में तो यह 14 साल से लागू है और उक्त अध्ययन के अनुसार यह किसानों के लिए बेहद नुकसानदेह साबित हुआ है। फिर अब क्या देखना है ?

अव्वलन तो अमेरिका, यूरोप, से किसी तरह हमारी स्थितियों की तुलना हो ही नहीं सकती- ऐतिहासिक विकास का अलग चरण, आबादी, गरीबी, बेरोजगारी,  इतिहास, भूगोल सब अलग, पर अगर कृषि में बाजार की कारपोरेट व्यवस्था इतनी ही फायदेमंद है, तो कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा ने बिल्कुल सही सवाल उठाया है कि वहां की सरकारों को खरबों डॉलर की सब्सिडी देकर कृषि को क्यों सम्भालना पड़ता है? अमेरिका जहाँ आबादी का मात्र 1.5 %  किसान हैं, 2019 में सरकार ने 867 अरब डॉलर सब्सिडी दी और यूरोप में 110 अरब डॉलर! चीन अपने किसानों को दुनिया में सबसे अधिक सब्सिडी देने वाला देश है। अमेरिकी किसान को औसतन जहां साल में 62000 अमेरिकी डॉलर सब्सिडी मिली, वहीं भारत में उसके 1% से भी कम प्रति किसान यह मात्र 282 डॉलर है।

क्या मोदी सरकार भी अपने किसानों को वैसे ही भारी मात्रा में सब्सिडी देगी? पर, वह तो जो कुछ सब्सिडी मिलती थी, उसे भी खत्म करती जा रही है,  किसान नेताओं के साथ बैठक में MSP को कानून बनाने की बात आते ही अपनी दरिद्रता का रोना रोने लगती है, हालांकि उसमें महज 3 लाख करोड़ लगेगा, जबकि RTI के खुलासे के अनुसार 6 साल में उसने अपने यार कारपोरेटों का 6 लाख करोड़ कर्ज़ माफ कर दिया!

इसी लिए किसानों ने कहा है कि यह न्याय युद्ध है, एक नैतिक युद्ध है,जिसकी चिंता के केंद्र में करोड़ो इंसानों का जीवन है। यह गणतंत्र में किसानों की हैसियत और हिस्सेदारी को तय करने की भी लड़ाई है। यह उनके सम्मान और स्वाभिमान की भी लड़ाई है।

26 नवम्बर, संविधान दिवस के दिन राजधानी की सरहद पर दस्तक देकर किसानों ने अपना ऐतिहासिक आंदोलन शुरू किया, 40 दिन और 50 से ऊपर शहादतों के बाद, अब उन्होंने 26 जनवरी को इस गणतंत्र को Reclaim करने का एलान किया है, उस दिन किसान बॉर्डर से राजधानी के अंदर प्रवेश करेंगे और गणतंत्र परेड करते हुए दावा पेश करेंगे कि वे ही असली गण हैं, संविधान में वर्णित " We, the People" हैं और अपने तंत्र को किसी अम्बानी-अडानी, किसी मोदी-शाह के हाथों hijack नहीं होने देंगे,  अपनी मर्जी के खिलाफ यह देश नहीं चलाने देंगे।

जाहिर है, जनपथ से निकलकर राजपथ पर उनके मार्च/परेड के बाद, भारत वही नहीं रहेगा जो उसके पहले था! अर्थनीति ही नहीं देश की राजनीति भी बदलेगी, उस पर दूरगामी असर पड़ेगा।

बेहतर हो कि सरकार दीवाल पर लिखी हुई इबारत पढ़े और अपनी कारपोरेट भक्ति से बाज आये, अहंकार छोड़कर झुककर किसानों की बात माने और अपनी क्रूर संवेदनहीनता के लिए उनसे माफी मांगे ताकि देश एक खतरनाक टकराव से बच सके।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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