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स्पेशल रिपोर्ट: जिन्हें नाज़ है बनारस पर वो कहां हैं…?

बनारस ने खो दी हंसी-मस्ती की परिपाटी। कभी क्योटो, कभी गोवा, 'वे' बनारस को बनारस नहीं रहने देना चाहते। "ग़ौर करने की बात यह है कि बनारस में नई संस्कृति गढ़ने से किसे लाभ हो रहा है? बनारसियों को या फिर गुजरात के कुछ ठेकेदारों और पूंजीपतियों को।"
banaras report

शायर साहिर लुधियानवी ने कभी हिंदुस्तान के संदर्भ में कहा था- "जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं...?" यही सवाल आज बनारस वाले पूछ रहे हैं कि जिन्हें नाज़ है बनारस पर वो कहां हैं…?

"अपनी बेफिक्री और फक्कड़पन के लिए मशहूर अल्हड़ बनारस को बदला जा रहा है। उस बनारस को जो सात वार-नौ त्योहार मनाता रहा है। इस अड़भंगी शहर में नए-नए तरह के खेल-तमाशों में वो बनारसियत गुम होती जा रही है जो प्रेम और संवेदना की बारीक धुन सुनाया करती थी। बनारस का वह शिवत्व भी लुप्त होता जा रहा है जो इस शहर को हमेशा जागृत अवस्था में रखता था। यह शहर तो सिर्फ इसलिए भी जगत-प्रसिद्ध है कि यहां सभी धर्मों और कौमों की मां है गंगा, जिसकी हर बूंद में बसा है बनारस। जिस गंगा की गोद में समूचा बनारस सांस लेता है उसके विशाल रेत और घाटों पर अब गोवा और मरीन ड्राइव की तरह तमाशे शुरू हो गए हैं, जिसकी खदबदाहट हर खांटी बनारसी के दिलों हौल बनकर उठ रही है।"

यह तल्ख टिप्पणी बनारस के उस शख्स की है, जो कुछ बरस पहले तक काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत हुआ करते थे। महंत राजेंद्र तिवारी, जो अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए जाने-पहचाने जाते हैं। बनारस में भाड़े पर विदेशी गुब्बाराकारों को बुलाए जाने से उनके दिल में अफसोस और वेदना का ज्वार उठ रहा है। दरअसल, इसी 17 जनवरी को बनारस के गंगा घाटों के ऊपर दस गुब्बारों की एक श्रृंखला उड़ान भरने वाली है। दो बरस पहले भी इसी तरह के गुब्बारे काशी में उतारे गए थे। दावा किया जा रहा है कि इन गुब्बारों के जरिये सैलानी गंगा में डुबकी लगाते लोगों और घाटों पर होने वाले अनुष्ठान का नजारा देख सकेंगे। इसी बीच नौका दौड़ उत्सव का आगाज भी होगा।

तमिल संगगम और क्रूज इवेंट के बाद बनारस की सरकार अब बैलून और बोट रेस फेस्टिवल की तैयारियों में जुट गई है। प्रशासन ने दावा किया है कि बनारस में 17 से 20 जनवरी 2023 तक एक तरफ हॉट एयर बैलून का प्रदर्शन किया जाएगा तो दूसरी तरफ अनोखी नौका दौड़ महोत्सव का आगाज होगा। छह देशों के सबसे बेहतरीन गुब्वाराकार गंगा घाटों के ऊपर उड़ान भरेंगे। नौका दौड़ उत्सव की तैयारियां अंतिम दौर में हैं। इस दौड़ में शामिल होने वाली टीमों को नाविक सेना, नौका सवार, भागीरथी सेवक, घाट रक्षक, गंगा वाहिनी, जल योद्धा, गंगा लहरी, गंगा पुत्र, काशी लहरी, गौमुख दैत्य, काशी रक्षक, और जल सेना का नाम दिया गया है। ये टीमें हर रोज एक-दूसरे से मुकाबला करेंगी और कुल मिलाकर सबसे ज्यादा प्वाइंट हासिल करने वाली टीम को चैंपियनशिप का खिताब दिया जाएगा। अव्वल आने वाली टीम को पौने दो लाख रुपये का पुरस्कार दिया जाएगा।

