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अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के 2 साल : क्या है जम्मू और कश्मीर में मानवाधिकारों का हाल?

फोरम दुख के साथ कहता है कि पहली दो रिपोर्टों में जिन मानवाधिकार उल्लंघनों का जिक्र किया गया था, वे अब भी जारी हैं।
अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के 2 साल : क्या है जम्मू और कश्मीर में मानवाधिकारों का हाल?

"द फोरम फॉर ह्यूमन राइट्स इन जम्मू एंड कश्मीर" सजग नागरिकों का एक अनौपचारिक समूह है, जिसका विश्वास है कि कश्मीर में मौजूदा स्थितियों में एक स्वतंत्र कवायद की जरूरत है, ताकि मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों पर नज़र रखी जा सके।

फोरम द्वारा जारी की गई यह तीसरी रिपोर्ट है। यह रिपोर्ट ज़्यादातर सरकारी स्रोतों, मीडिया द्वारा दी गई जानकारियों (जो प्रतिष्ठित अख़बारों या टेलीविज़न के ज़रिए दी गई है), अलग-अलग NGO की तथ्य-खोज रिपोर्ट, साक्षात्कारों और कानूनी याचिकाओं द्वारा हासिल जानकारी पर आधारित है। पहली रिपोर्ट जुलाई, 2020 में प्रकाशित की गई थी। इसके बाद फरवरी, 2021 में दूसरी रिपोर्ट आई थी। तीसरी रिपोर्ट में नागरिक सुरक्षा, मीडिया की स्वतंत्रता, भाषण, सूचना, स्वास्थ्य, रोज़गार, ज़मीन, जनसांख्यकी और पहचान से जुड़े अधिकारों की विस्तार से जानकारी दी गई है। नीचे इस रिपोर्ट का जरूरी सारांश दिया गया है। आप पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ सकते हैं।

4 अगस्त, 2019 को केंद्र सरकार ने करीब़ 6000 कश्मीरी नेताओं, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, अंसतुष्ट लोगों और युवाओं को गिरफ़्तार किया था। फिर टेलीफोन और इंटरनेट संचार सेवाएं भी बंद कर दी गईं और पूरे राज्य में कर्फ्यू लगा दिया गया। करीब़ 40,000 सैनिकों की घाटी में तैनाती कर दी गई। अगले दिन भारत के राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को दिया गया विशेष राज्य का दर्जा छीन लिया और 9 अगस्त को भारतीय संसद ने जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम पारित कर दिया। इस तरह राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों- जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में विभाजित कर दिया गया।

सेना, पुलिस और संचार का मिश्रित लॉकडाउन अगले 6 महीने तक जारी रहा, जिसके बाद वहां फिर से कोरोना महामारी का लॉकडाउन लगा दिया गया। इस लॉकडाउन को सिर्फ़ बीच-बीच में ही कुछ समय के लिए खोला जाता रहा। इस बीच केंद्र सरकार ने कई बहुत विवादित कदम उठाए, जिनके तहत राज्य के निवास कानून और विशेषाधिकार अवैधानिक हो गए, भू-हस्तांतरण पर लगे प्रतिबंध ख़त्म कर दिए गए और बंदी प्रत्यक्षीकरण, ज़मानत व तेजी से सुनवाई के कानून अधिकारों से लोगों को वंचित किया गया।

