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यूपी चुनाव: क्या भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी कर सकते हैं सिटिंग विधायक?

'यदि भाजपा यूपी में कम अंतर से चुनाव हारती है तो उसमें एक प्रमुख कारण काम न करने वाले सिटिंग विधायकों का टिकट न काटना होगा।'
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सरधना में प्रचार के दौरान ट्रैक्टर पर जाते हुए भाजपा कार्यकर्ता फ़ोटो: गौरव गुलमोहर

उत्तर प्रदेश में पांचवें चरण का मतदान समाप्त हो चुका है और 3 मार्च को छठे चरण का मतदान होना है। अभी तक पांच चरणों के मतदान के बाद कयास लगाना कठिन है कि कौन पार्टी पूर्ण बहुमत का आंकड़ा छूने जा रही है। पिछले चुनाव में भाजपा अकेले दम पर 312 और एनडीए गठबंधन ने कुल 325 सीटों पर जीत दर्ज की थी। लेकिन क्या भाजपा 2017 जैसी ही जीत 2022 के विधानसभा चुनाव में दर्ज करने जा रही है या पूर्ण बहुमत से दूर विपक्ष में बैठने के लिए तैयार है?

पांचवे चरण के मतदान के बाद यह साफ तौर पर देखा जा रहा है कि भाजपा के लिए दोबारा सत्ता पर काबिज होना आसान नहीं है। तीन माह पहले तक राजनीतिक गलियारों में सन्नाटा छाया रहा और लोग कयास लगाते रहे कि उत्तर प्रदेश का इतिहास बदल सकता है और भाजपा दोबारा सरकार बना सकती है लेकिन चुनाव के दूसरे चरण तक यह भ्रम टूट गया और भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी से करीबी मुकाबले तक पहुंच गई।

चुनाव से पहले तक यह चर्चा भी आम थी कि भाजपा डेढ़ सौ से अधिक सिटिंग विधायकों का टिकट काट सकती है। राजनीतिक विश्लेषक यह मान रहे थे कि भाजपा यदि सौ से अधिक विधायकों का टिकट काटने में सफल होती है तो भाजपा के लिए जीत की राह आसान हो सकती है लेकिन भाजपा इतनी बड़ी संख्या में विधायकों का टिकट काट पाने में पूरी तरह असफल रही। पार्टी 15 फीसदी से भी कम सिटिंग विधायकों का टिकट काटने में कामयाब हुई। अंततः भाजपा को जनता की नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है।

एनडीए गठबंधन के कुल 325 विधायकों में अधिकांश विधायकों का पिछले पांच वर्षों में आम जनता के बीच जनसंपर्क नहीं रहा और न ही क्षेत्र में कोई विकास कार्य कराया, इस कारण से आम जनता में खासी नाराज़गी थी। कई विधायक जनता से यह कहते सुने गए कि वोट तो आप लोगों ने मोदी और योगी को दिया है फिर काम के लिए उनसे ही मिलिए। विधायकों का आम जनता के बीच न जाने का दूसरा कारण बताया जाता है कि उत्तर प्रदेश में सारी शक्ति पार्टी शीर्ष के चंद हाथों तक सीमित रही, विधायक, मंत्री और भाजपा जिलाध्यक्ष अपने कार्यकर्ताओं का काम कराने में असफल रहे।

उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव पूरी तरह स्थानीय मुद्दों जैसे आवारा पशु, बेरोजगारी, महंगाई और गरीबी पर हो रही है। इसलिए आम जनता दलों के प्रत्याशियों की छवि पर भी वोट करती नज़र आ रही है जबकि भाजपा के अधिकांश विधायकों से जनता में नाराज़गी व्याप्त है।

भाजपा सरकार में कई मंत्री दोबारा चुनाव मैदान में हैं लेकिन उनकी जीत की राह कठिन नज़र आ रही है। शामली जिले की थानाभवन सीट से विधायक और प्रदेश में गन्ना मंत्री सुरेश राणा, मंत्री पद पर रहने के बावजूद गन्ना किसानों का भुगतान समय पर कराने में पूरी तरह असफल रहे जिसके कारण पश्चिम के किसान राणा से खासा नाराज़ दिखे।

बागपत जिले के सरूरपुर गांव के प्रधान सुभाष जाट ने कहा था, 'इस बार जाट और मुस्लिम साथ आएंगे। टिकट किसी का भी हो, 90 फीसदी जाट लोकदल को देंगे। पिछली साल योगी आदित्यनाथ ने रमाला मील का उद्घाटन करते हुए कहा था 14वें दिन पेमेंट होगा और अगर नहीं हुआ पेमेंट तो ब्याज के साथ पेमेंट होगा लेकिन आज भी एक साल का पेमेंट रुका है।'