नौका दौड़ दशाश्वमेध घाट से शुरू होकर राजघाट तक होगी। इस रेसिंग ट्रैक की कुल लंबाई तीन किमी है। प्रतियोगिता के लिए नौकाओं का रंग-रोगन किया जा रहा है। इसी दौरान राजघाट पर फोटो प्रदर्शनी और कला प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जाएंगी। लगातार चार दिनों तक वहां नाथूलाल सोलंकी, प्रेम जोशुआ, कबीर कैफे के अलावा प्राख्यात वायलिनवादक पंडित सुखदेव मिश्र अपना जादू बिखेरेंगे।

बोट महोत्सव में शामिल होने वाली नौकाएं।

बनारस पर चढ़ रहा नया सरूर

मंडलायुक्त कौशलराज शर्मा कहते हैं, "बनारस को देखने का हर व्यक्ति का नजरिया अलग-अलग है। यह शहर बदलाव के कई अनुभवों से गुजर चुका है, जिसे अब नए जमाने के पर्यटकों के सामने पेश करते हुए इसकी ब्रांडिंग करने की जरूरत है। शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का प्रतिनिधिमंडल इस उत्सव का दीदार करेगा। गंगा पार रेत में ट्रेंड बैलूनिस्ट जब एयर बलूंस को लेकर घाटों के ऊपर उड़ान भरेंगे तो एससीओ के मेहमानों को दुनिया के सबसे प्राचीन शहर को एरियल व्यू में देखने का यूनिक अनुभव होगा।"

इसके आगे बनारस के कलेक्टर एस. राजलिंगम जोड़ते हैं, "भारत की प्राचीन नगरी काशी को पहली मर्तबा एससीओ की सांस्कृतिक राजधानी का दर्जा दिया गया है। साल 2017 में भारत और पाकिस्तान इसके स्थायी सदस्य बने। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उज्बेकिस्तान के समरकंद में आयोजित शिखर सम्मेलन में भारत के ऐतिहासिक शहर के लिए सांस्कृतिक नेतृत्व की बागडोर संभाली थी। इस मुहिम को अब आगे बढ़ाया जा रहा है।"

निरॉन टेंट सिटी के जनरल मैनेजर अभिषेक भट्टाचार्य ने कहते हैं, "टेंट सिटी में बहुत कुछ है। टेंट सिटी कॉटेज, बैंक्वेट हॉल, रेस्टोरेंट, स्पोर्ट्स एरिया, शॉप्स, ओपन एरिया कैफे, गेस्ट रूम, लाइव म्यूजिक शो आदि सुविधाओं से लैस है। इसके पैकेज में काशी विश्वनाथ दर्शन, सारनाथ, गंगा घाट और बीएचयू विजिट भी शामिल है।"

बनारस में गंगा बेहाल है। यहां सिर्फ जले शवों के राख ही नहीं, तमाम अधजले शव भी गंगा में बहाए जाते हैं। बहुत से लोग अपने मविशियों को इस नदी में बहा देते हैं। 14 जनवरी को मकरसंक्रांति की पूर्व संध्या पर घाटों पर गंगा स्नान करने वालों का हुजूम उमड़ा था, वहीं एक मरी हुए सूअर की समूची बाड़ी गंगा में तैर रही थी। गंगा के तीरे बह रही सूअर की डेड बाड़ी को देख नदी में तैनात जल पुलिस, एनडीआरएफ और नगर निगम के नुमाइंदे आंखें मूंदते जा रहे थे।

गंगा घाट के ठीक सामने बालू की रेत पर गुटका और सिगरेट की बिक्री खुलेआम चल रही है। ऊंट और घोड़ों की राइडिंग कराने वाले अपने धंधे में मगन थे तो शहर के तमाम युवा मौज-मस्ती में डूबे नजर आए। चिलम फूंकते मदहोश युवाओं को रोकने-टोकने वाला कोई नहीं है। पुलिस के जो जवान तैनात किए गए थे, वो सिर्फ टेंट सिटी की हिफाजत में तल्लीन हैं। गंगा की रेत पर मौज-मस्ती करने अब सैलानी भी आने लगे हैं। पेट पालने की मजबूरी में मल्लाह सिर्फ कुछ रुपये लेकर लोगों को गंगा में सैर करा रहे हैं।