2020 के आखिरी के 6 महीनों में कुछ सुधार देखने को मिला, लेकिन वह भी बहुत कम था। ज़्यादातर राजनीतिक नेता, बुद्धिजीवी, पत्रकार और युवाओं को छोटे-छोटे समूहों में छोड़ा गया, लेकिन तब भी 1000 लोग जेलों में रहे। न्यायालय बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिकाओं और अभिव्यक्ति एवम् स्वतंत्रता के अधिकारों से नज़र फेरते रहे, कर्फ्यू को भी लगातार बढ़ाया जाता रहा। इंटरनेट को आंशिक ढंग से खोला गया और जब भी भारतीय सेना काउंटर टेरेरिज़्म ऑपरेशन करती, उसे बंद कर दिया जाता। ऊपर से नई मीडिया नीति ने स्थानीय मीडिया का और भी ज़्यादा दमन किया। जम्मू-कश्मीर की अर्थव्यवस्था में भी तेजी से गिरावट आती रही, कई उद्योग दिवालिया हो गए। 2020 की गर्मी में चीन की सेना ने लद्दाख में घुसपैठ की, जिसके चलते शरद ऋतु में भारतीय सेना का क्षेत्र में जमघट लग गया। इससे पहले से ही भंगुर चल रही सुरक्षा स्थिति और भी बदतर हो गई।

फरवरी, 2021 में तब उम्मीद की एक छोटी किरण नज़र आई, जब भारत और पाकिस्तान के DGMO (डॉयरेक्टर जनरल ऑफ मिलिट्री ऑपरेशन्स) ने अंतरराष्ट्रीय सीमा पार संघर्ष विराम पर सहमति जता दी। संघर्ष विराम से सशस्त्र समूहों द्वारा घुसपैठ पर प्रतिबंध लगा और उम्मीद बनी कि शायद व्यापक स्तर पर आगे शांति प्रक्रिया पर काम हो, जिससे राजनीतिक अधिकार और मानवाधिकार दोबारा लोगों को उपलब्ध कराए जा सकें। हालांकि अब भी संघर्ष विराम जारी है, लेकिन अब यह बिखरता नज़र आ रहा है। हाल में जून के महीने में हुई ड्रोन की घुसपैठों से तो ऐसा ही लगता है।

जून में तब एक बार फिर उम्मीद जगी, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जम्मू और कश्मीर के राजनीतिक नेताओं को एक बैठक के लिए बुलाया। इस बैठक का खुला एजेंडा था, ऐसा लगा जैसे प्रधानमंत्री मोदी क्षेत्रीय प्रतिनिधियों से राजनीतिक प्रक्रिया दोबारा शुरू करने पर सलाह लेना चाह रहे थे। अब तीन साल हो चुके हैं, जब पिछली बार चुना हुआ प्रशासन राज्य में सत्तारूढ़ था। तीन साल पहले महबूबा मुफ्ती की सरकार गिर गई थी। धरातल पर लोगों का मानना है कि एक चुनी हुई सरकार, लेफ्टिनेंट गवर्नर के शासन की तुलना में, नागरिक और मानवाधिकारों को लेकर ज़्यादा संवेदनशील रहेगी।

लेकिन प्रधानमंत्री का प्रस्ताव उम्मीदों से बहुत कम साबित हुआ। उन्होंने कहा कि आगे भी पुनर्गठन अधिनियम जारी रहेगा और केंद्रशासित विधासनभा के लिए चुनाव करवाए जाएंगे। गृहमंत्री अमित शाह ने फरवरी, 2021 में संसद में कहा, राज्य का दर्जा "सही वक़्त" पर दिया जाएगा, जो अभी तक तय नहीं है।

इन पूर्व शर्तों ने स्थानीय दलों को एक अजीबो-गरीब स्थिति में फंसा दिया। क्योंकि ज़्यादातर बड़े दल अनुच्छेद 370 को हटाए जाने और पुनर्गठन अधिनियम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रहे हैं। अगर वह इन शर्तों में चुनावों में हिस्सा लेते हैं, तो कोर्ट में उनकी चुनौती कमज़ोर पड़ जाएगी। और अगर यह दल चुनाव में हिस्सा नहीं लेते हैं, तो ऐसी संभावना है कि भविष्य में मानवाधिकार उल्लंघन जारी रहेगा।

