‘’मुसलमानों के लिए 1857 और 1947 से भी मुश्किल आज के हालात’’

एक वक्त था... जब ग़ैर मुस्लिम भी रमज़ान का पाक महीना शुरू होते ही ईद का इंतज़ार किया करते थे। आज भी महीना तो रमज़ान का ही है लेकिन इंतज़ार करने वाला कोई नहीं... जिसका कारण तानाशाही का वो नापाक दौर है जो इस धरती पर सांस ले रहे अलग-अलग खूबसूरत मजहबों को महज़ एक रंग में रंग देना चाहता है।
इस दौर को ख़ुद के लिए मुफीद नहीं मानने वाले ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव मौलाना ख़ालिद सैफुल्लाह रहमानी ने अपना दर्द बयां किया है। उन्होंने कहा कि देश के मुसलमान अपने धार्मिक रीति रिवाज़ों के मामले में साल 1857 और 1947 से भी ज्यादा मुश्किल हालात से गुजर रहे हैं। उन्होंने मुसलमानों, खासकर मुस्लिम महिलाओं से गुज़ारिश की है कि वे मुस्लिम लॉ पर्सनल बोर्ड के खिलाफ किए जा रहे दुष्प्रचार के प्रभाव में न आएं।
मौलाना रहमानी ने अपने फेसबुक पेज पर वीडियो संदेश जारी कर आरोप लगाया कि फिरकापरस्त ताकतें चाहती हैं कि हमें बरगलाएं, उकसाएं और हमारे नौजवानों को सड़क पर ले आएं। ऐसे ही मामलों में एक हिजाब का मसला भी है, जो अभी कर्नाटक में मुसलमानों के लिए एक बड़ी आज़माइश का सबब बना हुआ है। उन्होंने कहा कि बोर्ड पहले ही दिन से इस मसले पर ध्यान दे रहा है। और उसके लिए कानूनी उपाय कर रहा है।
आज के दौर को 1857 और 1947 के दौर से तुलना करना ही कई सवाल पैदा कर देता है। जैसे 1947 में देश को भले ही आज़ादी मिल गई हो लेकिन बंटवारे ने जो घाव दिया वो कभी भुलाया नहीं जाता। इतिहासकारों का मानना है इस दिन करोड़ों मुसलमानों को काट दिया गया, मुसलमानों के खून से ट्रेनों को सान दिया गया। हालांकि इतिहासकार ये भी मानते हैं कि बॉर्डर के इस तरफ जिस तरह मुसमानों को मारा गया उसी तरह बॉर्डर पार दूसरे धर्म के लोगों को मार-काटकर भगाया गया था। वहीं जब 1857 की बात होती है तब हमें अंग्रेजों के खिलाफ जंगेआज़ादी की याद आती है।
1857 को क्यों याद कर रहे हैं मौलाना?
ये वही दौर था जब हिन्दू-मुसलमान दोनों ने मिलकर लड़ाई लड़ी थी। ‘हर-हर महादेव’ के साथ ‘अल्लाह-हो-अकबर’ के नारे गूंजते थे। इस बात से अंग्रेज घबरा गए थे। लड़ाई ख़त्म होने के बाद इसका उपाय किया गया। दिल्ली में पकड़े गए हिन्दू सैनिकों को छोड़ दिया गया। कहते हैं कि दिल्ली में एक ही दिन 22 हज़ार मुसलमान सैनिकों को फांसी दे दी गयी। यही तरीका कई जगह आजमाया गया। फिर हिन्दुओं को सरकारी नौकरी और ऊंचे पद दिए जाने लगे। मुसलमानों को दूर ही रखा गया। धीरे-धीरे जनता में हिन्दू-मुसलमान की भावना फैलने लगी। इसके ठीक बीस साल बाद पॉलिसी बदल दी गयी। अब मुसलमानों को ऊंचे पदों पर बैठाया जाने लगा। और हिन्दुओं को प्रताड़ित किया जाने लगा।
ऐसा कहा जाता है कि लड़ाई ख़त्म होने के बाद लगभग 10 लाख हिन्दुस्तानियों को मारा गया। दस साल तक ये काम गुपचुप रूप से किया जाता रहा। एक पूरी पीढ़ी को खड़ा होने से रोक दिया गया। हालांकि ब्रिटिश इस बात को नकार देते हैं, पर रिसर्च करने वाले कहते हैं कि नकारने से सच झुठलाया नहीं जा सकता। हिटलर ने भी यहूदियों के साथ इतना खून-खराबा नहीं किया था।
