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अयोध्या में कम्युनिस्ट... अरे, क्या कह रहे हैं भाईसाहब!

यह बात किसी सामान्य व्यक्ति को भी हैरान कर सकती है कि भारतीय दक्षिणपंथ के तूफ़ान का एपीसेंटर बन चुके अयोध्या में वामपंथी कहां से आ गए ? लेकिन यह सच है…
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अयोध्या में कम्युनिस्ट! यह सुनकर गोदी मीडिया का कोई भी पत्रकार या तो भड़क जाएगा और आपका मुंह नोच लेगा या फिर आपको अज्ञानी साबित करने लगेगा। वैसे यह बात किसी सामान्य व्यक्ति को भी हैरान कर सकती है कि भारतीय दक्षिणपंथ के तूफान का एपीसेंटर (नाभि) बन चुके अयोध्या में वामपंथी कहां से आ गए ? लेकिन यह सच है कि अयोध्या में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट और हंसिया बाली चुनाव चिह्न पर सूर्यकांत पांडेय चुनाव लड़ रहे हैं ताकि यहां की दूसरी परंपरा जिंदा रहे।

वे पिछली बार यानी 2017 में भी लड़े थे लेकिन महज 2,500 वोट पाकर अपनी जमानत गंवा बैठे थे। फिर वे हिंदुत्व की इस राजधानी में कौन सी क्रांति करना चाहते हैं? इस सवाल के उत्तर में वे बताते हैं कि ---

हम लड़ रहे हैं इसलिए कि प्यार जग में जी सके।

आदमी का खून कोई आदमी न पी सके।।

उनका कहना है कि उदार हिंदूवाद कट्टर हिंदूवाद से लड़ नहीं सकता। वह डरा हुआ है। इसलिए वह कभी जनेऊ पहन कर आता है तो कभी मंदिरों के चक्कर काटने लगता है। यह खतरनाक है। ऐसे माहौल में सांप्रदायिक नारे के बगैर कम्युनिस्ट पार्टी लोगों को आने वाले खतरे के प्रति आगाह करना चाहती है।

 `` हम चुनाव इसलिए लड़ रहे हैं ताकि अयोध्या की एकतरफा तस्वीर बदली जा सके। यह नगरी भारतीय धर्मों की प्रतीक स्थली रही है। यहां हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख और इस्लाम सभी धर्मों के स्थल रहे हैं। अयोध्या में पांच जैन तीर्थंकर पैदा हुए। यहां गुरुनानक देव आए। यह गुरद्वारा है। यहां नौगजी बाजार है। यहां इब्राहीम शाह की मजार है। लोग उसे मक्का खुर्द के रूप में मानते हैं।’’

अयोध्या के राममंदिर बाबरी मस्जिद विवाद के फैसले पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस बात से शुरू होता है कि ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता कि यहां मंदिर गिराकर मस्जिद बनाई गई। दूसरी बात यह कि जिन्होंने मस्सिद गिराई वे दोषी हैं। अगर फैसला रामजन्मभूमि के पक्ष में आता है तो वह रामलला विराजमान के नाते। सुप्रीम कोर्ट रामलला विराजमान के दोस्त के पक्ष में फैसला देता है। उसकी दलील है कि यहां 1949 से पूजा हो रही है इसलिए उसे हटाना गलत है। इसीलिए उसे भूमि देने का निर्णय हुआ है। इतने स्पष्ट फैसले के बावजूद एक पार्टी मुसलमानों को इस फैसले को लेकर निशाने पर क्यों रखती है?

वास्तव में आज के अयोध्या और तब के फैजाबाद जिले में कम्युनिस्ट आंदोलन का पुराना इतिहास है। उस इतिहास में कम्युनिस्ट इस इलाके में हमेशा विफल ही नहीं रहे हैं। इस जिले में बाबूजी के नाम से मशहूर मित्रसेन यादव कभी कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेता हुआ करते थे। वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर 1977, 1980 और 1985 में तीन बार विधायक चुने गए थे। एक बार मिल्कीपुर से और दो बार बीकापुर से। इसके अलावा वे 1991 में फैजाबाद जिले से लोकसभा के लिए भी भाकपा के टिकट पर चुने गए। उसके बाद वे वर्ग संघर्ष की राजनीति से डर गए और जाति की राजनीति करने वाले दलों में आते जाते रहे। जिसके कारण वे एक बार समाजवादी पार्टी और एक बार बहुजन समाज पार्टी से लोकसभा के लिए चुने गए।