सैनिक लॉकडाउन और राज्य का दर्जा छिनने की दूसरी बरसी पर फोरम दुख के साथ यह बात दोहराता है कि पहले की दो रिपोर्टों में जिन उल्लंघनों का जिक्र किया गया था, वे लगातार जारी हैं। मनमुताबिक लोगों को हिरासत में लेने की कवायद जारी है, सार्वजनिक जनसभाओं पर अब भी प्रतिबंध है और 1000 से ज़्यादा लोग अब भी जेलों में हैं, जिनमें किशोर और चुने हुए जनप्रतिनिधि शामिल हैं। बल्कि जम्मू और कश्मीर प्रशासन ने सरकारी कर्मचारियों पर नई तरह से निगरानी रखनी शुरू कर दी है, अब उनकी सोशल मीडिया सामग्री की जांच पुलिस "देश विरोधी गतिविधियों" के लिए कर सकती है, जिससे संभावित तौर पर इन कर्मचारियों को नौकरी से निकाला जा सकता है। 18 सरकारी कर्मचारियों को पहले ही निकाला जा चुका है।

जम्मू-कश्मीर के उद्योग अब भी लॉकडाऊन और कोविड-19 की दोहरी मार झेल रहे हैं। 2021 की शुरुआत में पर्यटन उद्योग में सुधार के संकेत मिले थे, लेकिन कोरोना की दूसरी लहर ने फिर सबकुछ रोक दिया। जम्मू-कश्मीर में बेरोज़गारी कुछ हद तक कम हुई है, लेकिन यह अब भी 11.56 के गंभीर स्तर पर है। स्वास्थ्यकर्मियों को मीडिया से बात करने की मनाही है। अब स्थानीय और क्षेत्रीय मीडिया को वह थोड़ी स्वतंत्रता भी हासिल नहीं हो सकती, जो पहले उनके पास थी।

मानवाधिकारों, महिलाओं और बाल अधिकारों, भ्रष्टाचार विरोध और सूचना के अधिकार के लिए नागरिक जिन संस्थाओं के पास जा सकते थे, उन्हें पुनर्जीवित नहीं किया गया है। जबकि केंद्रशासित प्रदेशों के पास निगरानी के लिए स्वतंत्र विधिक संस्थाओं का अधिकार होता है, जैसा फोरम की शुरुआती रिपोर्टों में भी बताया गया है।

जैसा फोरम की पिछली रिपोर्टों में किया गया था, यह रिपोर्ट भी जम्मू और कश्मीर में 5 शीर्षकों के तहत मानवाधिकार उल्लंघनों का दस्तावेजीकरण करती है। यह पांच शीर्षक हैं- नागरिक सुरक्षा, स्वास्थ्य, बच्चे एवम् युवा, उद्योग और मीडिया।

1) सुरक्षा की स्थिति नहीं सुधरी है। इसके उलट यह बदतर ही हुई है। मरने वाले लोगों की संख्या 2012-16 की तुलना में बहुत ज़्यादा है। बल्कि "मारे गए आतंकी" जिनमें किशोर लड़ाके भी शामिल हैं, उनसे जुड़े आंकड़े भी गंभीर चिंता का सवाल हैं। किशोर लड़ाकों के बारे में न तो केंद्र और न ही जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने बताया है।

2) विप्लव विरोधी कार्रवाईयों और चिंताओं को सार्वजनिक, नागरिक और मानव सुरक्षा के ऊपर लगातार तरज़ीह दी जा रही है, जिससे पूरे राज्य में मानवाधिकारों और नागरिक अधिकारों का उल्लंघन बढ़ा है। इस बीच जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय ने ज़मानत और निष्पक्ष व तेजी से सुनवाई के अधिकार के प्रति नई प्रतिबद्धता दिखाई है। न्यायालय UAPA और PSA जैसे कानूनों के गलत इस्तेमाल के खिलाफ़ भी सक्रिय हुआ है। लेकिन इसके बावजूद जम्मू और कश्मीर प्रशासन ने ज़मानत का विरोध और असहमति की अजीबो-गरीब़ आधार (जैसे- एक राजनीतिक कार्यकर्ता की गिरफ़्तारी इसलिए हुई, क्योंकि उसने बाहरी लोगों के बजाए स्थानीय अधिकारियों की तैनाती को प्राथमिकता दी) पर मुख़ालफत जारी रखी है।

