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विशेष: 'ट्रम्प सिन्ड्रोम'  से ग्रसित बिहार विधानसभा चुनाव

‘ट्रम्प सिंड्रोम’यानी चुनाव हारने के पश्चात भी सत्ता न छोड़ने की हठी मनोवृत्ति। एनडीए की जीत और महागठबंधन की हार को लेकर बिहार के चौक-चौराहों, चाय की दुकानों, मुहल्ले व गांवों की बैठकों में ये बात आम हो चली है कि ‘‘कुछ तो गलत जरूर हुआ है।”
 बिहार

अमेरिका व बिहार के चुनाव लगभग साथ-साथ संपन्न हुए। ऐसा प्रतीत होता है बिहार चुनाव  ‘ट्रम्प सिंड्रोम’से ग्रसित रहा है। ‘ ट्रम्प सिंड्रोम’यानी चुनाव हारने के पश्चात भी सत्ता न छोड़ने की हठी मनोवृत्ति। चुनाव परिणामों के आने के बाद महागठबंधन के नेताओं द्वारा कम से कम 20 सीटों पर दुबारा मतदान करवाने की मांग से चुनाव आयोग व प्रशासनिक पदाधिकारियों के कानों पर भले जूं न रेंगे लेकिन बिहार के चौक-चौराहों, चाय की दुकानों, मुहल्ले व गांवों की बैठकों में ये बात आम  हो चली है कि ‘‘ कुछ तो गलत जरूर हुआ है।” महागठबंधन के नेताओं द्वारा नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण समारोह का बहिष्कार इसी भावना की अभिव्यक्ति है।

आधी रात तक मतों की गिनती,  चंद मतों से जीत-हार, प्रशासन द्वारा हेरा-फेरी की अनगिनत कहानियों के मध्य एनडीए गठबंधन बहुमत के आंकड़े 122 से मात्र तीन सीट अधिक लाकर  सरकार भले बना ले परन्तु आम जनता में उसकी वैधता पर संदेह बना रहेगा।

महागठबंधन का नेता चुने के बाद तेजस्वी यादव ने मतों की गिनती संबंधी कुछ गंभीर आरोप चुनाव आयेग पर लगाए जो इस संस्था की विश्वसनीयता  के लिए  अच्छे नहीं माने जा सकते।  कुछ सवाल जो उभर कर आए उनका जवाब चुनाव आयोग की ओर से अवश्य आना चाहिए। मसलन पोस्टल बैलेटों की गनती ईवीएम वोटों से पहले की जाने की चुनाव आयोग की स्थापित परिपाटी को क्यों और किसके कहने पर बदला गया? पोस्टल बैलेटों की बड़ी संख्या यानी 200, 500, 700 और 900 तक रद्द करने का आधार क्या था? पोस्टल बैलेट करने वाले अधिकांश लोग  पढ़े-लिखे तबके के शिक्षक, कर्मचारी हुआ करते हैं फलतः बड़े स्तर पर उनके मत डालने में गलती की संभावना हो जाए,  यह संदेह  पैदा करता है।

वैसे एनडीए गठबंधन में निरंतर खींच-तान की खबरें आ रही हैं। बहरहाल बिहार में सरकार की प्रकृति जो भी हो विधानसभा का यह चुनाव अपनी रोमांचक उतार-चढ़ाव के लिए अर्से तक याद किया जाता रहेगा।

महागठबंधन को 37.2 प्रतिशत तो एनडीए गठबंधन को 37.3 प्रतिशत  मत प्राप्त हुए। मात्र 0.1 प्रतिशत मत को वोटों में तब्दील करें तो यह 12,270 यानी बारह हजार दो सौ सत्तर मत अधिक पाकर 15 सीट अधिक झटक लिए। लगभग 10 से 12 सीट मात्र 12 से लेकर 950 मतों के अंतर से जीत-हार हुई है। कई जगहों पर  महागठबंधन के उम्मीदवारों को जीतने की बधाई रिटर्निग ऑफिसर द्वारा दे दी गयी लेकिन सर्टिफिकेट प्राप्त करने के लंबे इंतजार करने  दौरान उन्हें हारा हुआ बता दिया गया। हिलसा, परिहार, मटिहानी,  बछवाड़ा जैसी कई सीटें इसी दायरे में आती है। पहले दो पर राजद तो बाकी पर सीपीएम और सीपीआई के जीतने की संभावना थी।