सैलानियों को नौका विहार करा रहे दुर्गा माझी कहते हैं, "पेट की आग ही ऐसी है हुजूर। हमें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि गंगा की रेत पर कौन क्या कर रहा है। हमें तो सिर्फ अपने भाड़े से मतलब है। इतना जरूर है कि जब से रेत पर टेंट सिटी बसाई गई है, सैलानियों का रेला उमड़ने लगा है। यहां धरम-करम करने वाले नहीं, गोवा की तरह मौजमस्ती करने वाले लोग ज्यादा आ रहे हैं। साढ़ू की मीत और रेत की भीत अच्छी नहीं मानी जाती। ये जो टेंट सिटी है, वहीं पहले रेत की नहर हुआ करती थी। समूची नहर को गंगा मैया लील गईं तो उन्हें चुनौती देने के लिए वहीं टेंट सिटी खड़ा कर दी गई। इस धंधे से थोड़ा मुनाफा मल्लाहों को जरूर होगा, लेकिन गंगा मां की पवित्रता से खिलवाड़ हमें बर्दाश्त नहीं है।"

यह साधना की नगरी है, साधन की नहीं

गंगा की रेत पर बसाई गई लग्जरियस टेंट सिटी और रोज हो रहे नए-नए खेल तमाशों से सिर्फ दुर्गा माझी ही नहीं, तमाम खांटी बनारसी खासे परेशान हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर के नियमित दर्शनार्थी वैभव कुमार त्रिपाठी कहते हैं, "बनारस साधना की नगरी है, साधन की नहीं। दुनिया का सबसे पुराना उस शहर बनारस को बदला जा रहा है जो मरना नहीं, जीना सिखाता रहा है। इस शहर का हर बाशिंदा गुरु है, जो अलग अंदाज में जीता है। तभी तो कहा गया है जिंदगी का असली मजा पाना है तो बनारस आइए, क्योंकि जो मजा बनारस में है, वो न पेरिस में है, न लंदन में है...।"

"बनारस की पहचान भले ही एक जिंदादिल शहर के रूप में लोगों के जेहन पर चस्पा है, लेकिन शुद्ध रूप से मुनाफा कमाने गुजरात से आए लोगों ने बनारसित को अब नाथना शुरू कर दिया है। जो बनारस कभी सोता नहीं था वो अब मुंह ढंककर कुंभकर्णी नींद में सोने लगा है। नींद कब टूटेगी, कोई नहीं जानता? घंटे-घड़ियाल और शंख-डमरुओं की ध्वनियों से गुलजार रहने वाली गंगा अब सिर झुकाए खामोशी के साथ बह रही है। शायद गंगा खुद भी हैरान है...! "

वैभव कहते हैं, "गंगा को निर्मल रखने के इरादे से रामनगर से राजघाट के बीच जो कछुआ सेंचुरी बनाई गई थी, शायद उसे खेल-तमाशा करने की नीयत से ठेलकर आगे कर दिया गया। बनारस में भारत का जो रूप आपको दिखेगा, वो देश के किसी और शहर में नहीं दिखता। शोर और अराजकता के बीच पर्यटकों को यहां जो चीज़ वाकई में सबसे ज्यादा अभिभूत करती है वो है यहां हर वक्त मौजूद रहने वाली भीड़। गंगा के घाटों पर चलते हुए आपको एहसास होगा कि घाट के एक ओर तो गंगा नदी है और दूसरी ओर नदी की ही तरह एक विशाल जनसमूह है। कुछ इसी तरह का नजारा अब गंगा की रेत पर भी दिखने लगा है।"