3) बल्कि अब STF (स्पेशल टास्क फोर्स) और साइबर वालेंटियर्स की भर्ती करवाकर एक नए तरीके की निगरानी शुरू की जा रही है। इन साइबर वालेंटियर्स का काम सोशल मीडिया पर आम नागरिकों समेत सरकारी अधिकारियों द्वारा प्रसारित की जाने वाली "देश विरोधी" सामग्री पर नज़र रखना होगा।

4) बच्चों, युवाओं और महिलाओं पर बहुत गंभीर असर पड़ा है। अगस्त, 2019 से जुलाई, 2021 के बीच लगातार लॉकडाउन के चलते स्कूल सिर्फ़ 250 दिन ही खुल पाए हैं। 2G लिमिट और इंटरनेट की कम गति के चलते फरवरी, 2021 तक ठीक ढंग से ऑनलाइन क्लास भी नहीं हो पा रही थीं। फरवरी में जाकर 4G को राज्य में अनुमति दी गई। फिर शहरों और आसपास के इलाकों में बड़े पैमाने पर सुरक्षाकर्मियों की तैनाती से भी लोगों पर दबाव बढ़ा है। खुदकुशी करने के मामलों में इज़ाफा हुआ है।

5) घरेलू हिंसा के मामलों में भी बहुत तेजी आई है। दहेज मांगने, बीवियों को जलाने की घटनाएं, जो पहले बमुश्किल ही सुनी जाती थीं, ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं। हालांकि जम्मू-कश्मीर पुलिस महिला के लिए हर पुलिस स्टेशन में विशेष हेल्प डेस्क बना चुकी है, लेकिन महिला आयोग की कमी साफ़ तौर पर झलकती है।

6) स्थानीय और क्षेत्रीय उद्योगों का घाटे में चलना जारी है, खासकर डिस्कॉम, शिकारा और पशुपालन उद्योग। नई भू-हस्तातंरण नीतियों ने मुआवज़े में बड़े पैमाने की अनियमित्ताओं को इज़ाजत दी है। अब गैरकानूनी ढंग से ज़मीन पर कब्ज़े की शिकायतें आ रही हैं। नए मूलनिवासी कानूनों ने भी पुराने भूमि स्वामित्व और रोज़गार सुरक्षा को स्थानीय नागरिकों से छीन लिया है। घूमंतू जनजातियों को वन अधिकारियों द्वारा लगातार बाहर भेजा जा रहा है।

7) स्थानीय मीडिया सबसे बुरे तरीके से प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में से एक रहा है। पत्रकारों का उत्पीड़न किया गया, उनके ऊपर हमले किए गए, UAPA लगाया गया। हाल में जारी किए गए सुरक्षा निर्देश पत्रकारों को काउंटर-इंसरजेंसी ऑपरेशन के पास मौजूद होने से प्रतिबंधित करते हैं, इससे संभावित मानवाधिकार उल्लंघनों पर नज़र नहीं रखी जा सकेगी। 2020 की मीडिया नीति को लागू करने के लिए उठाए जाने वाले कदम पुलिस को मीडिया संस्थानों को प्रताड़ित करने के लिए सक्षम बनाते हैं। DIPR (सूचना और जनसंपर्क निदेशालय) द्वारा सुरक्षा संस्थानों के साथ मिलकर लगाई गई सेंसरशिप अब संस्थागत हो चुकी है; साइबर वालेंटियर्स की भर्ती की नई नीति भी आगे सेंसरशिप और डराने-धमकाने की संभवानाओं को प्रबल करती है। स्वास्थ्यकर्मियों पर मीडिया से बातचीत करने पर लगाए गए प्रतिबंध से पहले ही वैक्सीन के बारे में अफवाहों को बल मिला था।