‘जाति’सिर्फ़ ठहरी हुई जड़ ईकाई नहीं होती

बिहार चुनाव प्रारंभ से ही हर किस्म के अनुमानों ओपिनियन पोल, एग्ज़िट पोल को धता बताते रहे। दिल्ली स्थित आकलन करने वाले संस्थानों द्वारा, बिहार को लेकर, अमूमन जातीय गणित के आंकड़ों को आधार बनाकर अनुमान लगाए जाते हैं। विधानसभा के पूर्व, ओपिनियन पोल  करने वालों ने बिहार में एनडीए के लिए एकतरफा जीत बताया था। इसका अधार आकलनकर्ताओं ने लोकसभा चुनावों को बनाया था जिसके अनुसार एनडीए व महागठबंधन में क्रमश: 52-53 तथा 37 प्रतिशत वोट मिले थे लिहाजा महागठबंधन कैसे 16 प्रतिशत मतों के अंतर को पाट पाएगा?

इसे आधार बनाकर बिहार विधानसभा चुनावों को देखें तो जातीय गणित के मामले में एनडीए का पलड़ा लोकसभा चुनावों से भी भारी पड़ता दिख रहा था। जाति आधारित पार्टियां मसलन मुकेश सहनी की वीआईपी, जीतनराम मांझी की ‘हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा’और उपेंद्र कुशवाहा की ‘रालोसपा’ महागठबंधन से बाहर जा चुकी थीं। ‘जाति’के लिहाज से तो अब महागठबंधन में मात्र राजद के ही सामाजिक वोटों का आधार था जिसका मुस्लिम-यादव (माई) समीकरण। कांग्रेस के रहने से मुस्लिम वोटों का महागठबंधन के प्रति और अधिक झुकाव रहने के साथ-साथ थोड़े-बहुत सवर्ण वोटों के साथ आने की बात समझी जा सकती है। वामपंथी दलों का तो काई जातीय आधार माना ही नहीं जाता। अतः जातीय गणित को ध्यान में रखकर 12 प्रतिशत यादव, 16-17 प्रतिशत मुसलमान और 3-4 प्रतिशत सवर्ण मानकर कांग्रेस-वामपंथ के वोटों को जोड़ दें, फिर भी वह एनडीए गठबंधन से तो काफी पीछे थे। फिर वह क्या चीज थी जिसके कारण महागठबंधन ने इतने विशाल जातीय आधार वाले एनडीए गठबंधन को पानी पिला दिया?  ‘जाति’का नैरेटिव तभी काम करता है जब उसके समानान्तर कोई बड़ा नैरटिव उपस्थिति नहीं रहता। कोई बड़ा नैरटिव आते ही ‘जाति’ अपना प्रभाव खोने लगती है। बिहार चुनाव में बदलाव की चाहत ने जातीय समीकरणों को पीछे धकेल दिया कहा जाए तो इसे अतिश्योक्ति नहीं माना जा सकता।

राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। विभिन्न दलों को प्राप्त सीटों को नीचे की तालिका से समझा जा सकता है।

चुनाव अभियान के दौरान जिसप्रकार महागठबंधन के नेताओं मसलन तेजस्वी यादव, कन्हैया कुमार और दीपंकर भट्टाचार्य की सभाओं में भीड़ उमड़ती नजर आ रही थी और आमलोगों को जो अपार समर्थन मिला उससे महागठबंधन के आगे होते चले जाने का माहौल बनने लगा।

बिहार की राजनीति के तीन दशकों में, पहली बार सामाजिक न्याय व धर्मनिरपेक्षता के बजाय आर्थिक मुद्दे प्रमुखता से उभर रहे थे। पढ़ाई, कमाई दवाई और सिंचाई के नारे ने लोगों में उम्मीद पैदा करनी शुरू कर दी थी। दस लाख रोजगार, विधवा पेंशन में बढ़ोतरी, समान काम का समान वेतन, कृषि ऋण की माफी सरीखे सवाल चुनाव के प्रधान मुद्दे के रूप में उभरे। राजद नेता तेजस्वी यादव ने भी कहना शुरू किया कि सामाजिक न्याय के बाद अब आर्थिक न्याय का वक्त आ गया है। साथ ही यह भी कि वो सिर्फ कुछ जातियों नहीं अपितु ‘ए टू जेड’ की पार्टी है।