1857 और 1947 समेत मौलाना के बयान पर जब न्यूज़ क्लिक ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के प्रोफेसर सैयद अली नदीम रेज़वी से बात की तो उन्होंने बेहद विस्तार से इस मसले को समझाया... उन्होंने मौलाना ख़ालिद सैफुल्लाह रहमानी के बयान को मोदी के एजेंडे का शिकार बताया। उन्होंने कहा कि जिस तरह हिटलर ने जर्मनी के लोगों को परेशान किया था ठीक उसी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदुस्तान के लोगों को परेशान कर रहे हैं फिर चाहे वो मुस्लिम हों या हिंदू। रेज़वी साहब ने 1857 का ज़िक्र करते वो हुए कहा- कि वो दौर जंगे आज़ादी थी, जिसमें हिंदू-मुस्लमानों ने मिलकर आज़ादी की जंग लड़ी। हालांकि पंजाब समेत कई दूसरे राज्यों के सिख या दूसरे समुदायों के लोग या मुसलमान रजवाड़े थे जिन्होंने इस गदर में हिस्सा नहीं लिया था। रेज़वी साहब ने आगे कहा कि मैं इस गदर को मज़बब के चश्में से नहीं देखना चाहता.. हालांकि ज़ाहिर है कि जिन मुसलमानों ने इसमें भाग लिया वो पढ़ा लिखा था। रेज़वी साहब ने 1947 का भी जिक्र किया और कहा कि बॉर्डर के इस पार मुस्लिम परेशान था तो बॉर्डर के उस पार दूसरी कौमें। उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी जानबूझकर उन पुराने ज़ख्मों को कुरेदते हैं लेकिन मैं ऐसा नहीं करूंगा। रेज़वी साहब ने आखिर में कहा कि जबसे हिंदुत्व पावर में आई है, मोदी जी वही काम कर रहे हैं जो आरएसएस और हिंदू महासभाओं ने अंग्रेजों के साथ मिलकर किया था।
ये कहना ग़लत नहीं होगा देश का अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमान केंद्र में मौजूद सरकार के निशाने पर हमेशा रहा है। साल 2014 के बाद से हिंसक भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या करने के मामलों में बढ़ोतरी हुई है। कभी बच्चा चोरी के शक में पीट कर मार दिया जाता है, कभी दूध के लिए गाय ले जाते वक्त उसे काटने के शक में मार दिया जाता है, तो कभी ट्रेन की सीट को लेकर बहस के चलते मौत के घाट उतार दिया जाता है। इतना ही नहीं कई बार तो ‘’जय श्री राम’’ के नारे नहीं लगाने पर भी मौत के घाट उतार दिया जाता है। दाढ़ी और टोपी पहनी हो तो आप देश द्रोही हो जाते हैं, सरकार के खिलाफ कुछ बोल दें तो पाकिस्तान जाने की धमकियां मिलने लगती हैं। बदलते वक्त के साथ लोगों के भीतर एक-दूसरों की कौम के खिलाफ भर चुकी नफरत वाकई लोगों को परेशान कर रही है।
साल 2014 के बाद से मुसलमानों को शारीरिक दंड के साथ-साथ मानसिक क्षति भी खूब पहुंचाई गई। जैसे 2017 में उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार बनने के बाद अवैध बूचड़खानों को बंद कर लाखों लोगों का रोज़गार छीन लिया गया। अब जब योगी आदित्यनाथ की सरकार दोबारा रिपीट हुई है तो प्रदेश के मदरसों से उन शिक्षकों को निकालने की प्लानिंग चल रही है जो धार्मिक ज्ञान देने के लिए रखे जाते थे। हालांकि सरकार के ऐसे फैसलों से सवाल उठता है कि जब अयोध्या, काशी और प्रयागराज जैसे शहरों में लोग अपने धर्म को पढ़ने के लिए जा सकते है तो मदरसों से क्या गुरेज़ है।
ख़ैर... आपको याद होगा जब गुजरात में 2002 के दंगे हुए तब भी वहां भाजपा की ही सरकार थी और केंद्र में अटल विहारी बाजपेई की। फिर हाल ही में हुए दिल्ली दंगों में मारे गए मुसलमानों को कौन भूल सकता है।
कहने का अर्थ ये है कि आज़ादी से पहले संघ ने अंग्रेजों के साथ मिलकर फिर संघ की विचारधारा से लिप्त भाजपा सरकार ने हमेशा से मुसलमानों का शोषण किया है। जो आज भी बदस्तूर जारी है।
(व्यक्त विचार निजी हैं।)
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