पुर्नगठन अधिनियम, 2019 के तहत नियुक्त किया गया पुनर्सीमन आयोग 7 नई विधानसभा सीटों को जोड़ने का काम 22 मार्च, 2022 तक पूरा कर पाएगा, मतलब चुनाव इसके बाद ही हो पाएंगे। इसे देखते हुए फोरम को चिंता है कि आगे भी कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन बेरोकटोक जारी रहेंगे, क्योंकि जम्मू और कश्मीर प्रशासन कम से कम एक साल या उससे ज़्यादा के लिए लेफ्टिनेंट-गवर्नर के अधीन रहेगा।

इसलिए फोरम की अपील है कि तीसरी रिपोर्ट में बताए गए सुझावों को तुरंत लागू किया जाए। उनमें से कई को पिछले दो सालों में दोहराया गया है, निश्चित तौर पर यह नागरिकों को उनके बुनियादी अधिकार वापस किए जाने का वक़्त है।

सुझाव

1) 4 अगस्त 2019 के बाद हिरासत में लिए गए जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को अब भी नहीं छोड़ा गया है, उन्हें रिहा किया जाए। ज़मानत और तेजी से सुनवाई के अधिकार का कड़ाई से पालन किया जाए। PSA और दूसरे निवारक हिरासत कानूनों को वापस लिया जाए या उन्हें संवैधानिक नैतिकता के साथ समानांतर खड़ा करने के लिए उनमें संशोधन किए जाएं। किशोर सुरक्षा अधिनियमों, जिनमें किशोर लड़ाके भी शामिल हैं, उनका कड़ाई से पालन किया जाए। अब तक जिन किशोरों को हिरासत में लिया गया है, उन्हें रिहा किया जाए और उनके खिलाफ़ लगाए गए आरोपों को वापस लिया जाए। राजनीतिक नेताओं, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ़ PSA या UAPA के तहत जो मनगढंत आरोप लगाए गए हैं, उन्हें भी वापस लिया जाए। साथ ही हिरासत के दौरान उत्पीड़न (जैसा PDP नेता वहीदा पारा के मामले में हुआ) की शिकायतों की सुनवाई निश्चित अवधि में की जाए।

2) जो पुलिस अधिकारी, सशस्त्र सेना या अर्द्धसैनिक बलों के सुरक्षाकर्मी मानवाधिकार उल्लंघन, खासकर पत्रकारों पर हमले के आरोपी हैं, उनके खिलाफ़ आपराधिक और नागरिक कार्रवाई शुरू की जए। जुलाई, 2020 में शोपियां में राजौरी के 3 युवाओं की हत्या, होकरसर मौत और सोपोर के इरफान अहमद डार की हिरासत में हुई मौत पर क्या कार्रवाई की गई और उनके मामले में सुनवाई कहां तक पहुंची, इस बारे में रिपोर्ट जारी की जाए।

3) यह तय किया जाए कि सेना के मानवाधिकार निदेशालय को मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों की जांच करने और सुरक्षाकर्मियों द्वारा CASO (कॉर्डन एंड सर्च ऑपरेशन) के दौरान मानवाधिकार निर्देशों के पालन की निगरानी के लिए पूरी स्वतंत्रता मिले, ताकि नागरिक मौतों या दूसरे तरह के नुकसान को रोका जा सके।

4) 144 को सिर्फ़ उन्हीं इलाकों तक सीमित किया जाए, जहां ख़तरा बिल्कुल साफ़ है। यह सुनिश्चित किया जाए कि संबंधित इलाके के जिलाधीश न्यायिक दिशा-निर्देशों का कड़ाई से पालन करें। कर्फ्यू के दौरान पत्रकारों और कूरियर कंपनीज़ के कर्मियों पर जो हमले होते थे, उन्हें रोका जाए। चेक प्वाइंट पर नागरिकों को परेशान करने वाले पुलिसकर्मियों और अर्द्धसैनिक बलों के सुरक्षाकर्मियों की जवाबदेही सुनिश्चित की जाए और उनके खिलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए।