पहल चरण में महागठबंधन को बढ़त

पहले चरण का चुनाव 28 अक्टूबर को संपन्न हुआ। पहले चरण में  महागठबंधन को मिली बढ़त का अंदाजा होने लगा। इस चरण के लिए होने वाली 71 सीटों में महागठबंधन ने 48 सीटें जीतीं। हवा के रूख का पता एनडीए के नेताओें को होने लगा था। भाजपा को अपनी जमीन खिसकती नजर आयी। जद-यू को नुकसान पहुंचाने का उसने लोजपा के रूप में जो दांव खेला था वो फेल होता नजर आ रहा था। लोजपा उम्मीदवारों को जद-यू की सीटों पर खड़ा कर जो उसने व्यूह रचना की उसमें वो खुद भी फंसती नजर आने लगी। अब भाजपा ने अपनी रणनीति बदली और अखबारों में नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार दोनों की तस्वीरें साथ-साथ आने लगी। चिराग पासवान से कहने भर को ऊपर-ऊपर से दूरी भी दिखाने की कोशिश की जाने लगी।

भाजपा के कई नेता जिसमें अमित शाह, जे.पी नड्डा आदि बार-बार दुहराने लगे कि एनडीए में नीतीश कुमार को जितनी भी कम-ज्यादा सीटें आए,  मुख्यमंत्री वही बनें रहेंगे। नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने की बात कहने के पीछे की राजनीति ये थी कि कहीं ऐसा न हो कि नीतीश  कुमार का सामाजिक आधार, मुख्यतः अतिपिछड़ा और महादलित वोट,  कहीं भाजपा को मिले ही नहीं। भाजपा, जदयू को तो डैमेज कर चुकी थी लेकिन अब वो नीतीश कुमार के वोटों को खोना नहीं चाहती थी इस कारण नीतीश कुमार के मुख्यमत्री बनने की बात दुहरायी जाने लगी।

दूसरे चरण में भाजपा-जदयू के बीच थोड़ा समन्वय दिखता नजर आया। इस चरण के लिए होने वाली 94 सीटों में महागठबंधन को एनडीए के मुकाबले थोड़ी कम सीटें मिली। 94 में 42 सीटें।

बिहार चुनाव में साम्प्रदायिक मुस्लिम संगठन 

महागठबंधन के पक्ष में हवा देख अब नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार एक तरफ ‘जंगल राज’ की वापसी के खतरे को दिखाने लगे वहीं दूसरी ओर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री  योगी आदित्यनाथ के जरिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का खेल शुरू किया। भाजपा के नेतागण राममंदिर के निर्माण , धारा 370 आदि की बातें जोर-शोर से उठाने लगे। हिंदू सांप्रदायिकरण की भाजपा की कोशिशों  को बड़ा सहयोग मिला मुस्लिम सांप्रदायिक संगठन समझी जाने वाली ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम से। वैसे  इस बिहार चुनाव में कई सांप्रदायिक मुस्लिम संगठन सक्रिय होकर चुनाव लड़ रहे थे। ओवैसी की पार्टी का गठबंधन उपेंद्र कुशवाहा और मायावती की पार्टी से था। वही पप्पू यादव के गठबंधन में केरल की घनघोर कम्युनिस्ट विरोधी संगठन एस.डी.पी.आई,  आई.यू.एम.एल तथा ए.एम.पी जैसे संगठन थे। इन सांप्रदायिक संगठनों का मुख्य लक्ष्य था मुस्लिम वोटों को सेक्यूलर पार्टियों से अलग कर देना। अधिकांश जगहों पर मुस्लिम उम्मीदवार खड़े कर  अल्पसंख्यक वोटों को महागठबंधन के बजाय ‘ अपने उम्मीदवारों’ को देने की बातें होने लगी थी।