बनारस में गंगा घाट पर बैलून महोत्सव का कुछ ऐसा होगा नज़ारा।

काशी की संस्कृति से दग़ाबाज़ी

वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार कहते हैं, "बनारस के कलेवर को मनमाने तरीके से बदला जा रहा है। अभी तक दो भारत ही दिखते थे, एक अमीरों का और दूसरा गरीबों का। अब काशी भी दो-दो नजर आने लगी है। एक धर्म और आस्था की पौराणिक काशी तो दूसरी धनाड्य सैलानियों की काशी। दोनों के घालमेल में बनारस की खुद की रवायत और तहजीब गुम होती जा रही है। यह किसी भी प्राचीनतम जीवंत शहर के लिए खतरनाक है। विश्वनाथ कारिडोर के नाम पर पहले स्थापत्य कला और नगरीय बसावट की सबसे पुरानी धरोहरों को मिटाया गया, फिर पुरातन मंदिरों को तोड़ा गया और अब बनारस की संस्कृति पर हमला किया जा रहा है। बेशक पर्यटन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, लेकिन हमारी पौराणिक और धार्मिक आस्था से परे हटकर काम नहीं होना चाहिए। काशी में पौराणिक और धार्मिक आस्था का सबसे बड़ी केंद्र गंगा और उसके घाट हैं, जिनसे सदियों पुराना इतिहास जुड़ा है। उसके साथ तो किसी तरह की दगाबाजी नहीं की जानी चाहिए। गंगा को मुंबई के समंदर की चौपाटी अथवा गोवा का समुद्री तट बनाना इसके बड़ी हिमाकत कोई और नहीं हो सकती।"

बनारस की सरकार पर सवाल खड़ा करते हैं हुए प्रदीप कहते हैं, "जब बनारस से आसपास प्राकृतिक आकर्षण के न जाने कितने केंद्र हैं, जिसे विकसित करने में कोई दिलचस्पी नहीं ली जा रही है। हमारे नीतिकारों और योजनाकारों की हालत उस लंगड़ी बिलार की तरह हो गई है जो घर में ही शिकार हो रही है। सारा उठापटक काशी की धार्मिक विरासत को तहस-नहस करने में किया जा रहा है। दिक्कत यह है कि सही बात कहने पर उस सोच नकारात्मक करार देते हुए किसी खास राजनीतिक विचारधारा का नुमाइंदा बताया दिया जाता है। अफसोस यह है कि बनारस का जनमानस वो तमाशबीन बना है। कुछ अधकचरे योजनाकार, सरकार की नाक बने कुछ अफसर और मल्टीनेशनल कंपनियों के लोग बनारस के मालिक बन गए हैं। इस शहर के तमाम लोग शेखचिल्लियों के पीछे गुलामों की तरह ताली बजाते फिर रहे हैं। यह सब दुख, चिंता और खतरे का संकेत है। लोग अभी नहीं चेते तो दुनिया की सबसे प्राचीन जीवंत नगरीय सभ्यता और संस्कृति नष्ट हो जाएगी।"

"बनारस के मनोरंजन के अपने केंद्र हुआ करते थे। अखाड़ा था, नाटक मंडलियां थीं, गहरेबाज इक्केवान थे, जिनका मुकाबला होता था। बिरहा, कजरी के दंगल तक हुआ करते थे। कवि सम्मेलन, मुशायरों और संगीत संध्या की स्वर्णिम और सशक्त परंपरा थी, उसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं है। गंगा पार रेत पर बहुत से लोग बहरी अलंग पर जाया करते थे, जिसे बनारस के नए हुक्मरानों ने मिटा दिया है। रेत को गोवा में बदलने की कोशिश की जा रही है। गंगा के तट को मेरिन ड्राइव, जूहू चौपाटी बनाएंगे तो बनारसियत कहां जिंदा रह पाएगी? कारपोरेट गुंडों के आगे तो हर कोई लाचार हो गया है। बनारस अब बनारसियों का नहीं रह गया है। यहां के मालिक तो सरकार की नाक बने कुछ अफसर हो गए हैं तो कुछ कारपोरेट और गुजराती कंपनियों के लोग। ये लोग जो परिभाषित करेंगे वही काशी की परंपरा, पौराणिकता हो जाएगी। ये वो लोग है वो काशी का नया इतिहास गढ़ रहे हैं। जिसे मानना हो वो यहां रहे, जिसे न मानना हो वो आस्था की नगरी को छोड़कर चला जाए।"