इसी तरह ललितपुर जिले की मेहरौनी सीट से विधायक और श्रम सेवा योजना मंत्री मन्नू लाल कोरी के खिलाफ आम जनता में नाराजगी देखने को मिली है। मन्नू लाल कोरी की गिनती ऐसे मंत्री में हैं जिन्होंने क्षेत्र में विकास कार्य नहीं किया और न ही मंत्री पद पर रहते हुए किसी ऐसे संस्थान का निर्माण कराया जहां ललितपुर की जनता को रोजगार के अवसर उपलब्ध हो सके। मेहरौनी निवासी सौरभ यादव मानते हैं, 'मेहरौनी सीट पर अभी बसपा और सपा की टक्कर थी यदि भाजपा टिकट बदलती और दूसरे किसी प्रत्याशी को टिकट देती तो स्थिति दूसरी हो सकती थी और भाजपा दोबारा यह सीट हासिल कर सकती थी।'

चित्रकूट के विधायक और लोक निर्माण मंत्री चंद्रिका प्रसाद उपाध्याय ने पूर्व में छब्बीस हजार से अधिक मतों से जीत दर्ज की थी लेकिन पांच साल के कार्यकाल के दौरान क्षेत्र में जनसंपर्क न करने और कोई विकास कार्य न होने के कारण आम जनता में खासी नाराजगी है। चंद्रिका प्रसाद के सामने इस बार सपा ने युवा प्रत्याशी अनिल प्रधान पटेल को उतारा। अनिल प्रधान मंत्री चंद्रिका प्रसाद को अच्छी टक्कर देते नज़र आए।

देवरिया की रुद्रपुर सीट से विधायक और पशुधन एवं मत्स्य मंत्री जयप्रकाश निषाद, मुज़फ्फरनगर की बुढ़ाना सीट से विधायक उमेश मलिक, सरधना विधायक संगीत सोम और सिद्धार्थनगर की डुमरियागंज विधायक राघवेंद्र प्रताप सिंह जैसे कई विधायक व मंत्री को अपनी सीट बचाने को लेकर बड़ी चुुनौती का सामना करना पड़ सकता है।

जबकि भाजपा ने जिन सीटों पर सिटिंग विधायकों का टिकट बदल कर नए प्रत्याशियों को टिकट दिया है उन सीटों पर भाजपा प्रत्याशी बेहतर प्रदर्शन करते नज़र आ रहे हैं। हाथरस, चकिया, नरैनी, मऊरानीपुर, मानिकपुर जैसी सीटों पर सिटिंग विधायकों का टिकट बदलने के बाद भाजपा बेहतर प्रदर्शन करती नज़र आ रही है।

बड़ी संख्या में सिटिंग विधायकों का टिकट बदलने की चर्चा के बावजूद भाजपा द्वारा टिकट न बदलने के पीछे भाजपा का डर बताया जा रहा है। मुगलसराय निवासी बंसराज पासवान कहते हैं, 'भाजपा 150 सीट पर वर्तमान विधायकों का टिकट काटने वाली थी लेकिन जब भगदड़ मची तो भाजपा डर गई और विधायकों का टिकट नहीं काटा गया। स्वामी प्रसाद मौर्य जब भाजपा से सपा में आए तभी से भाजपा को यह लगने लगा कि यदि वह विधायकों का टिकट काटती है तो विधायक बगावत कर दूसरी पार्टियों में जा सकते हैं।'

भाजपा के सामने दूसरी बड़ी समस्या दलबदलू प्रत्याशी रहे। अन्य दलों से आए अधिकांश पूर्व विधायक और मंत्री वर्तमान समय में भाजपा के टिकट पर जीतकर विधानसभा पहुंचे। यदि भाजपा उनका टिकट काटती तो वे पार्टी बदलकर अन्य दलों की तरफ रुख कर सकते थे और यदि ऐसा होता तो पार्टी का माहौल ख़राब होता। वहीं भाजपा के पास ऐसे बड़े चेहरे कम थे जिन्हें विधानसभा का चुनाव लड़ाया जा सकता।

भाजपा के चिह्न पर पिछली बार 384 प्रत्याशी मैदान में थें जबकि इस बार 376 प्रत्याशी हैं। वहीं एनडीए गठबंधन में शामिल निषाद पार्टी ने 16 और अपना दल (एस) ने 17 प्रत्याशियों का ऐलान किया है। कुल 33 सीटों में 15 सीटें ऐसी हैं जहां मौजूदा विधायक भाजपा के हैं।

उत्तर प्रदेश की राजनीति पर करीब से नज़र रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक राजन पांडेय मानते हैं कि यदि भाजपा यूपी में कम अंतर से चुनाव हारती है तो उसमें एक प्रमुख कारण काम न करने वाले सिटिंग विधायकों का टिकट न काटना होगा।

राजन पांडेय कहते हैं, 'चुनाव की शुरुआत में भाजपा के खिलाफ माहौल नहीं था और भाजपा का वोटर पार्टी या सरकार के विरोध में नहीं दिख रहा था। काम न करने वाले विधायकों के फिर से टिकट पा जाने से सिर्फ कट्टर समर्थक ही भाजपा की बात करने वाले बचे हैं। आम जनता का जो वोट भाजपा को मिल सकता था वो ऐसे विधायकों के टिकट पा जाने से बेहतर प्रत्याशियों की ओर जाता दिख रहा है।'

वे आगे कहते हैं, 'इससे विपक्ष को माहौल बनाने में मदद मिली और भाजपा को तीस से चालीस जीती जा सकने वाली सीटों का साफ तौर पर नुकसान होता दिख रहा है।'

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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