तीसरे चरण में एआईएमआईएम की मौजूदगी से एनडीए को फायदा 

सीमांचल, कोशी और मिथिलाचंल के लिए तीसरे चरण के लिए होने वाले चुनावों में सीमांचल और कोशी लंबे वक्त से महागठबंधन के मजबूत इलाके माने जाते रहे हैं। मुस्लिम-यादव बहुल यह क्षेत्र लंबे वक्त से राजद का सामाजिक आधार माना जाता रहा है। लेकिन ओवैसी की पार्टी ने मुसलमानों की नुमाइंदगी का सवाल बनाकर भाजपा-जदयू के बजाय राजद-कांग्रेस पर ही हमला करना प्रारंभ कर दिया। इन दोनों के खिलाफ मुख्य तर्क यह था कि मुसलमानों को हमेशा इन दोनों दलों ने अपना बंधुआ समझा है। मुसलमानों को नुमाइंदगी देने से राजद-कांग्रेस जैसी पार्टियां कतराती रही हैं। इसके साथ ‘यादव’ जाति को केंद्र में रखकर निन्दा अभियान चलाए जाने लगे जैसे ‘‘ यादव उम्मीदवार मुसलमानों का वोट तो ले लेते हैं लेकिन  अपना वोट मुस्लिम उम्मीदवारों को ट्रांसफर नहीं करा पाते।” ‘‘ मुसलमानों की आबादी 16-17 प्रतिशत है लेकिन उन्हें नुमाइन्दगी उस अनुपात में बेहद कम दी जाती हैं।”  कांग्रेस-राजद ने इन अभियानों को गंभीरता से नहीं लिया। उन्हें लगता रहा कि लोग इन बातों के झांसे में नहीं आ पायेंगे। ‘माई’ समीकरण के आधार वाले इलाके में ओवैसी की पार्टी के अभियान ने ऐसा प्रभाव डाला कि ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने खुद तो मात्र पांच सीटें जीती लेकिन महागठबंधन को एक दर्जन से अधिक सीटें हराने में सहायता कर दी। जो एनडीए इस क्षेत्र में बेहद कमजोर समझा जा रहा था उसे अच्छी खासी सीटें मिल गयी। तीसरे चरण की 78 सीटों में से 52 सीटें एनडीए के खाते में चली गयी और महागठबंधन को मात्र 21 सीटों से संतोष करना पड़ा।  महागठबंधन के सरकार बनाने में  चंद सीटों के अंतर का यह मुख्य  कारण बन गया।

ओवैसी की मौजूदगी ने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के ऐसे नैरेटिव को गढ़ा जिसने एनडीए को फायदा पहुंचाया। भाजपा-जदयू, राजद-कांग्रेस पर उसके जंगल राज को लेकर निशाना बनाते रहे।   एआईएमआईएम ने भी राजद-कांग्रेस पर हमला कर खुद को भाजपा के नैरेटिव  में फिट बिठा लिया फलतः महागठबंधन को इसका नुकसान उठाना पड़ा। ठीक उसी प्रकार कई सीटों पर पप्पू यादव के संगठन ने नजदीकी मुकाबले वाले चुनावी लड़ाई में महागठबंधन को हराने में सहायता कर दी। इस प्रकार ओवैसी की सहायता से भाजपा-जदयू को बिहार में सरकार बनाने में सफलता मिल गयी। इसने रोजी-रोटी के मुद्दों से भी ध्यान भटकाकर नुमाइंदगी के सवाल को प्रधान बना डाला। महागठबंधन इस नये परिणाम से इस बात से सकते में रहा कि लगभग कुछ  दशकों से अपना समझा जाने वाला इलाका दूसरे पाले में कैसे जा सकता है? भाजपा के नेटवर्क में काम कर रहे पप्पू यादव व उपेंद्र कुशवाहा वाले संगठन ने महागठबंधन के वोटों में सेंधमारी कर सीधे-सीधे एनडीए को फायदा पहुंचाया। जैसे जमुई सीट पर पप्पू यादव के संगठन के  अल्पसंख्यक उम्मीदवार ने हजार वोट काटकर भाजपा उम्मीदवार  श्रेयसी सिंह (निशानेबाजी  के लिए पदक प्राप्त)  के जीत का रास्ता प्रशस्त किया।

क्या कांग्रेस को अधिक सीटें देना घाटे का सौदा था?