नई पीढ़ी से उम्मीद मत पालिए

स्वच्छंद और उन्मुक्त जीने का आदी रहे बनारस की संस्कृति और सभ्यताओं को बदले जाने से वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य खासे नाराज हैं। वह कहते हैं, "जिस तेजी से बनारस की परंपराएं बदलती जा रही हैं और जीवन की पूरी शैली सिर के बल घूम रही है। विश्वनाथ मंदिर में दर्शनार्थियों का नित-नया रिकार्ड बनाने के फेर में अगर कुछ नहीं टूट रहा है तो वो है बनारसियों का धैर्य। हालांकि बनारस में भांग-बूटी, साफा-पानी, बहरी अलंग की दीवानगी और मौज-मस्ती से सराबोर एक पीढ़ी तो कब की खत्म हो चुकी है। वही पीढ़ी जो भांग-बूटी छानकर भी हमेशा होश में रहती थी...। झूम-झूमकर संगीत का आनंद लेती थी और बादशाही नशे में भी गहरेबाजी का जौहर दिखाया करती थी...। आखिर कहां गए वो अखाड़ा और फक्कड़ गहरेबाज? जादूगरी की तरह कमाल दिखाने वाले पतंगबाज? बुलबुल, तीतर-बटेर और कबूतरों को चारा चुगाकर खुद की मस्ती का बेहिसाब आलम खड़ा करने वाले बनारसी रईस? रफ्ता-रफ्ता बहती गंगा में डुबकी लगाने की फिक्र किसको है? "

बनारस को बदलने के लिए तेजी से गढ़ी जा रही नई रवायत की तल्खी पत्रकार मौर्य के चहरे पर भी साफ-साफ झलती है। वह कहते हैं, "लग्जरियस टेंट सिटी, गुब्बार कल्चर और बिजली के खंभों पर लगी फसाट लाइटों के जगमग पर दीवानी बनारस की दूसरी पीढ़ी से यह उम्मीद कतई नहीं पाली जा सकती कि वो बनारसियत को जिंदा रख पाएगी। इस पीढ़ी को तो यह पता ही नहीं होता कि बनारस की सुबह होती है या नहीं? अगर होती है तो कैसी होती है? जाहिर है कि सुबह रोज होती है, लेकिन गंगा में नहीं, नलों और शावरों में नहाकर होती है या फिर राशन की दुकानों पर कतार में खड़ा होने वाली होती है। खांटी बनारसियों का बहरी अलंग के मैदान में अब टेंट सिटी गुलजार है। अब सुबह-ए-बनारस नहीं, टेंट-ए-बनारस दिखता है। बनारस को सचमुच जिंदा रखना है तो अड़भंगीपन को जिंदा रखना होगा। चाहे वो घर के अंदर हो या फिर बाहर। चाहे गलियों में हो या सड़कों पर।"