5) CASO या भूमि सुधार कार्यवाही में जिन नागरिकों के घर बर्बाद हुए, उन्हें पर्याप्त मुआवज़ा दिया जाए। यह सुनिश्चित किया जाए कि वनाधिकार अधिनियम, 2006 के तहत घूमंतू जनजातियों को अधिकार मिले हैं, उन्हें वह उपलब्ध हों।

6) पुराने राज्य की सभी निगरानी संस्थाओं, खासकर मानवाधिकार पर नज़र रखने वाले संगठन, जैसे जम्मू-कश्मीर मानवाधिकार आयोग और जम्मू-कश्मीर महिला एवम् बाल अधिकार आयोग का पुनर्गठन किया जाए। अंतरिम तौर पर, राष्ट्रीय आयोगों, जैसै राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, को यह जिम्मेदारी दी जाए। इस तरह के संस्थानों को जम्मू और श्रीनगर शहर में अपनी शाखाएं स्थापित करनी चाहिए।

7) अगस्त, 2019 से मार्च, 2020 के बीच सरकारी लॉकडाउन के चलते जिन उद्यमों को नुकसान हुआ है, उन्हें मुआवज़ा दिया जाए। नौका-विहार उद्यम को तुरंत आर्थिक और प्रदूषण विरोधी मदद उपलब्ध कराई जाए।

8) नई मीडिया नीति, जिसमें मीडिया संस्थानों पर पुलिस छापे, वीडियो पत्रकारों द्वारा ड्रोन के उपयोग पर प्रतिबंध, काउंटर-इंसरजेंसी की जगहों पर रिपोर्टिंग पर प्रतिबंध जैसे प्रावधान शामिल हैं, उसे वापस लिया जाए। मनोनयन नीति का पुनर्परीक्षण किया जाए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि असहमति के लिए मीडिया संस्थानों को सजा ना दी जाए। कश्मीर वाला अख़बार के खिलाफ़ मामला वापस लिया जाए और यह तय किया जाए कि सरकार के विरोध में छपने वाली ख़बरों पर इसतरह के मामले कायम न किए जाएं।

9) ग्राम रक्षक समिति (VDC) के गठन और SOG (स्पेशल ऑपरेशन्स ग्रुप्स) व विशेष पुलिस अधिकारी वाली व्यवस्था को दोबारा बनाने के कदम पर विचार किया जाए। हर मामले में इन समूहों से कर्मचारी और जनता हिंसक गतिविधियों के लिए ज़्यादा संवेदनशील पाई गई है।

10) यह निश्चित किया जाए कि कश्मीरी पंडितों की वापसी में स्थानीय समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित हो। बिना स्थानीय मदद के वापस आने वाले लोग सुरक्षित नहीं रहेंगे और उनका संयोजन बहुत मुश्किल साबित होगा।

11) 25 कश्मीरियों की पेगासस द्वारा जासूसी के आरोपों और पेगासस के इस्तेमाल को लेकर जारी किए गए आदेशों की जांच की जाए, इसके लिए जरूरी कारणों को सार्वजनिक भी किया जाए।

ब्यूरो रिपोर्ट, द हिंदू, 13 फरवरी, 2021. यहां विसंगति देखिए: जब गृहमंत्री अमित शाह संसद को दोबारा भरोसा दे रहे थे कि जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा वापस दे दिया जाएगा, तब उनका मंत्रालय राज्य के उपकरण, जैसे प्रशासनिक सेवाओं को तोड़ रहा था। शर्म की बात है कि सांसदों द्वारा ध्वनिमत के ज़रिए ही यह विधेयक पास कर दिया गया।

साभार: इंडियन कल्चर फोरम

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Two Years Since Abrogation of Article 370: Human Rights in Jammu and Kashmir

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