कई लोग इसके लिए कांग्रेस पार्टी को अधिक सीटें देना जिम्मेवार बता रहे हैं। लेकिन यह भी ध्यान में रखना होगा कि पहले चरण की सीटें कांग्रेस ने निकाल लीं उसका चक्का अंतिम चरण में फंसा जब सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ओवैसी और योगी आदित्यनाथ-नरेंद्र मोदी की मौजूदगी से बढ़ता गया। कांग्रेस ओवैसी फैक्टर का मुकाबला करने के लिए कोई दूसरा उपाय न ढ़ूंढ सकी।  यहां तक कि कांग्रेस के स्टार प्रचार राहुल गांधी ने भी अपने उम्मीदवारों के लिए बहुत कम प्रचार किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जहां 13 रैलियां कीं वहीं राहुल गांधी ने मात्र 8 रैलियां।  प्रियंका गांधी कभी बिहार आईं ही नहीं। कांग्रेस की पूरी कमान हरियाणा के नेता सेंकेंड रैंक के नेता रणदीप सूरजेवाला के हाथों में रहीं। कांग्रेस अंतिम चरण में ओवैसी की काट के लिए कन्हैया कुमार का उपयोग कर सकती थी लेकिन कांग्रेस ने उस विकल्प को भी नहीं आजमाया। अंतिम चरण के चुनाव परिणाम महागठबंधन के चंद सीटों से पीछे रह जाने का मुख्य कारण बना।

वाम पार्टियां का बेहतर प्रदर्शन

लगभग ढाई दशकों के पश्चात बिहार विधानसभा चुनाव में वामपंथी दलों जिसमें सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई-एमएल की दमदार उपस्थिति रही। तीनों दलों ने मिलाकर 16 सीटें विधानसभा में जीतीं। सीपीआई को दो, सीपीएम को दो और सीपीआई-एमएल यानी भाकपा-माले-लिबरेशन को 12 सीटें प्राप्त हुईं। विधानसभा चुनाव परिणाम के दो दिनों बाद विधान परिषदों की 12 सीटों के लिए हुए चुनाव में भी सीपीआई ने भी दो सीटें जीतीं। इस प्रकार विधानसभा और विधानपरिषद मिलाकर लेफ्ट को कुल 18 सीटें प्राप्त हुईं।

कई नये चेहरे उभर कर आए। मांझी से एसएफआई के पूर्व राज्य अध्यक्ष व माकपा के युवा चेहरे सत्येंद यादव, जबकि विभूतिपुर जैसे जनसंघर्षों के इलाके से अजय कुमार विजयी हुए।  सीपीआई ने तेघड़ा सीट पचास हजार से भी अधिक मतों के अंतराल से जीती है। साइकिल पर घूमने वाले वरिष्ठ व सम्मानित कार्यकर्ता रामरतन सिंह की जीत हुई। पूरे बिहार में इस सीट पर सीपीआई का लगभग पांच दशकों तक निरंतर कब्जा रहा है। 1962 से 2010 तब सीपीआई यह सीट कभी नहीं हारी। ठीक उसी प्रकार सुरक्षित सीट बखरी से सूर्यकांत पासवान ने जीत हासिल की। भाकपा-माले लिबरेशन के पुराने विधायकों जिनमें सत्यदेव राम, सुदामा प्रसाद को छोड़ दे तो जेएनयू छात्रसंघ के महासचिव रहे संदीप सौरभ, युवा कार्यकर्ता अजीत कुशवाहा,  ‘सड़क पर स्कूल आंदोलन’ चलाने वाले मनोज मंजिल, पुराने कार्यकर्ता गोपाल रविदास आदि प्रमुख हैं जो पहली मर्तबा विधानसभा में पहुंचे हैं। सीमांचल के बलरामपुर से इस बार पुनः भाकपा-माले के महबूब आलम की बिहार में सर्वाधिक मतों से जीत ने वामपंथी कार्यकर्ताओं को उत्साहित किया है। ओवैसी जैसी ध्रुवीकरण पैदा करने वाले शख्स के बरक्स महबूब आलम नई उम्मीद की तरह नजर आते हैं। 

वामपंथी दलों ने अधिकांश सीटें अपने आधार वाले इलाकों में जीती हैं। जैसे तेघड़ा, बखरी, विभूतिपुर, तरारी, अंगियावं, जीरादेई, बलरामपुर, काराकाट, अरवल सरीखी सीटें राजद के सहयोग से जरूर जीती पर ये क्षेत्र इनके भूमि व मान-सम्मान के संघर्षों के इलाके थे। ये इलाके वाम दलों ने बड़ी संघर्षों व कुर्बानियों के पश्चात हासिल किए हैं।

चुनाव परिणाम के बाद वामदलों व राजद के मध्य जैसी एकता नजर आ रही है उसका असर आगे आने वाले दिनों में आंदोलनों पर भी पड़ेगा। आगामी विधानसभा में एनडीए गठबंधन का मुकाबला एक सशक्त व मजबूत विपक्ष से होने वाला है। 

(अनीश अंकुर, पटना स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं)

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