बनारस की वरिष्ठ साहित्यकार डा. मुक्ता कहती हैं, "बनारस में जो प्रतियोगिताएं होने जा रही है उसमें जल पुलिस, पीएसी और एनडीआरफ की दखल ज्यादा है। जुलहा समाज, नाविक समाज, रिक्शावाले, चंदन-टीका लगाने वाले घाट पुरोहितों पर जबर्दस्त संकट है। बनारस को कायम रखने वाले इस तबके का वजूद मिटता जा रहा है। खेल-तमाशा दिखाने के लिए जब दूसरे देश के लोग भाड़े पर बुलाए जाएंगे तो उससे आम आदमी को क्या लाभ होगा? बनारस में गंगा पहले से ही पल्यूशन की मार से बेहाल है। नदी का पाट संकरा होता जा रहा है। गंगा को बचाने के बजाय उसके साथ छेड़छाड़ शुरू हो गया है। जब पक्का महाल ढहाया जा रहा था तब भी हम चुप रहे और अब भी हमारी जुबान पर ताले हैं। आखिर इसका अंत कहां है? एक तरफ युवाओं को रोजगार देने की बात कही जा रही हैं तो दूसरी ओर निचले तबके का रोजगार छीना जा रहा है। बनारसियत को मिटाने का दौर ऐसे ही चलता रहा तो बहुत सी चीजें दुर्लभ हो जाएंगी। कुछ बरस पहले मोदी ने फोकट में ई-रिक्शा बांटा तो रिक्शे वाले गुम हो गए। पल्यूशन फैलाने वाले गुब्बारेबाज बुलाए जाएंगे तो बनारस की संस्कृति कहां बचेगी? गौर करने की बात यह है कि चीजें जब आगे की ओर चल पड़ती हैं तो आसानी से नहीं नहीं रुकतीं।"

चापलूसी में मगन है मीडिया

डा. मुक्ता यह भी कहती हैं, "गंगा, घाट और गलियों के दम पर ही दुनिया में बनारस की अलग पहचान है। पश्चिमी देश अपनी विरासत के साछ छेड़छाड़ नहीं करते, लेकिन सुंदरीकरण के नाम पर बनारस में हमारी विरासत को ढहाया जा रहा है। खासतौर पर वो विरासत जिस पर बनारस नाज किया करता था। विकास के नाम पर सांस्कृतिक विरासत को विनाश करने वाला तूफान कहां तक जाएगा, समझ में नहीं आ रहा है। यहां तो कहीं कोई सुनने वाला ही नहीं है। मीडिया भी तो सरकार के गुणगान में मगन है और वह भाटगीरी में मगन है। ऐसे में बहरी अलंग और साफा-पानी की विरासत को समेटने की चिंता भला किसे है? कहा जा रहा है कि प्रयागराज की टेंट सिटी की तर्ज पर बनारस में टेंट सिटी बसाई गई है। वहां तो कल्पवास और दर्शन-पूजा होता है और बनारस की टेंट सिटी में क्या होता होगा, इसे हर कोई जानता है। बनारस शहर में कायदे का कोई इंतजाम नहीं है। अगर कुछ है तो सिर्फ भीड़-भड़क्का और धक्का-मुक्की। अब तो गोदौलिया, चौक, लंका जाने में भी घबराट होने लगी है। गौर करने की बात यह है कि बनारस में नई संस्कृति गढ़ने से किसे लाभ हो रहा है? बनारसियों को या फिर गुजरात के कुछ ठेकेदारों और पूंजीपतियों को।"

जाने-माने इतिहासकार प्रो. महेश प्रसाद अहिरवार कहते हैं, "गंगा के चबूतरे पर इत्मिनान से पीठ टिकाए आकाश के भूगोल को नापने और दूर क्षितिज की गहराई को समेटने वाले शहर में जितना मूर्त है, उससे कही अधिक अमूर्त है। बनारस सिर्फ एक शहर नहीं परंपरा है, एक जीवनशैली है। बनारस में काव्यरस की तरह जीवन है। भाषा में भी है और भाषा से बाहर भी है। रहस्य, रोमांच, साड़, सीढ़ी के साथ सन्यासी एक दूसरे का स्वागत करने के लिए हर समय तत्पर नजर आते हैं। बनारस की एक काया है और एक छाया है। वह हर काया में है जो असीम चेतना की दस्तक देती है। लगता है कि अब वह दिन भी दूर नहीं जब बनारस की हंसी और मस्ती का लोप हो जाएगा। बनारस भारत का धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र हैं, जिसकी खुद की अपनी परंपराएं हैं। यह शहर सदियों से सर्वधर्म संभाव का परचम लहराता रहा है। विकास के नाम पर शहर, बनारस की गंगा, उसके घाटों के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ अनुचित है। इसके अलावा टेंट सिटी, क्रूच संचालन और खेल-तमाशे के रूप में बैलून राइडिंग से पर्यावरण को भारी नुकसान होगा।"