लेकिन जनपद में कम्युनिस्ट पार्टी और क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास आजादी के पहले से शुरू होता है। 1967 में जिले की अमसिन सीट से राजबली यादव विधायक चुने गए थे। लेकिन उन्हें एक षडयंत्र के तहत सजा करा दी गई और वे जेल चले गए। उनकी सदस्यता रद्द हो गई। तब उनकी जगह पर पंडित शंभूनाथ सिंह विधायक हुए। वे भी कम्युनिस्ट थे। राजबली यादव जनपद के बहुत लोकप्रिय और जुझारू नेता थे। कामरेड राजबली यादव और वसुधा सिंह 1930 से ही सक्रिय थे देश की आजादी के लिए। उन लोगों ने जहांगीर गंज थाने पर यूनियन जैक हटाकर तिरंगा फहराया और दरोगा को ऊंट पर बिठाकर सरयू में फेंक दिया। वे जाड़ों के दिन थे। उसके बाद अंग्रेजों ने उनका जबरदस्त दमन किया। उनका घर गिरा दिया गया। उनकी मां ने एक बाग में पनाह ली। वहां बारिश के चलते वे भीगती रहीं और बीमार होकर मर गईं।

आजादी मिलने पर राजबली ने सामंतों के खिलाफ संघर्ष किया। उन्होंने अवधी का ड्रामा लिखा। उसका शीर्षक था---धरती हमारी हम धरती के लाल। उसके गीत थे---

गेहुआं कै रोटिया, अरहरिया कै दलिया, दूनौ जुनिया खैबै।

एक और गीत था—दियना घियवा कै जलाई दै आजादी आइब राम।

उनका अन्य गीत था—उठो मजदूरों किसानों कुछ करके दिखा दो। खून पसीना एक में मिलाय दो।।

उनके अवधी के नाटक इतने लोकप्रिय थे कि उसे देखने दस दस हजार लोग जुटते थे। उस भीड़ को व्यवस्थित करने के लिए पीएसी लगाई जाती थी। उन्होंने आजादी के बाद भी एक अत्याचारी दरोगा को पेड़ से बांध दिया था।

अयोध्या की सीट पर 1948 में समाजवाद के पितामह और अपने को आजीवन मार्क्सवादी कहने वाले आचार्य नरेंद्र देव भी उपचुनाव चुनाव लड़े थे। हालांकि कांग्रेस ने गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व में उस चुनाव को सांप्रदायिक बना दिया और बाबा राघव दास को खड़ा करके आचार्य नरेंद्र देव को हरा दिया। इस सीट पर जनमोर्चा जैसे देश के पहले सहकारी अखबार के संस्थापक हरगोविंद जी भी चुनाव लड़े और उनके उत्तराधिकारी शीतला सिंह भी। पंडित शंभू शरण सिंह के बेटे हरिनारायण सिंह भी चुनावी मैदान में उतरे। वे सभी कम्युनिस्ट रहे हैं।

सूर्यकांत पांडेय़ बताते हैं कि यहां कम्युनिस्ट आंदोलन के पतन की वजह भाजपा द्वारा अयोध्या को हिंदुत्व की प्रयोगशाला बनाया जाना तो है ही लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि जब 1993 में सपा और बसपा का गठबंधन हुआ तो दलितों ने कम्युनिस्टों का साथ छोड़ दिया। उसी के दो साल बाद मित्र सेन यादव भी समाजवादी पार्टी में चले गए।

अयोध्या विधानसभा सीट और जनपद की बाकी सीटों की राजनीति जाति और धर्म में बुरी तरह से विभाजित हो चुकी है। इस विभाजन के बीच सूर्यकांत पांडेय वर्गीय राजनीति की मरीचिका तलाश रहे हैं। वे अपने आंदोलन के गौरवशाली अतीत से उत्साहित होते हैं और वर्तमान से निराश हैं। इसीलिए लड़ रहे हैं। हार जीत तो होती रहती है लेकिन आजादी के अमृत महोत्सव के मौके पर क्रांतिकारियों और शहीदों के सपनों के भारत का स्मरण दिलाना ही वे अपना बड़ा योगदान मानते हैं। फैजाबाद (अयोध्या) की जेल में ही 1927 में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) के सह संस्थापक अशफाक उल्लाह खान को काकोरी ट्रेन डकैती के आरोप में फांसी की सजा हुई थी। उन्हीं की याद में सूर्यकांत पांडेय अशफाक उल्ला मेमोरियल संस्थान चलाते हैं। उन्होंने अवधी के मशहूर शायर रफीक सादानी की शायरी के संकलन का संपादन भी किया है। वे हर साल विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिभाशाली लोगों को माटी रतन पुरस्कार भी देते हैं। वे अपनी पूरी राजनीति और सामाजिक सक्रियता को क्रांतिकारियों के सपनों के संदर्भ में ही देखते हैं। इसीलिए वे कहते हैं कि 27 फरवरी को अयोध्या में मतदान के दिन ही चंद्रशेखर आजाद का शहादत दिवस है। इस बलिदान दिवस पर लोगों को वोट करना चाहिए शहीदों के सपनों को मंजिल तक पहुंचाने के लिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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