कहां जाकर रुकेगा यह खिलवाड़

प्रो. अहिरवार कहते हैं, "बनारसी की जो मूलभूत पहचान है विकास के नाम पर उसके स्वरूप नष्ट करने की कोशिश की जा रही है। पहले बनारस की पहचान रखने वाली गलियों को तोड़ा गया और फिर पुरातन व ऐतिहासिक महत्व वाली मंदिरों व मूर्तियों को। फिर विश्वनाथ मंदिर परिसर को व्यावसायिक मनोरंजन स्थल बना दिया गया। वाराणसी के तट के रेत पर बसाई गई टेंट सिटी काशी की धार्मिक महत्व को चोट दे रही है। इस शहर के धार्मिक स्थलों का जिस तरह से व्यावसायिक करण किया जा रहा है, उससे मुनाफा तो कूटा जा सकता है, लेकिन धार्मिक और सांस्कृतिक तौर पर उसके दूरगामी एवं विनाशकारी नतीजे सामने आएंगे। गंगा घाटों के सामने पहले कछुआ सेंचुरी का वजूद मिटाया गया और इसी के साथ जीवनदायनी नदी गंगा के साथ खिलवाड़ शुरू कर दिया गया। यह खिलवाड़ कहां जाकर रूकेगा, कुछ कह पाना कठिन है।"

काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष केडीएन राय बीते दिनों को याद करते हुए कहते हैं, "कुछ दशक पहले तक खांटी बनारसी नाव पर भांग और सिल-लोढ़ा लेकर चलते थे। जिस जगह टेंट सिटी बसाई गई है वो पहले बनारसियों के दिव्य निपटान की जगह हुआ करती थी। तब भी बनारस की गंगा साफ थी। अब गंगा का पानी मटमैला हो गया है। गंगा में जो खेल-तमाशा चल रहा है उससे सिर्फ उन बनारसियों को सुख मिल रहा है जिन्हें मोबाइल से रील बनाने की धुन सवार है। बनारस पहले धार्मिक शहर था, जिस अब टूरिस्ट प्लेस बनाया जा रहा है। सारा धंधा, सारा ठेका गुजरातियों को दिया जा रहा है।"

"बनारस के लोग तो सिर्फ तमाशबीन है, जिनकी चिंताओं से न नौकरशाही को मतलब है, न ही नेताओं को। नौकरशाही इस कदर डंस रही है कि जिसकी लहर का दर्द खांटी बनारसी शायद ही भूल पाएगा। अगर भूल गया तो उन जख्मों को कैसा भूल पाएगा जो रइसाना अंदाज की तिलमिलाहट का इजहार किया करते थे। इवेंट मैनेजमेंट के जरिये इस शहर को कहीं जूहू-चौपाटी का शक्ल दिया जा रहा है तो कहीं मेरिन ड्राइव का। आस्था और अध्यात्म के शहर को इसे साधन की नगरी मत बनाइए, वरना इस शहर के लोग जब हिसाब मांगना शुरू करेंगे तो आपको अपने रोकड़ की गठरी छोड़कर भागनी पड़ेगी।"

गंगा को बचाने के लिए संघर्षरत डा. अवधेश दीक्षित कहते हैं, "समूची दुनिया काशी बनने की कोशिश कर रही है और हुजूर हमारी काशी की गंगा को गोवा बनाने तुले हुए हैं। समझ में नहीं आ रहा है कि वो बनारस में क्या-क्या बेचना चाहते हैं? हालांकि इस शहर में बहुत कुछ बिक गया है और अभी बहुत कुछ बिकना बाकी है।" इसके आगे अमित कुमार राय जोड़ते हैं, "इस शहर का हाल तो वैसा ही हो गया है, जैसे-"लगाकर आग शहर, बादशाह ने ये कहा/उठा है दिल में आज तमाशे का शौक बहुत/झुकाके सर शाहपरस्त सब बोल उठे/हुजूर का शौक सलामत रहे, शहर हैं और भी बहुत।"

(बनारस स्थित लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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